नेपाल में कम्युनिस्ट राज है या ब्राह्मण राज?

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DMT : नेपाल  : (26 मई 2023) : –

नेपाल के पोखरा में घूमते हुए एक रेस्तरां पर नज़र टिक गई. लेक साइड में स्थित इस रेस्तरां का नाम, काकाको चुलो है.

काकाको चुलो ने मेन्यू जैसी होर्डिंग बाहर लगी रखी है.

इस होर्डिंग पर मेन्यू में भोजन या थाली के जो नाम दिए गए हैं, वे काफ़ी दिलचस्प हैं.

मेन्यू में पहले नंबर पर पंडित भोजन, दूसरे नंबर पर लोकतांत्रिक भोजन, तीसरे नंबर पर गणतांत्रिक भोजन और चौथे नंबर पर सहमति भोजन लिखा है.

नीचे तस्वीर में इसे देख सकते हैं.

मैं खड़ा होकर इस होर्डिंग को देख ही रहा था कि मेरे नेपाली दोस्त ने कहा, “आपकी रिपोर्ट का प्रतिबिंब इस मेन्यू में भी झलक रहा है? मैंने पूछा कैसे? उन्होंने कहा कि मेन्यू को ध्यान से पढ़िए. सबसे ऊपर पंडित है और उसके नीचे लोकतांत्रिक फिर गणतांत्रिक.”

वे कहना चाह रहे थे कि राजशाही गई, लेकिन लोकतंत्र या गणतंत्र पंडित यानी ब्राह्मणों से ऊपर नहीं आ पाया है.

नेपाल की मौजूदा सरकार और व्यवस्था को देखें, तो ब्राह्मणों का हर क्षेत्र में दबदबा है. नेपाल में ब्राह्मण को बाहुन कहते हैं.

ऐसा तब है, जब नेपाल में ब्राह्मणों की आबादी महज़ 12.2 फ़ीसदी है.

ये नेपाल के पहाड़ी ब्राह्मण हैं और हर क्षेत्र में इन्हीं का दबदबा है. नेपाल में सबसे बड़ा जाति समूह है छेत्री यानी भारत में जिन्हें, क्षत्रिय या राजपूत कहा जाता है.

नेपाल में छेत्री 16.6 फ़ीसदी हैं. ब्राह्मण और छेत्री को ही नेपाल में खस आर्य कहा जाता है. नेपाल में खस आर्य की कुल आबादी क़रीब 29 फ़ीसदी है.

नेपाल के मौजूदा लोकतंत्र को देखें, तो सभी उच्च पदों पर ब्राह्मण हैं.

नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल प्रचंड ब्राह्णण, नेपाल के राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल ब्राह्मण, नेपाल के सेना प्रमुख प्रभुराम शर्मा ब्राह्मण और नेपाली संसद के स्पीकर देवराज घिमिरे भी ब्राह्मण हैं.

नेपाल के सुप्रीम कोर्ट में अभी कोई स्थायी चीफ़ जस्टिस नहीं है, लेकिन जस्टिस हरिकृष्ण कार्की को कार्यकारी मुख्य न्यायधीश बनाया गया है और वह छेत्री हैं यानी क्षत्रिय.

नेपाल के पुलिस प्रमुख बसंत बहादुर कुंवर छेत्री हैं.

प्रचंड की पूरी कैबिनेट देख लें, तो सारे अहम मंत्रालय खस आर्यों के पास है.

संसद में ब्राह्मण-छेत्रियों का दबदबा

नेपाल की प्रतिनिधि सभा यानी संसद को देखें, तो यहाँ भी खस आर्य का ही दबदबा है. प्रतिनिधि सभा के लिए 164 सदस्य प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रक्रिया से चुने जाते हैं.

इनमें से 95 सदस्य खस आर्य हैं. यानी 57 प्रतिशत सदस्य ब्राह्मण और छेत्री हैं.

नेपाल में चार फ़ीसदी मुसलमान हैं, लेकिन कोई भी सदस्य प्रतिनिधि सभा में सीधे चुनकर नहीं पहुँचा है.

कोई शेरपा भी सीधे चुनकर संसद नहीं पहुँचा और नेपाल के 13 फ़ीसदी दलितों में से सिर्फ़ एक सदस्य प्रतिनिधि सभा सीधे निर्वाचित होकर पहुँचा है.

41 सदस्य (25 फ़ीसदी) जनजाति समुदाय से चुनकर प्रतिनिधि सभा पहुँचे हैं, जबकि उनकी आबादी 35 फ़ीसदी है.

नेपाल में कुल सात प्रांत हैं. कोसी, मधेस, बागमती, गंडकी, लुंबिनी, कर्णाली और सुदूरपश्चिम. इन सात प्रदेशों में से चार के मुख्यमंत्री ब्राह्मण हैं.

वागमती प्रदेश के मुख्यमंत्री शालिकराम जम्कट्टेल, कर्णाली प्रदेश के मुख्यमंत्री राजकुमार शर्मा और गंडकी प्रदेश के मुख्यमंत्री सुरेन्द्रराज पांडे सभी ब्राह्मण हैं. सुदुरपश्चिम प्रदेश के मुख्यमंत्री कमल बहादुर शाह भी छेत्री हैं.

मधेस प्रदेश के मुख्यमंत्री सरोज कुमार यादव हैं, कोसी प्रदेश के मुख्यमंत्री हिक्मत कुमार कार्की छेत्री हैं और लुंबिनी प्रदेश के मुख्यमंत्री डिल्लीबहादुर चौधरी थारू हैं.

कोसी, कर्णाली और बागमती में कम्युनिस्टों की सरकार है और सभी मुख्यमंत्री खस आर्य हैं.

2008 में 239 साल पुरानी राजशाही व्यवस्था ख़त्म होने के बाद नेपाल में लोकतंत्र आया था.

लोकतंत्र आने के बाद इन 15 सालों में नौ प्रधानमंत्री बने. इनमें से आठ ब्राह्मण प्रधानमंत्री रहे और एक छेत्री.

इन 15 सालों में प्रधानमंत्री बनने वाले ये नौ लोग हैं- गिरिजाप्रसाद कोइराला, प्रचंड (तीसरी बार पीएम बने हैं), माधव कुमार नेपाल, झलनाथ खनाल, बाबूराम भट्टराई, खिलराज रेग्मी, सुशील कोइराला, केपी शर्मा ओली और शेरबहादुर देउवा.

इनमें आठ ब्राह्मण हैं और शेरबहादुर देउवा छेत्री. नेपाल में लोकतंत्र आने से पहले पंचायती व्यवस्था में भी सारे प्रधानमंत्री ब्राह्मण ही बने थे.

नेपाल के मधेस इलाक़े में भी ब्राह्मण हैं लेकिन उनकी हैसियत पहाड़ी ब्राह्मणों की तरह नहीं है.

नेपाली कांग्रेस के नेता कंचन झा कहते हैं, ”मधेस इलाक़े में भी ब्राह्मण और राजपूत हैं लेकिन पहाड़ी ब्राह्मण और क्षत्रियों का ही सरकार और शासन में दबदबा है. पहाड़ के ब्राह्मण मधेस के यादवों और दलितों को जिस रूप में देखते हैं, उसी तरह यहाँ के ब्राह्मणों को भी देखते हैं. पहाड़ के ब्राह्मणों और मधेस के ब्राह्मणों में पारंपरिक रूप से रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं है. अगर शादी होती भी है तो अंतरजातीय विवाह की तरह देखा जाता है.”

कंचन झा कहते हैं, ”नेपाल में 71 फ़ीसदी आबादी पर 29 फ़ीसदी वाले खस आर्य का शासन और दबदबा राजशाही में भी था और जब लोकतंत्र आया तब भी है. अब तो मधेसियों, जनजातियों और दलितों से भेदभाव को संवैधानिक बना दिया गया है. नेपाली भाषा खस आर्य की है लेकिन यह राजशाही व्यवस्था में भी थोपी गई और लोकतांत्रिक नेपाल में भी.”

”हिमाली जनजातियों की अपनी भाषा है, मधेसियों की अपनी भाषा है, लेकिन राजकाज की भाषा नेपाली बना दी गई. 30 फ़ीसदी आबादी की भाषा 70 फ़ीसदी पर थोपी गई. ऐसे में जो नेपाली भाषा में दक्ष हैं, उनसे सरकारी महकमे में ग़ैर खस आर्य पिछड़ते गए.”

नेपाल में राजशाही ख़त्म होने के बाद से कम्युनिस्टों की सरकार रही है. नेपाली कांग्रेस की भी रही तो कम्युनिस्टों का समर्थन से रही.

नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी की कमान जिनके पास हैं, वे सभी ब्राह्मण ही हैं.

वो चाहे प्रचंड की अध्यक्षता वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) हो या केपी शर्मा ओली की अध्यक्षता वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी).

नेपाली कांग्रेस की कमान भी ब्राह्मणों की पास ही रही है. अभी शेर बहादुर देउवा के पास है, जो छेत्री हैं.

नेपाल में कम्युनिस्ट राज है या ब्राह्मण राज?

नेपाल के कई विश्लेषक ऐसा मानते हैं कि जब तक कम्युनिस्ट पार्टियाँ और नेपाली कांग्रेस में खस आर्य का वर्चस्व ख़त्म नहीं होगा, तब तक नेपाल की सत्ता समावेशी नहीं हो सकती है.

नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टरई से पूछा कि नेपाल में कम्युनिस्ट राज है या ब्राह्मण राज? नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियाँ क्या ब्राह्मणों की पार्टी है?

बाबूराम भट्टरई कहते हैं, ”मेरा जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ ये मेरी ग़लती नहीं है. मैंने तो जाति छोड़ दी है. शादी भी जाति से बाहर की. इस बात को समझने की ज़रूरत है कि जिनका जन्म ऊँची जाति में होता है, उनके पास पढ़ाई के मौक़े ज़्यादा होते हैं. पढ़ाई के बाद इनके पास वैज्ञानिक दृष्टिकोण आता है. किसी भी क्रांतिकारी आंदोलन का नेतृत्व भी यही करते हैं.”

”आप पूरी दुनिया के कम्युनिस्ट या राष्ट्रवादी आंदोलन को उठाकर देखें, तो इसका नेतृत्व करने वाले ऊँची जाति या उच्च वर्ग से थे. मार्क्स से लेकर गांधी और नेहरू तक. हमने संविधान में हाशिए की जातियों के लिए कई तरह की व्यवस्था की है. नेपाल के ब्राह्मणों में प्रगतिशील सोच है. ये बात सही है कि नेपाल की राजनीति को और समावेशी होना चाहिए, लेकिन अभी इसमें वक़्त लगेगा.”

भट्टरई कहते हैं, ”नेपाल की राजनीतिक पार्टियाँ व्यक्ति केंद्रित हो गई हैं. ख़ास कर यहाँ की कम्युनिस्ट पार्टियों में एक व्यक्ति का चलता है. इसलिए फ़ैसले समावेशी नहीं होते हैं. प्रचंड अपनी पार्टी का नेतृत्व पिछले 30 सालों से कर रहे हैं. ओली और देउवा जी का भी वही हाल है. कम्युनिस्ट पार्टियाँ पुराने रिवाज से आगे नहीं निकल पा रही हैं.”

भारत के कम्युनिस्ट बनाम नेपाल के कम्युनिस्ट

”नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियाँ बेहद सेंट्रलाइज हैं. ब्राह्मणों में भी अमीर और पुरुषों के पास सत्ता है. यहाँ भी ग़रीब और महिलाएँ ग़ायब हैं. दुनिया भर में पुरानी कम्युनिस्ट सोच बिखर रही है. भारत में भी कम्युनिस्ट पार्टियाँ इसीलिए हाशिए पर हैं. इमें कास्ट भी एक अहम मसला है. मुझे लगता है कि नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों की तुलना में ज़्यादा प्रगतिशील है.”

विजयकांत कर्ण डेनमार्क में नेपाल के राजदूत रहे हैं. वे काठमांडू में ‘सेंटर फ़ॉर सोशल इन्क्लूजन एंड फ़ेडरलिज़म’ (सीईआईएसएफ़) नाम से एक थिंकटैंक चलाते हैं.

कर्ण बाबूराम भट्टरई की बात से सहमत नहीं हैं.

वे कहते हैं, ”मैं इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं हूँ कि नेपाल के ब्राह्मण या उनके नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टियाँ भारत की तुलना में ज़्यादा प्रगतिशील हैं. भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाँ दलितों, मुसलमानों, पिछड़ी जातियों और धर्मनिरपेक्षता को लेकर मुखर रही हैं लेकिन नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ ऐसा नहीं है. नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों की कमान अमीर ब्राह्मणों के हाथ में है और उनका मक़सद हर हाल में सत्ता पर काबिज रहना है.”

विजयकांत कर्ण कहते हैं, ”1990 के दशक में जब नेपाल में माओवादी जनयुद्ध चल रहा था, तब यही नेता दलितों, मधेसियों, महिलाओं और धर्मनिरपेक्षता की बात कर रहे थे लेकिन सत्ता में आने के बाद सबने इन मुद्दों को किनारे रख दिया. प्रचंड की पार्टी से कोई मधेसी या जनजाति प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकता है? प्रचंड या बाबूराम भट्टरई को ऐसा करने से किसने रोका है?”

अहम मंत्रालयों पर काबिज ख़स आर्य

”प्रचंड कैबिनेट में अभी नाम के मधेसी मंत्री हैं, महेंद्र राय और उन्हें भी कोई महत्व का मंत्रालय नहीं मिला है. मधेसी आंदोलन का नेपाल की कोई भी कम्युनिस्ट पार्टी ने समर्थन नहीं किया था. ऐसा क्यों था? क्या भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाँ ग़रीबों के हक़ वाले आंदोलन का विरोध करती हैं? मैंने ऐसा कभी नहीं देखा. भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों की कमान भी ब्राह्मणों के पास थी लेकिन वे दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं और धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में हमेशा खड़े रहते थे. नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ ऐसा नहीं है.”

नेपाल में जाति व्यवस्था को लेकर बाबूराम भट्टरई कहते हैं, ”नेपाल ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से बिल्कुल अलग देश है. मैंने 13 सालों तक भारत के चंडीगढ़ और दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की है और मुझे पता है कि भारत के लोग नेपाल को वृहद भारतवर्ष का हिस्सा मानते हैं. अगर नेपाल की भौगोलिक स्थिति से जनसंख्या देखें, तो दक्षिण एशिया और पूर्वी एशिया में आधी-आधी बँटी हुई है. लेकिन दिल्ली वालों को लगता है कि नेपाल भारत का ही है.”

”नेपाल बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक देश है. यहाँ केवल हिन्दू नहीं रहते हैं. हिन्दू धर्म को बाद में खस आर्यों ने थोपा है. ये खस आर्य जिन्हें नेपाल में ब्राह्मण और छेत्री कहा जाता है, वे भारत से भागकर आए थे. इन्होंने ही नेपाल में जाति व्यवस्था को मज़बूत किया. मेरा जन्म हिन्दू ब्राह्मण परिवार में हुआ और मेरे पिता अब भी धर्मपरायण हिन्दू हैं लेकिन मैं नास्तिक हूँ. मैं यह कहना चहता हूँ कि नेपाल बिल्कुल अलग है. नेपाल का समाज भारत की तरह नहीं है. नेपाल का अपना इतिहास है. यहाँ के ब्राह्मण भारत के ब्राह्मणों की तरह छुआछूत नहीं करते हैं.”

वैचारिक झोल

आहूति नेपाल के जाने-माने कवि और दलित चिंतक हैं. वह वैज्ञानिक समाजवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख हैं.

आहूति नेपाल में ब्राह्मणों के वर्चस्व के पीछे वैचारिक जड़ता को अहम कारण मानते हैं.

आहूति कहते हैं, ”जहाँ से पूंजीवाद का उदय हुआ, वहाँ जाति व्यवस्था नहीं थी. ऐसा माना जाता है कि पूंजीवाद नॉर्वे से शुरू हुआ था. पूंजीवाद की आड़ में जितने भी बदलाव हुए, उनमें जाति व्यवस्था के बारे में कोई सोच या चिंता नहीं है. भारत में भी पूंजीवाद पुनर्जागरण के रूप में नहीं आया, बल्कि उपनिवेश के रूप में आया. उपनिवेशवाद को जाति के ख़िलाफ़ कोई जंग नहीं छेड़नी थी. उसे भारत को लूटना था.”

”उपनिवेशवाद के रूप में भारत आई पूंजीवादी विचारधारा ने जाति व्यवस्था को अपने हितों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया. अंग्रेज़ों ने जाति को सिस्टम से बाहर नहीं किया बल्कि उसका अंग बना दिया. पूंजीवाद ने पूंजी बनाने के लिए हर रूढ़ियों का इस्तेमाल किया, न कि उसे रोका. जाति व्यवस्था पूंजीवाद के लिए चुनौती नहीं थी. लेकिन मार्क्सवाद के लिए जाति व्यवस्था सबसे बड़ी चुनौती है. लेकिन मार्क्सवाद लागू करना है, तो जाति को ज़िंदा रखकर नहीं किया जा सकता है.”

पूंजीवाद बनाम मार्क्सवाद

आहूति कहते हैं, ”यही पूंजीवाद नेपाल आया. नेपाल में दलाल पूंजीवाद आया. यहाँ तो अपना कोई पूंजीपति भी नहीं है. भारत से पूंजीवाद नेपाल में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दलाली के रूप में आया. जिस तरह से भारत में औद्योगिक और प्रगतिशील पूंजीवाद नहीं था, उसी तरह से नेपाल में पूंजीवाद दलाली के रूप में आया. इस पूंजीवाद के पास जाति से लड़ने के लिए कोई दर्शन नहीं था. मुझे इस मामले में आंडेबकर की समझ पर भी शक होता है. आंबेडकर को लगा था कि धर्म परिवर्तन से जातीय भेदभाव ख़त्म हो जाएगा, यह बिल्कुल ग़लत समझ थी. आंबेडकर की राजनीतिक लाइन बिल्कुल नाकाम रही थी.”

आहूति कहते हैं, ”जिस तरह से पूंजीवाद का जहाँ उदय हुआ, वहाँ जाति व्यवस्था नहीं थी उसी तरह जहाँ से मार्क्सवाद निकला, वहाँ भी जाति व्यवस्था नहीं थी. मार्क्स ने भी जाति व्यवस्था पर कुछ नहीं कहा है. मार्क्सवादी विचारधारा के आधार पर सोवियत संघ में क्रांति हुई, लेकिन वहाँ जाति नहीं थी. चीन में इसी विचारधारा के ज़रिए क्रांति हुई, वहाँ भी जाति व्यवस्था नहीं थी.”

”रोमानिया से चेकोस्लोवाकिया तक में क्रांति हुई लेकिन वहाँ जाति नहीं थी. नेपाल में मार्क्सवाद आया लेकिन उसके पास भी जाति व्यवस्था के उन्मूलन की कोई दवा नहीं थी. इनका ज़ोर क्लास पर रहा और कास्ट से मुँह मोड़ लिया. इन्हें पता था कि क्लास कास्ट से जुड़ा है, तब भी इसकी उपेक्षा करते गए.”

वैचारिक प्रतिबद्धता

आहूति कहते हैं कि उन्हें इस बात से दिक़्क़त नहीं है कि ब्राह्मणों के पास नेतृत्व है, बल्कि दिक़्क़त इस बात से है कि प्रगतिशील विचारधारा वाले ब्राह्मणों की कमी है.

नेपाल के पूर्व विदेश मंत्री उपेंद्र यादव अभी सांसद हैं. उनसे पूछा कि नेपाल में राजशाही जाने और लोकतंत्र आने का असर नेपाल की शासन व्यवस्था पर कैसा पड़ा है?

यादव कहते हैं, ”असर यही पड़ा है कि राजशाही व्यवस्था में सत्ता में धमक क्षत्रियों की थी और लोकतंत्र के आने के बाद ब्राह्मणों की हो गई है. इन्हीं दोनों के बीच सत्ता का आना-जाना हुआ है. नेपाल की सरकार, सेना, पुलिस, प्रशासन और पूरी शिक्षा व्यवस्था में ब्राह्मणों का दबदबा है.”

उपेंद्र यादव कहते हैं, ”नेपाल में पहली बार कोई सेना प्रमुख ब्राह्मण बना है. राजशाही व्यवस्था में सारे सेना प्रमुख छेत्री बनते थे. नेपाल का कोई सेना प्रमुख यादव, महतो या जनजाति समुदाय से बनेगा, यह कल्पना करना भी अभी मुश्किल है. संविधान भी चार ब्राह्मण और एक छेत्री ने मिलकर बनाया. संविधान को समावेशी होना चाहिए था लेकिन इन्होंने ऐसा नहीं होने दिया. राजशाही ख़त्म करने में जिस माओवादी जनयुद्ध को श्रेय दिया जाता है, उसमें बंदूक उठाने वाले कौन थे? ज़ाहिर है कि ब्राह्मण नहीं थे. बंदूक उठाने वाले थारू, मगर, शेरपा, यादव और महतो थे. इस जनयुद्ध में सबसे ज़्यादा मारे भी इन्हीं जाति के लोग गए. लेकिन नेतृत्व तब भी ब्राह्मणों के पास थी और आज भी उन्हीं के पास है.”

विजयकांत कर्ण का कहना है कि नेपाल के जितने राजदूत विदेशों में हैं, उनमें से 90 फ़ीसदी ब्राह्मण ही हैं.

कर्ण कहते हैं कि नेपाल में जातीय वर्चस्व की जड़ें बहुत गहरी हैं और वे लोग आज की तारीख़ में ठगा हुआ महसूस करते हैं, जिन्होंने राजशाही ख़त्म करने में अपनी जान की बाज़ी लगा दी.

निभा शाह नेपाल की जानी-मानी कवयित्री हैं. उन्होंने शायद इसी निराशा का बखान अपनी कविता ‘आग धधक रही है मनसरा‘ में बहुत ही ख़ूबसूरती से किया है. यह कविता नेपाली में है, जिसका हिन्दी अनुवाद नेपाल के पत्रकार नरेश ज्ञवाली ने किया है.

पसीना बहाकर

दुनिया बदलती तो

कुली की दुनिया

कब की बदल चुकी होती मनसरा

ख़ून बहाकर

दुनिया बदलती तो

जनता की दुनिया

कब की बदल चुकी होती मनसरा

वैसे तो मनसरा

ख़ून पसीने से ही

बदलती है दुनिया

बनती है दुनिया

पर ख़ून पसीने से नहीं बदली दुनिया

क्यों नहीं बदली?

कभी

आग की धधकन

सुना है मनसरा

आग तो धधक रही है मनसरा

अपना काटा हुआ जलावन

कोई और जला दे तो

आग अपनी नहीं होती मनसरा

उजाला भी उसका अपना

नहीं होता मनसरा

उजाला अपना न हो तो

दुनिया नहीं बदलती मनसरा

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