आंबेडकर जंयती विशेष: वोट के अधिकार से वंचित है आंबेडकर की जन्मभूमि की एक बड़ी आबादी

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DMT : इंदौर  : (14 अप्रैल 2023) : –

संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर की जयंती के नाम पर सरकार करोड़ों रूपये ख़र्च करती है.

देश-दुनिया में उत्सव मनाया जाता है. उनकी लिखी और कही बातों का ज़िक्र कर उन्हें आत्मसात करने की बात होती है लेकिन जहाँ उनका जन्म हुआ है क्या आप इनके समुदाय के लोगों के जीवन से वाक़िफ़ हैं.

चलिए आज हम आपको डॉ भीम राव आंबेडकर की जन्मभूमि मध्यप्रदेश के इंदौर शहर के महू ले चलते हैं.

उनके जन्मस्थान से महज़ दो किलोमीटर दूर ‘ग़ाज़ी की चाल’ नाम की बस्ती है, जहाँ ज़्यादातर परिवार महार समुदाय से हैं. यहाँ के दृश्य को देखकर आपको आश्चर्य और चिंता का भाव एक साथ आएगा.

सरकार के विकास की योजनाएं यहाँ आपको खोखली नज़र आएंगी, जिसका ख़मियाज़ा यहाँ के दलित लोग भुगत रहे हैं.

इन्हें हर रोज़ गंदा पानी फेंकना पड़ता है और इन्हें इससे कब मुक्ति मिलेगी यह शायद कोई नहीं जानता.

बस्ती का आँखों देखा हाल

सुबह के क़रीब सात बज रहे थे, बस्ती की कुछ महिलाएं अपने-अपने घर के बाहर बने गड्ढे से बीते दिन का जमा पानी बाल्टी में भरकर गली से कुछ दूर एक मैदान में फेंक रही थीं.

ये बदबूदार पानी था. इन महिलाओं के लिए ये बदबूदार गंदा पानी फेंकना रोज़ का काम है.

मध्यप्रदेश के इंदौर ज़िला मुख्यालय से क़रीब 25 किलोमीटर दूर महू में पीठ रोड स्थित ‘ग़ाज़ी की चाल’ नाम की एक बस्ती में 22 वर्षीय हर्षा अपने घर के बाहर बने दो गड्ढे में जमा पानी को ख़ाली कर रहीं थीं.हर्षा कहती हैं, “साड़ी के पल्लू से मुंह ढककर कैसे भी करो पर ये काम रोज़ करना पड़ता है. पहले मेरी सास ने 30-35 साल ऐसे ही पानी भरकर फेंका है. जबसे मेरी शादी हुई तब से मैं फेंक रही हूँ.”

गंदगी के आस-पास पढ़ते हैं बच्चे

इस बस्ती में हर घर के बाहर सदस्यों के हिसाब से एक या दो गड्ढे खुदे हैं. जिसमें सुबह से रात तक जमा पानी यहाँ की महिलाएं सुबह पांच बजे से सात बजे के बीच बाल्टियों में भरकर गली के बाहर एक मैदान में फेंक देती हैं.

यह मैदान कम कूड़े का ढेर और सूअरवाड़ा ज़्यादा है. गन्दगी से पटे इस मैदान के ठीक सामने एक स्कूल बना है जहाँ इस दलित बस्ती के सभी बच्चे पढ़ाई करते हैं.

हर्षा बताती हैं, “इस बस्ती में कभी कोई अधिकारी नहीं आया. हम चाहते हैं हमारी बस्ती में पानी निकासी के लिए नाली बन जाए और पीने के पानी के लिए हैंडपंप लग जाएं बाक़ी हमें कुछ नहीं चाहिए.”

वे कहती हैं, “रोज़ कमा-खाकर हम लोग गुज़र-बसर कर लेंगे. लेकिन इस गंदे काम से अब हमें मुक्ति चाहिए.”

यह जानकर ताज्जुब होगा कि ‘ग़ाज़ी की चाल’ नाम की यह बस्ती डॉ बाबा साहब भीम राव आंबेडकर की स्मारक जन्मभूमि से महज़ दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर छावनी परिषद में बसी है.

ये महिलाएं महार समुदाय से आती हैं. ये उसी समुदाय की महिलाएं हैं जिससे डॉ भीम राव आंबेडकर ताल्लुक़ रखते थे.

इस बस्ती में महार समुदाय के क़रीब 20-25 घर हैं बाक़ी आबादी निमाड़ी समुदाय की है. ये दोनों ही दलित समुदाय से हैं.

इस बस्ती के स्थानीय लोगों के अनुसार पीठ रोड पर छावनी परिषद में स्थित महार समुदाय के 100 से ज़्यादा घर हैं.

इनके अनुसार सबसे ख़राब स्थिति ‘ग़ाज़ी की चाल’ बस्ती की है क्योंकि यहाँ दैनिक दिनचर्या में इस्तेमाल होने वाले पानी की निकासी के लिए पूरी बस्ती में नाली ही नहीं बनी है.

पानी और नाली की समस्या

वैसे तो इस बस्ती में अनगिनत समस्याएं हैं लेकिन इस बस्ती के लोग विकास के नाम पर केवल नाली बनवाने और हैंडपंप लगवाने की मांग करते हैं.

हर्षा के घर के ठीक सामने पैंतीस वर्षीय शालिनी जो दिखने में दुबली-पतली हैं. एक साथ सात-आठ प्लास्टिक के ख़ाली डिब्बे पकड़े सुबह के क़रीब आठ बजे सड़क की तरफ़ तेज़ी से बढ़ी जा रही थीं.

शालिनी कहती हैं, “केवल पानी भरने में सुबह के दो घंटे और शाम के दो घंटे लग जाते हैं. जैसे-जैसे गर्मी बढ़ेगी वैसे-वैसे हमारी मुसीबतें और बढ़नी शुरू हो जाएंगी. सप्लाई का पानी डेढ़ दो घंटे सुबह और इतनी ही देर शाम को आता है.”

शालिनी की मुसीबत यहीं ख़त्म नहीं होती है क्योंकि सप्लाई वाला पानी ये पीने के लिए इस्तेमाल नहीं करती हैं.

शालिनी कहती हैं, “सप्लाई वाला पानी मीठा पानी नहीं है, यह नहाने-धोने में ख़र्च होता है. पीने का पानी रेलवे स्टेशन से लेकर आते हैं तो कभी बाज़ार में लगे नल से लाते हैं जो यहाँ से क़रीब एक डेढ़ किलोमीटर दूर है.”

“जिनके पास मोटर साइकिल है वो मोटर साइकिल से लाते और जिनके पास नहीं है वो बेचारे पैदल इतनी दूर से लाते हैं.”

बदहाली के लिए कौन ज़िम्मेदार?

महू में ऐसी दर्जनों बस्तियां हैं जो छावनी परिषद में बीते 30-35 वर्षों से रह रही हैं. स्वच्छ भारत मिशन, हर घर शौचालय, प्रधानमंत्री आवास योजना, हर घर नल योजना जैसी तमाम सरकारी योजनाएं इन बस्तियों में खोखली नज़र आती हैं.

छावनी परिषद कार्यालय महू से मिली जानकारी के अनुसार महू (आम्बेडकर नगर) में क़रीब 20 से 30 हजार की आबादी अतिक्रमण क्षेत्र में रहती है. जहाँ नियमानुसार किसी भी तरह का निर्माण कार्य संभव नहीं है.

यहाँ किसी भी तरह का निर्माण कार्य न हो पाने की वजह से पानी निकासी के लिए नाली, घर-घर शौचालय, रास्ते और पीने के पानी के लिए हैंडपंप जैसी मूलभूत सुविधाओं से यहाँ के लोग महरूम हैं.

बुधवार को तबादला होने से पहले महूँ के एसडीएम रहे अक्षत जैन ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, “ये इलाक़ा छावनी परिषद में आता है जो डिफ़ेंस लैंड है. हमारा कंट्रोल रेवेन्यू लैंड पर होता है. यहाँ की ज़मीन छावनी परिषद् और रक्षा संपदा कार्यालय के अंडर में आती है.”

“यहाँ पर जो सुविधाओं की बात है उसकी ज़िम्मेदारी छावनी परिषद के निकाय की रहती है. यहाँ कोई पंचायत या मध्यप्रदेश की निकाय काम नहीं करती. छावनी परिषद की अपनी ख़ुद की निकाय होती है जो मिनिस्ट्री ऑफ़ डिफ़ेंस को रिपोर्ट करती है. उसी हिसाब से इनका अपना सेटअप है.”

अक्षत जैन कहते हैं, “मेरी ज़िम्मेदारी उस क्षेत्र में एक मजिस्ट्रेट के रूप में है. मेरा रोल सिर्फ़ लॉ एंड ऑर्डर का है इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं. यहाँ केंद्र का मैकेनिज्म चलता है. पूरी ज़िम्मेदारी छावनी नगरीय निकाय की ही होती है.”

वोट देने से वंचित हैं यहाँ के लोग

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्‍या में लगभग 16.6 प्रतिशत या 20.14 करोड़ आबादी दलितों की है. इसमें महार समुदाय की क़रीब 30 लाख आबादी है.

महार समुदाय की सबसे ज़्यादा आबादी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में है. ये कुछ संख्या में गोवा, तेलंगना, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात में भी बसे हैं.

इनकी भाषा मराठी, वरह्दी, खानदेशी भाषा, कोंकणी हिन्दी है. बीसवीं शताब्दी के मध्य में अधिकांश महार समुदाय के लोगों ने बौद्ध धर्म अपनाने में डॉ भीमराव आंबेडकर का अनुसरण किया. वर्ष 2017 तक 16 भारतीय राज्यों में महार जाति को अनुसूचित जाति के रूप में नामित किया गया था.

छावनी परिषद कार्यालय में एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि यहाँ जिस ज़मीन पर ये लोग बसे हैं इनमें से कुछ ज़मीन रक्षा संपदा की है, कुछ आर्मी की और कुछ रेलवे की है. पहले जो रेवेन्यू आता था अब वो भी बंद हो गया क्योंकि ये अतिक्रमण क्षेत्र है.

उन्होंने कहा कि यहाँ कुछ भी निर्माण कार्य संभव नहीं है. कई बार हमलोगों ने प्रयास किया है कि यहाँ की समस्याओं का समाधान हो. इंदौर कलेक्ट्रेट को भी फ़ोन करके ये कहा कि जो प्रधानमंत्री आवास के तहत घर बंटे हैं वो इन्हें दिला दिए जाएँ जिससे इनको रहने का ठिकाना मिल जाए लेकिन कुछ असर नहीं हुआ.

अधिकारी ने कहा कि पांच साल पहले तक तो थोड़ा-बहुत निर्माण कार्य होता भी था लेकिन पिछले पांच छह साल से ये निर्माण कार्य बिलकुल बंद कर दिया गया है.

रक्षा मंत्रालय के वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की 69 हजार आबादी में 45 हज़ार घर ही लीगल हाउस हैं.

छावनी परिषद कार्यालय महू से मिली जानकारी के अनुसार सुप्रीम कोर्ट की 2016-17 की नई गाइडलाइन के अनुसार छावनी परिषद में रहने वाले वही लोग वोट डाल सकते हैं जिनका अधिकारिक तौर पर निवास हो.

जानकारी के मुताबिक वर्ष 2016 में 51 हज़ार वोटिंग संख्या थी जो 2017 में घटकर 32 हज़ार हो गयी और 2018 में 31 हज़ार ही बची है.

वर्तमान में यहाँ 20 हज़ार से ज़्यादा आबादी ऐसी रहती है जिसके पास वोट देने का अधिकार नहीं है. ये सरकारी आंकड़े हैं जबकि यहाँ के स्थानीय लोगों के अनुसार लगभग 30 हज़ार आबादी को वोट डालने से वंचित किया गया है.

बस्ती उजड़ी तो कहां जाएंगे?

रसोईघर में खाना बना रहीं तीन बच्चों की माँ, 35 वर्षीय मंदा अपनी ग़रीबी को कोसते हुए कहती हैं, “दिनभर कूड़ा बीनकर गुज़र-बसर होता है. इतना पैसा नहीं हमारे पास कि हम एक घर ख़रीद सकें.”

वे कहती हैं, “कुछ साल पहले जब हमारी बस्ती उजाड़ी गयी थी तब हमने दो तीन महीने सड़क पर गुज़ारे थे. अभी भी जब अधिकारी निकलते हैं तो कहते हैं ख़ाली कर दो. जब हमारे पास घर ज़मीन नहीं हैं तो हम लोग कहां जाएंगे.?”

मंदा की तरह इस छावनी परिषद में रहने वाले हज़ारों लोगों की यही चिंता है कि अगर ये बस्तियां उजाड़ दी जायेंगी तो इनका ठिकाना क्या होगा?

कुछ साल पहले भी ये बस्तियां उजाड़ दी गयी थीं. छावनी परिषद कार्यालय महू से मिली जानकारी के अनुसार ये अतिक्रमण की ज़मीन है और ये तो इन्हें ख़ाली करनी ही पड़ेगी. बस्ती उजड़ने के बाद यहाँ के लोग कहां रहेंगे सरकार के पास इसकी कोई तैयारी नहीं है.

यहाँ के पूर्व पार्षद अशोक वर्मा बताते हैं, “मैं 2015 से 2021 फ़रवरी तक यहाँ का पार्षद रहा हूँ. मैंने अपने कार्यकाल में कैन्टोनमेंट बोर्ड को कई बार ये प्रस्ताव लिखकर दिया कि इस बस्ती में पीने के पानी का और नाली का इंतज़ाम किया जाए.”

“कैंट बोर्ड से हमेशा यही जवाब मिलता है कि ये अतिक्रमण की जगह है इसलिए यहाँ निर्माण कार्य संभव नहीं है. वार्ड नम्बर सात में 22 मोहल्ले आते हैं. यहाँ सब जगह सप्लाई का खारा पानी आता है जो पीने के लिए उपयुक्त नहीं है.”

“छावनी में क़रीब 15 हज़ार लोग खारा पानी पीते हैं जिससे उन्हें पेट से जुड़ी कई तरह की बीमारियाँ हैं.”

अशोक वर्मा कहते हैं, “हमारे कार्यकाल में वर्ष 2017 में कैंट बोर्ड से क़रीब साढ़े तीन करोड़ रूपये का प्रोजेक्ट पानी के लिए पास किया था लेकिन मैं दो साल पहले जब पार्षद से हटा हूँ तब से कोई काम ही शुरू नहीं हुआ.”

“इस दलित समुदाय के लिए योजनाएं कोई विशेष चलती नहीं हैं, जो चलती भी हैं वो इन तक पहुंच नहीं पाती हैं.”

महू छावनी परिषद क्षेत्र में जहाँ ये बस्तियां बसी हैं अगर आप यहाँ की सड़क से होकर गुज़रेंगे तो आपको पीठ रोड के किनारे नालियों में गंदा पानी लबालब भरा दिख जाएगा.

यहाँ बने पार्कों में कूड़े के ढेर का मलबा जमा है जहां दर्जनों की संख्या में आपको सूअर लोटते हुए दिख जाएंगे. गंदगी की वजह से बदबू का आलम ये है कि आप यहाँ कुछ देर रुककर ठहर नहीं सकते हैं यहाँ के लोग अपना जीवन यहाँ रहकर कैसे गुज़ारा करते हैं इससे आप इसका अंदाज़ा लगा सकते हैं.

मध्य प्रदेश राज्य निर्वाचन आयोग के उप-सचिव अरुण परमार ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, “यहाँ के वोटर का लिस्ट से नाम हटने में राज्य निर्वाचन आयोग की कोई भूमिका नहीं है. कैंटोनमेंट बोर्ड का अलग ही सेटअप होता है. ये वहीं से कंट्रोल होता है.”

छावनी परिषद के पूर्व उपाध्यक्ष रह चुके कैलाश दत्त पाण्डेय कहते हैं, “यहाँ 1992 से जितने भी इलेक्शन हुए हैं मैं दो बार पार्षद और उपाध्यक्ष भी रहा हूँ. वर्ष 2006 में एक नियम आया है कि केवल सिविल एरिया में ही सरकारी पैसा ख़र्च किया जा सकता है.”

“मेरी हमेशा कोशिश रही कि इन बस्तियों की ज़मीनों को सिविल एरिया से जोड़ दिया जाए लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाया. इसलिए यहाँ की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ.”

कैलाश दत्त कहते हैं, “हमने कई बार शासन को प्रस्ताव भेज कर कहा कि यहां जितनी भी झुग्गी-झोपड़ियां बनी हैं उन्हें बहु मंजिला इमारत बनाकर उन्हें छोटे-छोटे फ़्लैट दे दिए जाएँ, लेकिन इसकी ज़िम्मेदारी लेने के लिए कोई तैयार ही नहीं है.”

आज़ाद भारत में ग़ुलामी की ज़िंदगी

यहाँ बसे सभी लोग दिहाड़ी मज़दूरी कर अपने जीवन का भरण-पोषण करते हैं. यहाँ बसी महार समुदाय की ज़्यादातर महिलाएं कबाड़ बीनने या बंगलों में झाडू-पोछा का काम कर अपना गुज़र बसर करती हैं.

ये महिलाएं कूड़ा बीनने का काम छोड़ना चाहती हैं लेकिन इनके पास रोज़गार का कोई दूसरा आधार नहीं है.

यहाँ रहने वाली 38 वर्षीय जयश्री कहती हैं, “सुबह नौ बजे से शाम छह बजे तक अटाला (कबाड़) बीनने का काम मज़बूरी में करना पड़ता है. इस गंदगी के काम में मज़दूरी केवल डेढ़ दो सौ रुपए ही मिलती है. घर से लेकर काम तक हर जगह घिन (गंदगी) वाला ही काम करना पड़ता है.”

कैन्टोनमेंट बोर्ड में छह साल तक उपाध्यक्ष, कुछ साल अध्यक्ष और पार्षद रहे योगेश यादव कहते हैं, “महू का सबसे ग़रीब तबक़ा वार्ड 3 और 7 में रहता है. आप आंबेडकर कॉलोनी की हालत देखिए आपको यहाँ के विकास का अंदाज़ा हो जाएगा. आज़ादी के बाद भी ये ग़ुलामी की ज़िंदगी जी रहे हैं.”

“मैं लंबे समय से इन बस्तियों के प्रति एक उपेक्षा का वातावरण देख रहा हूँ. यहाँ मज़दूर तबक़े के लोग सबसे ज़्यादा रहते हैं. जो अपने हक़ और अधिकारों के लिए लड़ाई नहीं लड़ पाते. अगर यहाँ का नेतृत्व मज़बूत हो तभी चीज़ें बेहतर होने की संभावना हो सकती है.”

योगेश यादव कहते हैं, “महू इंदौर पर पलने वाला शहर है. हज़ारों की संख्या में मज़दूर मज़दूरी करने ट्रेन से इंदौर जाया करते थे लेकिन एक षड्यंत्र के तहत रोज़ चलने वाली शटल ट्रेन को बंद कर दिया गया.”

“जिससे रोज़ाना 20 से 25 हज़ार लोग यात्रा करके मज़दूरी करने जाते थे. अगर अब ये बस से जायेंगे तो इनको रोज़ाना 80 रुपये किराया चाहिए तो आधी मज़दूरी इनकी किराए में ख़र्च हो जायेगी.”

‘वोट लेने के बाद कोई नहीं आता’

65 साल की रानी बाई एक छोटे से कमरे के भीतर बर्तन साफ़ कर रही थीं इसी एक कमरे में इनके रहने-खाने, बर्तन धुलने और नहाने का इंतज़ाम है.

इस बस्ती में बहुत छोटे-छोटे घर बने हैं जिसे यहाँ के लोगों ने मेहनत-मज़दूरी करके ख़ुद से बनवाये हैं.

रानी बाई कहती हैं, “यहाँ पर पार्षद और नेता लोग सिर्फ़ एक बार वोट मांगने आते हैं इसके अलावा यहाँ अभी कोई झाँकने नहीं आता. दो साल से तो मेरी पेंशन भी नहीं आ रही. कोई ग़रीबों की सुनने वाला नहीं, किससे कहें.”

पूर्व पार्षद अनिल वर्मा कहते हैं, “जिस तरह इंदौर नगर निगम ने कुछ अतिक्रमण बस्तियों को फ़्लैट बनाकर शिफ़्ट कर दिया है उसी तरह से अगर सरकार यहाँ के लोगों को घर बनाकर शिफ़्ट कर दे तो एक बेशक़ीमती जगह ख़ाली हो जायेगी और इन बस्तियों की मुश्किलें आसान हो जाएंगी.”

‘बाबा साहब का संविधान उनकी ही जन्मभूमि पर लागू नहीं होता’

डॉ भीम राव आंबेडकर जन्मभूमि स्मारक समिति के पूर्व सचिव मोहन राव वाकोड़े कुछ साल पहले तक इसी महार बस्ती में रहते थे. वो कहते हैं, “इन महार बस्तियों की और अनुसूचित जातियों की स्थिति जानवरों से भी बदतर है.”

“देशभर में स्वच्छता अभियान चल रहा है यहाँ अगर आप घूमी होंगी तो आपको यहाँ की स्वच्छता व्यवस्था का अंदाज़ा हो गया होगा. शासकीय योजनाएं हों या केंद्र सरकार की योजनाएं, वो छावनी परिषद में लागू ही नहीं होती. बाबा साहब का संविधान उनकी ही जन्मभूमि पर लागू नहीं होता है.”

“यहाँ के क़रीब 27 हज़ार लोगों को मतदान करने से वंचित कर दिया गया है. कारण ये बताया गया कि ये अतिक्रमण करने वाले लोग हैं. यहाँ के लोग विधायक और सांसद को तो वोट कर सकते हैं लेकिन छावनी में रहने वाले पार्षद को चुनने का अधिकार इनसे छीन लिया गया.”

मोहन राव वाकोड़े के अनुसार देशभर में 62 कैन्टोनमेंट छावनियां हैं जहाँ रहने वाले लाखों लोगों को वोट देने से वंचित कर दिया गया है.

मोहन राव वाकोड़े कहते हैं, “ऐसा कहा जाता है कि ये अतिक्रमण क्षेत्र के अन्दर निवास करने वाले लोग हैं इसलिए इन्हें लाभ नहीं मिलेगा. मेरे हिसाब से इन्हें इसलिए भी नज़रअंदाज़ किया जाता है क्योंकि इन्हें विकास कराने वाले पार्षद को ही चुनने का अधिकार इनसे छीन लिया गया है.”

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