नेपाल में चीन से लगी सीमा पर भारत का नाम लेकर क्यों हो रहा है विवाद

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DMT : नेपाल  : (10 मार्च 2023) : –

नेपाल में इन दिनों एक नया राजनीतिक विवाद देखने को मिल रहा है.

यह विवाद नेपाल स्थित भारतीय दूतावास के उस प्रस्ताव के सार्वजनिक होने के बाद हो रहा है, जिसमें भारत ने चीन की सीमा से लगे हिमालयी ज़िले मुस्तांग में एक बौद्ध कॉलेज के निर्माण के लिए नेपाल को वित्तीय सहायता देने का प्रस्ताव दिया था.

नेपाल में विपक्षी पार्टी सीपीएन-यूएमएल के अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने इस प्रस्ताव को लेकर सरकार की कड़े शब्दों में आलोचना की है. हालांकि नेपाल की मौजूदा सरकार पहले ही इस प्रस्ताव का खंडन कर चुकी है.

इसके बाद भी नेपाल में इस मामले पर चर्चा और बहस जारी है. कई लोग कह रहे हैं कि यह मामला नेपाल की भू-राजनीतिक स्थिति के लिहाज़ से संवेदनशील मामला है.

कुछ विशेषज्ञों ने यह भी कहा कि नेपाल को अपनी ज़मीन पर पड़ोसी देशों की संवेदनशील गतिविधियों को लेकर हमेशा सतर्क रहना चाहिए.

कैसे शुरू हुआ विवाद

पिछले सप्ताह नेपाल के एक दैनिक अख़बार कांतिपुर डेली ने प्रतिबंधित क्षेत्र में महाविद्यालय खोलने में भारत की दिलचस्पी शीर्षक से एक ख़बर प्रकाशित की.

ख़बर में इस बात का ज़िक्र था कि नेपाल भारत सरकार के निवेश से एक ऐसे इलाके में ‘मुस्तांग बुद्धिस्ट कॉलेज’ खोलने जा रहा है. जहाँ विदेशियों का चलना-फिरना भी मना है.

अख़बार ने सवाल उठाते हुए कहा कि मुस्तांग के कुछ हिस्से विदेशियों के लिए प्रतिबंधित हैं क्योंकि यह ऐसा इलाक़ा है, जहाँ चार दशक पहले तिब्बती खंपाओं ने चीन के ख़िलाफ़ बग़ावत की थी और भारत उस इलाक़े में बुनियादी ढांचे में निवेश करने जा रहा है.

इस ख़बर के सामने आने के बाद पिछले शनिवार को यूएमएल अध्यक्ष ओली ने नेपाल सरकार की आलोचना की और इस तरह के निर्माण को ‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता’ से जोड़ते हुए एक कड़ा बयान दिया.

उसके बाद से ही नेपाल की मीडिया और सोशल मीडिया पर इस विषय को लेकर बहस हो रही है.

ओली ने क्या कहा था?

पिछले शनिवार को एक कार्यक्रम में ओली ने दावा किया कि भारत की मदद से मुस्तांग में एक कॉलेज खुल रहा है और यह क्षेत्र अब विदेशियों के लिए खेल का मैदान बन जाएगा.

उन्होंने कहा, “मुस्तांग का बौद्ध कॉलेज क्या है? मुस्तांग में बौद्ध कॉलेज एक तरह से विदेशी दलाली है. मित्रवत चीन के ख़िलाफ़ यह हमारे राष्ट्रवाद पर हमला है और एक तरह से देशद्रोह है.”

उन्होंने नेपाल की सरकार पर हमला बोलते हुए कहा, “उन्होंने अपने ही राष्ट्र की संप्रभुता को नकारा है. उन्होंने स्वतंत्रता को नकारा है. क्या आप एक बौद्ध कॉलेज बनाने की कोशिश कर रहे हैं? या कॉलेज के नाम पर पैसा बनाने की कोशिश कर रहे हैं. आप विदेशियों के लिए एक खेल का मैदान बनाने की कोशिश कर रहे हैं.”

उन्होंने साल 1974 का हवाला दिया जब खंपाओं ने उस क्षेत्र में चीन के ख़िलाफ सशस्त्र विद्रोह शुरू कर दिया था. उन्होंने क्षेत्र में यूरेनियम की उपलब्धता पर ध्यान केंद्रित करते हुए विदेशियों के मुस्तांग में निवेश करने की कोशिश करने का भी आरोप लगाया.

सरकार का खंडन

उनके आरोपों के बाद अगले ही दिन रविवार को नेपाल सरकार की प्रवक्ता और संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रेखा शर्मा ने एक बयान जारी कर इस मामले को बेबुनियाद बताया.

उनके बयान में कहा गया है, “सरकार ने मुस्तांग के वारगुंग के प्रतिबंधित ग्रामीण नगर पालिका में एक देश के प्रस्ताव पर किसी दूसरे देश को लक्षित कर एक विश्वविद्यालय की स्थापना शुरू कर दी है, यह बयान पूरी तरह से भ्रामक है. हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि नेपाल सरकार ने इस संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया है.”

“इस संबंध में यह बताना है कि मुस्तांग की वारगंग प्रतिबंधित ग्रामीण नगरपालिका ने एक कॉलेज की स्थापना के लिए सहायता देने की अपील करते हुए भारतीय दूतावास को एक पत्र लिखा है. इस पर सरकार की ओर से कोई फ़ैसला नहीं लिया गया है. इसलिए आवश्यक जांच पड़ताल करके सही तथ्यों के आधार पर ही आरोप लगाएं.”

रेखा शर्मा ने अपने बयान में यह भी कहा है कि ‘विदेश नीति को नुकसान पहुंचाने के लिए इस तरह के बयान देना उचित नहीं है.’

उन्होंने बयान में कहा, ‘नेपाल की सरकार देश की संप्रभुता, अखंडता, राष्ट्रीय हित और स्वतंत्र एवं संतुलित कूटनीति के पक्ष में मज़बूती से खड़ी है.’

संवेदनशील क्षेत्र में बुनियादी ढांचे के निवेश के लिए भारत के प्रस्ताव के बारे में पता लगाने के लिए बीबीसी न्यूज़ नेपाली ने संबंधित पक्षों से बात की.

इस दौरान यह भी पता चला कि मुस्तांग के ग्रामीण नगर पालिका वॉर्ड नंबर पांच में स्थित वारगुंग प्रतिबंधित क्षेत्र में मुस्तांग शाक्य बौद्ध संघ एक धार्मिक महाविद्यालय चला रहा है.

मुस्तांग शाक्य बौद्ध संघ के अध्यक्ष खेंपो तेनजिंग सांगबो इन दिनों ताइवान में हैं. उन्होंने बताया, “कॉलेज दो साल पहले से चालू है.”

हालांकि ऐसे धार्मिक शिक्षण संस्थानों की शिक्षा को औपचारिक शिक्षा के रूप में मान्यता नहीं है, लेकिन उनका दावा है कि इसकी मान्यता धार्मिक शिक्षा के लिए है वहां उसी तरह के पाठ्यक्रम की पढ़ाई हो रही है.

उन्होंने बताया कि स्थानीय लोगों ने ज़मीन दी थी, इसलिए कॉलेज के लिए एक भवन बनाने की योजना बनाई गई थी और चूंकि उनके पास कोई बजट नहीं था, इसलिए उन्होंने भारतीय दूतावास से सहायता के लिए अनुरोध किया था.

उन्होंने बताया, “हमने एक कॉलेज चलाया है ताकि उस क्षेत्र के लोगों को धार्मिक उच्च शिक्षा के लिए काठमांडू या भारत नहीं जाना पड़े. उसके लिए ग्रामपालिका की सिफ़रिश पर सहयोग का अनुरोध किया गया है. इसमें कोई राजनीति नहीं है, यह विशुद्ध रूप से धार्मिक शिक्षा के लिए किया गया अनुरोध है.”

उन्होंने यह भी बताया कि जिस तरह से इस कॉलेज को लेकर विवाद खड़ा हुआ और ओली ने इसकी आलोचना की, इससे उन्हें काफ़ी ठेस पहुंची है.

नेपाल के संविधान के अनुसार, स्थानीय स्तर या कोई भी संगठन केवल संघीय सरकार के माध्यम से विदेशी सहायता मांग सकता है.

इससे संबंधित सवाल पर उन्होंने कहा, “भारतीय दूतावास पहले भी इस क्षेत्र में मठों की मदद करता रहा है. हमने भी यही अनुरोध किया है. उसके बाद दूतावास सरकार के साथ संपर्क करके फै़सला लेता है. इस साल भी दूतावास ने सरकार से अनुमति मांगी.”

लेकिन एक सवाल यह भी है क्या ग्रामपालिका की सिफ़ारिश में ऐसी सहायता का अनुरोध किया गया था?

इसका जवाब जानने के लिए बीबीसी नेपाली ने ग्रामपालिका के अध्यक्ष रिंगजिन गुरुंग से संपर्क किया.

उन्होंने बताया कि अनुरोध के आधार पर उन्होंने स्थानीय स्तर पर भूमि का प्रबंधन कर सहायता के लिए अनुरोध करने की सिफ़ारिश की थी.

उनके मुताबिक़ बिल्डिंग बनाने के लिए 70 करोड़ रुपये से ज़्यादा की मदद के लिए अनुरोध किया गया था, जिसकी सिफ़ारिश ग्राम पालिका ने भी की थी.

रिंगजिन सीपीएन-यूएमएल की ओर से ग्राम पालिका के निर्वाचित अध्यक्ष हैं. उन्होंने दावा किया कि उनकी पार्टी के केंद्रीय अध्यक्ष ने भी ‘वास्तविकता को जाने बिना’ कॉलेज को लेकर बयान दिए हैं.

उन्होंने कहा, “जिस तरह से हमारे अध्यक्ष ने बात की, यह ऐसा है जैसे कि मामले को बिना समझे उन्होंने बयान दिया है. हम पहले ही ज़िला समिति में इसके बारे में बात कर चुके हैं,”

संवेदनशील इलाक़ा है मुस्तांग

हालांकि, नेपाल के वर्तमान विदेश मंत्री ने बीबीसी नेपाली को बताया कि विदेश मंत्रालय ने पहले ही ‘संवेदनशील क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे में 70 करोड़ रुपये से अधिक के निवेश’ के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करने का फ़ैसला किया था.

पिछले आम चुनाव के बाद बनी यूएमएल-माओवादी गठबंधन सरकार में यूएमएल की विमला राय पौडेल विदेश मंत्री बनीं.

यूएमएल और माओवादियों के बीच गठबंधन टूटने के बाद यूएमएल के अन्य मंत्रियों के साथ पौडेल ने इस्तीफ़ा दे दिया है.

यह बताया गया है कि विदेश मंत्रालय के माध्यम से भारतीय दूतावास ने वित्त और प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर कहा है कि भारत मुस्तांग में कॉलेज भवन के निर्माण का समर्थन करना चाहता है.

लेकिन पौडेल ने कहा कि उन्होंने इस्तीफ़ा देने से पहले इस बारे में फै़सला कर लिया था और काठमांडू में भारतीय दूतावास को संबंधित पत्राचार भेजने का भी निर्देश दिया था.

उन्होंने कहा, “मौजूदा संविधान के अनुसार संघीय ढांचे में कोई भी स्थानीय स्तर से विदेशी सहायता प्राप्त नहीं कर सकता और दूसरी बात यह है कि वह स्थान पर थोड़ा संवेदनशील है. उसी के अनुसार निर्णय लिया गया. मुझे नहीं पता था कि पत्र भेजा गया या नहीं क्योंकि मैंने इस्तीफ़ा दे दिया था.”

यह प्रावधान 1970 के दशक में इस क्षेत्र में खंपाओं के विद्रोह के बाद लागू किए गए थे. कई पुस्तकों और उस दौर के समाचार पत्रों में इसका ज़िक्र मिलता है कि उस वक्त चीन के ख़िलाफ़ सशस्त्र विद्रोह अमेरिका समर्थित था.

चीन के ख़िलाफ तिब्बती विद्रोहियों द्वारा शुरू की गई सशस्त्र संघर्ष को बाद में नेपाली सुरक्षा बलों ने दबा दिया. तब से यह व्यवस्था की गई है कि विदेशी नागरिक बिना अनुमति प्राप्त किए मुस्तांग जिले के कुछ क्षेत्रों में नहीं जा सकते हैं.

क्या कहते हैं एक्सपर्ट?

विशेषज्ञों के मुताबिक़ चीन की सरहद से लगे मुस्तांग सहित नेपाल के हिमालयी ज़िलों में गतिविधियों को लेकर चीन की अपनी सुरक्षा संबंधी चिंताएं हैं.

इसलिए कुछ भू-रणनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार, मुस्तांग में भारत की उपस्थिति चीन के साथ नेपाल के संबंधों को प्रभावित कर सकती है. वहीं कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि न केवल चीन के साथ सीमा के कारण बल्कि यूरेनियम की खदानों की खोज ने इस क्षेत्र को संवेदनशील बना दिया है.

2013 में नेपाल के खनन और भू-विज्ञान विभाग द्वारा किए गए एक प्रारंभिक अध्ययन से पता चला था कि इस क्षेत्र में यूरेनियम का भंडार मौजूद है. विभाग के बाद में कराए गए अध्ययनों से यह भी पता चला है कि मुस्तांग में कम से कम 10 किलोमीटर लंबाई और तीन किलोमीटर चौड़ाई के क्षेत्र में एक यूरेनियम खदान है.

कुछ विश्लेषण के अनुसार, यूरेनियम के खनन में अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए विदेशी शक्तियों में होड़ दिखती है. ओली ने भी यही संकेत दिया था और दावा किया कि यह क्षेत्र ‘विदेशियों का खेल का मैदान हो सकता है.’

जब मुस्तांग और अन्य स्थानों में यूरेनियम खदानों की उपस्थिति के तथ्य और विवरण सार्वजनिक किए जा रहे थे, तब नेपाल ने 2020 में रेडियोएक्टिव पदार्थों के उपयोग पर एक क़ानून बनाया.

इस अधिनियम में यह प्रावधान है कि सरकार, देश में उपलब्ध रेडियोएक्टिव स्रोतों पर स्वामित्व को बनाए रखेगी. हालांकि इसमें यह भी प्रावधान है कि रेडियोएक्टिव स्रोतों से संबंधित अभ्यास, गतिविधि को शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए लाइसेंस हासिल करके किया जा सकता है.

कुछ लोगों के अनुसार, इसी व्यवस्था पर नज़र रखते हुए शांतिपूर्ण उद्देश्यों के नाम पर मुस्तांग में सहयोग के लिए विदेशी शक्तियां प्रस्ताव कर सकती हैं. हालांकि उनकी नज़र यूरेनियम खनन पर हो सकती है.

कुछ विश्लेषकों के मुताबिक यूरेनियम में रुचि रखने वाले राष्ट्र किसी ना किसी बहाने मुस्तांग में प्रवेश की कोशिश कर रहे हैं.

हालांकि, सरकारी अधिकारी ऐसी आशंकाओं से इनकार करते हैं.

नेपाल की मुश्किल

सुरक्षा और सामरिक मामलों के कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक़ भारत और चीन के बीच में होने से नेपाल की भौगोलिक और सामरिक स्थिति चुनौतीपूर्ण है.

विशेषज्ञों में से एक, इंद्र अधिकारी कहती हैं, “नेपाल के कुछ क्षेत्र संवेदनशील हैं. उत्तर में मुस्तांग ऐसा ही क्षेत्र है जबकि दक्षिण में भी अन्य संवेदनशील क्षेत्र हैं. उन संवेदनशील क्षेत्रों में हमें अपने राष्ट्रीय हितों और हितों को ध्यान में रखकर ही कदम उठाने चाहिए.”

वह कहती हैं कि मुस्तांग के मौजूदा विवाद के मामले में संविधान स्थानीय निकायों को विदेशी सहायता तय करने या प्रस्तावित करने का अधिकार नहीं देता है, इसलिए यह बहुत गंभीर मामला है.

उनके मुताबिक़ इसके दो कारण हो सकते हैं. वह कहती हैं, “ऐसा लगता है कि स्थानीय निकाय अपने अधिकार क्षेत्र को नहीं समझती है या वे बाकी देशों से प्रभावित होकर ऐसा कर रहे हैं.”

उन्होंने कहा कि भारत की एक पुरानी नीति है कि वह नेपाल में उत्तर की ओर यानी चीनी सीमा क्षेत्र में निवेश करना चाहता है और चीन की रणनीति दक्षिण की ओर यानी भारतीय सीमा क्षेत्र में निवेश करने की है.

उन्होंने कहा, “वर्तमान संकट भी इसी नीति की वजह से है. हमें केवल इस तरह की चीज़ों के बारे में जागरूकता के साथ क़दम उठाना चाहिए और दोनों देशों की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए काम करना चाहिए.”

वहीं चीन में नेपाल के पूर्व राजदूत डॉ. महेश मास्के यह भी सुझाव देते हैं कि नेपाली सरकार और नेपाली संगठनों को ‘मदद मांगने पर ध्यान देना चाहिए.’

उन्होंने बताया, “फिलहाल मुस्तांग के यूरेनियम खनन को लेकर राजनीतिक आलोचना की जा रही है. जैसे ही खनन या प्रसंस्करण की अनुमति देने के लिए बिल पेश किए जाने शुरू होंगे, स्वाभाविक रूप से बाहरी देश आकर्षित होंगे. यह नेपाल को भू-राजनीतिक संकट में डाल सकता है.”

उन्होंने कहा, “सरकार को इस पर शुरुआत में विचार करना चाहिए था. अब भी करना चाहिए. यूरेनियम खनन को प्रोत्साहित करने के लिए कोई विधेयक पेश नहीं किया जाना चाहिए. नेपाली संगठनों को चाहिए कि किस स्थान पर किससे सहायता मांगी जाए, इस संवेदनशीलता का ध्यान रखते हुए सहायता मांगे या प्राप्त करें.”

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