DMT : हैदराबाद : (24 फ़रवरी 2023) : –
हैदराबाद में हुई एक दर्दनाक घटना में आवारा कुत्तों ने चार साल के एक बच्चे को नोंच-नोंचकर मार डाला. घटना सीसीटीवी में भी क़ैद हुई.
बच्चे के पिता गार्ड की नौकरी करते हैं. वो अपने दो बच्चों को अपने काम की जगह लेकर आए थे.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने बताया कि वो ड्यूटी कर रहे थे और उनका बेटा पास ही में खेल रहा था, जब उन्होंने उसको बोला कि बस पाँच मिनट में वापस आते हैं.
जब तक वो वापस आए, तब तक अनहोनी हो चुकी थी. रविवार की छुट्टी के कारण आसपास कोई नहीं था. माँ घर पर थीं. जब तक बच्चा अस्पताल पहुँचता, उसकी मृत्यु हो चुकी थी. परिवार ने इस घटना पर पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं की है.
घटना का वीडियो ऐसा है, जो किसी को भी झकझोर दे. ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के मुताबिक़ हैदराबाद में क़रीब पौने छह लाख आवारा कुत्ते हैं.
यानी हर साल रेबीज़ से 18,000 से 20,000 लोगों की मौत होती है.
हर साल रेबीज़ के मामले और मौतों में से 30 से 60 प्रतिशत मामलों में पीड़ित की उम्र 15 साल से कम होती है.
वैक्सीन की मदद से रेबीज़ से होने वाली मौत से बचा जा सकता है. ये वैक्सीन हर जगह उपलब्ध है.
दिल्ली, बैंगलूरू, मेरठ, गुरुग्राम, पंजाब, नोएडा, मुंबई, पुणे, बिजनौर- देश के कोने-कोने से ऐसी रिपोर्टें आ रही हैं.
पिछले साल बिहार के बेगूसराय में आवारा कुत्तों के झुंड ने एक महिला को मार दिया था.
रिपोर्टों के मुताबिक़ उनके पति ने बयान दिया कि मीरा देवी खेत से वापस आ रही थीं, जब कुत्तों ने उन पर हमला किया.
स्थानीय पत्रकार मारुति नंदन बताते हैं कि इलाक़े में कुत्तों का एक झुंड़ सक्रिय था, जिसके हमले में लगभग नौ लोगों की मौत हुई थी.
बाद में वन विभाग ने इस झुंड का सफ़ाया किया.
साल 2001 के एक क़ानून के अंतर्गत भारत में कुत्तों को मारने की मनाही है और देश में आवारा कुत्तों की तादाद बढ़ी है.
इंसान और कुत्तों का साथ हज़ारों साल पुराना है.
उनका स्वभाव आमतौर पर दोस्ताना रहता है, लेकिन आवारा कुत्तों की कहानी थोड़ी अलग है.
उन्हें खाने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता है और खाने की इस होड़ का असर उनके स्वभाव पर भी पड़ता है.
ट्रैफ़िक का शोर, सड़कों पर आम लोगों की कचरा फेंकने की आदत, तेज़ चकाचौंध रोशनी जैसे कारण भी उनके स्वभाव पर असर डालते हैं.
कई बार ये आवारा कुत्ते एक गुट में रहते हैं और वो ख़तरनाक हो सकते हैं.
केरल वेटेरिनेरी एंड एनिमल साइंसेज यूनिवर्सिटी के डॉक्टर शिबु साइमन के मुताबिक़ कुत्तों के हमले की हर घटना के अपने अलग कारण हो सकते हैं लेकिन जब ये कुत्ते कच्चा मीट खाते हैं, तो उसका स्वाद इनकी ज़ुबान को लग जाता है और उन्हें निरंकुश व्यवहार का आनंद उठाने का मौक़ा मिलता है.
वो कहते हैं, “कुछ लोग कुत्तों को देखकर भागते हैं. कुत्तों में पीछा करने की आदत होती है. अगर कुत्ते को लगता है कि आप बलवान हैं, तो वो शायद आप पर हमला न करें. कुत्ते समाज के कमज़ोर वर्ग का शायद पीछा करें. इसलिए वो बच्चों और बूढ़ों पर हमला कर सकते हैं.”
वेटनरी डॉक्टर अजय सूद के मुताबिक़, “कुत्तों के काटने के ज़्यादातर मामले इलाक़े की लड़ाई और सुरक्षा से जुड़े होते हैं.”
वे कहते हैं, “हर कुत्ता अपने इलाक़े का निर्धारण करके रखता है. अब एक ओर मानव-जनसंख्या बढ़ती जा रही है, तो दूसरी ओर कुत्तों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ रही है. ऐसे में उनका इलाक़ा कम होने लगा है. अब जब उस इलाक़े की सुरक्षा कर पाना उनके लिए मुश्किल होने लगता है, तो कुत्ते असुरक्षित महसूस करने लगते हैं. उन्हें लगने लगता है कि इंसान उसके इलाक़े में घुस रहा है तो ऐसी स्थिति में वह आक्रामक हो जाते हैं.”
डॉक्टर साइमन आगाह करते हैं कि मॉर्निंग वॉक के दौरान लोगों को बहुत सावधान रहना चाहिए, क्योंकि अगर एक आवारा कुत्ता हमला करता है तो दूसरे भी उसके साथ शामिल हो सकते हैं.
वो सलाह देते हैं कि आप किसी आवारा कुत्ते को न तो छेड़ें और न ही ऐसे संकेत दें कि आप डर गए हैं.
डॉक्टर साइमन कहते हैं, “कुत्ते इंसान पर निर्भर होने वाले जानवर हैं. वो इंसानों के साथ रहना चाहते हैं, और अगर इंसान उनके साथ रहें तो वो अच्छे जानवर हो सकते हैं. इसलिए इंसान ने कुत्तों को पालतू बनाया.”
भारत में कुत्तों के काटने की घटनाएँ और इससे मौत क्यों ज़्यादा हैं और इन घटना के लिए ज़िम्मेदार आवारा कुत्तों से कैसे निपटा जाए?
एक पक्ष का कहना है कि आवारा कुत्तों को सड़कों से हटाना चाहिए, उन्हें मार दिया जाना चाहिए, जबकि दूसरे पक्ष का कहना है कि उनकी संख्या कम करने के लिए उन्हें मार दिया जाना सही हल नहीं है. मामला कई बार अदालतों तक पहुँचा है.
कई लोग आवारा कुत्तों को खाना खिलाने को भी समस्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं.
ह्यूमन फ़ाउंडेशन फ़ॉर पीपुल एंड एनिमल्स की मेघना उनियाल के मुताबिक़ पीसीए और राज्य के म्युनिसिपल क़ानूनों के अंतर्गत नागरिकों की सुरक्षा के लिए आवारा कुत्तों को सार्वजनिक जगहों से हटाया जा सकता था या फिर उन्हें मारा (यूथनाइज़) जा सकता था.
कुत्तों के ख़ैरियत की ज़िम्मेदारी व्यक्तियों, जानवरों की सलामती के लिए काम करने वाली संस्थाओं और स्थानीय सरकारी अधिकारियों को दी गई.
लेकिन आलोचक इन नियमों को कुत्तों के काटने की संख्या बढ़ने के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं.
इन नियमों में उन कुत्तों को मारने की बात है, जो इतने बीमार हों या उनका इलाज न हो सके या फिर वो इतने घायल हों कि ठीक न हों.
लेकिन कुत्तों को स्टेरिलाइज़ और वैक्सीनेट करके वापस छोड़ने की बात भी की गई थी.
अगर यही कुत्ता किसी जंगली जानवर को भी मार दे, तब भी यही होगा, लेकिन अगर किसी जनजाति का सदस्य ऐसा करे, तो उसे सात साल की सज़ा हो सकती है.
लोबो के मुताबिक़ साल 2001 के ये नियम इंसान और जानवरों के अधिकार को बराबर की सतह पर रखते हैं, जो ठीक नहीं है.
वो कहते हैं, “मेरे पास भी कुत्ते हैं. वो मेरे परिवार के सदस्य की तरह हैं, लेकिन वो इंसान नहीं है और कोई देश कुत्तों के अधिकारों को इंसानी अधिकारों के बराबर नहीं रख सकता. इंसान की सार्वजनिक जगहों पर कुत्तों की उपस्थिति को नियंत्रित करने की ज़रूरत है.”
रायन लोबो बताते हैं कि फ़ोटोग्राफ़र के तौर उन्होंने आवारा कुत्तों को हिरण या चीतल को मारते और तबाही मचाते देखा है.
डॉक्टर शिबु साइमन भी मानते हैं कि इतने बड़े देश की ज़रूरत के लिए एबीसी कार्यक्रम काफ़ी नहीं है.
वो कहते हैं, “कुत्तों को पकड़ने वाले आसान कुत्तों को पकड़ सकते हैं. हो सकता है कि वो किसी इलाके के सभी कुत्तों को न पकड़ पाएँ.”
नेबरहुड वूफ़ संस्था की आएशा क्रिस्टीना साल 2001 के नियमों की समर्थक हैं.
उनके मुताबिक़ समस्या नियमों में नहीं, बल्कि उसके कार्यन्वयन में और संसाधनों की कमी में है.
वो कहती हैं, “एबीसी को सिर्फ़ स्थानीय अधिकारियों या अथॉरिटी पर नहीं छोड़ा जा सकता. इसलिए दूसरे साझेदारों को इसमें हिस्सा लेने के लिए सामने आना होगा. ग़ैर-सरकारी संस्थाओं को आगे बढ़ना होगा. ज़िला स्तर पर, ब्लॉक स्तर पर स्टेरिलाइज़ेशन सेंटर बनाने होंगे. पुराने बंद स्कूलों को एबीसी सेंटरों में बदलना होगा. मोबाइल क्लीनिक भी शुरू हो सकते हैं.”
दोनो पक्षों के बीच दूरियाँ इतनी ज़्यादा हैं कि मामला सुप्रीम कोर्ट में है, जहाँ मेघना उनियाल के मुताबिक़ अदालत एबीसी नियमों की वैधता पर सुनवाई कर रही है.
मेघना नियमों के ख़िलाफ़ इस अदालती मामले में पार्टी हैं.
डॉक्टर शिबु साइमन के मुताबिक़ आम लोगों को आर्थिक प्रलोभन देकर प्रेरित किया जा सकता है कि वो आवारा कुत्तों को गोद लें और इससे सड़कों पर आवारा कुत्तों की संख्या कम हो सकती है.
कुत्ते के बच्चे को शायद कोई गोद ले भी ले, लेकिन एक बड़े कुत्ते को गोद लेने की अपनी व्यवहारिक चुनौतियाँ भी हैं.
बड़ी उम्र में कुत्ते के लिए एक नई जगह पर बसना आसान नहीं है. इन सब बहसों के बीच ऐसी घटनाएँ जारी हैं.