DMT : देहरादून : (20 अप्रैल 2023) : –
उत्तराखंड के पौड़ी में आदमख़ोर बाघ के हमले में दो लोगों की मौत के बाद 24 गावों में कर्फ़्यू लगा दिया गया है.
रिखणीखाल और धुमाकोट में बाघ के हमलों में तीन दिन में दो लोगों की मौत हो गई है.
वन विभाग पिछले कई दिनों से बाघ को पकड़ने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली है.
दहशत में जी रहे स्थानीय लोग बाघ को मारे जाने की मांग कर रहे हैं.
पौड़ी के ज़िलाधिकारी का कहना है कि ये असाधारण स्थितियां हैं और इसलिए जब तक बाघों को पकड़ नहीं लिया जाता कर्फ़्यू जारी रहेगा.
घर के पास हमला और कर्फ़्यू का आदेश
पहला मामला रिखणीखाल के डल्ला गांव का है. 13 अप्रैल को यहां अपने घर के पास लकड़ी इकट्ठा कर रहे 72 साल के सेवानिवृत्त शिक्षक बीरेंद्र सिंह नेगी पर हमला कर बाघ ने उन्हें मार डाला था.
इसके बाद धुमाकोट के सिमली गांव में अपने घर के पास ही गेहूं काट रहे 75 वर्षीय रणवीर सिंह की भी एक बाघ ने हमला कर जान ले ली.
ये दोनों इलाके जिम कॉर्बेट पार्क के कालागढ़ टाइगर रिज़र्व से सटे हुए हैं. तीन दिन में दो लोगों के बाघों का शिकार बनने के बाद स्थानीय निवासी बाघों को नरभक्षी घोषित कर उन्हें मारने की मांग कर रहे थे.
इसके बाद पौड़ी के ज़िलाधिकारी आशीष चौहान तुरंत सक्रिय हो गए और उन्होंने रिखणीखाल और धुमाकोट के तहसीलदारों को इलाके में ही कैंप करने का आदेश दिया.
वन विभाग ने बाघों को पकड़ने के लिए पिंजरे लगाए और इसके साथ ही ज़िलाधिकारी ने 24 गांवों में रात सात बजे से सुबह छह बजे तक का कर्फ़्यू लगाने का आदेश जारी कर दिया.
आदेश में कहा गया कि दो लोगों के मारे जाने से लोगों में भय का माहौल है. बाघों के फिर हमला करने की प्रबल आशंका है. लोग अनावश्यक घर से बाहर न निकलें, इसलिए रात्रिकालीन कर्फ़्यू लगाया जा रहा है.
लेकिन स्थानीय लोग इस फ़ैसले पर सवाल उठा रहे हैं.
कर्फ़्यू से नाराज़ लोग
महिपाल सिंह रिखणीखाल की करतिया वन पंचायत के सरपंच हैं. कर्फ़्यू लगाने के आदेश पर वह अचरज जताते हुए कहते हैं, “अगर कोई दंगा-फ़साद हो गया हो तो कर्फ़्यू लगा दो. अब बाघ का आतंक हो गया है तो लोग खुद ही डरे-सहमे हुए हैं, घरों से निकल नहीं रहे हैं. लेकिन अब हम गांव वाले किससे बहस करें.”
“अब यह कहने की क्या ज़रूरत है कि अंधेरा होने का बाद बाहर मत निकलना. भई लोग बाघ का डर है तो लोग खुद ही घरों से नहीं निकल रहे हैं, दुबके हुए हैं घरों में.”
लेकिन पहाड़ के जीवन की मुश्किलें कम नहीं. महिपाल कहते हैं, “भौगोलिक परिस्थितियां ऐसी हैं कि जंगल से घिरे हुए हैं. पहाड़ी रास्तों पर मोड़ ही मोड़ हैं, पता नहीं कि किस मोड़ पर बाघ छुपा हो. ऐसे घर भी हैं गांव में जो दो घर हैं बस एक साथ. उन्हें घर के लिए छोटा-मोटा सामान लेने भी तीन किलोमीटर दूर जाना होता है.”
ज़िला प्रशासन का तर्क
पौड़ी के ज़िलाधिकारी आशीष चौहान कहते हैं कि असाधारण परिस्थितियों में असाधारण फ़ैसले लेने पड़ते हैं. वह कहते हैं कि डल्ला और सिमली के दौरे में उन्होंने महसूस किया कि ग्रामीणों में सिर पर मौजूद ख़तरे को लेकर जागरूक नहीं हैं.
उन्होंने कहा, “जिस गांव में बाघ है वहां बाहर लोग अपने कपड़े भी धो रहे हैं, गाय भी चरा रहे हैं. ऐसा लग रहा था कि उन्हें जंगली जानवरों के साथ रहने की आदत है, यहां तक कि आदमख़ोर की भी परवाह नहीं दिखी. इसलिए हमने कर्फ़्यू लगाने का फ़ैसला किया ताकि एक बंधन महसूस हो.”
चौहान ज़ोर देकर कहते हैं, “इसे किसी भी सूरत में सनसनी फैलाने से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. यह समझना चाहिए कि स्थिति गंभीर है. वहां दो वयस्क बाघ हैं (जो आदमख़ोर हो सकते हैं), घनी आबादी का क्षेत्र है और इसलिए जितनी आवाजाही कम रहेगी, उतना अच्छा रहेगा.”
वह यह भी कहते हैं कि जो भी क़दम उठाए गए हैं, उनकी वजह से तीन दिन में एक भी मौत नहीं हुई है.
भले ही बाघ की वजह से कर्फ़्यू पहली बार सुर्ख़ियों में है, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. आशीष चौहान बताते हैं कि पिथौरागढ़ में ज़िलाधिकारी रहते हुए वह ऐसा प्रयोग पहले भी कर चुके हैं.
वह बताते हैं कि तब पिथौरागढ़ में 6 गुलदार सक्रिय थे. वहां भी जीआईएस मैपिंग, फेंसिंग, लाइटिंग जैसे उपाय करने के साथ ही कर्फ़्यू भी लगाया गया था और यह इसलिए किया गया था क्योंकि समस्या जंगल की नहीं शहर की थी. गुलदार शहर में आ रहे थे और शहर इससे प्रभावित हो रहा था.
समस्या असाधारण थी तो इसलिए क़दम भी वैसा ही उठाना पड़ा था.
बेख़ौफ़ बाघ
डल्ला और सिमली में सक्रिय बाघ भी साधारण नहीं हैं. महिपाल कहते हैं कि बाघ इतने बेख़ौफ़ हैं कि लगता है कि उन्हें किसी की परवाह नहीं. वह बताते हैं कि जब उनके क्षेत्र (रिखणीखाल) में बीरेंद्र सिंह को मारने के बाद आराम से बैठकर बाघ उसे खा रहे थे. शोर मचाने का उन पर कोई असर नहीं हुआ. वह तो गांववालों ने हिम्मत दिखाई और कई लोग मशाल जलाकर उसकी तरफ़ बढ़े, उसके बाद वह गए.
डल्ला गांव के प्रधान खुशेंद्र सिंह भी उन लोगों में से थे जिन्होंने बाघ को बीरेंद्र नेगी के शव को खाते देखा था. वह कहते हैं कि उन्होंने ऐसा पहले कभी नहीं देखा. वहां दो बाघ थे एक बड़ा वाला (बाघिन) दूसरे को शव के पास नहीं आने दे रहा था.
खुशेंद्र बताते हैं, “गांव में मौजूद 4-5 महिलाओं और तीन-चार लड़कों ने मशालें जला रखी थीं, लेकिन फिर भी वह किसी को पास नहीं आने दे रहा था. बाद में मैं और मेरे पास बीस-पच्चीस लोग गांव में पहुंचे और जलती मशालें लेकर बढ़े तो बाघ ने इतनी भयंकर दहाड़ मारी कि एक बार तो कांप गए. लेकिन खड़े रहे. इसके बाद वह पीछे हटा.”
इसी दौरान लोग शव को लेकर घर में आ गए. लेकिन आधे-पौने घंटे बाद ही वह बाघ लौट आया और बीरेंद्र सिंह के घर के पास टहलने लगा.
गांव वाले शव को पोस्टमार्टम के लिए लेकर गए तो देखा कि रात को वह बीरेंद्र सिंह के घर की छत पर बैठा हुआ था.
खुशेंद्र सिंह कहते हैं कि ये अजीब टाइप के बाघ हैं.
वन विभाग पूरी तरह सतर्क
गढ़वाल के डीएफ़ओ स्वप्निल अनिरुद्ध रिखणीखाल और धुमाकोट में बाघ पकड़ने के अभियान को लीड कर रहे हैं. वह भी मानते हैं कि बाघों का यह बर्ताव सामान्य नहीं है.
स्थानीय ग्रामीण बाघों की संख्या कहीं तीन, कहीं पांच बता रहे हैं, लेकिन अनिरुद्ध कहते हैं कि दो बाघ हैं. एक मादा बाघ या बाघिन है और दूसरा नर बाघ है. नर बाघ की उम्र बाघिन से कम है.
बाघों को पकड़ने के लिए तीन पिंजरे लगाए गए हैं. इनमें से दो डल्ला गांव में लगाए गए हैं और एक सिमली गांव में. इसके अलावा दो ट्रैंक्यूलाइज़िंग टीमें भी तैनात हैं.
डल्ला गांव में वन विभाग के 20 लोग मौजूद हैं और सिमली में आठ लोगों की टीम मुस्तैद है.
अनिरुद्ध कहते हैं कि वह लोग दिन-रात सतर्क हैं और लगातार जुटे हुए हैं.
आदमख़ोर घोषित करने की मांग
ग्रामीण सरकार से बाघ को नरभक्षी घोषित कर उसे मार गिराने की मांग कर रहे हैं, लेकिन यह इतना आसान नहीं है.
जाने-माने शिकारी जॉय हुकिल ने बीबीसी हिंदी से बातचीत में कहा कि तेंदुआ होता तो उसे नरभक्षी घोषित कर मारने का आदेश देना आसान होता, लेकिन बाघ का मामला एकदम अलग होता है. यह बहुत संवेदनशील मामला होता है और जब तक बहुत ज़्यादा मामला न बढ़ जाए, तब तक बाघ को नरभक्षी घोषित नहीं किया जाता.
स्थानीय लोग भी यह बात जानते हैं.
महिपाल सिंह कहते हैं, “सरकार वैसे तो कह रही है कि पलायन रोको, पलायन रोको. लेकिन ख़ुद ही लोगों को पलायन करने पर मजबूर करने का काम कर रही है. बाघ चाहे दस आदमी को मार दे, लेकिन बाघ को नहीं मारना है. जब सारे आदमियों को मार देगा तब बाघ को देखने कौन आएगा? आदमी बाघ को मार दे तो हज़ारों कानून हैं, लेकिन बाघ आदमी को मार दे तो कहते हैं कि मुआवज़ा देंगे.”
स्थानीय विधायक महंत दिलीप सिंह रावत भी क्षेत्र का दौरा कर मांग कर चुके हैं कि बाघ को नरभक्षी घोषित कर उसे मारने के आदेश दिए जाएं लेकिन वन विभाग का कहना है कि जब तक साबित न हो जाए, तब तक कैसे कह दें कि नरभक्षी है.
महिपाल कहते हैं कि लगता है कि विभाग (वन) चाहता है कि जब सारे लोगों को मार दे, तब घोषित हो. बड़ी मुश्किल में गांव वाले, स्थिति यह है कि या तो बाघ को मार दो या ख़ुद मारे जाओ.
लेकिन वन विभाग बहुत सतर्कता के साथ बात कर रहा है.
बाघ को बीरेंद्र सिंह नेगी को शव खाते कई गांववालों ने देखा था. ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि एक ही बाघ आदमख़ोर है या दोनों हो सकते हैं?
इसके जवाब में अनिरुद्ध कहते हैं कि अभी किसी को आदमख़ोर घोषित नहीं किया गया है. सीसीएमबी (सेंट्र फ़ॉर सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी) हैदराबाद को सैंपल भेजे गए हैं. अगर दोनों मामलों में एक ही डीएनए मिल जाता है तो किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है. अभी किसी को आदमख़ोर घोषित नहीं किया गया है.
लेकिन गांव वालों ने जो देखा, क्या उससे इनकार किया जा सकता है?
अनिरुद्ध कहते हैं कि वह अभी कुछ नहीं कह सकते हैं. यह दुर्घटना भी हो सकती है और संयोग भी. अभी किसी बाघ को आदमख़ोर नहीं कहा जा सकता.
प्रोजेक्ट टाइगर और मानव-वन्यजीव संघर्ष
क्या यह संयोग हो सकता है कि जिस जिम कॉर्बेट पार्क से 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत की थी, संभवतः वहीं के टाइगर (यह क्षेत्र जिन कॉर्बेट पार्क की कालागढ़ रेंज से लगता हुआ है) इतने बेखौफ़ हैं कि उन्हें इंसान की मौजूदगी की परवाह ही नहीं लगती.
एक अप्रैल को प्रोजेक्ट टाइगर के 50 साल पूरे हो गए हैं.
यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि उत्तराखंड में बाघों की संख्या लगातार बढ़ रही है. 2022 की बाघों की गणना के अनुसार, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में बाघों की संख्या 2018 के 646 से बढ़कर 2022 में 804 हो गई है. एक अनुमान के अनुसार, राज्य में 250 से 30 बाघ हो सकते हैं.
एनटीसीए (नेशनल टाइगर कंज़रवेशन अथॉरिटी) का हिंदी में सूत्र वाक्य है, “चलो बाघ बचाएं, इससे पहले कि वह ख़त्म हो जाएं”.
उत्तराखंड के डल्ला और सिमली जैसे सैकड़ों गांवों में लोग गुहार लगा रहे हैं, “बाघ को बचाना तो ठीक है, लेकिन हमें भी बाघ से बचाएं.”
उत्तराखंड वन विभाग के पूर्व प्रमुख रहे श्रीकांत चंदोला के अनुसार, उत्तराखंड में संभवतः देश में सबसे ज़्यादा मानव-वन्य जीव संघर्ष की घटनाएं होती हैं.
पहाड़ों से बड़ी संख्या में लोगों के पलायन की एक बड़ी वजह यह भी है.