DMT : चीन : (08 अप्रैल 2023) : –
भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर से इसी साल 21 फ़रवरी को एक सवाल पूछा गया था कि चीन के मामले में भारत सख़्ती से पेश क्यों नहीं आता है?
इस सवाल के जवाब में जयशंकर ने समाचार एजेंसी एएनआई की स्मिता प्रकाश से कहा था, ”वह बड़ी अर्थव्यवस्था है. आपको क्या लगता है कि हम छोटी अर्थव्यवस्था के रूप में बड़ी अर्थव्यवस्था से जंग करने चले जाएं? सवाल सख़्ती से जवाब देने का नहीं है बल्कि कॉमन सेंस का है.”
एस. जयशंकर 2009 से 2013 तक चीन में भारत के राजदूत रहे हैं और वह चीन की ताक़त को बख़ूबी समझते होंगे.
एस. जयशंकर कहना चाह रहे हैं कि क़रीब 18 ट्रिलियन डॉलर की चीनी अर्थव्यवस्था से लगभग 3.5 ट्रिलियन डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए टकराना आसान नहीं है.
जयशंकर को यह भी पता है कि भारत अपनी रक्षा आपूर्ति के लिए रूस पर निर्भर है और जंग किसी दूसरे के भरोसे नहीं लड़ी जाती है.
वह भी तब जब रूस की क़रीबी चीन से यूक्रेन युद्ध के बाद और बढ़ी है. यूक्रेन युद्ध के कारण रूस की निर्भरता चीन पर लगतार बढ़ रही है और इसे भारत के लिए ख़तरनाक माना जा रहा है.
पिछले साल फ़रवरी में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन चीन में आयोजित विंटर ओलंपिक के उद्घाटन समारोह में शरीक होने गए थे.
चार फ़रवरी को राष्ट्रपति पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाक़ात के बाद एक संयुक्त बयान जारी किया गया था. इस बयान में कहा गया था कि दोनों मुल्कों के बीच साझेदारी सीमाओं से परे है और दोनों देशों के बीच कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहाँ सहयोग वर्जित है. इस बयान के ठीक 20 दिन बाद यानी 24 फ़रवरी को पुतिन के यूक्रेन पर हमले की घोषणा कर दी थी.
भारत के पूर्व विदेश सचिव और इंडिया नेशनल सिक्यॉरिटी एडवाइज़री बोर्ड के चेयरमैन रहे श्याम सरन का कहना है कि यूक्रेन पर हमले के बाद से चीन की रूस से साझेदारी और मज़बूत हुई है.
श्याम सरन इसके दो कारण मानते हैं. पहला यह कि चीन को इस बात का यक़ीन है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश उसे रोकना चाहते हैं.
हाल ही में संपन्न हुए नेशनल पीपल्स कांग्रेस में शी जिनपिंग ने कहा था, ”अमेरिका की अगुआई वाले पश्चिमी देशों ने चीन को दबाने के लिए हर तरह से चीज़ों को लागू किया. इससे चीन को तरक़्क़ी की राह में कई तरह की अप्रत्याशित चुनौतियों का सामना करना पड़ा.”
ऐसा पहली बार है जब चीन के शीर्ष नेतृत्व से इस तरह का आरोप लगाया गया. इसे संदर्भ में देखें तो रूस के साथ चीन की साझेदारी का संबंध अमेरिका और पश्चिम को रोकने से है.
शी जिनपिंग पिछले महीने 21 से 23 मार्च तक रूस में थे. इस दौरे में शी जिनपिंग ने रूस से दोस्ती को लेकर और स्पष्ट करते हुए कहा था, ”अधिनायकवाद, निरंकुशता और दादागिरी का सामना करने के लिए व्यापक साझेदारी और रणनीतिक संवाद की ज़रूरत है.”
रूस और चीन दोनों का मानना है कि वर्तमान समय में प्रभुत्व के बावजूद अमेरिका और पश्चिम का दबदबा ढलान पर है. दोनों देशों को लग रहा है कि शक्ति का संतुलन बदल रहा है और बदलाव उनकी तरफ़ झुक सकता है.
रूस दौरे में शी जिनपिंग ने पुतिन से कहा था, “जो बदलाव 100 सालों में नहीं हुआ, वह होने जा रहा है. हम इस बदलाव को साथ मिलकर आगे ले जा रहे हैं.” पुतिन ने इसके जवाब में कहा था, “मैं भी इससे सहमत हूँ.”
रूस को रोक सकता है चीन
श्याम सरन ने अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है, ”यूक्रेन संकट में चीन अब तटस्थ मुल्क नहीं है. वह अब स्पष्ट रूप से रूसी खेमे में है. अंतरराष्ट्रीय समीकरण में यह एक अहम शिफ़्टिंग है. चीन अब इस स्थिति में आ गया है कि वह भारत के साथ रूस के संबंध को सीमित कर सकता है. भारत और रूस के रक्षा संबंधों को भी चीन सीमित कर सकता है.”
”ऐसे में भारत को विदेश नीति और सुरक्षा समीकरण को लेकर सोचने की ज़रूरत है. चीन-रूस साझेदारी में रूस स्पष्ट तौर पर जूनियर पार्टनर बन गया है. रूस जूनियर पार्टनर कोई शौक से नहीं बल्कि मजबूरी में बना है. रूस से चीन आर्थिक और ऊर्जा साझेदारी में जमकर फ़ायदा उठा रहा है. चीन का रूस से प्राकृतिक गैस का आयात 50 फ़ीसदी बढ़ा है.”
श्याम सरन ने लिखा है, ”रूस और चीन के बीच नई गैस पाइपलाइन की योजना है. यह रूस के आर्कटिक गैस फ़ील्ड यमाल से मंगोलिया के ज़रिए चीन पहुँचेगी. यह दूसरी सबसे लंबी गैस पाइपलाइन होगी. इसे ‘पावर ऑफ साइेबेरिया 2’ कहा जा रहा है. चीन लंबे समय से ऊर्जा आपूर्ति को अलग-अलग स्रोत और रूट से करने की कोशिश कर रहा है. चीन चाहता है कि उसकी ऊर्जा आपूर्ति रणनीतिक रूप से असुरक्षित समुद्री मार्ग के बजाय ज़्यादा सुरक्षित ज़मीन के ज़रिए रूस और मध्य एशिया से हो. रूस के साथ चीन ऊर्जा साझेदारी के ज़रिए ऊर्जा सुरक्षा को और मज़बूत करना चाहता है. यह रणनीतिक साझेदारी के लिहाज़ से काफ़ी मायने रखता है.”
हालाँकि अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर गहरी नज़र रखने वाले ज़ोरावर सिंह दुलत ऐसा नहीं मानते हैं कि चीन के कहने से रूस भारत को छोड़ देगा.
ज़ोरावर सिंह ने श्याम सरन के लेख को रीट्वीट करते हुए लिखा है, “सैन्य महाशक्ति रूस है न कि चीन. अहम प्राकृतिक संसाधनों और सामरिक उत्पादों पर रूस का नियंत्रण है न कि चीन का. फिर भी हम कैसे कह रहे हैं कि चीन के सामने रूस घुटने टेक देगा? रूस ने हमेशा से संतुलित और बहुध्रुवीय यूरेशिया चाहा है. रूस एकध्रुवीय दुनिया के बाद की रणनीति के लिए चीन से साझेदारी बढ़ा सकता है. लेकिन इसके साथ ही भारत से भी संबंध मज़बूत करेगा. ऐसा नहीं है कि केवल अमेरिका इस तरह की समझदारी भरी नीतियों को अपना सकता है.”
चीन और रूस के बीच पिछले साल द्विपक्षीय व्यापार 29.3 फ़ीसदी बढ़कर 190.3 अरब डॉलर तक पहुँच गया था. 2021 में दोनों देशों के बीच व्यापार 147 अरब डॉलर का था. पिछले साल चीन का रूस से आयात 43.4 प्रतिशत बढ़ा था और निर्यात 12.8 फ़ीसदी बढ़ा था. व्यापार में यह बढ़ोतरी रूस से चीन के ऊर्जा आयात में आई भारी वृद्धि के कारण है.
चीन और रूस के द्विपक्षीय व्यापार की तुलना भारत और रूस से करें तो कहीं नहीं टिकता है. इस अवधि भारत और रूस का द्विपक्षीय व्यापार भारी वृद्धि के बावजूद 39 अरब डॉलर का ही रहा.
हालांकि तब भी रूस इतिहास में पहली बार भारत के पाँच सबसे बड़े कारोबारी साझेदारों में से एक हो गया. यूक्रेन संकट के दौरान भारत और रूस के द्विपक्षीय व्यापार में भी बढ़ोतरी हुई है लेकिन चीन और रूस की तुलना में बहुत कम है.
भारत के लिए मुश्किल
अमेरिका के डेलावेयर यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं कि पिछले एक साल से रूस को यूक्रेन संकट में अगर किसी ने आर्थिक बदहाली से बचाकर रखा है तो वो चीन और भारत हैं.
मुक़्तदर ख़ान ने बीबीसी से कहा, ”यूक्रेन पर हमले के बाद अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने रूस पर जिस तरह के कड़े प्रतिबंध लगाए थे, उससे पार पाना आसान नहीं था. लेकिन चीन और भारत ने रूस से ऊर्जा आयात ख़ूब बढ़ाया और इससे रूस को बहुत राहत मिली. लेकिन रूस की लड़ाई यूक्रेन से इस साल भी जारी रहती है तो रूस आर्थिक रूप से बहुत कमज़ोर होगा.”
”उसे अब हथियारों की ज़रूरत है. भारत हथियार देगा नहीं. भारत ख़ुद ही हथियारों के लिए रूस पर निर्भर है. रूस को पता है कि भारत उसके तेल से पैसा बना रहा है. जिस तरीक़े से 1971 में रूस बांग्लादेश को अलग करने में भारत के साथ खुलकर आया था, वैसे भारत यूक्रेन संकट में रूस के साथ नहीं आ रहा है. ऐसे में रूस के चीन की गोद में जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.”
मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, ”अगर चीन की गोद में रूस गया तो भारत के लिए बहुत मुश्किल स्थिति होगी. लेकिन भारत रूस को चीन की गोद में जाने से रोक भी नहीं सकता है. चीन भारत के ख़िलाफ़ जिस तरह से आक्रामक है, उससे यही आशंका घर कर रही है कि रूस को भारत के मामले में वह मजबूर कर सकता है. रूस से भारत आने वाली रक्षा आपूर्ति को भी रुकवा सकता है. ऐसे में भारत के पास दो विकल्प बचेंगे. या तो चीनी दबदबे के मातहत आ जाए या फिर भारत अमेरिकी गोद में जाकर बैठ जाए. भारत के लिए दोनों ही विकल्प स्वतंत्र विदेश नीति के लिहाज़ से ठीक नहीं है.”
मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, ”रूस अब भी भारत का सबसे बड़ा रक्षा आपूर्तिकर्ता देश है. कमज़ोर रूस भारत को हथियारों की आपूर्ति नहीं कर सकता है. अगर वह करना भी चाहे तो चीन उसे रोक सकता है. रूस का चीन की गोद में जाना भारत के लिए बड़ा झटका होगा. वर्ल्ड ऑर्डर बदल रहा है. पश्चिम एशिया में चीन जो कुछ भी कर रहा है, उसमें भारत कहीं नहीं है.”
”भारत के साथ रूस केवल अतीत की यादों के भरोसे नहीं रह सकता है. 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया तब सोवियत यूनियन था और उसने तटस्थ रुख़ अपनाया था. तब चीन और यूएसएसआर की वैसी क़रीबी भी नहीं थी. अब यूएसएसआर रूस बन चुका है और चीन से उसकी साझेदारी सीमाओं से परे हो गई है. ऐसे में हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि रूस भारत और चीन की जंग में किसके साथ होगा.”
क्या भारत वाक़ई फँस चुका है?
रूस में भारत के राजदूत रहे डी बाला वेंकटेश वर्मा अभी विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन (वीआईएफ़) के फेलो हैं. वेंकटेश वर्मा ने वीआईएफ़ की वेबसाइट पर एक लेख लिखा है. इसमें उन्होंने बताया है कि रूस और चीन की क़रीब को लोग अतिश्योक्ति में देख रहे हैं.
वर्मा ने लिखा है, ”2022 में रूस और चीन का व्यापार क़रीब 30 फ़ीसदी बढ़ा और 190 अरब डॉलर तक पहुँच गया. इसमें रूस का ट्रेड सरप्लस 38 अरब डॉलर है. यानी रूस ने चीन से ख़रीदा कम है और बेचा ज़्यादा है. रूस और चीन का द्विपक्षीय व्यापार भारत और चीन के ट्रेड बास्केट से बिल्कुल अलग है. पिछले साल भारत और चीन के बीच 140 अरब डॉलर का व्यापार हुआ और यह चीन के पक्ष में 100 अरब डॉलर का था. यानी चीन ने भारत में 100 अरब डॉलर का माल ज़्यादा बेचा है. 2022 में अमेरिका और ईयू के साथ चीन का व्यापार 1.4 ट्रिलियन डॉलर से ज़्यादा का था. यह बहुत आसान है कि चीन और रूस के व्यापार को राजनीतिक महत्व के लिए बढ़ा-चढ़ाकर बताएं लेकिन इसे संदर्भ में देखेंगे तो तस्वीर बिल्कुल अलग है.”
डी बाला वेंकटेश वर्मा ने लिखा है, ”रूस और चीन के बीच रणनीतिक साझेदारी को बढ़ा-चढ़ाकर देखने के कई जोखिम हैं. जो बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं, वे हमेशा इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह बिल्कुल माकूल वक़्त है कि भारत अमेरिका से सामरिक संबंध गहरा करे. इसके बाद अगर-मगर वाला तर्क शुरू होता है. लोग सवाल पूछते हैं कि अगर भविष्य में चीन के साथ टकराव में रूस ने भारत की रक्षा आपूर्ति बंद कर दी तो क्या होगा?”
”ऐसे सवालों में भारत की रक्षा ज़रूरतें पूरी करने की रूसी क्षमता और चीन के दबाव में रूस की ओर से पुरानी नीति से पल्ला झाड़ने की बात भी शामिल की जाती है. ऐसे लोग रूस को छोड़ अमेरिका से संबंध गहरा करने की वकालत करने लगते हैं. इस तरह की वकालत करने वालों के मन में रूस के प्रति पूर्वाग्रह और अमेरिका के प्रति झुकाव साफ़ झलकता है. बहुध्रुवीय अवसर वाले दौर में इस तरह की बात करना भारत को पुराने एकध्रुवीय और आत्मघाती विकल्पों में धकेलने जैसा है. ऐसे मूल्यांकनों से भारत का भला नहीं होना है.”
डी बाला वेंकटेश वर्मा ने लिखा है, ”चीन के लिए यूक्रेन संकट एक सुनहरा मौक़ा है. यूक्रेन युद्ध से रूस कमज़ोर होगा और अमेरिका यूरोप की सुरक्षा चिंताओं में लंबे समय तक फँसेगा. शी जिनपिंग को पता है कि वह वैश्विक मंच पर अपना साझेदार चुन सकते हैं. शी जिनपिंग का मॉस्को दौरा रूसी हितों की रक्षा के लिए नहीं था बल्कि वैश्विक मंच पर पश्चिम से रूस के अलग-थलग होने की आड़ में चीनी हितों के रक्षा के लिए था. अभी की वैश्विक परिस्थिति में चीन अपर हैंड है. लेकिन रूस भी इस बात को अच्छी तरह से समझता है.”
वेंकटेश वर्मा मानते हैं कि चीन भारत के लिए चुनौती के रूप में कोई आज खड़ा नहीं हुआ है बल्कि कई दशकों से है. वर्मा कहते हैं, ”भारत को रणनीतिक आत्मविश्वास की ज़रूरत है न कि निराशा की. चीन को बाक़ी बड़ी शक्तियों की तरह सुरक्षा ख़तरे के प्रिज्म में देखना एक ग़लती होगी. चीन एक ख़तरा है लेकिन बाक़ी देशों से अलग है. यह बहुत अहम है कि हमें अपनी चीन नीति के अमेरिकीकरण से बचना होगा, भले इसमें हमारा हित हो.”
कहा जा रहा है कि दुनिया दूसरे शीत युद्ध की तरफ़ बढ़ रही है. इस बार सामने चीन है. अमेरिका और पश्चिम के हित ही नहीं बल्कि मूल्य भी टकरा रहे हैं. अमेरिका कह रहा है कि चीन नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था को चुनौती दे रहा है. चीन कह रहा है कि वो अपने लोकतंत्र को दुनिया के बाक़ी हिस्सों में थोपना बंद करे. भारत को इस तनातनी में अपनी जगह हासिल करना आसान नहीं है.