DMT : नई दिल्ली : (06 ਅਕਤੂਬਰ 2023) : –
बिहार की 40 लोकसभा सीटों के लिए ‘इंडिया’ की तरह ‘एनडीए’ के सामने कई मुश्किलें आ सकती हैं. दोनों गठबंधनों में कई दल शामिल हैं.
राज्य में ‘इंडिया’ की तरह ‘एनडीए’ के सामने छोटे दलों की महत्वकांक्षा पूरी करने की चुनौती होगी.
एनडीए में अभी बिहार की हाजीपुर सीट पर चिराग पासवान की दावेदारी का मामला सुलझ नहीं पाया है. इसी बीच एनडीए के नए साझेदार हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) ने अपनी एक नई मांग रख दी है. हम (सेक्युलर) के नेता जीतन राम मांझी ने जमुई लोकसभा सीट पर अपनी पार्टी का दावा किया है.
जीतन राम मांझी ने कहा है कि जमुई सीट भोला मांझी की सीट है. वे यहां के सांसद थे. यह सीट मुसहरों और भुइयां की सीट है. जमुई को लेकर एनडीए में सीट देने की बात होगी तो हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा मांग रखेगी कि भोला मांझी की विरासत को कायम रखा जाए.
जीतन राम मांझी की इस मांग से बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए के अंदर एक खींचतान हो सकती है, क्योंकि इस सीट से फ़िलहाल एलजेपी (रामविलास) के नेता चिराग पासवान सांसद हैं. चिराग 2014 और 2019 में यहां से चुने गए थे.
चिराग पासवान के जमुई से सांसद होने के सवाल पर मांझी ने पत्रकारों से कहा, “ऐसा बहुत होता है. बहुत से लोग अपनी सीट बदलते हैं. सीट देना न देना एनडीए के नेताओं का काम है. हमारा काम है अपनी मांग रखना और मांग रखना तो ग़लत नहीं है.”
जमुई के सांसद रहे भोला मांझी कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया यानी सीपीआई के नेता थे. भोला मांझी 1971 में जमुई सीट से लोकसभा पहुंचे थे. इलाक़े में उनकी छवि एक साफ़ ईमानदार नेता के तौर पर मानी जाती है.
जीतन राम मांझी की इस मांग पर एलजेपी (रामविलास) के प्रवक्ता धीरेंद्र मुन्ना ने बीबीसी से कहा, “जमुई सीट मांगने का क्या मतलब है? जमुई सीट का फ़ैसला एनडीए की बैठक में होगा, मीडिया में नहीं. हर पार्टी बिहार की सभी चालीस सीटों पर तैयारी कर रही है, लेकिन अंतिम फ़ैसला गठबंधन करेगा.”
हाल ही में जमुई की एक सभा में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी और उनके बेटे संतोष सुमन ने भी जमुई सीट पर एक तरह से अपना दावा पेश किया है.
जीतन राम मांझी कुछ हफ़्ते पहले ही बिहार में महागठबंधन का साथ छोड़कर एनडीए के साथ फिर से जुड़े हैं.
यह माना जाता है कि जीतन राम मांझी गया की एक लोकसभा सीट को साझेदारी में ख़ुद के हिस्से में देखते हैं. मांझी इस सीट से साल 2014 में चुनाव लड़ चुके हैं. यह सीट उनके इलाक़े में भी आती है. इसके अलावा कुछ अन्य सीटों पर भी उनकी नज़र है.
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में गया की सीट उस वक़्त एनडीए के साझेदार रही जेडीयू ने जीती थी.
लेकिन मांझी जिस आधार पर जमुई की सीट पर अपनी पार्टी का दावा करते हैं, उसी आधार पर गया सीट पर उनकी दावेदारी कमज़ोर हो सकती है, क्योंकि गया से रामस्वरूप राम भी सांसद रहे हैं, जो पासवान बिरादरी से आते हैं. ऐसे में एलजेपी भी गया सीट पर अपना दावा पेश कर सकती है.
वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, “एनडीए में सीटों का बंटवारा बहुत मुश्किल हो सकता है, यह उसी समय समझ में आ रहा था जब पिछली बार हमने एनडीए की बैठक देखी थी, जिसमें प्रधानमंत्री भी मौजूद थे. बीजेपी से लिए यह एक बड़ी उलझन हो जाएगी कि वो अपने ही सहयोगियों के बीच तालमेल कैसे बैठाए. हाजीपुर सीट के लिए पहले ही चाचा-भतीजा यानी पशुपति कुमार पारस और चिराग पासवान के बीच खींचतान चल रही है.”
उनके मुताबिक़ जीतन राम मांझी की मांग बहुत हैरान करने वाली नहीं है. जब रामविलास पासवान जीवित थे, तभी से उनके और जीतन राम मांझी के बीच दलितों के नेता होने के मुद्दे पर खींचतान चलती रही है. दोनों एनडीए में रहकर भी एक-दूसरे के ख़िलाफ़ बोलते थे.
रामविलास पासवान को बिहार में दुसाध (पासवान) के नेता के तौर पर देखा जाता था, जबकि जीतन राम मांझी मुसहर (महादलित) समाज से निकलकर आए हैं. साल 2019 में मांझी बिहार में महागठबंधन का हिस्सा थे और कहा जाता था कि अगर वो जमुई से चुनाव लड़ें तो चिराग पासवान को कड़ी टक्कर दे सकते हैं.
हालांकि वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी का मानना है कि सीटों की साझेदारी में न तो केंद्र की सत्ता में बैठी ‘एनडीए’ में कोई मुश्किल होगी और न विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन में.
लोग बहुत कुछ मांगते हैं, लेकिन जीतन राम मांझी को गया छोड़कर कोई सीट नहीं मिलेगी और वो भी इस बात को जानते हैं.
कन्हैया भेलारी कहते हैं, “एनडीए का मामला रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान और चिराग के चाचा पशुपति कुमार पारस के बीच फंस रहा है. पारस और चिराग पासवान दोनों ही वह सीट चाहते हैं. चिराग पासवान कुल 6 लोकसभा सीट चाहते हैं, जैसा पिछली बार भी एलजेपी को मिला था.”
दरअसल हाजीपुर सीट एक तरह से रामविलास पासवान की पहचान के साथ जुड़ी है.
यह सीट एलजेपी के लिए अन्य सीटों के मुक़ाबले थोड़ी सुरक्षित भी मानी जाती है. पशुपति पारस और चिराग पासवान इस सीट को रामविलास पासवान की विरासत से भी जोड़कर देखते हैं. इसलिए दोनों ही यह सीट चाहते हैं.
रामविलास पासवान के निधन के बाद उनकी लोक जनशक्ति पार्टी दो धड़ों में बंट चुकी है.
पार्टी में टूट के बाद चाचा पशुपति पारस एनडीए के साथ बने रहे जबकि चिराग पासवान उससे अलग हो गए थे.
चिराग पासवान हाल ही में बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए में दोबारा शामिल हुए हैं.
हाजीपुर सीट पर चिराग की दावेदारी के मुद्दे पर पशुपति कुमार पारस तीखी प्रतिक्रिया दे चुके हैं.
जबकि चिराग पासवान हाजीपुर सीट छोड़ने को तैयार नहीं दिखते हैं. ऐसे में एनडीए गठबंधन की सबसे बड़े पार्टी बीजेपी के लिए इस मसले को सुलझाना ज़रूरी है.
बिहार की बात करें तो यहां विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन में आरजेडी और जेडीयू के अलावा कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां भी शामिल हैं.
यही हाल एनडीए का है जिसमें बीजेपी के अलावा एलजेपी के दो धड़े, जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा भी होंगे. अगले साल होने वाले चुनावों में दोनों प्रमुख गठबंधनों को अपने घटक दलों को संतुष्ट करना होगा.
उपेंद्र कुशवाहा हाल ही में जनता दल यूनाइटेड से अलग होकर एनडीए के खेमे में आए हैं.
#साल 2014 के चुनावों में कुशवाहा बीजेपी के साझेदार रहे थे. उन चुनावों में कुशवाहा की पार्टी को सीतामढ़ी, काराकट और जहानाबाद तीन सीटों पर जीत मिली थी. काराटक से ख़ुद उपेंद्र कुशवाहा ने चुनाव जीता था.
2018 के अंत में कुशवाहा एनडीए से अलग हो गए और 2019 के लोकसभा चुनाव में वो बिहार में विपक्षी महागठबंधन के साथ आ गए. यहाँ उनका पूर्वानुमान फ़ेल हो गया. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी.
कन्हैया भेलारी कहते हैं कि जेडीयू और आरजेडी ने यह लगभग तय कर लिया है कि किस पार्टी को कितनी सीटें देंगे.
भेलारी कहते हैं, “मेरा मानना है कि वो कांग्रेस को चार से ज़्यादा सीट नहीं देंगे. यही बीजेपी के साथ है और वह कम से कम 28 सीट पर चुनाव लड़ेगी. जहां तक उपेंद्र कुशवाहा की बात है तो अब वो जाएंगे कहां.”
कुशवाहा की आरएलएसपी को साल 2019 चुनावों में गठबंधन में पाँच सीटों पर चुनाव लड़ने को मिला था, जिनमें से काराकट और उजियारपुर दो सीटों पर कुशवाहा ख़ुद चुनाव लड़े थे, लेकिन वो दोनों ही जगहों पर हार गए थे.
नचिकेता नारायण कहते हैं, एनडीए की स्थिति साल 2014 में भी लगभग आज वाली ही थी, उस समय जीतन राम मांझी नहीं थे, लेकिन उपेंद्र कुशवाहा और रामविलास पासवान एनडीए के साथ थे. जेडीयू उस वक़्त भी एनडीए के साथ नहीं थी. ऐसा लगता है कि इस बार भी साल 2014 की तरह बीजेपी बिहार में अपने सहयोगियों के लिए क़रीब दस सीट छोड़ेगी.
लेकिन बिहार में मुद्दा कौन सी पार्टी कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगी, वह नहीं, बल्कि यह बन सकता है कि कौन किस सीट से चुनाव लड़ेगा. ज़ाहिर है कोई भी उम्मीदवार ऐसी सीट से चुनाव लड़ना चाहेगा, जहां से उसे जीतने की संभावना ज़्यादा दिख रही हो.
उपेंद्र कुशवाहा ने इसी साल फ़िर से एक नई पार्टी ‘राष्ट्रीय लोक जनता दल’ बनाई है. एनडीए में उपेंद्र कुशवाहा को लेकर मामला फ़िलहाल शांत दिख रहा है, लेकिन यहां भी कुशवाहा की सीट को लेकर मामला फंस सकता है और इसके बीज पिछले लोकसभा चुनावों में उनकी हार में दिखते हैं.
नचिकेता नारायण कहते हैं, “बीजेपी अपना दबदबा दिखाकर, जिसे जहां से चाहे चुनाव लड़वा लेगी, लेकिन चिल्लाएंगे तो सभी साझेदार कि हमें एनडीए में लाए हैं और हमारे तबके का वोट चाहते हैं तो ऐसी सीट से लड़वाएं जहां से जीतने की संभावना हो.”
नचिकेता नारायण के मुताबिक़, “काराकट ऐसी सीटों में है जहां ‘महागठबंधन’ ज़्यादा मज़बूत स्थिति में है, यह जेडीयू की सीटिंग सीट है. यहां आरजेडी और सीपीआईएमएल की भी अच्छी मौजूदगी है. ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा भी अपने लिए थोड़ी सुरक्षित यानी उजियारपुर सीट मांग लें जो नित्यानंद राय की सीट है, तो बीजेपी क्या करेगी?”
उजियारपुर सीट से फ़िलहाल केंद्रीय गृह राज्य मंत्री और बीजेपी नेता नित्यानंद राय सांसद हैं. वो यहां से साल 2014 में भी चुनाव जीत चुके हैं.
उन्हें आगे भी यही सीट ख़ुद के लिए सुरक्षित दिख सकती है. हर उम्मीदवार का लक्ष्य जीत के लिहाज से थोड़ी सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ना होता है. यह बात छोटे से बड़े क़द तक के नेताओं पर लागू होती है.
नरेंद्र मोदी भी साल 2014 में दो सीट से चुनाव लड़े थे.
गुजरात के अलावा उन्होंने अपने लिए उत्तर प्रदेश की एक सीट बनारस चुनी थी, रायबरेली या अमेठी नहीं. इसी तरह से राहुल गांधी भी सुरक्षित सीट की तलाश में पिछले लोकसभा चुनाव में अमेठी के अलावा केरल के वायनाड पहुंच गए थे.
बिहार में पिछले लोकसभा चुनावों में बीजेपी के गिरिराज सिंह भी बेगुसराय से चुनाव नहीं लड़ना चाह रहे थे, वो नवादा सीट ही चाहते थे जहां से वो सांसद थे. बेगुसराय सीट से उस वक़्त सीपीआई के कन्हैया कुमार भी चुनाव लड़ रहे थे.
हालांकि बाद में गिरिराज सिंह बड़े अंतर से चुनाव जीत गए थे.
बिहार में सोमवार को जाति आधारित गणना के आंकड़े जारी होने के बाद फ़िलहाल राजनीतिक बहस इसी पर चल रही है.
लेकिन अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में साझेदारी को लेकर बात आगे बढ़ते ही इस मुद्दे पर अभी कई तरह की सियासी खींचतान देखने को मिल सकती है.