जन्मतिथि की गड़बड़ी से एक शख़्स कैसे मौत के मुहाने पर पहुंच गया

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DMT : नागपुर  : (13 अप्रैल 2023) : –

25 साल पहले एक किशोर को ग़लत तरीके से वयस्क मानते हुए मौत की सज़ा दे दी गई थी. मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने उसे बरी करते हुए इस बात की पुष्टि की कि अपराध के समय वो नाबालिग़ था. बीबीसी ने राजस्थान के जलबसार गांव में इस व्यक्ति से मुलाक़ात की जो अब 41 साल का है.

भारत के पश्चिमी शहर नागपुर में पिछले महीने निरनाराम चेतनराम चौधरी को मौत की सज़ा से मुक्त किया गया.

लेकिन इससे पहले उन्होंने 28 साल, छह महीने और 23 दिन यानी कुल मिलाकर 10,431 दिन हिरासत में बिताए.

वो 12X10 फ़ीट के अधिकतम सुरक्षा सेल में बंद थे. ये लंबा अर्सा उन्होंने इस काल कोठरी में चहलक़दमी करते, किताबें पढ़ते, परीक्षाएं देते हुए और ये साबित करने की कोशिश करते हुए बिताया कि जब उन्हें गुनाह का दोषी पाया गया था तब उनकी उम्र 18 साल से कम थी.

निरनाराम को 1994 में हुई सात लोगों की हत्या के मामले में मौत की सज़ा दी गई थी.

इनमें से पांच महिलाएं और दो बच्चे थे. ये हत्याकांड पुणे शहर में हुआ था.

उन्हें राजस्थान के अपने गांव से दो अन्य लोगों के साथ गिरफ़्तार किया गया था.

साल 1998 में अपराध के समय उनकी उम्र को 20 साल मानते हुए उन्हें मौत की सज़ा दे दी गई थी.

मार्च में अंततः भारत की सुप्रीम कोर्ट ने उनकी लगभग तीन दशक चली इस पीड़ा का अंत किया.

इस दौरान तीन अदालतों में उनका मुक़दमा चला, अनगिनत बार तारीख़ें पड़ीं, क़ानून बदले, अपीलें दायर हुई हैं, दया याचिका दायर हुई, उनकी उम्र की पुष्टि के लिए परीक्षण हुए और उनके दस्तावेज़ों की खोज हुई.

जज इस नतीजे पर पहुंचे कि जब ये अपराध हुआ था तब निरनाराम की उम्र 12 साल 6 महीने थी यानी वो नाबालिग़ थे.

भारतीय क़ानूनों के तहत किसी नाबालिग को मौत की सज़ा नहीं दी जा सकती है और किसी भी तरह के अपराध के लिए अधिकतम तीन वर्ष की सज़ा ही दी जा सकती है.

आख़िर न्याय में ऐसी भूल कैसे हुई कि एक किशोर फांसी के फंदे के क़रीब पहुंच गया?

जब निरनाराम को गिरफ़्तार किया गया था तब पुलिस ने उनकी उम्र और नाम ग़लत दर्ज किया था. इसके कारण अब तक स्पष्ट नहीं हुए हैं.

उनकी गिरफ़्तारी के वक्त पुलिस ने जो रिकार्ड दर्ज किया था, उसमें उनका नाम नारायण लिखा गया था. किसी को नहीं पता है कि सबसे पहली बार उनकी ग़लत उम्र कब दर्ज की गई थी.

प्रोजेक्ट 39ए से जुड़ी श्रेया रस्तोगी कहती हैं, “उसकी गिरफ़्तारी का रिकॉर्ड बहुत पुराना है. मुक़दमे की सुनवाई के असली दस्तावेज़ तो सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश भी नहीं हो सके.”

प्रोजेक्ट 39ए दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी का एक कार्यक्रम है जिसके तहत आपराधिक न्याय व्यवस्था में लोगों की मदद की जाती है. इस प्रोजेक्ट के नौ साल लंबे प्रयास के बाद ही निरनाराम की रिहाई संभव हो सकी.

हैरानी की बात ये है कि जन्मतिथि ग़लत दर्ज होने के विषय को 2018 से पहले ना ही अदालतों ने उठाया, ना ही अभियोजकों ने और ना ही बचाव पक्ष के वकीलों ने.

जन्म प्रमाण पत्र ना होने की वजह से भारत के ग्रामीण क्षेत्र में बहुत से लोगों को अपनी वास्तविक जन्मतिथि का पता नहीं होता है. निरनाराम का मामला भी ऐसा ही है.

निरनाराम को उनके गांव के स्कूल के एक पुराने रजिस्टर में दर्ज उनकी जन्मतिथि ने बचा लिया. इस रजिस्टर में उनकी जन्मतिथि 1 फ़रवरी 1982 दर्ज है.

स्कूल की टीसी (ट्रांसफर सर्टिफ़िकेट) जिस पर उनके स्कूल छोड़ने और दूसरे स्कूल में दाख़िला लेने की तारीख़ अंकित है और ग्राम पंचायत का नारायण और निरनाराम के एक ही व्यक्ति होने का प्रमाण पत्र उनकी रिहाई में अहम साबित हुआ.

रस्तोगी कहती हैं, “इस मामले में पूरा सिस्टम नाकाम हुआ है. अभियोजक, बचाव पक्ष के वकील, अदालतें, जांचकर्ता. हमारा सिस्टम घटना के समय उनकी उम्र की पुष्टि करने में पूरी तरह नाकाम रहे.”

गंवा दिया ज़िंदगी का सबसे अहम वक़्

पिछले सप्ताह हम सूखे और गर्म इलाक़े से होते हुए राजस्थान के बीकानेर ज़िले के जलबसार गांव पहुंचे. यहां क़रीब 600 घर हैं और तीन हज़ार लोग रहते हैं.

निरनाराम के पिता एक किसान थे और मां गृहिणी. अब वो अपने चार भाइयों के बड़े परिवार के साथ फिर से ज़िंदगी शूरू करने की कोशिश कर रहे हैं.

दूर तक दिखते खेतों और रेत के टीलों के बीच बसा ये गांव देखने में समृद्ध लगता है. यहां की ख़ामोश गलियों के इर्द-गिर्द बने बड़े मकानों के ऊपर सैटेलाइट डिश एंटीना और पानी की टंकिया नज़र आती हैं.

गांव के स्कूल में उन लोगों के नाम अंकित हैं जिन्होंने स्कूल बनाने के लिए पैसा और सामान दान किया.

डूबी आंखों और लंबे क़द वाले निरनाराम कहते हैं, “मेरे साथ ये क्यों हुआ? एक मामूली ग़लती की वजह से मैंने अपनी ज़िंदगी का सबसे अहम वक़्त गंवा दिया.”

“इसकी भरपाई कौन करेगा.”

राज्य ने अपनी ग़लती के लिए कोई भरपाई नहीं की है.

अपराध की वारदात क्या थी जिसमें निरनाराम पकड़े गए

1998 में अदालत ने निरनाराम और फ़िलहाल जेल में बंद एक सह-अभियुक्त को सज़ा सुनाते हुए इसे ‘दुर्लभतम अपराध कहा था.’

26 अगस्त 1994 तो पुणे में एक लूट की वारदात के दौरान एक परिवार के सात सदस्यों की चाकुओं से हत्या कर दी गई थी.

पीड़ित परिवार के मुताबिक़, अभियुक्तों में से एक उनकी मिठाई की दुकान पर काम करता था और घटना से कुछ सप्ताह पहले ही उसने काम छोड़ दिया था.

बाद में ये व्यक्ति सरकारी गवाह बन गया और जांच में उसने पुलिस की मदद की. वो रिहा हो गया था.

अन्य दो अभियुक्त जिनमें निरनाराम भी शामिल है, पीड़ित परिवार की पहचान के नहीं थे.

पीड़ित परिवार के एक सदस्य संजय राठी ने साल 2015 में इंडियन एक्सप्रेस अख़बार से कहा था, “अगर उनका मक़सद लूट करना था तो फिर परिवार के सात लोगों की हत्या करने की क्या ज़रूरत थी.”

निरनाराम ने मुझे बताया कि गांव के स्कूल में तीसरी कक्षा पास करने के बाद वो घर से भाग गए थे.

मैंने पूछा कि घर से क्यों भागे थे?

वो जवाब देते हैं, “मुझे कुछ याद नहीं है. मुझे ये भी याद नहीं है कि मैं किन लोगों के साथ भागा था. मैं पुणे पहुंच गया था जहां एक टेलर की दुकान पर काम करता था.”

उनके किसी भाई को भी ये बात याद नहीं है कि निरनाराम घर से क्यों भागे थे.

लेकिन हत्याओं के बारे में उन्हें क्या याद है?

वो कहते हैं, “मुझे उस अपराध की भी कोई याद नहीं है. मुझे नहीं पता कि पुलिस ने मुझे क्यों गिरफ़्तार किया था. मुझे ये याद है कि गिरफ़्तारी के बाद मुझे बहुत पीटा गया था. जब मैंने पूछा कि मुझे क्यों मारा जा रहा है तो पुलिस ने मराठी भाषा में कुछ कहा था. उस समय मुझे मराठी भी नहीं आती थी.”

“मुझे याद नहीं है, लेकिन पुलिस ने मुझसे बहुत से दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करवाए थे. मैं बहुत छोटा लड़का था. मुझे ऐसा लगता है कि मुझे ग़लत तरीके से फंसाया गया था.”

तो क्या आप उस अपराध से इनकार कर रहे हैं? मैंने पूछा.

“मैं ना अपराध को स्वीकार कर रहा हूं और ना नकार रहा हूं. जब मेरी याद्दाश्त बेहतर होगी तो मैं और स्पष्ट बता पाऊंगा. मुझे इसकी कोई याद नहीं है. मुझे कुछ भी याद नहीं आता है.”

पिछले महीने जब सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें रिहा किया तो इस सवाल पर भी विचार किया गया कि क्या 12 साल की उम्र का बच्चा इतना जघन्य अपराध कर सकता है.

जजों ने कहा, “यह हमें झकझोरता है, हम अपनी न्याय प्रक्रिया को धूमिल करने के लिए इस तरह की अटकलों को लागू नहीं कर सकते हैं. हमें बाल मनोविज्ञान या अपराध विज्ञान का कोई ज्ञान नहीं है जो हम इस कारक को ध्यान में रख सकें …”

जेल में कैसे बिताया वक़्त

बैगी पैंट और सफ़ेद शर्ट पहनकर टाइल वाले फ़र्श पर बैठे हुए निरनाराम कहते हैं कि उन्हें जेल में अपने शुरुआती दिनों की बस धुंधली-सी याद है. उन्हें बस डराने-धमकाने वाले कर्मचारी और क़ैदी ही याद हैं.

लेकिन नागपुर जेल में क़ैदी नंबर 7432 के रूप में बिताया गया समय उन्हें याद है. पुणे की जेल की उनकी यादें भी स्पष्ट हैं.

वो कहते हैं, “साथ बंद क़ैदियों से मेरी कोई मित्रता नहीं हुई क्योंकि मैं बहुत डरा हुआ रहता था.”

जेल के अकेलेपन को उन्होंने अपने आप को शिक्षित करके भरा. वो लगातार पढ़ते रहे, अपने सीलन भरे क़ैदखाने में उन्होंने इम्तिहान दिए और स्कूल की पढ़ाई पूरी की.

उन्होंने समाजशास्त्र में एमए किया. जब वो आज़ाद हुए तो वो राजनीति शास्त्र में एक और एमए करने की तैयारी कर रहे थे.

वो चाहते थे कि अगर आज़ाद हुए तो पूरा भारत घूमेंगे. इसलिए निरनाराम ने टूरिज़्म स्टडीज़ में छह महीने का कोर्स भी किया.

गांधी की विचारधारा पर भी उन्होंने एक कोर्स किया है. वो कहते हैं, “जब आप जेल में होते हैं तो किताबें ही आपकी सच्ची दोस्त होती हैं.”

उन्होंने जेल में बहुत कुछ पढ़ा. गांधी की किताबें पढ़ीं. दुरजॉय दत्ता और चेतन भगत जैसे चर्चित लेखकों को पढ़ा और शिडनी शेल्डन के थ्रिलर नावेल पढ़े.

उन्हें फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की की ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ बहुत पसंद आई.

उनका सबसे पसंदीदा नावेल है जॉन ग्रीशम का ‘द कंफ़ेशन’. ये एक थ्रिलर है और उन्हें इसमें अपनी ज़िंदगी की झलक दिखाई देती है.

शिक्षा को दिया महत्व

निरनाराम कहते हैं कि बाहरी दुनिया से उनका संपर्क सिर्फ़ अंग्रेज़ी के कुछ अख़बारों के ज़रिए ही होता था.

वो पहले पन्ने से लेकर आख़िरी पन्ने तक अख़बार पढ़ते. एक बार जब उन्होंने विन डीज़ल की तस्वीर देखी तो अपना सर भी गंजा करा लिया. उन्होंने यूक्रेन युद्ध के बारे में भी पढ़ा.

रस्तोगी को जेल से लिखे एक पत्र में वो कहते हैं, “इससे पता चलता है कि आज की दुनिया में ऐसा नेतृत्व नहीं है जिसे वैश्विक स्तर पर स्वीकार किया जाए और जो दोनों देशों को बातचीत के लिए एक साथ ला सके.”

वो कहते हैं, “आप पढ़ते हैं, लिखते हैं और फिर बोर हो जाते हैं.”

निरनाराम ने भाषाएं सीखनी भी शुरू कीं. उन्होंने मराठी, हिंदी और पंजाबी सीख ली हैं और वो मलयालम सीखने की तैयारी कर रहे थे.

लेकिन वो राजस्थान में अपने इलाक़े में बोली जाने वाली स्थानीय भाषा को भूल गए हैं.

बहुत पहले खो चुके अपने बेटे की वापसी की पूर्व संध्या पर उनकी 70 साल की मां ने परिवार के जश्न में ख़ूब डांस किया.

पिक अप ट्रक में आए एक किराये के डीजे पर बड़े-बड़े स्पीकरों पर संगीत बज रहा था. लेकिन जब निरनाराम अपनी मां अन्नी देवी के सामने आए तो उनकी आंखों से आंसू निकल पड़े. दोनों समझ नहीं पा रहे थे कि कौन क्या बोल रहा है. निरनाराम के पिता की मौत साल 2019 में हो गई थी.

निरनाराम कहते हैं, “हम बस एक-दूसरे को देख रहे थे. वो बहुत ज़्यादा नहीं बदली हैं.”

आज़ाद होने के बाद ज़िंदगी कैसी है

निरनाराम जब मार्च की एक दोपहरी में जेल से बाहर निकले तो उन्होंने देखा कि भारत कितना बदल चुका है.

वो हंसते हुए कहते हैं, “सड़कों पर नई गाड़ियां थीं, लोग स्टाइलिश कपड़े पहने हुए थे, सड़कें बहुत अच्छी थीं.”

“युवा लड़के हायाबूसा मोटरसाइकिलें दौड़ा रहे थे. मैं सोचता था कि इस तरह की बाइक सिर्फ़ फ़िल्मों में ही होती हैं. मेरा देश बदल चुका है.”

घर लौटने के बाद निरनाराम को भाषा की वजह से समाज में घुलने-मिलने में दिक़्क़त आ रही है.

वो मराठी, अंग्रेज़ी और हिंदी बोलते हैं. लेकिन उनके परिवार के लोग पहली दो भाषाओं को ना बोलते हैं और ना समझते हैं और हिंदी भी मुश्किल से समझ पाते हैं.

हर दिन मां और बेटा कुछ वक़्त साथ बिताते हैं और ट्रांसलेटर की मदद से वार्तालाप करते हैं जो अक्सर कोई हिंदी समझने वाला भतीजा होता है.

निरानाराम कहते हैं, “मैं कभी-कभी अपने ही घर में अजनबी की तरह महसूस करता हूँ.”

लोगों से मिलना और आसपास आना-जाना अलग समस्या है. वो कहते हैं, “मैं हमेशा लोगों से बात करने से घबराता हूं, मुझे जेलों और छोटी जगहों की आदत है. मौत की सज़ा का इंतेज़ार आपको सामाजिक रूप से अक्षम बना देता है. मुझे सावधान रहना होगा और सीखना होगा कि एक आज़ाद इंसान जीवन को किस ढ़ंग से जीता है.”

निरनाराम कहते हैं, “मुझे नहीं पता कि लोगों से खासकर महिलाओं के साथ कैसे व्यवहार व बातचीत करते हैं, मैं किसी को कैसे कहूं कि वे मुझे महिलाओं से बातचीत करना सिखा दे? मुझे बात करने से पहले हमेशा दो बार सोचना पड़ता है.”

परिवार के साथ कैसे बिता रहे हैं समय

लेकिन वो अपनी ज़िंदगी फिर से जीना चाहते हैं. उनके परिवार वालों ने उन्हें एक फ़ोन भी गिफ़्ट किया है जिसे वह इस्तेमाल करना सीख रहे हैं.

उनके भतीजों ने व्हाट्सप और फ़ेसबुक पर उनका अकाउंट बनाया है. उनके भाई के पास 100 एकड़ ज़मीन है जिसमें वह गेहूं, सरसों और दाल की खेती करते हैं.

लेकिन निरानाराम क़ानून की पढ़ाई करना चाहते हैं ताकि दूसरे क़ैदियों को ऐसी मुश्किलों का सामना ना करना पड़े जो उन्होंने किया था.

कुछ समय के लिए निरनाराम आकर्षण का केंद्र हैं. हर रोज़ दर्जनों लोग और रिश्तेदार उन्हें देखने और मिलने आते हैं. वो जानना चाहते हैं कि आख़िर कैसे यह व्यक्ति मृत्युदंड से वापस लौट आया है.

निरनाराम अपने भाई के घर पर एक कमरे में रहते हैं और अपने भतीजों को अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं. उन्होंने कहा कि जेल की रुकी हुई ज़िंदगी के मुक़ाबले उन्हें आज़ाद दुनिया के तेज़ तौर-तरीकों में वापस ढलने में वक़्त लगेगा.

“मैं अतीत और भविष्य में उलझा हुआ हूं पर मैं ख़ुश हूं कि आज़ाद हूं. हालांकिमैं इस बात को लेकर तनाव महसूस करता हूं कि आगे भविष्य में क्या होगा? यह भावनाओं का एक अजीब मिला-जुला रूप है.”

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