बिहार में छोटी पार्टियों को रिझाने में जुटी बीजेपी, कितनी होगी सफल?

Bihar Hindi

DMT : बिहार  : (14 मार्च 2023) : –

बिहार की बड़ी पार्टी आरजेडी के नेताओं से सीबीआई की पूछताछ और उनके ठिकानों पर ईडी की तलाशी लगातार सुर्ख़ियों में बनी हुई है.

केंद्रीय एजेंसियों की इस कार्रवाई से बिहार में सत्तारूढ़ महागठबंधन काफ़ी नाराज़ नज़र आ रहा है. इस मुद्दे पर आरजेडी और जेडीयू दोनों ही दलों के नेता बीजेपी पर एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगा रहे हैं.

दूसरी तरफ़ बीजेपी राज्य में ज़मीनी स्तर पर लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुटी हुई है. हाल ही में पार्टी ने राज्य में ज़िला स्तर पर अपने संगठन में भी बदलाव किया है.

इसके अलावा बीजेपी के बड़े नेता लगातार राज्य का दौरा कर रहे हैं.

बीजेपी बिहार में अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों को देखते हुए राज्य की छोटी-छोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश में भी नज़र आ रही है.

पिछले सप्ताह बिहार प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष संजय जायसवाल और लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान के बीच की मुलाक़ात को भी इसी नज़रिए से देखा जा रहा है.

साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के साथ जेडीयू भी एनडीए का हिस्सा थी. उस चुनाव में बिहार की 40 में से 39 सीटों पर एनडीए की जीत हुई थी.

बिहार में बीजेपी के लिए साल 2019 के प्रदर्शन को दोहरा पाना आसान नहीं होगा. ख़ासकर किसी बड़ी पार्टी के साथ गठबंधन न होने से बीजेपी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं.

बिहार की सियासत में छोटी पार्टियों में लोक जनशक्ति पार्टी की ताक़त सबसे ज़्यादा मानी जाती है. साल 2019 के लोकसभा चुनावों में एनडीए में शामिल इस पार्टी को 6 सीटों पर जीत मिली थी.

हालांकि पार्टी के संस्थापक रामविलास पासवान के निधन के बाद एलजेपी दो गुटों में बंट चुकी है. इसका एक गुट पशुपतिनाथ पारस के नेतृत्व में एनडीए से जुड़ा हुआ है.

जबकि दूसरा धड़ा चिराग पासवान के साथ है. चिराग पासवान एनडीए से अलग हैं, लेकिन अब वो भी धीरे-धीरे बीजेपी के क़रीब जाते नज़र आ रहे हैं.

दिसंबर महीने में मुज़फ़्फ़रपुर के कुढ़नी में हुए विधानसभा उपचुनाव के दौरान चिराग पासवान ने बीजेपी के लिए प्रचार भी किया था.

वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी मानते हैं कि महागठबंधन के पास बिहार में फ़िलहाल क़रीब 45 फ़ीसदी वोट है, जबकि बीजेपी के पास महज़ 24 फ़ीसदी वोट है.

कन्हैया भेलारी कहते हैं, “चिराग पासवान यानी लोक जनशक्ति पार्टी के 6 फ़ीसदी वोट और 3 फ़ीसदी कुशवाहा वोट जोड़ दें तो भी यह महागठबंधन से काफ़ी पीछे है.”

वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं कि अगर आरजेडी और जेडीयू सच में सारे मतभेद भुला कर और एकजुट होकर चुनाव लड़ें तो बिहार में बीजेपी का क्या हाल होगा, यह आशंका बीजेपी को हमेशा घेरे रहती है.

मणिकांत ठाकुर कहते हैं, “बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने बिहार में पार्टी को हमेशा नीतीश कुमार का पिछलग्गू बनाकर ही रखा है. बीजेपी बिहार में कितनी क़ाबिल है यह उसके नेता कभी दिखा ही नहीं पाए हैं.”

मणिकांत ठाकुर के मुताबिक़, अगर छोटे दल बीजेपी के साथ आते हैं तो बीजेपी अपने पक्ष में माहौल बनाने या महागठबंधन पर सवाल उठाने और आलोचना करवाने में इन दलों का इस्तेमाल कर सकती है.

लेकिन इसका एक नुक़सान यह भी हो सकता है कि अगर छोटे दलों ने ज़्यादा बड़ा मुंह खोला या उनकी मांग ज़्यादा बड़ी हुई तो यह एक तनाव भी पैदा कर सकता है.

ऐसा ही कुछ हाल ‘वीआईपी’ के मुकेश सहनी का है. मुकेश सहनी मूल रूप से दरभंगा के रहने वाले हैं. मुकेश सहनी मुंबई फ़िल्म उद्योग से बिहार की राजनीति में आए हैं और उनको उस चकाचौंध का एक फ़ायदा मिला है.

सहनी मछुआरा समुदाय से आते हैं और उनका दावा रहा है कि केवल निषाद ही नहीं बल्कि बिंद, बेलदार, तियार, खुलवत, सुराहिया, गोढी, वनपार और केवट समेत क़रीब 20 जातियां-उपजातियां उनके समुदाय का हिस्सा हैं.

वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद के मुताबिक़, मुकेश सहनी की बिरादरी में कई उपजातियां शामिल हैं. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सब सहनी के साथ ही हैं, वो ज़मीनी नेता भी नहीं रहे हैं.

लेकिन ये लोग अगर अपने दम पर एक-दो फ़ीसद वोट भी बीजेपी को दिला पाते हैं तो इसका फ़ायदा बीजेपी को होगा.

मुकेश सहनी ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन के साथ मिलकर तीन सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. हालांकि उनकी ‘विकासशील इंसान पार्टी’ को इसमें कोई सफलता नहीं मिली थी.

दूसरी तरफ़ साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में वीआईपी के तीन विधायक चुनकर आए थे. लेकिन मार्च 2022 में तीनों ही बीजेपी में शामिल हो गए थे.

2020 के विधानसभा चुनावों में ‘वीआईपी’ उपेंद्र कुशवाहा की तब की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी से ज़्यादा सफल रही थी. आरएलएसपी को उन चुनावों में एक भी सीट नहीं मिली थी.

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी गया और इसके आसपास के इलाक़े में महादलित समुदाय के बीच असर रखते हैं.

मांझी अपने विधायक बेटे संतोष सुमन को बिहार का मुख्यमंत्री बनवाने की महात्वाकांक्षा पाले हुए हैं. इसलिए साझीदार होने के बाद भी मांझी को लेकर महागठबंधन पूरी तरह उन पर भरोसा नहीं करता है.

हालांकि जीतन राम मांझी ने हाल ही में बयान दिया है कि वो नीतीश कुमार को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे, नीतीश ने उन्हें सीएम बनाया था और यह छोटी बात नहीं है.

वहीं जीतन राम मांझी कभी ब्राह्मणों पर तो कभी ‘राम’ पर अपने बयानों से विवाद खड़ा कर चुके हैं. जबकि ‘राम’ बीजेपी की राजनीति का अहम हिस्सा रहे हैं.

ऐसे में बीजेपी जीतन राम मांझी को साथ लाने की कितनी कोशिश कर सकती है, यह भी ग़ौर करने लायक होगा. फिर भी राजनीति में भविष्य में कौन कहां होगा इसका अंदाज़ा लगाना आसान नहीं है.मणिकांत ठाकुर कहते हैं, “इन सारे छोटे-छोटे दलों के नेताओं की बुनियाद बड़ी नहीं होती है. इनका चुनावी वज़न काफ़ी कम होता है. इनको हार और जीत सब मिली होती है. ये ख़ुद हार कर भी ख़ुद को बहुत बड़ा नेता बताते दिखते हैं.”

महागठबंधन की परेशानी

बिहार सरकार में सत्ता पर क़ाबिज़ महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी ‘राष्ट्रीय जनता दल’ के नेता और क़रीबी लोग सीबीआई के सवालों और ईडी की तलाशी में उलझे हुए हैं.

लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्री रहते साल 2004-09 के बीच कथित तौर पर रेलवे में नौकरी के बदले लालू परिवार को ज़मीन दी गई थी. सीबीआई ने इस मामले की जांच फिर से शुरू की है.

वहीं राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू पहले अपने ही नेता उपेंन्द्र कुशवाहा से परेशान रही. कुशवाहा के बाद तमिलनाडु में बिहारी मज़दूरों पर कथित हमले को लेकर बीजेपी ने नीतीश पर हमला शुरू कर दिया.

ख़ास बात यह भी है कि यह ख़बर एक अफ़वाह और ‘साज़िश’ के तौर पर सामने आई है. फिर भी जेडीयू या आरजेडी जैसी पार्टी आक्रमक तरीके से बीजेपी पर पलटवार करने में नाकाम दिखी है.

पिछले साल महागठबंधन की सरकार बनने बाद से कभी ज़हरीली शराब से मौत और शराबबंदी को लेकर उठ रहे सवालों का दबाव भी नीतीश कुमार पर बना हुआ है.

बिहार में महागठबंधन में शामिल कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी विरोधी पार्टियों के साथ समीकरण बनने के इंतज़ार में हैं.

सीएसडीएस के प्रोफ़ेसर संजय कुमार कहते हैं, “कांग्रेस बस बिहार को लेकर निश्चिंत है कि आने वाले लोकसभा चुनावों के लिए बिहार में उसके पास एक गठबंधन है, बाक़ी ज़्यादातर राज्यों में उसे गठबंधन बनाने में भी मुश्किलें आ रही हैं.”

‘सुरक्षा की सियासत’

माना जाता है कि बिहार में जेडीयू से बग़ावत कर नई पार्टी बनाने वाले उपेंद्र कुशवाहा एक बार फिर एनडीए के साथ जा सकते हैं.

केंद्र सरकार ने उपेंद्र कुशवाहा को हाल ही में Y+ श्रेणी की सुरक्षा दी है. बिहार में बीजेपी विरोधी पार्टी लगातार यह आरोप लगा रही थी कि बीजेपी के इशारे पर ही कुशवाहा ने जेडीयू से इस्तीफ़ा दिया है और अपनी नई पार्टी बनाई है.

केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय की तरफ़ से मुकेश सहनी को भी इसी कैटेगरी की सुरक्षा दी गई है. मुकेश सहनी राज्य सरकार में मंत्री रह चुके हैं और विकासशील इंसान पार्टी यानी वीआई के प्रमुख भी हैं.

जबकि लोजपा (रामविलास) के नेता और सांसद चिराग पासवान को भी गृह मंत्रालय ने कुछ ही दिन पहले ज़ेड कैटेगरी की सुरक्षा दी है.

सीएसडीएस के संजय कुमार कहते हैं, “जिन नेताओं को सुरक्षा दी गई है वो इतने बड़े नेता नहीं हैं. लेकिन बीजेपी एक तरह का इशारा कर रही है कि देखो हम तुम्हारा ध्यान रखते हैं. यह साफ़ तौर पर उनको रिझाने की कोशिश का संकेत है.”

दरअसल बिहार जैसे राज्य या पूरे भारत में किसी नेता के साथ सरकारी सुरक्षा होना उसकी हैसियत से भी जुड़ा है. जिसके पास जितनी सुरक्षा, वह उतना बड़ा नेता माना जाता है.

मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ” नेताओं को सुरक्षा ज़रूरत देखकर नहीं दी गई है. सुरक्षा में 10 बंदूकधारी होने से नेताओं को लगता है कि इससे जनता उन्हें वज़नदार नेता मान लेगी. दरअसल इस तरह के नेताओं में जनता को अपने दम पर आकर्षित करने की ताक़त कम होती है.”

उनका कहना है कि इसके लिए जनता दोषी है. बिहार जैसे राज्य के लिए यह दुर्भाग्य है कि जनता के लिए बुनियादी ज़रूरत मुद्दा नहीं है, जनता नेताओं के दिखावे, प्रचार और तामझाम के पीछे भागती है.

हालांकि बीजेपी का कहना है कि सरकार किसी भी वीआईपी को आईबी की रिपोर्ट के बाद सुरक्षा देती है, इसमें बीजेपी की कोई भूमिका नहीं है.

ख़ास बात यह भी है कि ये सारे नेता फ़िलहाल छोटी-छोटी पार्टियों का नेतृत्व कर रहे हैं. इन सभी के पास कुछ इलाक़ों या कुछ समुदायों में अपना वोट बैंक माना जाता है.

महागठबंधन की तैयारी

बीजेपी अगर ज़्यादातर छोटे दलों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब होती है तो इसका नुक़सान महागठबंधन को होगा.

बिहार के सटे और राजनीतिक रूप से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में यादवों और मुस्लिमों का एक बड़ा वोट समजावादी पार्टी के साथ माना जाता है. इसके बाद भी बीजेपी वहां लोकसभा से लेकर विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत हासिल कर पाई है.

सीएसडीएस के संजय कुमार के मुताबिक़, बीजेपी शुरू से ही ऐसी राजनीति करती रही है जिसमें वह ओबीसी वर्ग के अंदर भी सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी अन्य जातियों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश करती है.

संजय कुमार कहते हैं, “यूपी में बीजेपी ने यादवों को छोड़ बाक़ी पिछड़ी जातियों को जोड़ने की कोशिश की है. उसने हरियाणा में नॉन जाट पॉलिटिक्स शुरू की, झारखंड में ग़ैर आदिवासी सीएम बनाया, महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़णवीस के तौर पर ग़ैर मराठा मुख्यमंत्री बनाया.”

बिहार में भी बीजेपी इसी तरह की तैयारी कर रही है और इससे मुक़ाबला करने के लिए महागठबंधन भी अपनी रणनीति पर काम करती दिखती है.

बिहार के शिक्षा मंत्री प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर का रामचरितमानस पर बार-बार बयान देना और इससे विवाद खड़ा होना इसी का एक हिस्सा माना जाता है.

इसे बिहार में ‘मंडल बनाम कमंडल’ की राजनीति से जोड़कर देखा जाता है ताकि बिहार में ‘मंडल’ की राजनीति पूरी ताक़त और संगठन के साथ आगे बढ़े और बीजेपी को आगे बढ़ने से रोका जा सके.

वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी कहते हैं, “मुझे लगता है कि नीतीश कुमार भी चाहते हैं कि बिहार में मंडल को कमंडल से बाहर निकाला जाए. बिहार में आगे की राजनीति ‘मंडल’ और ‘कमंडल’ पर ही होगी.”

बिहार में क़रीब 80 फ़ीसदी जातियां मंडल की राजनीति का हिस्सा रही हैं. वहीं बीजेपी पर आमतौर पर सवर्ण जातियों की पार्टी होने का आरोप लगाया जाता है.

ऐसे में मंडल को लेकर किसी भी ध्रुवीकरण का फ़ायदा आरजेडी जैसी पार्टी को हो सकता है जो शुरू से मंडल की राजनीति का समर्थक रही है.

पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट के प्रोफ़ेसर विद्यार्थी विकास का भी कहना है कि 1990 के दशक में मंडल की राजनीति को जैसा समर्थन मिला था, उसे आज धार्मिक उन्माद ने दबा दिया है और इस उन्माद में लोगों को अपनी ग़रीबी और बेराज़गारी तक की चिंता नहीं है.

उनका कहना है कि चंद्रशेखर के बयान से यह भी संभावना है कि लोग रामचरितमान और मनुस्मृति जैसी पुस्तकों को ख़ुद पढ़ें औपर जानें कि इसमें असल में क्या लिखा है और इससे मंडल की राजनीति को एक बार फिर ताक़त मिल सकती है.

दूसरी तरफ लालू प्रसाद यादव के ज़माने से ही बिहार में राजपूतों का एक वर्ग आरजेडी के साथ रहा है. लालू के ज़माने में पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुंवश प्रसाद सिंह का पार्टी और तत्कालीन यूपीए सरकार में बड़ा क़द था.

वहीं आज भी बिहार प्रदेश के आरजेडी अध्यक्ष जगदानंद सिंह राजपूत नेता हैं और उन्हें लालू का क़रीबी माना जाता है.

जगदानंद सिंह के बेटे और आरजेडी विधायक सुधाकर सिंह कई बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी कर चुके हैं, लेकिन आज तक उन पर पार्टी की तरफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई है.

माना जाता है कि सुधाकर सिंह पर कार्रवाई से आरजेडी के राजपूत वोट बैंक को नुक़सान हो सकता है. वहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बीजेपी के परंपरापरागत वोट बैंक में भी सेंध लगाने की रणनीति पर काम करते दिखते हैं.

नीतीश कुमार कई बार संकेत दे चुके हैं कि बिहार सरकार शिवहर के पूर्व सांसद आनंद मोहन की सज़ा माफ़ करने के लिए काम कर रही है.

आनंद मोहन गोपालगंज के डीएम रहे जी कृष्णैया की हत्या के आरोप में सज़ायाफ़्ता हैं. हाल के दिनों में बेटी की सगाई और शादी के लिए वो दो बार परोल पर बाहर भी आए हैं.

आनंद मोहन राजपूत बिरादरी से आते हैं. उनके बेटे चेतन आनंद शिवहर से आरजेडी के विधायक हैं. अगर बीजेपी अपनी रणनीति में महागठबंधन के कुछ वोट अपनी तरफ़ खींच लेती है तो महागठबंधन भी राजपूत वोट का एक हिस्सा अपनी तरफ़ लाने की तैयारी करता दिखता है.

ओवैसी फ़ैक्टर

बिहार की राजनीति में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम भी एक फ़ैक्टर रही है. इस पार्टी का सीमांचल के इलाक़े में अच्छा असर माना जाता है.

साल 2020 के विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम को 5 सीटें मिली थीं, हालांकि बाद में इसके चार विधायक आरजेडी में शामिल हो गए थे.

वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद मानते हैं कि ओवैसी का असर हैदराबाद तक ही है, सीमांचल में मुसलमानों की सुरजापुरी जैसी कई जातियां हैं जिनके अपने मुद्दे और अपने नेता हैं और उन्हीं को जनता ने वोट दिया था.

सुरूर अहमद कहते हैं, “ओवैसी पढ़े-लिखे हैं. उनको बोलना तो आता ही है. कुछ और वजहों से भी मीडिया में जगह मिल जाती है तो लगता है कि वो हैदराबाद से बाहर भी असर रखते हैं.”

नीतीश कुमार ने सीमांचल के पूर्णिया में पिछले महीने हुई महागठबंधन की रैली में एआईएमआईएम पर निशाना भी साधा था. नीतीश ने नाम लिए बग़ैर आरोप लगाया था कि सब जानते हैं कि वो (असदुद्दीन ओवैसी) किसके आदमी हैं.

ओवैसी पर बीजेपी को फ़ायदा पहुंचाने के लिए मुस्लिम वोट में सेंध लगाने का आरोप अक्सर लगता है. हालांकि फ़िलहाल बिहार में उनकी पार्टी को लेकर ज़्यादा हलचल नहीं है.

मौजूदा हालात में अगले साल का लोकसभा चुनाव बीजेपी के लिए कितनी बड़ी चुनौती होगी?

इस पर संजय कुमार कहते हैं, “बिहार में कांटे का मुक़ाबला हो सकता है और बीजेपी के लिए चुनाव बड़ा चैलैंज भी होगा. अगर वह 20 सीट भी ले आती है तो अपनी पिछली बार की संख्या बचा लेगी.”

वहीं मणिकांत ठाकुर कहते हैं कि छोटे दलों के साथ आने से बीजेपी को एक तरह का संबल मिलेगा, वह इस झेंप को मिटा पाएगी कि महागठबंधन में सात दल हैं तो उनके साथ भी कुछ दल हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *