अरब देशों का ये एजेंडा इसराइल की रणनीति को कर रहा है नाकाम

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DMT : अमेरिका  : (29 मार्च 2023) : –

साल 2020 में अमेरिका की मध्यस्थता में संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इसराइल के साथ ऐतिहासिक समझौता किया था जिसे ‘अब्राहम समझौता’ कहा जाता है.

इस समझौते के तहत यूएई और बहरीन ने इसराइल के साथ अपने रिश्तों को सामान्य किया था और राजनयिक रिश्तों को बहाल कर लिया था.

खाड़ी के देशों के दशकों से चले आ रहे इसराइल के बहिष्कार का भी इसी के साथ अंत हो गया था.

ट्रंप प्रशासन के दौर में शुरू हुई इस पहल के तहत संयुक्त अरब अमीरात, मोरक्को, सूडान और बहरीन ने साल 2020 में ‘अब्राहम अकॉर्ड’ पर हस्ताक्षर किए थे.

इसके बाद इन देशों ने इसराइल से राजनयिक रिश्ता क़ायम करने का फ़ैसला किया था.

इसे इसराइल के साथ मुस्लिम देशों के बेहतर होते रिश्तों की तरह देखा जाने लगा.

लेकिन इसी साल जनवरी में इसराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू की सऊदी अरब की यात्रा कैंसल कर दी गई.

इसके अलावा ईरान और सऊदी अरब के बीच नज़दीकियाँ बढ़ने लगीं.

ईरान-सऊदी अरब के बीच बढ़ती नज़दीकियों का असर

सऊदी अरब और ईरान के शीर्ष राजनयिकों के बीच अगले कुछ दिनों में मुलाक़ात हो सकती है.

इस दौरान दोनों देशों के बीच एक अहम समझौता होने की संभावनाएँ हैं.

प्रेस एजेंसी एसपीए ने सोमवार को बताया कि सऊदी अरब के विदेश मंत्री प्रिंस फ़ैसल बिन फ़रहान और उनके ईरानी समकक्ष हुसैन आमिर अब्दुल्लाहियन के बीच हफ़्ते भर में दूसरी बार फ़ोन पर बातचीत हुई है.

इस फ़ोन कॉल में दोनों नेताओं ने रमजान ख़त्म होने से पहले आमने-सामने की मुलाक़ात करने का फ़ैसला किया है.

2015 में सऊदी अरब में एक शिया धर्म-गुरु को फांसी दिए जाने के बाद ईरानी प्रदर्शनकर्मियों ने तेहरान स्थित सऊदी दूतावास में घुसकर विरोध प्रदर्शन किया था.

इसके बाद सऊदी अरब ने ईरान के साथ अपने राजनयिक संबंध तोड़ लिए थे. और पिछले कुछ सालों में दोनों देशों के बीच काफ़ी तनाव देखा गया है.

लेकिन चीन की राजधानी बीजिंग में सऊदी अरब और ईरान के अधिकारियों के बीच चार दिन तक चली बातचीत के बाद दोनों देशों ने कूटनीतिक रिश्ते बहाल करने की अप्रत्याशित घोषणा की है.

विदेश मामलों के जानकार क़मर आग़ा कहते हैं कि अरब के देश तेल से इतर विकास पर फ़ोकस करना चाहते हैं, उनका एजेंडा बदल गया है और सुरक्षा मुख्य एजेंडा नहीं रहा.

बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं, “अब्राहम समझौता शायद चलता रहता, लेकिन जूडिशियल रिफ़ॉर्म से जुड़े विरोध के बाद से लगता है कि अब मुश्किल हो गया है, क्योंकि काफ़ी हद तक एजेंडा बदल गया है.”

वो कहते हैं, “पहले मुद्दा सुरक्षा का था. खाड़ी के देशों को लग रहा था कि अमेरिका ईरान का हल निकाल लेगा, सत्ता परिवर्तन उनकी पॉलिसी है. लेकिन अब मुद्दा बदल गया है. अब अरब देश एक-दूसरे से बेहतर रिश्ते बनाकर विकास के एजेंडे को लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं, सुरक्षा अब सेकेंडरी मुद्दा हो गया है.”

जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के नेल्सन मंडेला सेंटर फ़ॉर पीस एंड कॉन्फ़्लिक्ट रिज़ोल्यूशन में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं, “अगर सऊदी अरब और ईरान के संबंध बेहतर हो जाते हैं, अगर ईरान के राष्ट्रपति रईसी रमज़ान के महीने में यूएई के किंग से मिलते हैं तो बदलाव आएगा.

इसराइल के साथ संबंधों में बेहतरी के पीछे एक बड़ा कारण था ईरान से ख़तरा. अगर ये ख़तरा कम हो जाता है और क्योंकि अब पहले की तरह अमेरिकी दबाव कारगर नहीं है, तो कह सकते हैं कि आने वाला वक़्त इसराइल के लिए मुश्किल भरा होगा.”

इसराइल में हो रहे विरोध का असर

इसराइल में नेतन्याहू सरकार के ख़िलाफ़ लोग सड़कों पर विरोध कर रहे हैं. नेतन्याहू न्याय व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव चाह रहे हैं.

हालाँकि विरोध को देखते हुए उन्होंने इस योजना को फ़िलहाल टालने का फ़ैसला किया है.

सोमवार को उन्होंने कहा कि वो उस बिल को फ़िलहाल रोक रहे हैं ताकि ”लोगों के बीच पनपे आक्रोश और अलगाव को रोका जा सके.”

इसराइल बीते दिनों में उथलपुथल के दौर से गुज़रा है. इस राजनीतिक उथलपुथल का असर इसराइल के दूसरे देशों के साथ रिश्तों पर असर पड़ सकता है.

प्रोफ़ेसर प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं, “मुस्लिम देश अमूमन सीधे तौर पर नहीं बताते कि वो किसी मुद्दे पर क्या सोच रहे हैं. अगर इसराइल में विरोध चलता रहता है और नेतन्याहू कमज़ोर होते हैं, तो रिश्तों पर इसका असर पड़ेगा.”

अमेरिका के लिए बदलते हालात

क़मर आग़ा भी मानते हैं कि इसराइल के भीतर चल रही दिक़्क़तों का असर रिश्तों पर पड़ेगा.

“ये रिश्ते सुरक्षा को लेकर आगे बढ़ रहे थे, उसके बाद व्यापार और सहयोग का मुद्दा था. उन्हें लग रहा था कि ईरान से सुरक्षा के लिए इसराइल से रिश्ते ज़रूरी हैं, क्योंकि अमेरिका मिडिल ईस्ट से वापस जा रहा है.”

“अमेरिका भी चाहता था कि इन देशों के इसराइल से बेहतर रिश्ते हो जाएँ, लेकिन ईरान के सऊदी के साथ रिश्तों से बदलाव आया है. यही नहीं इराक़ और सीरिया से भी उसके रिश्ते बेहतर हुए हैं.”

बिन्यामिन नेतन्याहू सत्ता में वापसी के बाद अमेरिका नहीं गए हैं.

प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं, “ये पहला मौक़ा है, जब इसराइली सरकार के आने के इतने दिनों बाद तक पीएम की अमेरिका की यात्रा नहीं हुई है. बाइडन सरकार की ओर से उन्हें वो प्रतिक्रिया नहीं मिल रही, जो वो उम्मीद कर रहे थे.”

“अमेरिका के यहूदी समुदाय ने नेतन्याहू के ख़िलाफ़ एक चिट्ठी लिखी है. अमेरिका में जो होता है, उसका इसराइल पर बहुत असर पड़ता है. इसका नेतन्याहू की सियासत और ईमेज पर भी असर पड़ेगा. “

“अमेरिका का रुख़ बदला है. चीन की बदौलत ईरान के साथ सऊदी अरब के संबंध बेहतर हुए हैं. इन सबको मिला कर देखें तो नेतन्याहू की सरकार अगर बनी रहती है और उनका प्रतिनिधित्व करने वाले दक्षिणपंथी गुट बरक़रार रहते हैं, तो इब्राहिम अकॉर्ड जो उनके लिए एक ऐतिहासिक इवेंट था, खटाई में पड़ सकता है.”

फ़लस्तीनी क्षेत्र का मामला

फ़लस्तीनी क्षेत्र का मामला अभी भी अरब देशों के लिए महत्वपूर्ण है. वो दो देशों की थ्योरी में विश्वास रखते हैं.

लेकिन नेतन्याहू और उनके दक्षिणपंथी समर्थकों के रहते इस समस्या के समाधान की ओर जाने की संभावना कम ही नज़र आ रही है.

जनवरी महीने के बाद उनकी यूएई की यात्रा स्थगित कर दी गई थी.

इसराइल के वित्त मंत्री बेज़ालेल स्मॉचरिच ने अपने एक बयान में कहा, ‘फ़लस्तीन के लोग जैसा कुछ नहीं है.’ इसका अमेरिका और सऊदी अरब के देशों ने विरोध किया था.

प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं, “फ़लस्तीन उनके लिए उतना ही महत्वपूर्ण है. अगर वहाँ स्थिरता नहीं होती तो अरब देश या मुस्लिम देशों के साथ रिश्ते फिर से ख़राब हो सकते हैं. फ़लस्तीन का मुद्दा फिर से तूल पकड़ेगा. संयुक्त राष्ट्र में हाल के दिनों में इस मुद्दों को उठाया भी गया है.”

आर्थिक मोर्चे पर हालात

रविवार को इसराइल के विदेश मंत्रालय ने कहा कि इसराइल और संयुक्त अरब अमीरात ने रविवार को एक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए.

इसके तहत राष्ट्रों के बीच व्यापार किए जाने वाले लगभग 96% सामानों पर टैरिफ़ को कम किया गया या हटा दिया गया.

मंत्रालय ने कहा कि सौदा इसरायली कंपनियों को संयुक्त अरब अमीरात में सरकारी निविदाओं में आवेदन करने का रास्ता साफ़ करेगा.

इससे पहले भी संयुक्त अरब अमीरात ने कई मिलियन डॉलर निवेश करने का वादा किया था.

लेकिन जानकार मानते हैं कि कुछ वक़्त के लिए आर्थिक मोर्चों पर भी असर पड़ सकता है.

आग़ा कहते हैं, “यूएई के व्यापार बढ़े हैं तो जो रिश्ते बन गए हैं, वो बरक़रार रहेंगे. हालाँकि कुछ समय के लिए थोड़ी रुकावट आ सकती है. कुछ दिनों के लिए ऐसा लगता है कि यूएई ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया है. लेकिन इसराइल में हालात सामान्य हो गए, तो फिर से बातें शुरू होंगी.”

नेतन्याहू के करियर पर कितना असर

नेतन्याहू के करियर पर वहाँ के हालात और दूसरे देशों के बिगड़ते रिश्तों का बड़ा असर पड़ने की संभावना है.

आग़ा कहते हैं, “ये धुर दक्षिणपंथी गुट समझौता नहीं करेंगे. इनका कहना है कि जूडिशियल रिफ़ॉर्म ज़रूरी हैं. इसके अलावा वो वेस्ट बैंक पर क़ब्ज़ा चाहते हैं, गज़ा पट्टी के इसराइली सेना के पीछे हटने के ये ख़िलाफ़ हैं.”

नेतन्याहू अब धुर दक्षिणपंथियों के साथ नज़र आ रहे हैं, इसलिए उनके लिए अब उदारवादियों के साथ सरकार बनाने में दिक़्क़तें आएँगी.

इसके अलावा प्रेमानंद मिश्रा का मानना है कि विदेश नीति की इसराइल के चुनावों में अहम भूमिका होती है. वो वहाँ के लोगों पर प्रभाव डालता है जो नेतन्याहू के ख़िलाफ़ जा सकता है.

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