उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों में पसमांदा मुसलमानों को टिकट देने के पीछे क्या है बीजेपी की मंशा?

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DMT : मुरादाबाद  : (23 मई 2023) : –

53 साल की फ़रख़न्दा ज़बी इस महीने की शुरुआत में हुए उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में जीतकर नगर पंचायत अध्यक्ष बनीं हैं.

वे मुरादाबाद की भोजपुर धर्मपुर सीट से चुनकर आईं हैं.

फ़रख़न्दा ने बीजेपी के टिकट पर अपनी ज़िंदगी का पहला चुनाव लड़ा था और उन्हें जीत मिली.

मुरादाबाद के भोजपुर धर्मपुर में 90 फ़ीसदी आबादी मुसलमानों की है.

इससे पहले यहाँ समाजवादी पार्टी उम्मीदवार की जीत हुई थी, लेकिन इस बार पासा पलट गया और फ़रख़न्दा बड़े अंतर से ये चुनाव जीत गईं.

भोजपुर धर्मपुर सीट पिछड़ी जाति की महिला उम्मीदवार के लिए आरक्षित है. यहाँ फ़रखन्दा ज़बी ने समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार मोहसिना को हराया.

फ़रख़न्दा के पति परवेज़ अख़्तर बीबीसी से कहते हैं, “हमने बड़े अंतर से जीत दर्ज की है. हमें 45 फ़ीसदी वोट मिले हैं. ये बीजेपी की नीति के कारण हुआ है. हम बीते कई सालों से इस इलाक़े में समाज सेवा कर रहे हैं. इस बार लोगों ने काम को वोट दिया है.”

फ़रख़न्दा पसमांदा मुसलमान हैं. वो उन 395 लोगों में से एक हैं जिन्हें बीजेपी ने नगर निकाय चुनाव में टिकट दिया था.

इनमें से 61 मुसलमानों को चुनाव में जीत मिली है. लेकिन इनमें से पाँच मुसलमान ही नगर पंचायत अध्यक्ष बन सके हैं और जिनमें फ़रख़न्दा एक हैं.

इस लिहाज से फ़रख़न्दा की ये जीत और भी अहम है.

बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में इस महीने हुए निकाय चुनावों में बड़ी जीत हासिल की.

लेकिन इस जीत में एक बात जो अहम है वो ये कि इस बार बीजेपी ने रिकॉर्ड संख्या में मुसलमानों को टिकट दिए. बीजेपी ने नगर निकाय चुनाव में 395 मुसलमानों को टिकट दिए, जिनमें से 90 फ़ीसदी पसमांदा मुसलमान थे.

इस बात की पुष्टि यूपी बीजेपी के एक नेता ने बीबीसी से की है.

बीजेपी की बड़ी जीत और मुसलमानों की हिस्सेदारी

13 मई को उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव के नतीजे आए. इसी दिन कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे भी आए और इसमेंं बीजेपी हार गई.

लेकिन यूपी नगर निकाय चुनाव में बीजेपी ने दमदार जीत हासिल की.

सभी 17 मेयर की सीटों पर बीजेपी की जीत हुई.

यूपी के इन चुनावों में बीजेपी की जीत कोई अप्रत्याशित जीत नहीं थी. चुनाव से पहले भी ये अनुमान लगाए जा रहे थे कि ही जीत बीजेपी होगी.

इस बार के निकाय चुनावों में ख़ास बात ये थी कि जिस बीजेपी के पास ना तो उत्तर प्रदेश विधानसभा में एक भी चुना हुआ मुसलमान विधायक है और ना ही यूपी से बीजेपी का कोई मुसलमान सांसद है.

उस बीजेपी के टिकट पर कुल 61 मुसलमान नगर निकाय के चुनाव जीते हैं.

यूपी में मुसलमानों की आबादी लगभग 20 फ़ीसदी है.

नगर निकाय के चुनाव में कुल 14684 सीटें है, इस आधार पर बीजेपी का 395 मुसलमानों को टिकट देना यूँ तो कोई बड़ा नंबर नहीं है.

लेकिन साल 2017 के निकाय चुनाव से इसकी तुलना करें तो बीजेपी के टिकट बँटवारे में मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या काफ़ी बढ़ी है.

साल 2017 में बीजेपी ने 100 से भी कम मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था.

यूपी में बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष कुंवर बासित अली कहते है, “मोदी और योगी जी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की जो नीतियाँ हैं, इससे सबको लाभ मिला है. इस बार निकाय चुनाव में पार्टी की ओर से जिन मुसलमान उम्मीदवारों को टिकट दिया गया, उसमें ज़्यादातर पसमांदा मुसलमानों को टिकट दिया है. लेकिन इसमें राजपूतों, गुर्जर, शिया मुसलमानों को भी टिकट दिया है.”

“मुसलमानों पर अब तक एक पार्टी अपना अधिकार समझती थी, उन्हें बीजेपी का नाम लेकर डराया जाता था. अब जब बीजेपी ने उनकी मदद के लिए अपना हाथ बढ़ाया है तो उन्होंने हमें दोनों हाथों से थामा है.”

पसमांदा मुसलमान और बीजेपी की तैयारी?

बीजेपी की पसमांदा मुसलमानों को रिझाने की कोशिश नई नहीं है.

पसमांदा मुसलमान जैसे जुलाहे, धुनिया, घासी, क़साई, तेली और धोबी वग़ैरह, जिन्हें देश में निचली जातियों में गिना जाता है, लंबे समय से बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फ़ोकस में रहे हैं.

पार्टी की पिछली दो कार्यकारिणियों, 2022 में हैदराबाद में हुई बैठक और जनवरी 2023 में दिल्ली में हुई बैठक में ख़ास तौर पर पीएम मोदी ने पसमांदा मुसलमानों का ज़िक्र किया था.

बीते साल नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के पसमांदा मुसलमानों के एक प्रतिनिधि मंडल से लंबी मुलाक़ात की थी जिसके कुछ ही महीने बाद पार्टी की यूपी इकाई ने बुनकर सेल की स्थापना की थी.

यूपी में हर ज़िले में अल्पसंख्यक मोर्चा सक्रिय है.

इतना ही नहीं यूपी में अल्पसंख्यक मोर्चा के 80 फ़ीसदी पदों पर पसमांदा समुदाय के लोग हैं.

यूपी सरकार में अल्पसंख्यक मंत्री दानिश अंसारी, राज्य के अल्पसंख्यक आयोग के मुखिया अशफ़ाक सैफ़ी, मदरसा बोर्ड के अध्यक्ष इफ्तिख़ार अहमद जावेद, सुन्नी वक्फ़ बोर्ड के चेयरमैन जुफ़र फ़ारूखी ये सभी पसमांदा समुदाय से आते हैं.

बासित अली कहते हैं, “हमारा फ़ोकस पसमांदा हैं. हम उनको सम्मान, भागीदारी, आर्थिक लाभ दे रहे हैं, क्योंकि 60 सालों से वो बस वोट बैंक की तरह इस्तेमाल होते रहे. उनका वोट तो लिया गया लेकिन उनका विकास किसी ने नहीं किया, तो जो लोग पीछे छोड़ दिए गए थे उन्हें बीजेपी की सरकार आगे लाने का काम कर रही है. ये काम उन सरकारों को करना चाहिए था जिन्हें थोक के भाव मुसलमानों का वोट मिला था.”

हालांकि समाजवादी पार्टी इसे अपने लिए इसे बड़े ख़तरे की तरह नहीं देखती.

सुशांत चौधरी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेता है.

वो कहते हैं, “बीजेपी के इस क़दम के कोई ख़ास मायने नहीं है. समाजवादी पार्टी सबकी पार्टी है इसे किसी भी एक धर्म से क्यों जोड़ा जाए. अगर बीजेपी को लगता है कि निकाय चुनाव और विधानसभा या लोकसभा चुनाव में वोटर एक तरह से वोट करता है तो ये उनकी भूल है. इसका असर लोकसभा या विधानसभा चुनाव में नहीं होगा. जो लोग समाजवादी विचारधारा को मानते हैं वो हमारे साथ हैं और आगे भी होंगे. इसका कोई दीर्घकालीन असर नहीं होने वाला है. ”

मुसलमान इन निकाय चुनाव में समाजवादी पार्टी से थोड़ा दूर जाता दिखा है. कई मुसलमान बाहुल सीटों पर एआईएमआईएम को समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी से अधिक वोट मिले हैं.

संभल के नगर पंचायत सिरसी से कौसर अब्बास ने निकाय चुनाव में बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत कर चेयरमैन बने हैं.

अब्बास पसमांदा मुसलमान तो नहीं हैं लेकिन उनका कहना है कि वह आठ सालों तक समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता थे, लेकिन साल 2012 में उन्होंने पार्टी छोड़ दी.

सिरसी में 80 फ़ीसदी आबादी मुसलमान है और ये समाजवादी पार्टी का मज़बूत इलाक़ा माना जाता है, लेकिन इस बार यहाँ पंचायत चुनाव में बीजेपी उम्मीदवार की जीत हुई है.

अब्बास का ये पहला चुनाव था.

बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं, “मुझे इस चुनाव में 3200 वोट मिले, इससे पहले यहाँ किसी भी बीजेपी उम्मीदवार को 400-500 से ज़्यादा वोट नहीं मिलते थे. मैं बीते कुछ सालों में समाजसेवा का काम कर रहा था, ख़ास कर लॉकडाउन में मैं सरकार की ओर से मिलने वाला फ्री राशन लोगों तक पहुँचाता था, लोगों ने काम पर वोट दिया है.”

हालाँकि अब्बास इस बात को भी मानते हैं कि वो चुनाव के कुछ दिन पहले ही बीजेपी में शामिल हुए और टिकट के लिए आवेदन दिया.

सिरसी सीट पर नगर पंचायत का चुनाव लंबे समय से बसपा जीतती रही है और विधानसभा चुनाव में ये सीट सपा के खाते में जाती रही है. लेकिन इस बार ये समीकरण बदल गए.

बीजेपी का दावा है कि इस बार निकाय चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 2017 के मुक़ाबले बढ़ा है.

शादाब रिज़वी नवभारत टाइम्स अख़बार के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश को लंबे समय से कवर कर रहे हैं.

रिज़वी कहते हैं, “बीजेपी ने इस बार कई मुसलमानों को टिकट देकर कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर दिया है. इनमें से कुछ इलाक़ों को छोड़ दें तो बीजेपी यहाँ अपने उम्मीदवार ही खड़े नहीं करती थी. ये मुसलमान बहुल इलाक़े बीजेपी के लिए मुश्किल इलाक़े ही हुआ करते थे.”

उन्होंने कहा कि बीजेपी ने यहाँ पर टिकट देकर ये संदेश ज़रूर दे दिया कि वो मुसलमानों के लिए भी सोच रही है. लेकिन इससे ये तो नहीं लगता कि मुसलमानों को बीजेपी कोई बहुत बड़ी भागीदारी देने जा रही है.

योगी और मोदी के लिए इसके मायने

पसमांदा मुसलमानों की आबादी को लेकर काई ठोस आँकड़े फ़िलहाल मौजूद नहीं है.

1931 के बाद जातिगत जनगणना का काम बंद कर दिया गया लेकिन ये समुदाय दावा करता है कि देश में पसमांदा मुसलमान, कुल मुस्लिम आबादी का 80 से 85 फ़ीसदी तक हो सकते हैं.

जानकार मानते हैं कि 17 मेयर के चुनाव नतीजे बताते हैं कि मुसलमानों का वोट एक पार्टी को ना जा कर इस बार बँट गया है.

मुसलमानों का वोट सपा, बसपा, कांग्रेस, एआईएमआईएम और आप के बीच बँट गया और नतीजा ये हुआ कि सभी सीटों पर बीजेपी की जीत हुई.

उत्तर प्रदेश की राजनीति को क़रीब से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, “नगर निगम के चुनाव माइक्रो प्लानिंग के तहत होते हैं. वार्ड में किस समुदाय की आबादी है ये महत्वपूर्ण होता है और सीटें जीतने के इरादे से टिकट दे दिए जाते हैं. इस बार बीजेपी को सफलता इसलिए भी मिली क्योंकि सपा और बसपा ने ये चुनाव पूरे दम से नहीं लड़ा. इसलिए ये समझना कि ये बीजेपी के लिए 2024 में अहम वोट बैंक होने वाले है या इसके कोई बहुत बड़े मायने हैं मैं नहीं मानता.”

वे कहते हैं, “अगर ये आने वाले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए अहम होते तो बीजेपी कर्नाटक में बजरंगबली और मुसलमानों के ख़िलाफ़ खुलकर बयान ना दे रही होती. बीजेपी के लिए आने वाले चुनाव में भी हिंदुत्व ही सबसे बड़ा मुद्दा होगा. यूपी निकाय चुनाव में बीजेपी ने जो भी किया है उसके कोई बड़े मायने अभी नहीं निकालना चाहिए.”

अशोका यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर अली ख़ान महमूदाबाद मानते हैं कि इसका असली मक़सद है मुसलमान आपस के झगड़ों में उलझा रहे और वोट बँटता रहे.

वे कहते हैं, “ये पहली बार नहीं है कि बीजेपी-आरएसएस ने मुसलमानों के भीतर किसी ख़ास वर्ग को साधने की कोशिश की हो, पहले वो सूफ़ी-ख़ानकाहों से जुड़े लोगों और फिर शिया समुदाय से जुड़ने की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन दोनों में उसे कोई बड़ी सफलता नहीं हासिल हुई.”

“इसलिए अब पसमांदा मुसलमान उनकी नई पसंद हैं.”

नवभारत टाइम्स के शादाब रिज़वी कहते हैं, “समाजवादी पार्टी को निकाय चुनाव में जो भी नुक़सान हुआ है उसका कारण ये नहीं है कि मुसलमान वोटर बीजेपी की ओर खिसक रहा है. दूसरी पार्टियों की ओर ये वोट ज़्यादा खिसका है. एआईएमआईएम ने सपा को ज़्यादा नुकसान पहुँचाया है. अखिलेश यादव मुसलमानों के मुद्दे पर मुखर होकर नहीं बोलते. चाहे बुलडोज़र के इस्तेमाल को लेकर या अतीक़ अहमद की हत्या को लेकर, सपा मुखर नहीं दिखी.”

“मुसलमानों में ये संदेश गया है कि अखिलेश यादव सारस जैसे मुद्दे पर तो बोलते हैं लेकिन मुसलमानों के लिए उनके तेवर नरम रहते हैं. इससे मुसलमानों में थोड़ी नाराज़गी तो है और उन्होंने एआईएमआईएम या थोड़ा बहुत बीजेपी की ओर जो रुख़ किया है वो इसीलिए किया है ताकि वो सपा को अपनी नाराज़गी का संदेश दे सकें.”

बीजेपी नेता भी रिज़वी की इस बात से इत्तेफ़ाक रखते हैं कि मुसलमान वोटर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम की ओर आकर्षित हुए हैं.

बासित अली कहते हैं, “इस बार के निकाय चुनाव के नतीजों को देखेंगे और वोटिंग के पैटर्न पर गौर करें तो बड़ी तादाद में मुसलमान वोटर सपा से छिटका है और वो एआईएमआईएम में गया है, बसपा की ओर गया है, कांग्रेस की ओर भी गया है. तो मुसलमान अब किसी एक पार्टी का वोट बैंक नहीं रहा और ये बीजेपी की उपलब्धि है.”

रिज़वी कहते हैं, “बीजेपी के लिए एक मुश्किल ये भी है कि उसके कोर वोटर को ये संदेश ना जाए कि वो मुसलमानों को गोद में बिठा रही है, इससे बीजेपी की हिंदुत्व की छवि को धक्का लग सकता है. ऐसे में देखना होगा कि बीजेपी पसमांदा मुसलमानों को आने वाले वक़्त में सांकेतिक प्रतिनिधित्व से ज़्यादा और क्या दे पाएगी.”

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