फ़ेसबुक में क्या सब कुछ ठीक चल रहा है? 

Hindi International

DMT : अमरीकी  : (05 मार्च 2023) : –

यूज़र्स की संख्या के लिहाज़ से दुनिया का सबसे बड़ी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फ़ेसबुक अक्सर विवादों के घेरे में रहता है.

इंटरनेट सुरक्षा और डेटा प्राइवेसी के नियमों के उल्लंघन के मामले में अमरीका और यूरोपीय संघ ने इस पर जुर्माना भी लगाया है.

जनवरी 2023 में पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति ने एक महत्वपूर्ण लड़ाई जीती, हालांकि ये चुनावों में मिली जीत नहीं थी.

इस जीत के बाद फ़ेसबुक पर उन पर लगी रोक को हटा दिया गया. दो साल फ़ेसबुक से बाहर रहने के बाद अब वो चाहें तो फिर फ़ेसबुक पर अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं.

फ़ेसबुक ने पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति को साल 2020 में जो बाइडन से राष्ट्रपति चुनावों में हारने के बाद ब्लॉक कर दिया था. इसके बाद पूर्व राष्ट्रपति के हज़ारों समर्थकों ने चुनाव के परिणाम बदलने के लिए अमरीकी संसद को घेर लिया और जमकर विरोध प्रदर्शन किया. इस घटना में पांच लोग मारे गए थे.

उस समय फ़ेसबुक ने यह कह कर उन्हें ब्लॉक कर दिया कि उनके बयान से हिंसा भड़की है और उन्हें फ़ेसबुक पर तभी लौटने दिया जाएगा जब फ़ेसबुक इसे लेकर आश्वस्त हो जाएगा कि यहां उनके विचार व्यक्त करने से लोगों की सुरक्षा को ख़तरा नहीं है.

फ़ेसबुक इस्तेमाल करने वाले पूर्व राष्ट्रपति पहले भी कई पोस्ट के लिए विवादों में रहे थे. ऐसे में उन पर लगी रोक हटाने के फ़ेसबुक के फ़ैसले की तीखी आलोचना हुई. हालांकि फ़ेसबुक की भी आलोचना पहली बार हुई हो ऐसा नहीं है. दुनिया की एक चौथाई आबादी रोज़ाना फ़ेसबुक का इस्तेमाल करती है और ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अक्सर विवादों के घेरे में रहता है.

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में टेक्नॉलॉजी और मीडिया संबंधी विषय की वरिष्ठ शोधकर्ता और मीडिया विशेषज्ञ ज्यूदित डोनथ बताती हैं कि फ़ेसबुक से पहले भी कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म थे.

वो कहती हैं, “हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पांच छात्रों ने सोशल मीडिया में नाटकीय बदलाव लाने वाले फ़ेसबुक लॉन्च किया था. इसकी शुरुआत ऐसे हुई कि वहां पढ़ने वाले छात्रों की जानकारी के बारे में एक पेपर डायरेक्टरी होती थी जिसमें छात्रों के फ़ोटो और बायोडेटा होता था. इस डायरेक्टरी का नाम था- फ़ेसबुक. इन छात्रों ने वही नाम अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म के लिए चुना.”

वो कहती हैं, “पेपर डायरेक्टरी में लोगों को ढूंढना मुश्किल होता था और उस पर आप कमेंट भी नहीं कर सकते थे. उन्होंने एक ऐसा प्लेटफार्म बनाने की कोशिश की जिसमें लोगों को ढूंढना आसान था. कंप्यूटर साइंस और मनोविज्ञान के छात्र मार्क ज़करबर्ग फ़ेसबुक बनाने वाले छात्रों में से एक थे. इसे लेकर उनके पास बड़ी योजना थी.”

फ़ेसबुक के सफ़र के बारे में ज्यूदित डोनथ कहती हैं, “शुरुआत उन्होंने यूनिवर्सिटी से की लेकिन बाद में इसे दूसरे विश्विद्यालयों में भी शुरू किया गया. यह ऐसी चीज़ थी कि जितने ज़्यादा लोग इससे जुड़ेंगे यह उतनी ही अधिक फ़ायदेमंद होगी. दूसरी यूनिवर्सिटी के छात्र इससे जुड़े, उनके अपने दोस्त और नेटवर्क थे फिर उसमें उनके रिश्तेदार भी जुड़ गये और यह नेटवर्क फैलता चला गया.”

2006 में फ़ेसबुक एक बड़ा सोशल मीडिया प्लेटफार्म बन गया जो दूसरों को टक्कर देने लगा.

उस समय मायस्पेस और फ़्रेंडस्टर जैसे दूसरे भी लोकप्रिय और बड़े सोशल मीडिया नेटवर्क थे जहां लोग अपने परिचितों की प्रोफ़ाइल देख सकते थे और उनके दोस्तों के बारे में जान सकते थे.

लेकिन वो ‘स्टैटिक’ वेबसाइट थे, वहां कुछ बदलाव नहीं होता था. इसलिए फ़ेसबुक ने इसे बदलने के लिए अपने प्लेटफार्म पर न्यूज़फ़ीड का फ़ीचर लांच किया.

ज्यूदित डोनथ कहती हैं, “फ़ेसबुक ने इसकी शुरुआत की. अब लोग अपनी रोज़मर्रा की गतिविधि के बारे में दूसरों को बता सकते थे. उनकी ज़िंदगी में क्या चल रहा है. वो कहां जा रहे हैं और क्या कर रहे हैं. इससे उनके इर्दगिर्द उनके दोस्तों के नेटवर्क में एक सरगर्मी शुरु हो गई.”

अब ज़्यादातर लोग ऐसा करने के बारे में दो बार नहीं सोचते. लेकिन जब यह पहली बार शुरु हुआ तो लोगों के लिए यह बहुत नई बात थी.

ज्यूदित डोनथ का मानना है कि मार्क ज़करबर्ग ने फ़ेसबुक के शुरुआती डिज़ाइन को बनाते समय यह भांप लिया था कि लोग एक-दूसरे के बारे में जानने के लिए काफ़ी उत्सुक होते हैं, यही उनका कॉनसेप्ट था.

इसके बारे में वो कहती हैं कि ‘कांटेक्ट कोओप्ट’ एक अवधारणा है जिसका मतलब है कि हम केवल अपने दोस्तों के बारे में ही नहीं बल्कि उनके भी दोस्तों के बारे में भी जानने लगते हैं.

कई बार हम एक बात जो एक ख़ास व्यक्ति से कहना चाहते हैं वो औरों से नहीं कहते. लेकिन फ़ेसबुक पर कही बात अब एक बड़े नेटवर्क तक पहुंच रही थी. इससे जानकारी देने के तरीके के साथ-साथ आपसी संबंधों के समीकरण भी बदलने लगे.

ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बेहद तेज़ी से सफल हुआ. चार साल में फ़ेसबुक ने मायस्पेस को पीछे छोड़ दिया. बाद में कई और सोशल नेटवर्किंग साइट आईं लेकिन फ़ेसबुक फिर भी नंबर वन पर रहा.

जनवरी मे फ़ेसबुक की चौथी तिमाही के नतीजे सामने आए जिससे पता चला उसके यूज़र्स की संख्या तीन करोड़ नब्बे लाख से बढ़ गई थी. यानी दो अरब लोग रोज़ फ़ेसबुक का इस्तेमाल करते हैं.

लेकिन एक बड़ा सवाल ये है कि फ़ेसबुक की कमाई कैसे होती है?

क्लिक के बदले में कैश

फ़ेसबुक की मिलकियत फ़ेसबुक नाम की कंपनी के पास थी. लेकिन 2021 में इस कंपनी का नाम बदल कर मेटा प्लेटफ़ॉर्म यानी मेटा कर दिया गया.

इसके व्यापार के बारे में बीबीसी ने ब्रिटेन की कार्डिफ़ यूनिवर्सिटी में मीडिया स्टडी विभाग में वरिष्ठ शोधकर्तो डॉक्टर मर्लिन कोमोरोवस्की से बात की.

वो कहती हैं, “इसका मुख्य कारोबार विज्ञापन या एडवर्टाइज़िंग है. इसकी 98 प्रतिशत कमाई एडवर्टाइज़िंग से ही होती है. शुरुआत से ही इसे विज्ञापन की रणनीति के आधार पर बनाया गया था. हम जो समय फ़ेसबुक पर बिताते है उसी से इसकी कमाई होती है.”

लोग फ़ेसबुक पर विज्ञापन देते हैं और देखते हैं. लेकिन मेटा ने कई सोशल नेटवर्किंग साइट जैसे कि व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम को ख़रीद लिया है.

डॉक्टर मर्लिन कहती हैं, “यह सभी कंपनियां अपने सोशल मीडिया यूज़र्स के बारे में जानकारी इकठ्ठा करती हैं. मिसाल के तौर पर कई वेबसाइट पर रजिस्टर करने के लिए आप अपने फ़ेसबुक अकाउंट का इस्तेमाल करते हैं. यह जानकारी विज्ञापनों के प्रभावी इस्तेमाल में काम आती है. विज्ञापन देने वाली कंपनियां अपने उपभोक्ताओं की ज़रूरत के हिसाब से इन वेबसाइट पर विज्ञापन देती हैं. और इसके लिए वो फ़ेसबुक को पैसे देती हैं.”

वो कहती हैं, “फ़ेसबुक पर कंपनियों के विज्ञापन देखकर लोग उस कंपनी की वेबसाइट पर जाते हैं और चीज़ें ख़रीदते हैं. इन विज्ञापनों पर जितने ज़्यादा लोग क्लिक करते हैं फ़ेसबुक को उतने ज़्यादा पैसे मिलते हैं. यानी अगर रोज़ाना कम लोग फ़ेसबुक पर साइन-इन करें तो उसकी कमाई भी कम होती है.”

उतार चढ़ाव

2022 में लगातार तीन तिमाहियों तक फ़ेसबुक की कमाई गिरती गई थी. लेकिन चौथी तिमाही में इसकी कमाई 32 अरब डॉलर हुई जो विश्लेषकों के अनुमान से बेहतर थी.

फ़ेसबुक ने 2022 में कुल 116 अरब डॉलर कमाए. अरबों लोग फ़ेसबुक का इस्तेमाल करते हैं लेकिन 13 से 19 साल की बीच की उम्र के लोग इसे टालते रहते हैं जो भविष्य में इसकी कमाई के लिए बड़ा ख़तरा बन सकता है.

डॉक्टर मर्लिन कहती हैं, “फ़ेसबुक इस्तेमाल करने वाला सबसे बड़ा आयुवर्ग है 25 से 34 साल की उम्र के लोगों का, जो इसके सब्सक्राइबरों का एक चौथाई हिस्सा है. लेकिन बड़ी संख्या में 60 से अधिक की उम्र के लोग भी इसका इस्तेमाल करते हैं. दूसरे सोशल मीडिया के मुक़ाबले इस आयु वर्ग के लोग फ़ेसबक पर सबसे ज़्यादा हैं.”

लेकिन विज्ञापन देने वालों की नज़र में यह अच्छी बात है या बुरी? डॉक्टर मर्लिन समझाती हैं, “यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि एडवर्टाइंज़िंग कंपनी की दिलचस्पी किस आयु वर्ग में है. लेकिन अगर युवा उपभोक्ता आपसे नहीं जुड़ रहे हैं तो भविष्य में आपकी प्रासंगिकता ख़तरे में पड़ सकती है.”

“दूसरी बात यह है कि फ़ेसबुक केवल विज्ञापन से कमाई पर निर्भर है जो कम-ज़्यादा हो सकती है. मिसाल के तौर पर गूगल फ़ोन के साथ-साथ कई तरह की सुविधाएं बेच रही है. कमाई के एकमात्र ज़रिए पर निर्भर रहना थोड़ा मुश्किल है.”

हाल के दिनों में मेटा ने अपनी कंपनी की ब्रैंडिंग बदली है. उसने मेटावर्स में अरबों डॉलर का निवेश किया है. मेटावर्स का मतलब एक ऐसी डिजिटल दुनिया से है जिसमें सीखने, खेलने या जानकारी बांटने के साथ-साथ आप ख़ुद अपने डिजिटल रूप में एकदूसरे से जुड़े होंगे. मगर ऐसा होने में अभी काफ़ी समय लगेगा.

डॉक्टर मर्लिन कहती हैं, “साल 2023 के लिए मेटा का लक्ष्य कंपनी को किफ़ायती बनाने का है इसलिए वो ख़र्च घटा रही है. इसी कारण मार्क ज़करबर्ग ने पिछले साल के अंत में तेरह हज़ार लोगों को नौकरी से निकाल दिया. यह तरीका सही है या नहीं कहना मुश्किल है.”

क़ानून के साथ भी फ़ेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के टकराव की ख़बरें आती रहती हैं. इस बारे में बीबीसी ने न्यूहैंपशर यूनिवर्सिटी के क़ानून विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर टिफ़नी ली से बात की.

प्रोफ़ेसल टिफ़नी मानती हैं कि फ़ेसबुक कई बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समस्याओं में घिर चुका है.

वो कहती हैं, “मेरे हिसाब से सबसे बड़ा मामला 2018 में केंब्रिज एनालिटिका का था जिसमें कंपनी ने कई थर्ड पार्टी डेवलपर्स को फ़ेसबुक इस्तेमाल करने वालों की निजी जानकारी का इस्तेमाल करने की अनुमति दी थी ताकि दूसरी कंपनियां अपने विज्ञापन उन लोगों तक पहुंचा सकें.”

“केंब्रिज एनालिटिका ऐसी ही एक थर्ड पार्टी डेवलेपर थी और उन्होंने इस जानकारी का इस्तेमाल लोगों की अनुमति के बिना और फ़ेसबुक के नियमों के विरुद्ध किया.”

दरअसल केंब्रिज एनालिटिका एक पॉलिटिकल एडवाइज़र कंपनी थी जिसकी सेवाएं 2016 में डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव प्रचार में ली गई थी. ट्रंप यह चुनाव जीत गए थे जिसके बाद 2018 में ये घोटाला सामने आया.

उस वक्त पता चला कि साढ़े आठ करोड़ से अधिक मतदाताओं की जानकारी का इस्तेमाल उनकी अनुमति के बिना चुनाव प्रचार में किया गया था. इसके आधार पर डॉनाल्ड ट्रंप के समर्थकों तक प्रचार संबंधी विज्ञापन पहुंचाए गए थे.

टिफ़नी ली कहती हैं, “इससे वैश्विक स्तर पर एक विवाद खड़ा हो गया था. कोई नहीं चाहता कि उनकी जानकारी का इस्तेमाल उनके ख़िलाफ़ हो. ख़ास तौर पर जब इसका इस्तेमाल करने वालों के इरादे नेक ना हों. इसके अलावा कई और समस्याएं भी सामने आईं, जैसे कि निजता की समस्या, प्राइवसी का मसला, ग़लत जानकारी फैलाने और चुनाव परिणाम को प्रभावित करने का मामला सामने आए. वहीं फ़ेसबुक और इसके दूसरे प्लेटफ़ार्म पर कोरोना से जुड़ी साज़िशों की अफवाहें भी फैलाई गईं, नफ़रत फैलाने वाले बयान आते रहे, इंटरनेट पर लोगों के उत्पीड़न के मामले सामने आए.”

आम तौर पर कोई कंपनी होती तो इसमें से किसी एक मामले की वजह से ख़त्म हो जाती, मगर फ़ेसबुक बंद नहीं हुआ.

टिफ़नी ली कहती हैं, “केंब्रिज एनालिटिका मामले के बाद कई कंपनियों ने फ़ेसबुक पर विज्ञापन देना बंद कर दिया. कुछ ने सार्वजानिक तौर पर कहा कि वो ऐसे प्लेटफ़ार्म का समर्थन नहीं कर सकते जिसमें चुनावों को ग़लत तरीके से प्रभावित करने की संभावना हो. लेकिन आख़िर में चाबी तो यूज़र्स के हाथ में है. अगर यूज़र्स इस प्लेटफार्म पर रहेंगे तो विज्ञापन कंपनियां भी रहेंगी.”

जवाबदेही

लेकिन अगर समस्या आती है तब फ़ेसबुक किस के प्रति जवाबदेह होगा और उससे सवाल कौन करेगा?

इस विषय पर टिफ़नी ली कहती हैं कि बड़ी तकनीकी कंपनियों की जवाबदेही नहीं है और यही बड़ी समस्या यही है.

वो कहती हैं, “दुनिया में अलग-अलग तरह की व्यवस्थाएं हैं. अमरीका में इन कंपनियों के संचालन संबंधी नियम क़ानून काफ़ी नर्म है और इन कंपनियों को काफ़ी आज़ादी है. यूरोपीय संघ और ब्रिटेन में क़ानून ज़्यादा सख़्त हैं.”

जुर्माना

पिछले सालों में फ़ेसबुक ने क़ानूनी मामलों के निपटारे के लिए अरबों डॉलर जुर्माने में दिए हैं. 2021 दिसंबर में केंब्रिज एनालिटिका मामले में बिना कोई ग़लती माने उसने सत्तर करोड़ डॉलर से अधिक का जुर्माना देना स्वीकार कर लिया.

डेटा प्राइवसी उल्लंघन के मामले में फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर यूरोपीय संघ ने जनवरी में चालीस करोड़ डॉलर का जुर्माना लगाया.

टिफ़नी ली कहती हैं, “फ़ेसबुक नियमों संबंधी कई मुश्किलों का सामना कर रहा है. अमरीका की सुप्रीम कोर्ट में दो केस आने वाले हैं जिनका संबंध इंटरनेट पर ऍल्गोरिदम से है, जो यूज़र्स को सामर्गी सुझाता है. इसमें ऐसी सामग्री भी हो सकती है जिसका संबंध आतंकवाद से हो और क़ानून के दायरे में आए. फ़ेसबुक और कई अन्य इंटरनेट कंपनियों को ऐसी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा.”

मगर साथ ही वो याद दिलाती हैं कि नियंत्रण संबंधी इन नियमों का असर विकिपीडिया जैसी कई छोटी कंपनियों पर भी पड़ सकता है जो मुनाफ़े के लिए काम नहीं करती.

‘मूव फास्ट एंड ब्रेक थिंग्स’

शुरूआती दिनों में चलन था कि बड़ी कंपनियों के अपने स्लोगन होते थे.

गूगल का स्लोगन था ‘डोंट भी ईविल’ (बुराई से बचें). ठीक वैसे फ़ेसबुक का स्लोगन था ‘मूव फास्ट एंड ब्रेक थिंग्स’ (तेज़ी से बढ़ें और परंपराओं को तोड़ें’)

टिफ़नी ली कहती हैं, “यह सिलिकॉन वैली का मंत्र है. अब उनकी समझ में आ रहा है कि यह तरीका क़ामयाब नहीं होगा. जब उनकी कंपनी पैर जमा रही थी वो बहुत-सी बातें करते थे लेकिन अब वो ये नहीं कर सकते. अब उन्हें कानूनों का पालन करना होता है और साथ-साथ यूज़र्स का समर्थन भी बरकरार रखना होता है.”

नया युग नई चुनौतियां

पिछले कुछ सालों में बाज़ार में कई नई सोशल मीडिया कंपनियां आ चुकी हैं, जो फ़ेसबुक के लिए नई चुनौतियां पेश कर रही हैं. लेकिन क्या फ़ेसबुक इन कंपनियों से पिछड़ सकता है?

इस बारे में बीबीसी ने बात की कार्ल मिलर से जो डेवॉस में सेंटर फ़ॉर एनालिसिस ऑफ़ सोशल मीडिया के शोध निदेशक हैं.

वो मानते है कि सोशल मीडिया की दुनिया में फ़ेसबुक को दूसरे प्लेटफॉर्म से कड़ी चुनौती मिलना कोई अजीब बात नहीं है. मिसाल के तौर पर वीडियो शेयरिंग एप टिक टॉक.

वो कहते हैं, पिछले साल ये ऐप सबसे ज़्यादा बार यानी क़रीब 70 करोड़ वार डाउनलोड किया गया. ये युवाओं में काफ़ी लोकप्रिय है.

हालांकि टिक टॉक की समस्या यह है कि इसका स्वामित्व एक चीनी कंपनी के पास है और कई देशों ने डेटा प्राइवसी को लेकर चिंता जताई है.

भारत ने उस पर प्रतिबंध लगाया है. वहीं अमरीका में केंद्र सरकार से जुड़े कंप्यूटर और मोबाइल फ़ोन और यूनिवर्सिटी कैंपस में इस पर प्रतिबंध है. कई सांसद इस पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की मांग भी कर रहे हैं.

कार्ल मिलर कहते हैं, “हाल के दिनों में तकनीकी कंपनियों के लिए अमरीका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ में कई नियम और दिशानिर्देश या तो आ गए हैं या लाए जा रहे हैं. इन टेक कंपनियों को अब इन क़ानूनों के दायरे में काम करना होगा. हम एक नए युग में प्रवेश कर रहे हैं और नियमों का उल्लंघन करने पर कंपनी पर न केवल जुर्माना लगेगा बल्कि अपराधिक मामला भी बनेगा.”

किसी भी सोशल मीडिया वेबसाइट के पास अधिकार होता है कि वो किसे अपने प्लेटफ़ार्म पर रहने दे और किसे निकाल दे. लेकिन इसमें ग़लत फ़ैसला लेने के जोखिम हैं. वैसे ही कोई फ़ैसला ना करना भी ख़तरनाक हो सकता है.

मेटावर्स के सीईओ मार्क ज़करबर्ग कई सालों से सरकारों से इंटरनेट गतिविधि को नियंत्रित करने की अपील कर रहे हैं, ख़ासतौर पर प्राइवेसी, हानिकारक सामग्री और निष्पक्ष चुनावों के संबंध में.

कार्ल मिलर कहते हैं, “जैसे-जैसे कंपनियां बड़ी होती गईं उन्हें यह तय करने की ज़रूरत महसूस हुई की क्या सही है क्या नहीं. घृणा फैलाने वाले बयान क्या हैं, उनका क्या स्वरूप है? आतंकवादी संगठन क्या हैं. पहले यह फ़ैसले सरकारी तंत्र करता था. अब इन पर नियंत्रण के लिए क़ानून लाए जा रहे हैं जो कंपनी के साथ-साथ आम लोगों की सुरक्षा के लिए भी ज़रूरी है.”

मगर साथ ही कार्ल मिलर यह भी कहते हैं कि दरअसल अमरीका में होने वाले अगले राष्ट्रपति चुनाव फ़ेसबुक के लिए परीक्षा की घड़ी साबित हो सकते हैं.

चुनाव प्रचार में एक-दूसरे पर आरोप लगाए जाएंगे और सही-ग़लत तरीक़े से मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश होगी.

इस चुनौती से निपटने के लिए फ़ेसबुक की तैयारी पर कार्ल मिलर कहते हैं, “फ़ेसबुक 2016 के अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव के मुक़ाबले इस बार समस्या को कहीं अधिक गंभीरता से ले रहा है. लेकिन इसके लिए उसकी टीम परफेक्ट तरीक़े से काम कर रही है या नहीं ये कहना मुश्किल है. लेकिन पहले से ज़्यादा मुस्तैदी के साथ वो अपने प्लेटफार्म पर होने वाली गतिविधियों की निगरानी करने लगा है.”

कार्ल मिलर कहते हैं कि फ़ेसबुक अपने प्लेटफार्म पर ग़लत जानकारी के प्रचार-प्रसार पर रोक लगाने के लिए कई क़दम उठा सकता है. इनमें लोगों को सीमित संख्या में पोस्ट करने देना और इस्तेमाल करने वालों के बारे में सही जानकारी प्राप्त करने और उसे वेरिफ़ाई करने जैसे काम हो सकते हैं.

क्या फ़ेसबुक में सब कुछ ठीक चल रहा है?

सोशल मीडिया में तीन साल भी लंबा अरसा होता है, ऐसे में 19 सालों तक दूसरों से आगे बने रहना एक बड़ी उपलब्धि है.

यह इस कदर हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है कि नज़दीकी भविष्य में हम इसे छोड़ने की कल्पना तक नहीं कर सकते.

मगर फ़ेसबुक के सामने मुश्किलें ज़रूर हैं. इसका भविष्य निर्भर है इंसानी फितरत और बर्ताव पर जिसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है.

कार्ल मिलर कहते हैं, “लोग असमंजस से भरे होते हैं, वो ग़लत इरादों से प्रेरित भी होते हैं. ऐसे में उनके बर्ताव का अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है. दुनिया में विचारों का ध्रुवीकरण और ग़ुस्सा दिखता है और फ़ेसबुक पर भी इसी तरह उलझन साफ़ नज़र आती है.”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *