मंजू, मुन्नी और शर्मीला दिल्ली के जंतर-मंतर पर क्यों डटी हैं?

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DMT : दिल्ली : (16 फ़रवरी 2023) : –

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक फ़रवरी को साल 2023-24 का बजट पेश किया था.

इसके ठीक दूसरे दिन से ही मुल्क के अलग-अलग हिस्सों में ग्रामीण रोज़गार के लिए ‘बेहद कम बजट आवंटन, काम मिलने और हाज़िरी के लिए नया ऐप सिस्टम लागू किए जाने और उसकी दिक्क़तों’ और दूसरी मांगो को लेकर मज़दूर सड़कों पर उतर आए.

दो फ़रवरी वही दिन है जब ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून को पहली बार (2006) देश के दो सौ ज़िलों में लागू किया गया था और सरकार इसे हर वर्ष राष्ट्रीय नरेगा दिवस के तौर पर मनाती है.

कर्नाटक में भोजन के अधिकार के लिए काम करनेवाली संस्था ग्रामीण कुली कार्मिक संगठन के कार्यकर्ता अभय कुमार कहते हैं मज़दूरों ने नरेगा की तल्ख़ सच्चाइयों को उजागर करने के लिए उसी दिन का चयन किया और आगे की लड़ाई के लिए कमर कस ली है.

बारह दिनों तक पश्चिम बंगाल से लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और देश के दूसरे राज्यों में रैलियों और जुलूसों के बाद मज़दूरों का ये जत्था तीन दिनों पहले दिल्ली पहुंच गया है.

दिल्ली के जंतर मंतर पर जमा इन मज़दूरों का कहना है कि वो तब तक यहां से वापिस नहीं जाएंगे जबतक केंद्र सरकार उनकी नहीं सुन लेती और न्यूनतम मज़दूरी को बढ़ाए जाने से लेकर, नई हाज़िरी प्रक्रिया और दूसरे मुद्दों पर कोई ठोस फ़ैसला नहीं ले लिया जाता है.

जंतर मंतर पर जमा जत्थे में से हमने चंद लोगों से बात की.

मंजू देवी, ग्राम नारीकूद्र, वैशाली

तीन साल बीत चुके हैं, जिस दौरान कोरोना महामारी उग्र रूप लेकर मद्धम हो गई, लेकिन मंजू देवी को आज भी अपनी मज़दूरी का इंतज़ार है. मंजू देवी की मज़दूरी की देनदारी केंद्र सरकार के पास है.

साल 2020 में मंजू देवी ने तालाब और नहरों की खुदाई का जो काम किया था, उसमें उनके साथ पंचायत की 56 दूसरी औरतें भी थीं. मंजू देवी के अनुसार, उनमें से कुछ को ही उनके काम के पैसे मिले हैं और वो भी आधे-अधूरे.

जंतर-मंतर के शोर के बीच मंजू देवी कहती हैं, “रोज़गार सेवक के पास दसियों बार जा चुके हैं लेकिन वो हर बार यही कहता है कि अभी पैसे नहीं आए हैं, हम पढ़े-लिखे नहीं हैं, क्या करें?”

साल 2005 में जब रोज़गार गारंटी क़ानून पास किया गया था तो उसकी शर्तों में शामिल दो अहम शर्ते थीं – समय से मज़दूरी का भुगतान और साल भर में कम से कम सौ दिन.

धरने में शामिल स्वंयसेवी कार्यकर्ता आयशा हालांकि ये मानती हैं कि सौ दिन काम की बात तो पूरी तरह से कभी लागू नहीं हो पाई लेकिन हालात “अब बद से बदतर होते जा रहे हैं.”

मंजू देवी के साथ उसी इलाक़े से आए कार्यकर्ता संजय सहनी का दावा है कि सरकार का ध्यान मनरेगा पर है ही नहीं और वो इसे धीरे-धीरे समाप्त करना चाहती है.

मंजू देवी और उनकी महिला साथियों को पिछले तीन साल में, साल 2020 के अलावा, ग्रामीण रोज़गार के भीतर किसी तरह काम नहीं मिला है, बाबू कहता है कि ‘कम्मे नहीं है, जब हम काम मांगते हैं.’

परिवार का गुज़ारा फ़िलहाल उनके शब्दों में, “लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा करके चल रहा है, क्योंकि पति को टीबी की बीमारी है, वो काम नहीं कर सकते, छोटे बेटे को जिसे कारख़ाने में काम पर लगाया था उसका पंजे का कुछ हिस्सा कट गया और वो घर बैठ गया है.”

“काम करने वाले में बस हम हैं, और दो बेटे, एक होटल में बैरा का काम करता है और दूसरा मज़दूरी.”

सरकार ने इन आरोपों का जवाब देते हुए कहा है कि मनरेगा के भीतर तक़रीबन 96 फ़ीसद मामलों में भुगतान पंद्रह दिनों के भीतर किया गया है, काम पाने की योग्यता रखनेवाले 99.81 प्रतिशत परिवारों का काम मिला है और एनएमएमएस ऐप में पैदा हो रही दिक्क़तों का निपटारा किया जा रहा है.

शर्मीला देवी, जांताडी, मुज़फ्फ़रपुर

मंजू देवी की तरह भारत सरकार को शर्मीला देवी द्वारा किए गए काम के भी पैसे देने हैं. इस मामले में बक़ाया रक़म है छह हज़ार रुपये.

बुधवार दोपहर बाद हमसे बातें करते हुए मुखर शर्मीला देवी कहती हैं, “खटते हैं, मोदी जी पइसा (पैसा) नहीं देंगे तो खाएंगे क्या, बाल-बच्चों को पढ़ाएंगे कैसे?”

बजट के बाद भोजन के अधिकारों के लिए काम करनेवाले पचास संगठनों के समूह ‘नरेगा संघर्ष मोर्चा’ ने कहा था कि अगले वित्तीय वर्ष के लिए जिन 60 हज़ार करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया है उसमें से 9,400 करोड़ रुपये पिछले साल का बक़ाया चुकाने में ही निकल जाएगा जिसके बाद पूरे साल के लिए महज़ पचास हज़ार करोड़ रुपयों की रक़म बच पाएगी जो योजना को लागू करने के लिए बेहद कम पड़ेगी.

पीपुल्स एक्शन फॉर एम्पलॉयमेंट गारंटी नाम की संस्था की कार्यकर्ता रक्शिता कहती हैं कि नरेगा के लिए जो 60 हज़ार करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं वो योजना के लागू होने के 16 सालों में सबसे कम कुल जीडीपी का 0.198 प्रतिशत है.

पिछले बजट में योजना के तहत 73 हज़ार करोड़ रुपयों का प्रावधान था जिसे बढ़ाकर बाद में 89,400 करोड़ रुपये करना पड़ा था.

क़ानून तैयार होते समय कहा गया था कि इसपर सरकार कम से कम जीडीपी का एक फ़ीसद होगा. हालांकि स्वंयसेवी कार्यकर्ता मानते हैं कि एक प्रतिशत आवंटन की बात को योजना लानेवाली कांग्रेस ने भी कभी लागू नहीं किया और नरेगा का बजट हमेशा से कम ही रहा है.

शर्मीला देवी जैसे लोग बजट में की गई सरकार की कमियों का ख़ामियाज़ा भुगत रहे हैं.

बेहद नाराज़गी में वो कहती हैं, “तीन दिन से हम यहां बैठे हैं, घर पर बाल-बच्चों को छोड़कर लेकिन सरकार कान में तेल डालकर सो रही है, मज़दूरों की क्यों नहीं सुन रही?”

सवालिया लहजे में पूछती हैं कि “अगर हम लोगों को दिक्क़त नहीं होती तो हम यहां आकर सड़क पर क्यों बैठते?”

इससे थोड़ी देर पहले ही केंद्रीय ग्रामीण मंत्रालय के अधिकारियों से मिलने की ग़र्ज़ से मंत्रालय गया नरेगा संघर्ष मोर्चा के कार्यकर्ताओं का एक समूह घंटे भर बाद वापिस लौटा है और बताता है कि शासन में से कोई भी अधिकारी उनसे मिलने को तैयार नहीं हुआ.

शायद ये बात शर्मीला देवी तक भी पहुंच गई है.

कोरोना के पहले मिले काम का जिसके पैसे सरकार को उन्हें देने हैं, शर्मीला देवी को अगला काम इस साल जनवरी में मिला.

आश्वस्त स्वर में कहती हैं जितने दिनों का काम किया उसकी हाज़िरी लग गई वरना नए हाज़िरी सिस्टम ने लोगों को अलग परेशान कर रखा है.

मुन्नी कुमारी, आग़ा नगर, मुज़फ्फ़रपुर

मुन्नी कुमारी का काम है अपने गांव में नरेगा मज़दूरों की हाज़िरी लगाना जिसके लिए उन्हें सुबह नौ बजे और दोपहर दो बजे मोबाइल पर मज़दूरों का काम करते हुए फ़ोटो अपलोड करना होता है.

इस काम के लिए प्रशासन ने मुन्नी कुमारी को एक स्मार्ट फ़ोन भी दे रखा है लेकिन उनकी शिकायत है कि नेटवर्क इस क़दर ख़राब रहता है कि अक्सर वो हाज़िरी लगाने की इस प्रक्रिया को पूरा ही नहीं कर पाती हैं, जिससे लोगों की हाज़िरी पूरी नहीं होती और उन्हें काम के पैसे नहीं मिल पाते हैं.

मुन्नी कुमारी नरेगा संघर्ष मोर्चा की उस मांग का समर्थन करती हैं कि ऐप बेस्ड हाज़िरी सिस्टम को समाप्त किया जाए.

ज़मीन पर भोजन और रोज़गार के अधिकारों के तहत काम करनेवाली संस्थाओं के अनुसार, सरकार ने नेशनल मोबाइल मॉनिटरिंग सिस्टम के तहत हाज़िरी को जो प्रक्रिया शुरू की है उसकी वजह से इस सिस्टम के लागू होने के बाद कम से कम पचास फ़ीसद ग्रामीणों ने अपनी मज़दूरी गंवाई है.

अभय कुमार कहते हैं कि अगर हाज़िरी लग जाए तो उसे दुरुस्त करवाने का कोई सिस्टम नहीं है क्योंकि ब्लॉक से लेकर ज़िला तक किसी भी अधिकारी को उसका अधिकार नहीं है और सिस्टम सीधा केंद्रीय कार्यालय से लिंक्ड है जो मज़दूरी के पैसे खातों में भेजता है.

केंद्र सरकार धीरे-धीरे पेंशन से लेकर स्कॉलरशिप, राशन, मनरेगा सभी को इस सिस्टम के तहत लाती जा रही है लेकिन दिक्क़त ये है कि बहुत सारे इलाक़ों में नेटवर्क लंबे समय तक ग़ायब हो जाता है या तो बेहद धीमा होता है जिसमें तस्वीर जैसी हेवी फ़ाइल को अपडोल नहीं किया जा सकता है.

स्वंयसेवी कार्यकर्ता राज शेखर कहते हैं कि सरकार ये सारी दिक्क़ते बस इसिलिए पैदा कर रही क्योंकि वो चाहती है कि लोगों की रुचि स्कीम में ख़त्म हो जाए और लोग मुफ़्त राशन जैसी योजना के कारण मोदी सरकार पर आश्रित बने रहें और उसे वोट डालते रहें.

जंतर मंतर पर धरने में शामिल दो सौ लोगों में से अधिकांश महिलाएं हैं.

‘नरेगा संघर्ष मोर्चा’ के उत्कर्ष कहते हैं कि इस बात की तरफ़ ध्यान दिलाने की ज़रूरत है कि मनरेगा जैसे क़ानून का सबसे अधिक फ़ायदा महिलाओं को हुआ है.

उत्कर्ष कहते हैं कि शायद पहली बार महिलाओं के हाथ में इस तरह से बड़ी रक़म काम करने से आई जिसने उनके भीतर एक तरह की जागरूकता और हिम्मत पैदा की है.

वो कहते हैं, “हमें तो लगता है कि महिलाओं के हितों की बात करने वाली सरकार को इस और बढ़ चढ़कर लागू करना चाहिए.”

मुन्नी कुमारी का साथ आया इनका नन्हा बच्चा इस बीच रोने लगता है, जिसे चुप कराने के बाद वो कहती हैं कि सरकार को चाहिए कि वो पुराना रजिस्टर सिस्टम लागू करे जिसे बाद में कंप्यूटर में फ़ीड किया जा सके क्योंकि इसमें किसी तरह के ग़लत को सुधारने की गुंजाइश हमारे पास रहती है.

मुन्नी कुमारी को हालांकि सरकार ने ऐप चलाने के लिए स्मार्ट फ़ोन तो दे दिया है लेकिन किसी तरह की ट्रेनिंग इस मामले में उनको नहीं दी गई.

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