अफ़ग़ानिस्तान: तालिबान चरमपंथ की समस्या को कैसे हल करेगा ?

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DMT : अफ़ग़ानिस्तान : (26 फ़रवरी 2023) : –

साल 2023, नए साल का पहला दिन. सुबह आठ बजे राजधानी काबुल का सैनिक हवाई अड्डा एक ज़बरदस्त बम विस्फोट से दहल गया.

यह इलाक़ा कंक्रीट की दीवारों और कंटीली तारों से सुरक्षित है फिर भी यहां यह बड़ा हादसा हुआ. हादसे से जुड़े अधिकारिक आंकड़े जारी नहीं किए गए, हालांकि कयास लगाए गए कि इसमें कई लोग हताहत हुए हैं.

2021 में जब से तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर कब्ज़ा किया है तब से वहां ऐसे हमले बढ़ते जा रहे हैं. और आज के वक्त में तालिबान के सामने ये चुनौती खड़ी है चरमपंथी हमलों के ज़रिये सत्ता में लौटने वाला तालिबान अब ख़ुद इस तरह के चरमपंथी हमलों से कैसे निबटेगा.

बीबीसी पड़ताल में हमने यह जानने की कोशिश की कि क्या तालिबान अपनी ज़मीन पर चरमपंथ की समस्या का हल निकाल सकता है.

तालिबान की सत्ता में वापसी

तालिबान पहली बार 1996 में अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता में आया था.

वो तालिबान के पहले शासन के बारे में कहती हैं, “उस समय 1980 के दशक में हुए अफ़ग़ान-सोवियत युद्ध के बाद देश की सत्ता में खोखलापन आ गया था. सत्ता में आने के बाद उसने अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामी शरिया क़ानून को पुरातनपंथी, दमनकारी अर्थ में कड़ाई से लागू किया था. वो पांच साल तक सत्ता में रहा था. तब उसने महिलाओं पर कई प्रतिबंध लगाए, उन्हें शिक्षा पाने और दफ़्तरों में काम करने से भी रोक दिया था.”

इतना ही नहीं उसने देश में संगीत, सिनेमा और टेलीविज़न पर भी प्रतिबंध लगा दिया. तालिबान के सख़्त क़ानून और सज़ा की पूरी दुनिया में आलोचना हुई थी.

मदीहा फ़ैसल कहती हैं कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय में तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान अलग-थलग पड़ गये थे, लेकिन तीन देशों ने उसे मान्यता दी थी. ये थे पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात.

मगर अक्तूबर 2001 में अमेरिका में हुए 9/11 के चरमपंथी हमले के बाद अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया क्योंकि 9/11 के आतंकवादी हमलों को अंजाम देने वाला गुट अल-क़ायदा अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के संरक्षण में सक्रिय था.

चंद हफ़्तों में ही तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता से बाहर कर दिया गया. उसके बाद वहां अमेरिका समर्थित उदारवादी सरकार का गठन किया गया.

मदीहा फ़ैसल बताती हैं, “नए प्रशासन के तहत लड़कियां दोबारा स्कूल और यूनिवर्सिटी जाने लगीं, नौकरी करने लगीं. उन्हें कुछ हद तक आज़ादी मिली और अधिकार मिले. मगर तालिबान ख़त्म नहीं हुआ था. उसने अपने आप को दोबारा संगठित कर ज़ोरदार विद्रोह शुरू कर दिया. सत्ता दोबारा हथियाने के लिए अमेरिका, नेटो और अफ़ग़ानिस्तान की सेना पर हमले शुरू कर दिए.”

फ़रवरी 2020 में यानी युद्ध की शुरुआत के उन्नीस सालों बाद तालिबान ने सबको चौंकाते हुए अमेरिका के साथ क़तर के दोहा में मंच साझा किया और अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अधिकारियों के साथ एक विवादास्पद समझौते पर हस्ताक्षर किए.

इसे लेकर मदीहा फ़ैसल कहती हैं, “इस समझौते में सबसे बड़ी कमी ये थी कि इसमें तीसरा पक्ष यानी अफ़ग़ान सरकार शामिल नहीं थी. इसके तहत अमेरिका ने माना कि वो मई 2021 तक अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना हटा लेगा. पंद्रह महीने का यह वक्त बहुत कम था. बदले में तालिबान ने कोई ठोस वादे नहीं किए बल्कि ढुलमुल शब्दों मे कहा कि वो अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का आतंकवाद के लिए इस्तेमाल नहीं होने देगा.”

यानी तालिबान जो चाहता था उसे वो सब मिल गया. बाद में अप्रैल 2021में बाइडन प्रशासन ने ट्रंप प्रशासन के दौरान हुए समझौते को स्वीकार करते हुए कहा कि अगस्त 2021 तक अमेरिका की सेना अफ़ग़ानिस्तान से वापस बुलाया जाएगा.

इस घोषणा से तालिबान के हौसले और बुलंद हुए और केवल दस दिन के भीतर उसने पूरे देश पर धावा बोल दिया. 15 अगस्त 2021 को उसने राजधानी काबुल पर कब्ज़ा कर लिया.

और फिर सत्ता में आने के फ़ौरन बाद वो अपने कई वादों से मुकर गया, जिसमें लड़कियों के लिए शिक्षा जैसे वादे शामिल थे.

मदीहा फ़ैसल कहती हैं, “एक बात और सामने आई है कि काबुल में प्रशासन चलाने वाले नेताओं को राजधानी से कई किलोमीटर दूर कंधार में बैठे रुढ़िवादी कट्टरपंथी तालिबान नेताओं के आदेश पर काम करना पड़ रहा था, जिसकी वजह से उनके 1996 के शासन और वर्तमान शासन में कोई ख़ास फ़र्क नहीं है. और एक बार फिर तालिबान के शासन की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हो रही है.”

तालिबान के शासन को लेकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के रवैये के बारे में मदीहा फ़ैसल कहती हैं, ” यह ग़ौर करने लायक बात है कि किसी भी देश ने अभी तक अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान प्रशासन को मान्यता नहीं दी है. यहां तक कि तालिबान के पहले के शासन का समर्थन करने वाले पाकिस्तान ने भी उसकी सरकार को मान्यता नहीं दी है. इससे साफ़ है कि इस प्रशासन के प्रति किसी को ख़ास हमदर्दी नहीं है.”

तालिबान ने सत्ता में दोबारा लौटने के बाद पिछली सरकार के कई तरक्की पसंद फ़ैसले पलट दिए हैं.

मदीहा फ़ैसल कहती है, “लड़कियों के स्कूल और यूनिवर्सिटी में पढ़ने पर और दफ़्तरों में नौकरी करने पर रोक लगा दी गई है. कोड़े बरसाने या सार्वजानिक तरीके से मृत्युदंड देने जैसी क्रूर सज़ाएं दोबारा शुरू कर दी गई हैं.”

तालिबान के सत्ता में लौटते ही उन्हें देश छोड़ कर भागना पड़ा. रोया मुसावी कहती हैं, “मैंने कई सालों तक अफ़ग़ानिस्तान में काम किया है. देश छोड़ कर भागने से पहले में अफ़ग़ानिस्तान में अंतरराष्ट्रीय रेडक्रॉस कमिटी की प्रवक्ता थी. तालिबान के सत्ता में आने के हफ़्ते भर बाद मैं अफ़गानिस्तान से निकल गई. लेकिन वहां रहने के दौरान पूरे हफ्ते मैं सो नहीं पाई क्योंकि मुझे डर था कि वो मुझे मार डालेंगे.”

रोया बताती हैं, “मैं मीडिया में काम करती थी. मैंने उनके बर्ताव की और मानवाधिकार उल्लंघनों की काफ़ी आलोचना की थी. वो बहुत डरावना वक्त था. तालिबान शासन में काम करना असंभव था, इसलिए मेरे पास देश छोड़ने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं था.”

अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था दशकों से युद्ध के परिणाम भुगत रही है. वहीं कड़ाके की ठंड, सूखा और बड़ी संख्या में लोगों के विस्थापन की वजह से यहां मानवीय संकट और गहरा गया है.

रोया मुसावी कहती हैं, “यहां ग़रीबी और भुखमरी बढ़ गई है. बाल मजदूरी भी बढ़ रही है. लैंगिक समानता नदारद है. इन सबके चलते देश अफ़ग़ानिस्तान बड़े मानवीय संकट का सामना कर रहा है.”

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अगस्त 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था को पांच अरब डॉलर का नुक़सान हुआ है.

रोया मुसावी कहती हैं, “आम अफ़ग़ान लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी पूरी तरह बदल गई है. व्यक्तिगत आज़ादी पूरी तरह ख़त्म हो गई है और आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है क्योंकि सारी ताक़त तालिबान के पास है.”

संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि महिलाओं को काम करने से रोकने से अर्थव्यवस्था को सालाना एक अरब डॉलर का नुक़सान झेलना पड़ रहा है.

इस बारे में रोया मुसावी कहती हैं, “इसका दीर्घकालिक परिणाम यह होगा कि लोग देश छोड़ देंगे क्योंकि उनके पास दूसरा कोई विकल्प बचेगा ही नहीं. समाज के एक पूरे हिस्से को तालिबान ने बेकार कर दिया है. अब पंक्षी एक पंख से तो नहीं उड़ सकता.”

“तकलीफ़ तो सभी लोग झेल रहे हैं, लेकिन महिलाएं और बच्चों को अधिक मुसीबतें झेलनी पड़ रही हैं. ऐसा नहीं कि पहले अफ़ग़ानिस्तान उनके लिए जन्नत था लेकिन फिर भी सार्वजानिक क्षेत्र में महिलाओं की थोड़ी-बहुत भागीदारी थी. तालिबान के आने के बाद वह सब बदल गया है.”

दिसंबर 2022 में सभी स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय ग़ैर सरकारी संगठनों के महिलाओं को नौकरी पर रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. महिलाओं को सहायता देने का काम करने वाली कई संस्थाओं को अस्थायी तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में अपने काम पर रोक लगा देनी पड़ी.

रोया मुसावी कहती हैं कि इन फ़ैसलों के ख़िलाफ़ महिलाओं के नेतृत्व में कुछ जगहों पर विरोध प्रदर्शन हुए लेकिन उन्हें तालिबान ने जल्द कुचल दिया. प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया गया. ऐसे में लोगों के पास विकल्प कहां हैं?

रोया मुसावी कहती हैं, “लोग तालिबान के ख़िलाफ़ खड़े होना चाहते हैं लेकिन वे उससे लड़ नहीं सकते. वो एक आतंकवादी गुट है जो बरसों से लड़ता रहा है. वो अब तक हज़ारों लोगों की हत्या कर चुके हैं. आम लोग निहत्थे हैं और तालिबान के पास हथियार हैं. वो जो चाहें कर सकते हैं.”

इस्लामिक स्टेट खुरासान से ख़तरा

अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता पर तालिबान का नियंत्रण तो है, लेकिन उसके सामने समस्याएं भी बड़ी हैं.

उसे सबसे बड़ी चुनौती इस्लामिक स्टेट खुरासान यानी आईएसके से मिल रही है जिसने वहां कई हमलों को अंजाम दिए हैं.

मीर का कहते हैं, “आईएसके इराक़ और सीरिया के इस्लामिक स्टेट या ISIS का ही हिस्सा है. दुनिया में यह कई नामों से जाना जाता है जैस ISIS या ISIL. जून 2014 में इसने ईराक़ और सीरिया के बड़े हिस्सों में इस्लामिक स्टेट या इस्लामी ख़लीफ़ा शासन की घोषणा कर दी थी. ये तालिबान का बड़ा प्रतिद्वंद्वी है.”

हालांकि अफ़संदयार मीर कहते हैं कि इस संगठन का लक्ष्य इराक़ या सीरिया में ऐसा शासन स्थापित करने तक सीमित नहीं था.

आईएसके की महत्वाकांक्षा के बारे में वो कहते हैं, “यह गुट इस्लाम के शुद्धिकरण के लिए बड़े पैमाने पर हत्याओं की वकालत करता है. इसका मक़सद पाकिस्तान की सरकार गिराना भी रहा है. वहीं यह शिया बहुल ईरान को भी सज़ा देना चाहता है. यह अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के जिहादी अभियान को ख़त्म करके सत्ता अपने हाथ लेना चाहता है. यह शिया और हज़ारा अल्पसंख्यकों को भी निशाना बनाना चाहता है.”

इराक़ और सीरिया के कई हिस्सों पर कब्ज़ा करने के एक साल बाद, 2015 में अफ़ग़ानिस्तान में भी इस गुट की स्थापना हो गई.

अफ़संदयार मीर के मुताबिक़ ISIS खुद को इस्लामी ख़लीफ़ा शासन का केंद्र मानता है और पूरी दुनिया में मुसलमानों की राजनीतिक दिशा तय करना चाहता है. आईएसके और तालिबान एक-दूसरे के विरोधी हैं और इस्लामी विचारों को लेकर उनमें मूलभूत मतभेद हैं.

अफ़संदयार मीर कहते हैं, “आईएसके सलाफ़ी विचारधारा को मानता है और मूर्तिपूजा विरोधी सोच पर बल देता है. वो अपनी विचारधारा को तालिबान के मुक़ाबले ज़्यादा शुद्ध मानता है. दूसरी तरफ़ तालिबान सुन्नी हनफ़ी विचारधारा का अनुसरण करता है जो कि आईएसके के अनुसार नाकाफ़ी है और वो उसे सैन्य शक्ति से हटाना चाहता है.”

मीर बताते हैं, “अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ तालिबान के संबंधों की भी वो आलोचना करता है. ख़ास तौर पर उसके अमेरिका के साथ सबंधों की. जब-जब तालिबान ने अमेरिका के साथ बातचीत करने की कोशिश की है, आईएसके ने उसके ख़िलाफ़ आलोचना तेज़ कर तालिबान पर दबाव बढ़ाया और प्रचार किया कि तालिबान काफ़िरों के साथ समझौता कर रहा है.”

इस संगठन में कितने लोग हैं इसे लेकर सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है. यह संख्या सैक़ड़ों में भी हो सकती है और हज़ारों में भी.

अफ़संदयार मीर के अनुसार फ़िलहाल इस संगठन का अभियान पूरे अफ़ग़ानिस्तान में फैला हो ऐसा नहीं लगता बल्कि कुछ गिने-चुने हिस्सों, ख़ास तौर पर पूर्वी अफ़गानिस्तान और राजधानी काबुल में सक्रिय नज़र आता है.

आईएसके ने कई बड़े हमलों को अंजाम दिया है. अफ़संदयार मीर कहते हैं कि अब तक वो ‘हिट एंड रन’ यानी गुरिल्ला हमले की रणनीति अपनाते रहे हैं, जो तीन तरह के हैं.

इस रणनीति के बारे में अफ़संदयार मीर ने बताया, “आईएसके ने छोटे ‘हिट एंड रन’ हमले तो किए ही हैं बल्कि बड़े आत्मघाती हमले भी किए हैं. उन्होंने तालिबान को निशाना बनाया है. वहीं उसने अफ़ग़ानिस्तान से बाहर पाकिस्तान में भी कई हमले किए हैं जहां कई तालिबान नेता पिछले कुछ सालों से रह रहे हैं. इसके अलावा उसने अल्पसंख्यक समुदायों पर हमले किए हैं, जिसमें अस्पताल के मैटर्निटी वार्ड और लड़कियों के स्कूलों को निशाना बनाया गया है.”

मीर के मुताबिक़ इनका तीसरा निशाना अंतरराष्ट्रीय समुदाय रहा है. जब अमेरिकी सेना अफ़ग़ानिस्तान छोड़ रही थी तब आईएसके ने काबुल हवाईअड्डे पर हमला किया था जिसमें कई अमेरिकी सैनिक और अफ़गान नागरिक मारे गए थे.

आईएसके ने कूटनीतिक लिहाज़ से अहम जगहों को भी निशाना बनाया है.

सितंबर 2022 में रूसी दूतावास पर उसने एक आत्मघाती बम हमला किया. इसके कुछ महीने बाद पाकिस्तानी दूतावास पर गोलियां बरसाईं. उसने तालिबान की सुरक्षा एजेंसियों पर हमला कर यह संदेश दिया कि वहां तक भी उसकी पहुंच है.

काफ़ी समय तक तालिबान आईएसके की चुनौती को नज़रअंदाज़ करता रहा. लेकिन उसकी तरफ़ से बढ़ते ख़तरे के बावजूद तालिबान को उसके ख़िलाफ़ कोई ख़ास सफलता नहीं मिली है.

आईएसके नेता शाह अबुल मुहाजिर कई सालों से अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय हैं. लेकिन तालिबान अब तक उन्हें या किसी वरिष्ठ आईएसके कमांडर को निशाना नहीं बनाया है.

एक अंतरराष्ट्रीय दुविधा

डेनियल बायमन आतंकविरोधी सुरक्षातंत्र के विशेषज्ञ हैं और जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं. उनका मानना है कि तालिबान के सामने दो बड़ी चुनौतियां हैं- पहला, आईएसके जैसे आतंकवादी गुटों पर लगाम लगाना और दूसरा, आम लोगों तक वो सुविधाएं पहुंचाना जो उन्हें बीस सालों में मिल रही थीं.

वो कहते हैं, “अब लोग जानते हैं कि प्रशासन इससे बेहतर हो सकता है. तालिबान को लगता था कि देश में सुरक्षा कायम करना आसान होगा लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है.”

लेकिन एक समय था जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के भीतर ख़ुद एक विद्रोही गुट था. और इस कारण उसे विद्रोही गुटों के काम करने के तरीक़े पता हैं.

ऐसे में सवाल उठता है कि तो क्या तालिबान अपने अनुभव का इस्तेमाल कर आईएसके को ख़त्म कर सकता है?

डेनियल बायमन कहते हैं यह इतना आसान नहीं है. वो कहते हैं, “यह दोनों अलग किस्म के गुट हैं और इनका सपोर्ट बेस भी अलग-अलग क्षेत्रों से है. और फिर अफ़ग़ानिस्तान में बड़े आपसी मतभेद हैं. यहां ऐसे कई इलाक़े हैं जहां तालिबान लोकप्रिय नहीं है लेकिन उन इलाक़ों में आईएसके को समर्थन मिल रहा है.”

आईएसके एक बड़े आतंकवादी नेटवर्क का हिस्सा है. तो क्या उससे निबटने के लिए तालिबान को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मदद मिल सकती है?

इस डेनियल बायमन कहते हैं, “जिस बड़े आतंकवादी नेटवर्क की हम बात कर रहे हैं वो अब उतना ताकतवर नहीं रहा जितना 2015 में था. तब आईएसके बना ही थी. इसलिए उनसे पैसे या हथियार हासिल करने की आईएसके की क्षमता अब कमज़ोर हो गई है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय का लक्ष्य है कि उस बड़े नेटवर्क को कमज़ोर ही रखा जाए.”

तालिबान के सामने एक बड़ी मुश्किल ये भी है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसकी सरकार को मान्यता देने को तैयार नहीं है.

डेनियल बायमन कहते हैं, “आईएसके की मौजूदगी से अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने यह दुविधा ज़रूर है. सभी मानते हैं कि यह गुट अफ़ग़ानिस्तान में अंतरराष्ट्रीय ठिकानों को निशाना कर सकता है और दूसरे देशों पर भी हमले कर सकता है. वहीं वो यह भी समझते हैं कि कई संगठन तालिबान से भी बदतर हैं. लेकिन तालिबान का अंतरराष्ट्रीय समुदाय से संबंधों का कड़वा इतिहास भी इसमें एक बाधा है. कई देश आईएसके का विरोध करने के बावजूद तालिबान से क़रीबी संबंध नहीं बनाना चाहेंगे.”

अपने राष्ट्रवादी राजनीतिक एजेंडे की वजह से तालिबान भी दोबारा अंतरराष्ट्रीय सहायता पर निर्भर नहीं दिखना चाहता.

डेनियल बायमन कहते हैं, “जब तालिबान, अमेरिका और अफ़ग़ान सरकार से लड़ रहा था, तब वह अफ़ग़ान सरकार की इस बात पर आलोचना करता था कि वह सत्ता में रहने के लिए अमेरिका पर निर्भर है. अब अगर तालिबान भी वही निर्भरता दिखाएगा तो उसकी साख गिर जाएगी.”

मगर परदे के पीछे वो अमेरिका से आईएसके के बारे में ख़ुफ़िया जानकारी या दूसरी सहायता अप्रत्यक्ष रूप से ले सकता है.

इस पर और रोशनी डालते हुए डेनियल बायमन कहते हैं, “बाइडन प्रशासन यह कहते हुए ख़ुफ़िया सहायता तालिबान को दे सकता है क्योंकि आईएसके से अमेरिका की रक्षा के लिए ये ज़रूरी है. मगर यह सहायता सीधे नहीं, बल्कि किसी और देश के मार्फ़त, मिसाल के तौर पर पाकिस्तान के मार्फ़त भी दी जा सकती है.”

बायमन कहते हैं, “सेना हटाने के बावजूद अमेरिका का ख़ुफ़िया तंत्र अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद है. आईएसके को जल्दी ही हार का सामना करना पड़ सकता है और वो कमज़ोर पड़ सकता है. हालांकि इससे तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण बढ़ सकता है.”

लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या तालिबान अपनी ही ज़मीन पर पनप रही आतंकवाद की इस समस्या को हल कर सकता है?

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि कई सालों तक तालिबान का विद्रोह जितना ताक़तवर था, उसके मुक़ाबले आईएसके बहुत कमज़ोर है. ये संगठन संभवत: और भी कमज़ोर हो जाए.

लेकिन अफ़गानिस्तान की तालिबान सरकार के सामने बड़ी मानवीय चुनौतियां मुंह बाये खड़ी हैं. वहां बड़े पैमाने पर ग़रीबी है, लोग भुखमरी का सामना करने को बेबस हैं और मानवाधिकार के उल्लंघन की समस्या तो है ही जिसका चौतरफा आलोचना होती रही है.

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