जापान और दक्षिण कोरिया के इस फ़ैसले से अमेरिका ख़ुश क्यों

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DMT : जापान  : (10 मार्च 2023) : –

दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यून सुक-योल 16 और 17 मार्च को जापान दौरे पर रहेंगे.

बीते 12 सालों में ये पहली बार है, जब दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति जापान दौरे पर जा रहे हैं.

ये फ़ैसला उस क़दम के बाद हुआ है, जिसमें युद्ध के दौरान जापानी फैक्ट्रियों में जबरन श्रम लिए ले जाने के मामलों में मुआवज़ा दिए जाने को लेकर समझौता हुआ है. कोरिया के लोगों को जबरन इन फैक्ट्रियों में काम पर लगाया गया था.

ऐसे श्रमिकों की संख्या लगभग डेढ़ लाख बताई जाती है.

दक्षिण कोरिया ने हाल ही में कहा था कि 1910-1945 तक जापान के शासन के दौरान जबरन श्रम लिए जाने के मामले पर कंपनियां मुआवज़ा देंगी.

दोनों देशों के बीच इस मुद्दे पर विवाद रहा था, जो अब समाधान की दिशा में बढ़ा है.

जापान दौरे पर यून सुक-योल जापानी पीएम फुमियो किशिदा से भी मिलेंगे.

यून सुक-योल के दफ़्तर ने बयान जारी कर कहा है, ”दक्षिण कोरिया और जापान के संबंधों में सुधार के मद्देनज़र ये फ़ैसला मील का पत्थर साबित होगा.”

जापान के चीफ़ कैबेनिट सेक्रेटरी हीरोकाज़ू ने कहा, ”दक्षिण कोरिया हमारा अहम पड़ोसी देश है. कई अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को सुलझाने के लिए जापान को सहयोग करना चाहिए.”

हीरोकाज़ू ने कहा, ”मैं उम्मीद करता हूं कि इस दौरे से जापान-कोरिया संबंधों में सहयोग, दोस्ती और रिश्तों में बेहतरी आएगी.”

दोनों देशों के प्रमुखों के बीच बैठक का एजेंडा क्या होगा? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि फ़िलहाल कुछ तय नहीं हुआ है.

ख़बरों की मानें तो जापान की सरकार यून सुक-योल को मई में होने वाले जी-7 समिट में बुलाने पर विचार कर रही है. एक बात यह भी कही जा रही है कि अमेरिका जापान और दक्षिण कोरिया के बीच मतभेदों को ख़त्म करवाना चाहता था ताकि दोनों देश चीन और उत्तर कोरिया का सामना मिलकर करें.

दूसरे विश्व युद्ध के बाद दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया दो अलग देश बने.

इस विभाजन के बाद से दोनों देशों ने अपनी अलग-अलग राह चुनी. कोरिया पर 1910 से जापान का तब तक शासन रहा जब तक 1945 के दूसरे विश्व युद्ध में जापानियों ने हथियार नहीं डाल दिया. इसके बाद सोवियत की सेना ने कोरिया के उत्तरी भाग को अपने कब्ज़े में लिया और दक्षिणी हिस्से को अमेरिका ने. इसके बाद उत्तरी और दक्षिणी कोरिया में साम्यवाद और ‘लोकतंत्र’ के बीच लेकर संघर्ष शुरू हुआ.

20वीं सदी का यह विभाजन आज भी दुनिया के लिए बड़े विवाद के रूप में कायम है. जापान के शासन से मुक्ति के बाद 1947 में अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र के ज़रिए कोरिया को एक सिंगल राष्ट्र बनाने की पहल की.

इसके बाद यूएन के आयोग की निगरानी में चुनाव कराने का फ़ैसला लिया गया. मई 1948 में कोरिया प्रायद्वीप के दक्षिण हिस्से में चुनाव हुआ. इस चुनाव के साथ ही 15 अगस्त को रिपब्लिक ऑफ कोरिया (दक्षिणी कोरिया) बनाने की घोषणा की गई.

इस बीच, सोवियत संघ के नियंत्रण वाले उत्तर हिस्से में सुप्रीम पीपल्स असेंबली का चुनाव हुआ. इस चुनाव के साथ ही डेमोक्रेटिक पीप्लस रिपब्लिक ऑफ कोरिया (डीपीआरके) की सितंबर 1948 में घोषणा की गई.

इसके बावजूद दोनों के बीच सैन्य और राजनीतिक विरोधभास बना रहा. यह संघर्ष पूजींवाद बनाम साम्यवाद के रूप में भी दिखा.

इसका नतीजा यह हुआ कि दोनों के बीच एक युद्ध हुआ. दोनों देशों के बीच जून, 1950 में संघर्ष शुरू हो गया. अमरीकी सेना के साथ 15 अन्य देश दक्षिण कोरिया का साथ आए और डीपीआरके का साथ रूसी और चीनी सेना ने दिया. 1953 में यह युद्ध ख़त्म हुआ और दो स्वतंत्र राष्ट्र बने.

तीन साल चले कोरियाई युद्ध में अमेरिका ने दक्षिण कोरिया की मदद की थी. युद्ध में क़रीब 25 लाख लोगों की मौत हुई थी.

उत्तर कोरिया से तनाव और फिर अमेरिकी मदद से शुरू हुआ सिलसिला आज भी जारी है.

इस युद्ध से सालों पहले जापान के कब्ज़े और ख़ासकर विश्व युद्धों के दौरान कोरिया में लोगों से जबरन काम लिया गया.

इसे लेकर 2018 में दक्षिण कोरिया के सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि जापानी कंपनियां जबरन काम लिए जाने के एवज में मुआवज़ा दें.

15 दक्षिण कोरियाई लोगों ने ये केस जीते पर किसी को मुआवज़ा नहीं दिया गया.

जापान का कहना था कि ये मामला 1965 में हुए एक समझौते में सुलझा लिया गया था और जापान कोई मुआवज़ा नहीं देगा.

अब जब दक्षिण कोरिया ने अपने नागरिकों को ख़ुद मुआवज़ा देने का फ़ैसला किया है तो इसे कुछ लोग सही नहीं बता रहे हैं.

मुआवज़ा देने के लिए दक्षिण कोरियाई कंपनियां क़रीब 30 लाख डॉलर का फंड जुटाएंगी. ये फंड पीड़ितों को बाँटा जाएगा. जिन कंपनियों को ये फंड देना है, उनमें वो कंपनियां शामिल हैं जिन्होंने 1965 युद्ध के बाद हुए एक समझौते से फ़ायदा पहुंचा था.

जिन पीड़ितों को मुआवज़ा देने का एलान हुआ, उनमें से तीन जीवित पीड़ितों ने इसे लेने से इनकार कर दिया है.

अमेरिका की भूमिका

दक्षिण कोरिया और जापान के बीच तनाव का लंबा इतिहास रहा है.

हाल के वर्षों में चीन के बढ़ते असर पर काबू पाने के लिए अमेरिका की कोशिश रही है कि वो अपने सहयोगियों को साथ ला सके.

दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति के जापानी दौरे को भी अमेरिका की कोशिशों का नतीजा बताया गया.

दक्षिण कोरिया के रक्षा मंत्रालय ने हाल ही में कहा, ”सुरक्षा सहयोग और अमेरिका के साथ त्रिपक्षीय रिश्तों को मज़बूत करने की दिशा में काम किए जाएंगे.”

यून ने भी इस महीने की शुरुआत में कहा था कि उत्तर कोरिया से बढ़ते परमाणु ख़तरे और दूसरे संकटों को ध्यान में रखते हुए अमेरिका और जापान के साथ सहयोग की ज़रूरत बढ़ गई है.

सोल में इंटरनेशनल स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर लीफ-इरिक इसले ने कहा,”इतिहास के सभी मुद्दे सुलझाए नहीं जा सकेंगे क्योंकि लोकतंत्र में मिलन एक प्रक्रिया है न कि समझौता. लेकिन दोनों देश व्यापार और सुरक्षा के मुद्दों पर साथ आ सकते हैं.”

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक़, अमेरिका ने दोनों देशों पर विवाद सुलझाने का दबाव बनाया था. अमेरिका ने हालिया एलान को ऐतिहासिक बताया है. हालांकि कई पीड़ितों ने समझौते को ख़ारिज किया.

यून के दफ़्तर ने जानकारी दी कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन 26 अप्रैल को दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति से अमेरिका में मिलेंगे.

2011 के बाद से ये पहली बार होगा, जब कोई दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति अमेरिका का दौरा करेगा.

अमेरिका चाहता क्या है?

हाल ही में भारत में जब दिल्ली में जी-20 देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक हुई थी, तब जापान के विदेश मंत्री भारत दौरे पर नहीं आए थे.

दक्षिण कोरिया ने भी 24 फ़रवरी को ही घोषणा कर दी थी कि उसके उप-विदेश मंत्री इस बैठक में जाएंगे. यानी दक्षिण कोरिया और जापान दोनों ने अपने विदेश मंत्री के बजाय जूनियर मंत्री को भारत भेजा.

लेकिन जब क्वॉड देशों की तीन मार्च को बैठक हुई तब अमेरिका के बुलावे पर जापान के विदेश मंत्री भारत आ गए थे. क्वॉड को चीन विरोधी गुट कहा जाता है जिसमें भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका हैं.

अमेरिका की इन कोशिशों को चीन के बढ़ते प्रभुत्व को रोकने के लिए रणनीति के दौर पर भी देखा जाता है.

इस बात से ख़फ़ा चीन दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति पर अमेरिका का प्यादा होने का आरोप लगाता है.

वॉशिंगटन पोस्ट में छपे एक लेख में कहा गया है कि अमेरिका भले ही जापान-दक्षिण कोरिया के बीच सुलह करवाने का श्रेय लेता दिखता हो मगर हक़ीक़त कुछ और है.

लेख में कहा गया है, ”दक्षिण कोरिया और जापान ने एक नए अध्याय की शुरुआत इसलिए की है क्योंकि ये दोनों देश समझते हैं कि दुनिया तेज़ी से बदल रही है और तेज़ी से विस्तार करते चीन से अकेले निपटना आसान नहीं है.”

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