DMT : यूक्रेन : (13 मार्च 2023) : –
‘पहले अलार्म ये बताने के लिए बजता है कि मिसाइलों से हमला होने वाला है. फिर उन हमलावर मिसाइलों को नष्ट करने के लिए जवाबी मिसाइलें दाग़ी जाती हैं. जब ये सब होता है तो हमें बहुत डर लगता है. हम ख़ुद को बचाने के लिए तहख़ाने की तरफ़ भागते हैं.’
‘आजकल हमले तेज़ हो गए हैं. कई बार तो हवाई हमले का अलार्म दिन में चार बार बजता है. बल्कि, आज सुबह जब मैं सोकर उठा तो, हवाई हमले की चेतावनी देने वाले अलार्म पहले ही चीख़ रहे थे और ल्वीव जहां हम रहते हैं, वहां से कई जवाबी मिसाइलें दाग़ी जा चुकी थीं.’
‘कई बार जब हम बाहर टहल रहे होते हैं तो बहुत से विमान और हेलीकॉप्टर उड़ते हुए हमारे ऊपर से गुज़रते हैं. इसके बाद हमारी चिंता बढ़ जाती है… हमें इस बात का ख़ौफ़ होता है कि क्या जल्दी ही कोई हमला होने वाला है.
हाल ही में हमने सिर्फ़ बिजली की सुविधा के लिए अपना अपार्टमेंट बदला था. पहले हम हर महीने 100 डॉलर (लगभग 8100 रुपए) किराया दे रहे थे. अब हमें हर महीने 350 डॉलर (लगभग 28,600 रुपए) किराया देना पड़ रहा है. हमारा तो सुकून ही ख़त्म हो गया है.’
इन तजुर्बों में दो बातें एक जैसी हैं. पहला तो ये यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे भारतीय छात्रों का अनुभव है.और वो यूक्रेन से मुझसे ये बातें कह रहे थे और बता रहे थे कि वो हर दिन किन हालातों का सामना करते हैं. जबकि, पिछले साल जब यूक्रेन में जंग शुरू हुई थी तो इन सबको सुरक्षित निकालकर भारत लाया गया था.
अभी पिछले साल, जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था तो 23 हज़ार भारतीयों (जिनमें लगभग 18 हज़ार मेडिकल के छात्र थे) को स्वदेश ले आया गया था. सरकार ने यूक्रेन में फंसे इन भारतीयों को अपने देश वापस लाने के लिए ऑपरेशन गंगा चलाया था और इन सबको यूक्रेन के पड़ोसी देशों से विमान के ज़रिए स्वदेश पहुंचाया गया था.
यूक्रेन में इस वक़्त भयंकर युद्ध चल रहा है और वहां रह रहे भारतीय नागरिकों के लिए सरकार की ताज़ा एडवाइज़री यही है कि ‘वो फ़ौरन यूक्रेन से निकल जाएं.’
फिर भी, मेडिकल के बहुत से भारतीय छात्र, पढ़ाई पूरी करने यूक्रेन वापस चले गए हैं. जिन छात्रों से बीबीसी ने बात की, उन्होंने बताया कि अभी और भारतीय छात्र यूक्रेन पहुंचने वाले हैं.
इस बात को समझने के लिए बीबीसी, पिछले कई हफ़्तों से भारतीय छात्रों से लगातार बातचीत कर रहा है.
वैसे तो पहले यूक्रेन पढ़ने गए कई भारतीय छात्रों ने अब दूसरे देशों के विश्वविद्यालयों में दाख़िला ले लिया है. लेकिन, अभी भी ऐसे बहुत से भारतीय छात्र हैं जो कई कारणों से ऐसा नहीं कर पाए हैं. ऐसे छात्रों ने ही यूक्रेन वापस जाने का फ़ैसला किया.
एमबीबीएस सेकेंड ईयर में पढ़ाई कर रही वैशाली सेठिया ऐसी ही एक छात्रा हैं. वैशाली, दिल्ली के पास फ़रीदाबाद की रहने वाली हैं. उनसे हमारी मुलाक़ात पश्चिमी यूक्रेन की टर्नोपिल नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी (TNMU) के कैंपस में हुई, जहां वो ऑनलाइन और क्लास में बैठकर, दोनों ही तरह से पढ़ाई कर रही हैं.
हमने वैशाली से पूछा कि आख़िर वो यूक्रेन में क्यों हैं?
”अब आप ही बताइए कि आख़िर हम यहां से कैसे निकल सकते हैं? या तो हम अपनी पढ़ाई नए सिरे से शुरू करें. अगर मैं ऐसा करती हूं तो मुझे फ़र्स्ट ईयर से फिर से पढ़ाई शुरू करनी पड़ेगी. और इसके अलावा पूरी फ़ीस भी दोबारा देनी पड़ेगी. ऐसा कर पाना हमारे लिए मुमकिन नहीं है.”
वैशाली कहती हैं कि, ”लोग मुझसे बार-बार यही सवाल करते हैं कि हम यहां पर क्यों हैं. तो इसकी यही वजह है. ये सब बहुत डरावना है. इससे हमें परेशानी होती है. लेकिन, हम कर ही क्या सकते हैं?”
वैशाली, नेशनल मेडिकल कमीशन या राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के जिस फ़रमान का ज़िक्र कर रही हैं, वो 5 पन्नों का आदेश है. जिसके मुताबिक़, अगर विदेश में मेडिकल की पढ़ाई करने वाला कोई छात्र भारत में प्रैक्टिस करना चाहता है, तो उसे ये शर्त माननी पड़ेगी: ”… उन्हें मेडिकल की पढ़ाई का पूरा कोर्स, प्रशिक्षण और इंटर्नशिप भारत के बाहर उसी विदेशी मेडिकल संस्थान में पूरा करना होगा.”
‘माता-पिता नाख़ुश’
पर उन छात्रों का क्या, जिन पर ये आदेश नहीं लागू होता? जैसे कि आर्यन.
आर्यन एमबीबीएस कोर्स के तीसरे साल की पढ़ाई कर रहे हैं. वो हरियाणा के रहने वाले हैं और इस वक़्त ल्वीव नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी (LNMU) के छात्र हैं. आर्यन ने बताया कि भारत और नाइजीरिया के बहुत से ऐसे छात्र हैं जो पढ़ाई पूरी करने के लिए यूक्रेन लौट आए हैं.
आर्यन इसकी वजह बताते हुए कहते हैं, ”मैंने यूक्रेन से बाहर अपना कोर्स पूरा करने का फ़ैसला इसलिए नहीं किया क्योंकि तब मुझे एक पूरे साल फिर से पढ़ाई करनी पड़ती और इसका ख़र्च भी बहुत ज़्यादा आता जिसका बोझ उठाना मेरे परिवार के बस की बात नहीं थी.”
यूक्रेन लौटने के लिए आर्यन अपने माता-पिता को बहुत मुश्किल से राज़ी कर पाए थे.
आर्यन कहते हैं कि, ”वो लोग बहुत नाख़ुश थे.”
यूक्रेन में हवाई अड्डे काम नहीं कर रहे हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि जो छात्र यूक्रेन लौटने का फ़ैसला कर रहे हैं, उन्हें वहां पहुंचने के लिए लंबा और बेहद ख़र्चीला सफ़र तय करना पड़ रहा है.
ये छात्र यूक्रेन के पड़ोसी देशों जैसे कि पोलैंड, मॉल्डोवा और हंगरी के रास्ते वापस जा रहे हैं. ये सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें किस देश का वीज़ा मिल पाता है.
कोर्स पूरा करने को लेकर चिंता
अगर यूक्रेन लौटना इतना मुश्किल है, तो जंग के शिकार देश में पढ़ाई कैसे हो पा रही है?
22 बरस की सृष्टि मोजेज़ को दिन में जब भी मौक़ा मिलता है, वो देहरादून में अपने मम्मी-पापा को वीडियो कॉल करती हैं.
सृष्टि बताती हैं कि, ”पहले मैं उन्हें दिन में एक बार कॉल करती थी. लेकिन अब मैं जितनी बार मुमकिन होता है, उनसे बात करती हूं. मेरे पापा दिल के मरीज़ हैं, तो मैं चाहती हूं कि वो ज़्यादा तनाव न लें. वो जब भी यूक्रेन के बारे में ख़बरें देखते हैं, घबरा जाते हैं.”
सृष्टि किएव स्थित टारस शेवचेंको यूनिवर्सिटी में चौथे साल की छात्रा हैं. उनकी मां एक घरेलू महिला हैं और पिता टूरिस्ट गाइड हैं. वैसे तो सृष्टि की यूनिवर्सिटी में ज़्यादातर पढ़ाई ऑनलाइन हो रही है. लेकिन उन्हें उम्मीद है कि जल्दी ही असली क्लास में भी पढ़ाई शुरू हो जाएगी.
चारों तरफ़ अनिश्चितता से घिरे होने का असर सृष्टि की दिमाग़ी सेहत पर भी हुआ है. वो बताती हैं, ”हम जब भी पढ़ रहे होते हैं, तब हमारे ज़ेहन में तरह-तरह के ख़्याल आते रहते हैं. कई बार हम सोचते हैं कि हम ये सब क्यों कर रहे हैं? क्या हम अपना कोर्स पूरा कर पाएंगे? क्या सरकार अचानक कोई नियम बनाएगी और हमारी सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा? और, ज़ाहिर है यहां जंग तो चल ही रही है.”
सर्दियों के महीनों में यूक्रेन का तापमान माइनस 15 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है और बिजली ग्रिड पर रूस के लगातार हमलों से बिजली कट जाती है, जिससे घर को गर्म करना मुश्किल हो जाता है.
छात्र हमें बताते हैं कि ‘स्थानीय अधिकारी हर दिन एक टाइम टेबल जारी करते हैं और हमें बताते हैं कि अगले दिन कब-कब बिजली कटौती होगी.’
सृष्टि बताती हैं कि, ”आप समझिए कि यूं होता है… 2-3 घंटे बिजली रहती है. फिर अगले 2-3 घंटे कटौती होती है और यही चक्र दोहराया जाता रहता है. यहां सब कुछ बिजली के भरोसे है. यहां तक कि खाना भी इंडक्शन पर ही पकाया जाता है. ऐसे में हम अपने डिवाइस चार्ज करने और स्टडी मैटीरियल डाउनलोड करने का काम इसी चक्र से तालमेल बिठा कर करते हैं.”
सरकार ने दी छात्रों को यूक्रेन जाने की इजाज़त
ल्वीव में पढ़ने वाले शशांक ने हमें बताया कि वो जिस बस से यूनिवर्सिटी जाते हैं, उसका इन दिनों उन्हें ज़्यादा किराया देना पड़ता है. अच्छी बात बस इतनी है कि उनकी कक्षाएं नियमित रूप से चल रही हैं. घर का रोज़मर्रा का सामान भी बहुत महंगा हो गया है.
जब हमने छात्रों से पूछा कि क्या उन्हें सरकार की एडवाइज़री के ख़िलाफ़ जाकर यूक्रेन में बने रहने के जोखिमों का अंदाज़ा है?
इसके जवाब में सृष्टि कहती हैं, ”हम इसके लिए सरकार को ज़िम्मेदार नहीं मानते. हम इसके लिए तैयार हैं क्योंकि हम अपनी मर्ज़ी से यहां वापस आए हैं. लेकिन, हम यहां इसलिए भी आए क्योंकि हमें किसी तरह की राहत देने या कोई विकल्प देने के बजाय सरकार ने बस एक एडवाइज़री जारी करके अपना फ़र्ज़ पूरा कर लिया.’
ल्वीव नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी में पांचवें साल की पढ़ाई कर रहे ऋषि द्विवेदी मुस्कुराते हुए कहते हैं, ”हमने अपने मां-बाप को बता दिया है कि हम यहां अपने ही भरोसे हैं. और अगर युद्ध तेज़ होता है तो हम पड़ोसी देशों के रास्ते यहां से निकलने की कोशिश करेंगे.”
ऋषि कहते हैं कि उनका सबसे ज़्यादा ध्यान ऑफ़लाइन कक्षाओं और अस्पतालों में असली तज़ुर्बे पर रहता है. उन्होंने तर्क दिया, ”पहले तो कोविड की महामारी थी. फिर ये युद्ध छिड़ गया. यूनिवर्सिटी में असली कक्षाएं नहीं चलीं तो इसकी कई वजहें रहीं. अब क्लास चल रही है तो मैं उनका ज़्यादा आनंद ले पा रहा हूं.”
3 फरवरी 2023 को संसद में विदेश मंत्रालय से सवाल किया गया था कि क्या छात्रों को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए यूक्रेन वापस जाने दिया गया? विदेश मंत्रालय ने इस सवाल के जवाब में बताया कि, ”हां, छात्र यूक्रेन जा सकते हैं. हालांकि यूक्रेन में सुरक्षा के हालात देखते हुए भारतीय नागरिकों को यूक्रेन छोड़ने की सलाह दी गई है.”
अचानक शुरू हुई जंग में अपने बच्चों को फंसे हुए देखना अलग बात थी. लेकिन उन्हें युद्ध क्षेत्र में दोबारा जाने की इजाज़त देना ज़्यादा मुश्किल फ़ैसला रहा.
दिल्ली के एक अभिभावक, जिनकी बेटी को पिछले साल यूक्रेन से निकाला गया था, वो अब पोलैंड की यूनिवर्सिटी से मेडिकल की पढ़ाई कर रही है. उन्होंने कहा, ”अगर हमारी बेटी डॉक्टर नहीं बन पाती तो वो हमें मंज़ूर होता. लेकिन हम उसे किसी भी क़ीमत पर यूक्रेन वापस जाने की इजाज़त नहीं दे सकते थे.”
भारत सरकार क्या कर सकती थी?
53 साल के मृत्युंजय कुमार के लिए अपने बेटे शशांक को भारत में रुकने के लिए राज़ी करना मुश्किल रहा था. आख़िर में उन्हें बेटे के आगे हार माननी पड़ी. मृत्युंजय कुमार कहते हैं, ”मैंने अपने बेटे से कहा कि थोड़ा और इंतज़ार कर लो. मैं उसे समझाता था कि भारत सरकार निश्चित रूप से उसके जैसे छात्रों के लिए कोई न कोई इंतज़ाम ज़रूर करेगी. उसने इंतज़ार किया.”
”लेकिन एक दिन उसने कहा कि उसे यूक्रेन वापस जाना पड़ेगा क्योंकि बैठकर इंतज़ार करने का कोई मतलब नहीं है. मैं और मेरी पत्नी पहले तो उसे जाने नहीं दे रहे थे. लेकिन जब उसने हमें समझाया कि दूसरे छात्र भी वापस जा रहे हैं तो हमने भी कहा कि ठीक है, तुम भी जाओ.”
शांत और सोच-समझकर बोलने वाले मृत्युंजय कुमार पटना की एक स्थानीय अदालत में स्टेनोग्राफ़र हैं. 30 मिनट के इंटरव्यू के दौरान सिर्फ़ एक बार उनकी आवाज़ ऊंची हुई थी.
उन्होंने कहा, ”अगर सरकार सच में चाहती तो क्या वो इन छात्रों के लिए कोई इंतज़ाम नहीं कर सकती थी. वो इसके लिए गंभीर ही नहीं थी.”
मृत्युंजय कुमार और उनकी पत्नी ने हमें बताया कि वो हमेशा अपने बेटे की हिफ़ाज़त की दुआ मांगते रहते हैं और लगातार फ़ेसबुक चेक करते रहते हैं.
मृत्युंजय ने बताया, ”’जब मेरा बेटा यूक्रेन जा रहा था तो उसने फ़ेसबुक पर मेरा अकाउंट खुलवाया. जब से युद्ध शुरू हुआ है, तब से हम उसका काफ़ी इस्तेमाल कर रहे हैं. ये बात सच है कि मुझे अभी भी बहुत-सी चीज़ें नहीं समझ में आतीं. लेकिन अब कुछ कुछ आने लगा है.”
मृत्युंजय कुमार की पत्नी नीलम कुमारी घर में ही रहती हैं. वो ख़बरें जानने के लिए टीवी देखती रहती हैं. वो मुस्कुराते हुए बताती हैं, ”शशांक मुझसे कहता है कि टीवी मत देखा करो क्योंकि टीवी वाले बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हैं. फिर भी मैं टीवी पर न्यूज़ देखती हूं.”
फ़रवरी 2022 में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के उन मेडिकल छात्रों के बारे में बात की थी जिन्हें पढ़ाई करने के लिए ‘ऐसे छोटे छोटे देशों में जाना पड़ता है, जहां की भाषा भी उन्हें समझ में नहीं आती है.’
मृत्युंजय भी इस बात से सहमत हैं.
वो कहते हैं, ‘भारत में मेडिकल का इम्तिहान बेहतर होता है क्योंकि सरकारी संस्थानों में फ़ीस बहुत कम है. लेकिन अगर आपको सरकारी कॉलेज में दाख़िला नहीं मिलता तो प्राइवेट कॉलेज में मेडिकल की छह साल की पढ़ाई के लिए लगभग 72 लाख रुपए फ़ीस देनी पड़ जाती है.
वहीं, यूक्रेन जैसे देशों में मेडिकल की यही पढ़ाई 25 लाख रुपए में हो जाती है. हालांकि ये भी कोई छोटी-मोटी रक़म नहीं है. लेकिन जब आपका बच्चा कहता है कि उसे ये करना है तो आपको उसकी ख़्वाहिश पूरी करनी ही पड़ती है.”
24 साल के दीपक कुमार, टर्नोपिल नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी (TNMU) में मेडिकल के सेकेंड ईयर के छात्र हैं. पिछले साल जंग छिड़ने पर उन्हें भी यूक्रेन से निकाला गया था. हालांकि, अपने दूसरे साथियों के उलट दीपक पढ़ाई पूरी करने के लिए दोबारा यूक्रेन नहीं गए क्योंकि उनके परिवार ने इसकी इजाज़त नहीं दी.
लोगों के ताने
बिहार के दरभंगा के रहने वाले दीपक ने हमें बताया कि वो चाहते तो भारत में किसी प्राइवेट कॉलेज में दाख़िला ले सकते थे. लेकिन उन्होंने यूक्रेन जाने का फ़ैसला किया.
दीपक ने कहा, ”मेरे परिवार की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी. हमारे पास तो यूक्रेन जाने लायक़ पैसा भी नहीं था. मेरे पिता ने फ़ीस भरने के लिए हमारी कुछ ज़मीन बेच दी थी.”
दीपक ने बताया कि यूक्रेन से लौटने के बाद वो दिल्ली गए थे. वहां उन्होंने कई मंत्रियों और सांसदों से मिलने की कोशिश की थी ताकि वो अपने जैसे छात्रों के पुनर्वास के लिए बेहतर नीतियों की मांग कर सकें.
दीपक ने बताया, ”जब किसी ने हमारी मदद नहीं कि तो हमने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. लेकिन वहां से भी इंसाफ़ मिलने में देरी हो रही है.”
दीपक इस वक़्त ट्विटर और इंस्टाग्राम पर अपने जैसे छात्रों की परेशानियां उजागर करते रहते हैं.
भारत में रुक जाने से दीपक, जंग से होने वाले शारीरिक नुक़सान से तो बच गए. लेकिन उन्हें इसकी दिमाग़ी क़ीमत चुकानी ही पड़ी है.
वो मुझे बताते हैं कि, ”हमारी हालत बहुत ख़राब है. हमारी राह में मुश्किलें ही मुश्किलें हैं. हमारे पड़ोसी हमारा मज़ाक़ उड़ाते हैं. बड़े ख़्वाब देखने के लिए हमें ताने मारते हैं. मैं ख़ामोश रहता हूं. उनकी अनदेखी करता हूं, और ऐसे लोगों बातचीत भी कम करता हूं.”
”मैं कितने लोगों को अपनी परेशानी बताऊं? कितनों को सफ़ाई देता रहूं? मैं तो अपने रिश्तेदारों के यहां भी नहीं जाता हूं. मैं अपना ज़्यादातर वक़्त अपने कमरे में गुज़ारता हूं. पढ़ता रहता हूं. अपनी बालकनी में जाता हूं और वहां वक़्त बिताता हूं. कोई इंसान जो ख़ुशी, जो आनंद महसूस कर सकता है, वो मेरी ज़िंदगी में है ही नहीं. मेरे परिवार को तो मुझसे भी ज़्यादा ताने झेलने पड़ते हैं. उन्हें बहुत कष्ट उठाने पड़ रहे हैं.”
कई राज्यों की सरकारों ने भी केंद्र सरकार से ऐसी व्यवस्था करने की मांग की थी.
अप्रैल 2022 में विदेश मंत्रालय ने चेतावनी दी थी कि यूक्रेन से लौटे छात्र अगर पढ़ाई पूरी करने के लिए यूक्रेन के पड़ोसी देशों में जाते हैं, तो एक तो उन्हें सीमित सीटों और फिर भारी फ़ीस की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. विदेश मंत्रालय ने स्वास्थ्य मंत्रालय से गुज़ारिश की थी कि वो ‘बस एक बार की रियायत देते हुए यूक्रेन से लौटे छात्रों को भारत के निजी मेडिकल कॉलेजों में दाखिल होने की इजाज़त दे दे.’
विदेश मंत्रालय के इस सुझाव का समर्थन करते हुए भारत की संसद ने भी कहा कि, ”सिर्फ़ इस एक क़दम से यूक्रेन के विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हज़ारों छात्रों के मौजूदा संकट का हल निकल सकता है. और, इससे वो अपने कोर्स की पढ़ाई पूरी कर पाएंगे.”
”ऐसा कोई प्रावधान नहीं है… कि विदेशी मेडिकल संस्थानों में पढ़ रहे छात्रों का तबादला या उनका दाख़िला भारतीय मेडिकल कॉलेजों में किया जा सके. राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने किसी भी विदेशी मेडिकल छात्र का भारत के मेडिकल संस्थान या विश्वविद्यालय में तबादला करने या दाख़िला देने की इजाज़त नहीं दी है.”
छात्र ये सब देख रहे थे.
सरकार से नहीं मिला जवाब
सृष्टि ने बताया, ”हमें लगा था कि जब सरकार ने हमें बचाने के लिए इतना कुछ किया तो वो हमें यूं ही तो नहीं छोड़ देगी. हमें कहीं न कहीं तो मौक़ा दिया जाएगा. कोई राहत तो दी जाएगी. तो हम जब से यूक्रेन से लौटे थे तब से लेकर जुलाई तक हमने इंतज़ार किया.
कुछ छात्र सुप्रीम कोर्ट भी गए. लेकिन धीरे-धीरे हमारी उम्मीदें टूटने लगीं. अगर हम और ज़्यादा इंतज़ार करते, तो यूक्रेन में भी हमारी डिग्री ख़तरे में पड़ जाती. क्योंकि, वहां तो पढ़ाई दोबारा शुरू हो रही थी. तो अगस्त के आस-पास मैंने यूक्रेन वापस जाने का फ़ैसला किया.”
सुप्रीम कोर्ट में तो इस मामले की सुनवाई चल ही रही है. 10 फ़रवरी 2023 को स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि, ‘भारत के कुल 3,964 मेडिकल छात्रों ने उसी देश या फिर किसी दूसरे देश में किसी नए मेडिकल कॉलेज में तबादले की मांग की है. इसके अलावा, लगभग 170 छात्रों ने अपना कोर्स पूरा करने के लिए अलग अलग देशों के विश्वविद्यालयों में अस्थायी रूप से अपना तबादला कराया है.”
स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस बयान में ये भी जोड़ा कि, ”वो भारतीय छात्र जो मेडिकल के कोर्स के फ़ाइनल ईयर की पढ़ाई कर रहे थे और उन्हें कोविड-19 या रूस यूक्रेन युद्ध जैसे कारणों से अपने विदेशी मेडिकल संस्थान छोड़कर आना पड़ा और उन्होंने बाद में वहां जाकर अपनी पढ़ाई पूरी कर ली है. और उन्हें 30 जून 2022 या उससे पहले अपने संस्थान से कोर्स/ डिग्री पूरी कर लेने का प्रमाणपत्र मिल गया है, वो छात्र फ़ॉरेन मेडिकल ग्रेजुएशन एग्ज़ाम…में बैठ सकते हैं.”
बीबीसी ने स्वास्थ्य मंत्रालय और राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग से वैशाली जैसे उन छात्रों के भविष्य के बारे में जानना चाहा जिन्हें यूक्रेन से बाहर के किसी संस्थान से अपनी पढ़ाई पूरी करने की इजाज़त नहीं मिली. या फिर, सृष्टि जैसे छात्र जिनके पास किसी और यूनिवर्सिटी में नए सिरे से दाख़िला लेने और पूरी फ़ीस फिर से भरने के पैसे नहीं थे.
बार-बार पूछने पर भी हमें दोनों से कोई जवाब नहीं मिला.
जब हमने विदेश मंत्रालय और किएव स्थित भारतीय दूतावास से यूक्रेन में मौजूद भारतीय छात्रों की मौजूदा संख्या के बारे में जानकारी मांगी, तो भी हमें कोई जवाब नहीं मिला.
मोरक्को और पाकिस्तान जैसे देशों के छात्र भी युद्ध शुरू होने पर यूक्रेन में फंस गए थे. वहां के मेडिकल छात्रों का अनुभव मिला-जुला रहा है. युद्ध को लेकर लगातार बनी हुई अनिश्चितता से मेडिकल के छात्रों की चुनौतियां और बढ़ गई हैं.
मैंने छात्रों से पूछा कि क्या उन्हें अब भी भारत सरकार से कोई अपेक्षा है?
शशांक कहते हैं कि, ”ये युद्ध हमारी वजह से तो शुरू नहीं हुआ और अगर वो हमें पूरी तरह भारतीय कॉलेजों में दाख़िला नहीं दे सकते थे तो वो कुछ ऐसे प्रावधान तो कर सकते थे, जिससे हम यूक्रेन में ऑनलाइन पढ़ाई कर सकते और फिर प्रैक्टिकल कक्षाएं या इंटर्नशिप यहां कर लेते. लेकिन उन्होंने कुछ भी नहीं किया. हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया गया.”
दीपक, सरकार के रवैये को चुनाव से जोड़कर देखते हैं. वो कहते हैं कि, ”पिछले साल जब युद्ध शुरू हुआ तो यूपी में चुनाव होने वाले थे. वापस आने पर लोगों ने हमसे कहा भी कि हमारी मदद चुनाव की वजह से की गई. मैंने उनकी बातों पर यक़ीन नहीं कया. लेकिन, आज हमें देखिए.”
”मुझे लगता है कि अगर 2024 के आम चुनाव 2022 या 2023 में होते सरकार हमें भी बचाती और हमारी डिग्रियों को भी. उन्होंने हमें निकालने के अभियान को ऑपरेशन गंगा का नाम दिया था. और आज जो हमारे हालात हैं, उसे देखकर मैं कह सकता हूं कि गंगा उलटी बह रही है.”
पिछले साल जब युद्ध शुरू हुआ था तो 22 बरस के भारतीय छात्र नवीन ग्यानागौडर, यूक्रेन में बमबारी से मारे गए थे. वो सिर्फ़ रोज़मर्रा का सामान लेने के लिए घर से बाहर निकले थे.
क्या कोई और हादसा होगा तब जाकर यूक्रेन लौट चुके 1100 भारतीय छात्रों की परेशानियों की तरफ़ ध्यान दिया जाएगा?