DMT : यूक्रेन : (02 अप्रैल 2023) : –
17 मार्च 2023 को इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट यानी आईसीसी ने यूक्रेन में कथित युद्धापराधों के मामले में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की गिरफ़्तारी के लिए वारंट जारी कर दिया. विश्व की राजनीति में इसे एक महत्वपूर्ण क़दम की तरह देखा गया.
आईसीसी ने पुतिन पर यूक्रेन के रूसी कब्ज़े वाले इलाकों से बच्चों को ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से बाहर ले जाने के आरोप लगाए हैं.
आीसीसी ने रूस की बाल अधिकार आयोग की प्रमुख मारिया लवोवा-बेलोवा की गिरफ़्तारी के लिए भी वारंट जारी किया गया है.
रूस ने यूक्रेन में पिछले साल फ़रवरी में किए गये हमले के दौरान अत्याचार के आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि वो आईसीसी के फ़ैसले को कोई अहमियत नहीं देता.
इस हफ़्ते हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि क्या पुतिन के ख़िलाफ़ यूक्रेन में किए गए युद्ध अपराधों के मामले में मुक़दमा चल पाएगा?
रणभूमि में मानवीयता
1862 में स्विजरलैंड के प्रसिद्ध मानवतावादी हेनरी डूनो की एक क़िताब प्रकाशित हुई जिसका नाम था ‘मेमरी ऑफ़ सोलफ़ेरिनो’ जिसमें युद्ध के दौरान इटली में सैनिकों के ख़िलाफ़ बर्बर व्यवहार का ऐसा विवरण था जिसने दुनिया को झकझोर कर रख दिया.
ऐसे आपराधिक व्यवहार पर अंकुश लगाने के लिए क़िताब के छपने के एक साल बाद पहली बार यूरोप के बारह देशों ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए जिसे फ़र्स्ट जिनेवा कन्वेंशन के नाम से जाना जाता है.
इस बारे में जर्मनी की न्यूरेम्बर्ग प्रिंसिपल्स अकादमी के निदेशक क्लॉस क्रेसोविच ने विस्तार से बताया है.
वे कहते हैं, “इसके मुताबिक़ युद्ध में क्रूरता और अत्याचार को प्रतिबंधित किया गया. और सभी सैन्य पक्षों पर यह ज़िम्मेदारी सौंपी गई कि वो युद्ध में घायल हुए दुश्मन सैनिकों का भी इलाज़ करें और उनके साथ मानवीय व्यवहार करें. साथ ही इसमें अस्पताल जैसी असैन्य संस्थाओं पर हमले पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया.”
जिनेवा कन्वेंशन्स
यह निश्चय ही युद्ध के दौरान होने वाले अत्याचार और बर्बरता को रोकने के लिए उठाया गया बड़ा कदम था. आने वाले सालों में इसमें और नियम और दिशानिर्देश जोड़े गए और यह संधि जिनेवा कन्वेंशन्स के नाम से जानी जाने लगी.
मगर ज़मीन पर इसका ख़ास प्रभाव इसलिए नहीं रहा क्योंकि देशों पर जिनेवा कन्वेंशन्स के नियमों का पालन करना, क़ानूनी बाध्यता नहीं थी.
क्लॉस क्रेसोविच कहते हैं, “जिनेवा कन्वेंशन्स और हेग कन्वेंशन्स ने कई तरीक़े के युद्ध पर पाबंदी तो लगा दी थी लेकिन इसका पालन ना करने वालों के ख़िलाफ़ सज़ा का प्रावधान नहीं था. यही जिनेवा कन्वेंशन्स की सबसे ब़ड़ी ख़ामी है.”
मगर पहले विश्व युद्ध के बाद इन मुद्दों पर ध्यान दिया जाने लगा.
क्लॉस क्रेसोविच कहते है कि 1919 के बाद युद्धअपराध के लिए ज़िम्मेदार लोगों के सज़ा देने के लिए ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के बीच समझौता तो हुआ लेकिन जर्मनी के सम्राट कैसर को सज़ा नहीं दी जा सकी क्योंकि कैसर ने नीदरलैंड्स में शरण ले ली और नीदरलैंड इस समझौते में शामिल नहीं था. इसलिए कैसर को कभी भी युद्धअपराधों के लिए सज़ा नहीं दी जा सकी. मगर दूसरे महायुद्ध के समय 1945 मे मित्र राष्ट्रों ने युद्ध अपराधियो को सज़ा देने के लिए एक व्यापक समझौता किया.
क्लॉस क्रेसोविच का कहना है, “अगस्त 1945 में लंदन में मित्र राष्ट्रों के बीच समझौता एक बड़ा परिवर्तन था जिसके तहत जर्मनी के उन लोगों पर मुक़दमा चलाने के लिए न्यूरेम्बर्ग में अंतरराष्ट्रीय सैन्य अदालत बनाई गई जो निजी या सरकारी तौर पर युद्ध के दौरान अत्याचार के लिए ज़िम्मेदार थे.”
एक साल तक चले इन मुक़दमों के दौरान 24 महत्वपूर्ण जर्मन नेताओं के ख़िलाफ़ मुक़दमे चलाए गए जो थर्ड राईश के शासनकाल में अत्याचार के लिए ज़िम्मेदार थे. इसमें से बारह लोगों को फांसी की सज़ा सुनाई गई जिसमें जर्मन ख़ुफ़िया पुलिस गेस्टापों के संस्थापक हर्मन गुरिंग भी शामिल थे. बाकी लोगों को जेल भेज दिया गया.
न्यूरेम्बर्ग मुक़दमों से दुनिया में यह संदेश तो गया कि अत्याचार के लिए ज़िम्मेदार लोग देश की आड़ में नहीं छिप पाएंगे और उन्हें क़ानून का सामना करना पड़ेगा.
1949 में दुनिया के सभी देशों ने जिनेवा कन्वेंशन्स समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए. मगर इसका यह मतलब नहीं है कि दुनिया में युद्धापराध की समस्या समाप्त हो गई.
90 के दशक के युद्ध
1991 में यूगोस्लाविया के राज्यों ने ख़ुद को आज़ाद घोषित कर दिया और उसके बाद वहां के जातीय गुटों के बीच लड़ाई शुरु हो गई जो लगभग दो साल चली. उस दौरान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इस युद्ध में अत्याचार करने वालों को न्याय के कटघरे में खड़ा करने के लिए अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय का गठन किया.
मगर उन अपराधियों को सज़ा देने के लिए ज़रूरी था कि पूर्व यूगोस्लाविया के राज्य सर्बिया,बोस्निया और क्रोएशिया उन अभियुक्तों कोर्ट को सौंपें.
इस मुद्दे की जटिलता को समझने के लिए बीबीसी ने पोलैंड की वार्सा यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र की प्रोफ़ेसर पैट्रिशिया ग्रुज़बेक से बात की.
उनका कहना है कि यह देश अभियुक्तों को सौंपने या सुबूत जुटाने में मदद देने से झिझक रहे थे. तो उनके सहयोग के बिना आईसीसी काम कैसे कर सकता था?
पैट्रिशिया ग्रुज़बेक कहती हैं, “इन देशों के सहयोग के बिना आईसीसी के जांचकर्ताओं का वहां पर जाकर काम करना, गवाहों के बयान लेना या सुबूत जुटाना या अभियुक्तों को गिरफ़्तार कर के अदालत के सामने पेश करना असंभव था.”
युद्ध के समाप्त होने के बाद ही आईसीसी इस मामले में काम शुरु कर पाया. सौ से ज़्यादा लोगों के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाया गया, जिसमें पूर्व यूगोस्लाविया और सर्बिया के राष्ट्रपति स्लोबोदान मिलासोविच और बोस्निया के सर्बियाई नेता रादावान कराद्जिच और राथ्को म्लादजिच भी शामिल थे.
यह एक लंबी प्रक्रिया थी. आईसीसी ने बीस साल के अपने कार्यकाल में मानवता संबंधी अंतरराष्ट्रीय क़ानून में काफ़ी बदलाव लाए हैं. जहां 90 के दशक में यूरोप के योस्लाविया में लड़ाई चल रही थी वहीं 1994 में अफ़्रीकी देश रवांडा में देश पर नियंत्रण के लिए दो प्रमुख जातीय गुट, हूतू और तुत्सी के बीच लड़ाई शुरू हो गई थी.
1994 में हूतू चरमपंथियों ने केवल सौ दिन में आठ लाख तुत्सियों की हत्या कर दी. इस घटना के कुछ महीनों बाद ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने रवांडा के लिए आईसीसी का गठन कर दिया.
पैट्रिशिया ग्रिज़बेक कहती हैं, “इस न्यायालय की ख़ास बात यह थी कि इसके जांचकर्ताओं ने रवांडा सरकार में बड़े पदों पर बैठे शक्तिशाली लोगों के ख़िलाफ़ भी जांच शुरू की जिसमें कई मंत्री और प्रधानमंत्री तक शामिल थे. आम तौर पर राजनीतिक तौर पर प्रभावशाली लोग अपने गुनाहों की सज़ा पाने से बच जाया करते थे. मगर ज़ाहिर है कि इसके लिए रवांडा का सहयोग ज़रूरी था.”
दर्जनों लोगों को युद्ध अपराध का दोषी पाया गया इनमें रवांडा के पूर्व प्रधानमंत्री ज़ॉन कुंबाडा भी शामिल थे. वो दुनिया के पहले ऐसे राष्ट्र प्रमुख थे जिन्हें जनसंहार का दोषी पाया गया था. रवांडा ने भी विशेष अदालतें बनाई जो आईसीसी के साथ मिल कर काम करने लगीं और दर्जनों लोगों को सज़ा दी गई. हालांकि आईसीसी की यह दोनों अदालतें विशेष तौर पर पूर्व यूगोस्लाविया और रवांडा की लड़ाइयों के युद्ध अपराधियों को सज़ा देने के लिए बनी थी. लेकिन 1998 में सौ से ज़्यादा देशों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसका नाम था रोम स्टैट्यूट.
इसी के आधार पर युद्ध अपराधियों को सज़ा देने के लिए स्थायी अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय का गठन किया गया था. सिवाय कुछ महत्वपूर्ण देशों के ज़्यादातर देशों ने इस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को स्वीकार कर लिया.
अमोरिका, चीन और रूस ने आईसीसीस के अधिकार क्षेत्र को स्वीकार नहीं किया है.
यूक्रेन में युद्ध अपराध
यूक्रेन पर रूस के हमले शुरू होने के बाद एक साल से ज़्यादा का समय हो गया है और हमले की शुरुआत से अब तक लगातार युद्ध अपराधों के आरोप लगते रहे हैं.
फ़िर आईसीसी ने अभी क्यों रूसी राष्ट्रपति पुतिन के ख़िलाफ़ आरोप तय करके वारंट जारी किया?
इस बारे में बीबीसी ने मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच के यूरोप और मध्य एशिया इलाके की उपनिदेशक रेचेल डेनबर से बात की.
रेचेल डेनबर का कहना है, “अंतरराष्ट्रीय कोर्ट ने कहा है कि उसके पास गिरफ़्तारी का वारंट जारी करने के लिए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और रूस की बाल अधिकार आयोग की प्रमुख मारिया लवोवा-बेलोवा के ख़िलाफ़ युद्ध अपराधों के पर्याप्त सबूत इकठ्ठा हो गए हैं. उन पर यूक्रेन के रूसी कब्ज़े वाले इलाक़ों से बच्चों को ग़ैरकानूनी तरीक़ेसे यूक्रेन के दूसरे हिस्से और रूस भेजने के आरोप हैं. इसलिए वारंट जारी कर दिया गया है.”
रेचेल डेनबर कहती हैं हालांकि आईसीसी ने उन सबूतों का विस्तृत ब्यौरा नहीं दिया है लेकिन ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि उसने युद्ध अपराधों से जुड़े बहुत सारे सबूत जमा किए हैं और अदालत को सौंपे हैं.
रेचेल डेनबर का कहना है कि इसमें से कई मामले मोबाइल फ़ोन या कैमरों पर रिकार्ड किए गए हैं जो गवाहों ने इस संस्था को दिए हैं.
रेचेल डेनबर ने बीबीसी को बताया, “हमने एक ऐसे मामले के सबूत इकठ्ठा किए हैं जिसमें मरियुपोल से एक यूक्रेनी कार्यकर्ता सत्रह यूक्रेनी बच्चों के इलाज़ के लिए यूक्रेन के दूसरे इलाक़े में ले जाने की कोशिश कर रहा था लेकिन रूसी सरकार या उसके लिए काम करने वाले लोगों ने उसे रोक दिया और उन्हें कहीं और भेज दिया.”
रूस ने ऐसी घटनाओं का खंडन नहीं किया बल्कि कहा कि मानवता का कारण ही यूक्रेनी बच्चों को वहां से हटाया गया है. रिपोर्टों के मुताबिक़ बच्चों को बाहर भेजने की वारदातें बड़े पैमाने पर हो रही हैं.
रेचेल डेनबर का कहना है, “वो चाहे जो कहें लेकिन हाल में रूस ने अपने क़ानूनों में बदलाव कर के रूसी नागरिकों के लिए ऐसे बच्चों को गोद लेने को आसान बना दिया है ताकि ऐसे बच्चे रूसी बन जाएं. रूस चाहे जो वजह बताए लेकिन ये जिनेवा कन्वेंशन्स के ख़िलाफ़ है और युद्ध अपराध है.”
संभवत: नज़दीकी भविष्य में आईसीसी नए आरोप भी तय करे.
रेचेल डेनबर कहती हैं, “सबूतों की कोई कमी नहीं है. हमारे पास वीडियो फुटेज़ है जिसमें लोगों को मौत के घाट उतारा जा रहा है, बमबारी की जा रही है या लोगों को लड़ाई वाले इलाकों में खदेड़ा जा रहा है. हमने यह वीडियो देखने के बाद उन जगहों पर जा कर इसकी पुष्टि की है. गवाहों से मिल कर वीडियो में दिखाई गई घटनाओं की पुष्टि की है.”
ऐसा लगता है कि रूस के ख़िलाफ़ काफ़ी पुख़्ता मामला तैयार हो गया है. लेकिन पुतिन को अदालत के कटघरे में लाने के लिए क्या करना होगा?
वो मानते हैं कि ICC के अभियोजनकर्ताओं ने सोच समझ कर ही सीमित और विशिष्ठ मामले उठाए हैं ताकि मुक़दमे को लड़ने में आसानी रहे लेकिन यह रास्ता लंबा और पेचिदा है.
वो कहते हैं, “दुर्भाग्यवश, जहां तक गिरफ़्तारी का संबंध है, उस दिशा में कुछ ख़ास नहीं हो सकता. यह दुनिया में कई लोगों की मंशा हो सकती है कि व्लादिमीर पुतिन गिरफ़्तार किए जाएं. लेकिन उन्हें कौन गिरफ़्तार करेगा. रूसी तो नहीं करेंगे. यह तभी हो सकता है अगर रूस युद्ध हार जाए और उस पर दूसरे देश का कब्ज़ा हो जाए जिसकी संभावना ना के बराबर है.”
अब तक पुतिन केवल रूसी कब्ज़े वाले इलाक़ों में गए हैं. लेकिन अगर वो किसी ऐसे देश में जाते हैं जिसने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के समझौते पर हस्ताक्षर किए हुए हों तो वो देश क़ानूनी तौर पर पुतिन को गिरफ़्तार करने के लिए बाध्य होगा. लेकिन गैरी सिंपसन कहते हैं यह रास्ता विफल रहा है. इसका मतलब है कि फ़िलहाल तो आईसीसीस द्वारा जारी गिरफ़्तारी का वारंट केवल प्रतीकात्मक ही है.
गैरी सिंपसन ने कहा, “इससे यह संकेत दिया जा रहा है कि जिस स्तर पर कथित युद्धापराध के मामले यूक्रेन में बढ़ रहे हैं उसे देखते हुए आईसीसी इस दिशा में कुछ कर तो रहा है. लेकिन इससे पुतिन के दर्जे पर थोड़ा असर पड़ेगा और हो सकता है उनके लिए कुछ दिक्कतें बढ़ जाएं.”
क्या युद्ध अपराधों का अभियुक्त घोषित होने के बाद व्लादिमीर पुतिन को युद्ध समाप्ति के लिए बातचीत के लिए राज़ी करने में दिक्कत नहीं आएगी?
इस पर गैरी सिंपसन का कहना है, “सबसे पहली बात तो यह है कि पुतिन ऐसे किसी देश जाने से हिचकिचाएंगे जिसने आईसीसी के समझौते पर हस्ताक्षर कर रखे हों. इससे यूक्रेन के लिए और अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के सामने पुतिन के साथ कोई कूटनीतिक बैठक बुलाने में दिक्कत आएगी.”
एक बड़ी चिंता यह भी है की आईसीसी के गिरफ़्तारी वारंट जारी करने के बाद क्या पुतिन युद्ध को जारी रखने के लिए और कटिबद्ध तो नहीं हो जाएंगे?
गैरी सिंपसन कहते हैं, “इस तरह के मामलों मे युद्ध अपराध न्यायालय के शामिल होने के बाद अभियुक्त युद्ध ख़त्म करने से झिझकते हैं. वो सोचते हैं युद्ध अपराधी की तरह अपमान झेलने से मरना बेहतर है. तो वो कोशिश करते हैं कि किसी तरह युद्ध में जीत हासिल की जाए या कम से कम गिरफ़्तारी से हर हाल में बचा जाए. मुझे लगता है पुतिन ऐसे व्यक्ति हैं जो गिरफ़्तार होकर अपमानित होने के बजाय लड़ते हुए अंत तक जाना पसंद करेंगे.”
मुक़दमे की चुनौतियां
तो लौटते हैं अपने मुख्य सवाल पर कि क्या यूक्रेन में युद्ध अपराधों के लिए पुतिन के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाया जा सकेगा?
पुतिन को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के जजों के सामने पेश करना बड़ा चुनौतीपूर्ण होगा. रूस अंतरराष्ट्रीय न्यायालय को मान्यता नहीं देता. अगर पुतिन किसी ऐसे देश जाते हैं जिसने आईसीसी के गठन के समझौते पर हस्ताक्षर कर रखे हों तो वहां उनकी गिरफ़्तारी की संभावना है लेकिन ऐसा होने में काफ़ी वक़्त लग सकता है.
हालांकि उनके ख़िलाफ़ काफ़ी सबूत इकठ्ठा किए जा चुके हैं लेकिन ऐसी क़ानूनी प्रक्रियाओं में लंबा वक्त तो लगता ही है.
लेकिन ये बात भी सच है कि आईसीसी के इस फ़ैसले से उन लोगों को भरोसा मिला है कि क़ानून धीमी चाल ही सही लेकिन चल तो पड़ा है. पुतिन की गिरफ़्तारी फ़िलहाल बेहद मुश्किल नज़र आ रही हो, लेकिन क्लॉस क्रेसोविच कहते हैं कि अतीत में भी असंभव लगने वाली बातें संभव हुई हैं.
क्लॉस क्रेसोविच कहते हैं, “इसकी संभावना कम ही है लेकिन विश्व राजनीति में कुछ भी हो सकता है. रूस में सत्ता परिवर्तन हो सकता है या कुछ जनरल सरकार का तख़्ता पलट सकते हैं, या यूक्रेन लड़ाई जीत कर कुछ रूसी जनरलों को पकड़ लेता है तो मुक़दमा चल सकता है.”
“पुतिन की गिरफ़्तारी और मुक़दमा भले ही बहुत दूर की बात लगे लेकिन जब 1943 में जर्मन और जापान के युद्ध अपराधियों के लिए न्यूरेम्बर्ग में मुक़दमा चलाने का विचार पेश किया गया तो उस समय वह भी दूर की कौड़ी लगा होगा. लेकिन फिर दूसरे महायुद्ध के बाद वरिष्ठ जर्मन युद्ध अपराधियों सज़ा दी गई थी.”