अमेरिका के डॉलर को ‘निगल’ सकेगा चीन का युआन?

Hindi International

DMT : अमेरिका : (03 मई 2023) : –

इसी साल अप्रैल महीने में ब्लूमबर्ग न्यूज़ में एक चौंकाने वाली ख़बर छपी थी. ख़बर थी कि चीन की मुद्रा युआन ने रूस में अपना सिक्का जमाते हुए अमेरिकी डॉलर को पछाड़ दिया है.

2022 में यूक्रेन पर हमला करने के बाद से रूस ने चीन की विदेशी मुद्रा, युआन, को ज़्यादा तरजीह देनी शुरू कर दी थी और इस साल रूस ने डॉलर की तुलना में युआन से ज़्यादा अंतरराष्ट्रीय व्यापार किया है.

पश्चिमी देशों द्वारा रूस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के चलते भी बड़ी रूसी कम्पनियों ने विदेशी व्यापार के लिए दूसरी मुद्राओं पर निर्भरता बढ़ाई थी और युआन ने इसमें बाज़ी मार ली.

यहीं नहीं, चीन ने आगे बढ़ कर रूसी माल के लिए अपने बाज़ार भी खोल दिए जिससे विदेशी मुद्रा के आदान-प्रदान में दिक़्क़त न हो.

सवाल उठना लाज़मी है कि क्या चीन का युआन जिसे रॅन्मिन्बी नाम से भी जाना जाता है अब अमेरिकी डॉलर को बराबरी की टक्कर देने की तैयारी में है?

विदेशी मुद्राओं का बोलबाला

युआन के बढ़ते क़दम का विश्लेषण करने से पहले ये समझना ज़रूरी है कि विश्व में विदेशों मुद्राओं का बोलबाला कब, क्यों और कैसे हुआ है.

सरल शब्दों में किसी एक विदेशी मुद्रा की लोकप्रियता इस बात पर निर्भर रहती है कि उसे जारी करने वाले देश की आर्थिक-सामरिक हालत कितनी अच्छी है और विश्व व्यापार पर उसकी कितनी पकड़ है.

ज़ाहिर है, जब कोई विदेशी मुद्रा या करेंसी मज़बूत होगी तो दूसरे देशों के सेंट्रल बैंक भी उसे अपनी ‘रिज़र्व करेंसी’ बना कर रखते रहेंगे.

अमेरिकन इंस्टिट्यूट फ़ॉर इकोनॉमिक रिसर्च के पीटर अर्ल के मुताबिक़, “1450 के बाद से दुनिया ने ‘रिज़र्व करेंसी’ के छह बड़े दौर देखे हैं जिसमें साल 1530 तक पुर्तगाल की करेंसी का जलवा था. इसे स्पेन की करेंसी ने पीछे छोड़ दिया था.”

17वीं और 18वीं शताब्दी में नीदरलैंड्स (डच) और फ़्रांस की मुद्राओं ने विश्व व्यापार पर अपना वर्चस्व क़ायम किया जिसे ब्रितानी साम्राज्य के उत्थान ने समेट दिया.

पहले विश्व युद्ध तक ब्रिटेन का पाउंड स्टर्लिंग ही ज़्यादातर देशों की ‘रिज़र्व करेंसी’ हुआ करता था.

लेकिन 1930 के दशक के बाद से न सिर्फ़ अमेरिकी अर्थव्यवस्था और फ़ौजी ताक़त ने अपनी धाक जमानी शुरू की बल्कि डॉलर ने पाउंड को विश्व कारोबार में पीछे धकेल दिया जो फ़िलहाल भी क़ायम लगता है.

आँकड़ों के अनुसार साल 2008 से 2022 तक हुए विश्व व्यापार का लगभग 75% हिस्सा अमेरिकी डॉलर में ही हुआ है और आज भी दुनिया भर के देशों में 59% ‘रिज़र्व मुद्रा” अमेरिकी डॉलर है.

हालांकि अमेरिकी डॉलर अब भी विश्व व्यापार के अगुवाई कर रहा है लेकिन कई देशों ने अपने विदेशी व्यापार या क़र्ज़े के लिए दूसरे विकल्पों को आज़माना शुरू कर दिया है.

ब्राज़ील के वित्त मंत्रालय में अंतरराष्ट्रीय मामलों की सचिव तातियाना रोसिटो के अनुसार, “दुनिया के 25 देश फ़िलहाल चीन से अपने व्यापार को युआन में ही कर रहे हैं”.

व्यापार के लिए विदेशी मुद्रा के तौर पर अमेरिकी डॉलर के बदले युआन को इस्तेमाल करने के ब्राज़ील के फ़ैसले के बाद ही उसके पड़ोसी अर्जेंटीना ने भी चीन के साथ होने वाले कारोबार में डॉलर के बदले युआन इस्तेमाल करने का एलान कर दिया है.

इसी बीच चीन ने आईएमएफ़ या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता को कम करने की मंशा से एक एशियन मुद्रा कोष की स्थापना में दिलचस्पी दिखाई है जिसमें उसे मलेशिया जैसे कुछ देशों का समर्थन भी मिला है.

मलेशिया के प्रधानमंत्री दतुक सेरी अनवर इब्राहिम ने हाल ही में अपने संसद सम्बोधन में कहा था, “ऐसी कोई वजह नहीं है कि मलेशिया को अमेरिकी डॉलर पर ही निर्भर रहना चाहिए”.

इससे पहले मार्च में सऊदी अरब ने पहली बार कहा कि वो अपने कच्चे तेल को डॉलर के अलावा दूसरी विदेशी मुद्राओं में भी बेचने के लिए बात कर सकता है.

द वॉल स्ट्रीट जर्नल में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, “सऊदी अरब चीन से बातचीत कर रहा है कि वो तेल के लिए होने वाले पेमेंट के लिए चीन के युआन को भी ले सकता है”.

पिछले साल ईरान ने कहा था कि रूस के साथ होने वाले व्यापार के लिए उसने अमेरिकी डॉलर को त्याग दिया है और अब रूसी रूबल में सभी लेनदेन होंगे. ईरान ने ये भी कहा था कि भारत, तुर्की और चीन के साथ भविष्य में व्यापार के लिए उसकी यही मंशा है.

चीन के सेंट्रल बैंक ने पिछले एक साल के दौरान 29 देशों में युआन मुद्रा को क्लियर या पास करने वाले 31 बैंकों के साथ भी समझौते कर लिए हैं.

डॉलर या युआन?

बात चीन की अर्थव्यवस्था की हो तो आज की तारीख़ में चीन ने वैश्विक बाज़ारों में गिरावट, कोविड के बाद पड़े विपरीत असर और बढ़ती हुई महंगाई के बावजूद अपने जीडीपी या सकल घरेलू उत्पाद में तरक़्क़ी ही दर्ज की है.

फ़िलहाल चीन का सालाना जीडीपी 17.7 खरब अमेरिकी डॉलर है जो उसे अमेरिका और यूरोपीय संघ के बाद तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार बनाता है.

लेकिन गौर करने वाली बात ये भी है कि चीन की रॅन्मिन्बी करेंसी या युआन विश्व व्यापार का महज़ 3% है जबकि 87% शेयर अभी भी अमेरिकी डॉलर का है.

यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैसाच्यूसेट में अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर जयती घोष को लगता है, “विदेशी मुद्रा के वर्चस्व के पहले ज़रूरी ये है कि विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था बेहतर की जा सके और श्रीलंका में जारी हाल के संकट जैसी परिस्थितियों से बचा जा सके. वरना डॉलर हो या युआन, बाहरी देश और बड़े कारोबार तो अपने निवेश वापस लेने के लिए तत्पर ही रहेंगे”.

डॉलर के मुक़ाबले चीन के युआन के लिए एक बड़ी चुनौती पारदर्शिता की भी रहेगी क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था में आज भी कई बड़े फ़ैसले सर्वसम्मति से नहीं लिए जाते हैं. ऐसी ही कुछ आरोप रूस की अर्थव्यवस्था पर भी लगते रहे हैं.

क्योंकि दूसरे देशों को डॉलर के बदले एक दूसरी विदेशी मुद्रा के भंडार बनाने के पहले इस बात से आश्वस्त होना पड़ेगा कि उस देश की मुद्रा लंबे समय तक भरोसेमंद बनी रह सकती है या नहीं.

नामचीन अर्थशास्त्री पॉल क्रूगमैन ने न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा था, “सम्भावनाएँ प्रबल हैं कि कई देश अमेरिकी डॉलर के आगे की भी दुनिया को आज़माना चाहेंगे. लेकिन विकल्प खड़ा करने के लिए जो चाहिए उसमें कई दशक भी लग सकते हैं”.

इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले वर्षों में अमेरिकी डॉलर की साख थोड़ी कम हुई है लेकिन वैश्विक बाज़ारों में आज भी उसके आसपास कोई फटक नहीं सका है. लेकिन चीन के बढ़ते व्यापार और आयात-निर्यात के फैलाव में दूसरे देशों के सामने अब कम से कम एक विकल्प तो उभर ही रहा है.

काफ़ी कुछ इस पर भी निर्भर रहेगा कि युआन को विदेशी मुद्रा के तौर पर इस्तेमाल करने वाले देश भविष्य में चीन से कैसे सम्बंध रखना चाहेंगे.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *