प्रकाश सिंह बादल: कभी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले जिन्होंने सरपंच से राजनीति की थी शुरू

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DMT : पंजाब  : (26 अप्रैल 2023) : –

पंजाब के पांच बार मुख्यमंत्री रहे प्रकाश सिंह बादल का मंगलवार को मोहाली के एक अस्पताल में निधन हो गया. वे 95 साल के थे.

प्रकाश सिंह बादल उम्र के लिहाज़ से भारत के वरिष्ठ नेताओं में से एक थे. वे 1996 से 2008 तक शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष भी रहे.

1970 में 43 साल की उम्र में जब वे पंजाब के मुख्यमंत्री बने, तब वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले भारत के सबसे युवा नेता थे.

वहीं 2017 में मुख्यमंत्री का उनका पांचवां कार्यकाल जब पूरा हुआ, तब वे 90 साल के थे. इस तरह वे भारत के किसी भी राज्य के सबसे उम्रदराज़ मुख्यमंत्री बने. अभी भी यह रिकॉर्ड उन्हीं के नाम है.चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में वे 1979 से 1980 के बीच कृषि मंत्री बने थे, लेकिन उसके बाद उन्होंने फिर कभी केंद्र की राजनीति की ओर नहीं देखा. उसके बाद अपना पूरा ध्यान उन्होंने पंजाब की राजनीति पर ही केंद्रित रखा.

प्रकाश सिंह बादल हालांकि सिखों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी अकाली दल के नेता थे, लेकिन उन्होंने हिंदुत्व की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी के साथ गठजोड़ करके सत्ता हासिल की.

बादल के राजनीतिक विरोधी भी उनकी राजनीतिक समझ के कायल रहे हैं. मुख्यमंत्री के उनके अंतिम कार्यकाल में उनकी इस समझ का कम से कम दो बार परिचय मिला.

पहली बार, कांग्रेस और दूसरी बार आम आदमी पार्टी के नेता उनके आवास के सामने धरना देने आए. और दोनों बार बादल ने उनके लिए वहां तंबू लगवा दिए और गेट पर उनका स्वागत करने के लिए वे खुद आए और उनसे बातचीत की.

आइए जानते हैं प्रकाश सिंह बादल के जीवन से जुड़ी अहम घटनाओं के बारे मेंः

बादल का जन्म और शिक्षा

प्रकाश सिंह बादल का जन्म 8 दिसंबर, 1927 को पंजाब के बठिंडा ज़िले के अबुल-खुराना गांव में हुआ था. उनकी माता का नाम सुंदरी कौर और पिता का नाम रघुराज सिंह था.

उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा एक स्थानीय शिक्षक से प्राप्त की. बाद में वे लांबी के एक स्कूल में पढ़ने लगे. वहां वे बादल गाँव से घोड़े पर सवार होकर पढ़ने जाया करते थे.

हाई स्कूल की शिक्षा के लिए वे फिरोज़पुर के मनोहर लाल मेमोरियल हाई स्कूल गए. अपने कॉलेज की पढ़ाई के लिए उन्होंने सिख कॉलेज, लाहौर में दाख़िला लिया. लेकिन माईग्रेशन लेने के बाद उन्होंने फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज में दाख़िला लिया और यहीं से स्नातक की डिग्री प्राप्त की.

बादल अपनी युवावस्था में राज्य सिविल सेवा के एक अधिकारी बनना चाहते थे, लेकिन अकाली नेता ज्ञानी करतार सिंह के प्रभाव में आकर उन्होंने राजनीति में प्रवेश कर लिया.

प्रकाश सिंह बादल की राजनीति की शुरुआत 1947 से हुई. वे अपने पिता रघुराज सिंह की तरह ही बादल गांव के सरपंच बन गए. उसके बाद उन्हें लांबी ब्लॉक समिति का अध्यक्ष बनाया गया.

1956 में जब पेप्सू राज्य पंजाब में शामिल हो गया तो कांग्रेस और अकाली दल ने मिलकर चुनाव लड़ा.

अकाली दल के दूसरे नेताओं की तरह प्रकाश सिंह बादल भी 1957 के पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर पहली बार विधायक बने.

प्रकाश सिंह बादल उन नेताओं की श्रेणी में आते थे, जो अकाली दल के लिए एक अलग अस्तित्व की वकालत करते थे. वे देश के क्षेत्रीय दलों को मज़बूत करने के हक़ में रहे हैं.

यह बात अलग है कि क्षेत्रीय दलों ने 1996 में जब कांग्रेस के समर्थन से एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व में सरकार बनाई, तो प्रकाश सिंह बादल भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले एनडीए के साथ आ गए.

प्रकाश सिंह बादल ख़ुद कहते थे कि वे शुरू से ही कांग्रेस के कट्टर आलोचक रहे हैं. पंजाब की राजनीति से लेकर धार्मिक मोर्चे पर उन्हें हमेशा कांग्रेस से संघर्ष करना पड़ा.

कांग्रेस के टिकट पर विधायक बनने के बाद अकाली दल में शामिल होने के बारे में उन्होंने एक टीवी इंटरव्यू में कहा, ”मुझे शुरू से ही कभी भी कांग्रेस पर भरोसा नहीं रहा.”

देश के सबसे युवा और बुज़ुर्ग मुख्यमंत्री

प्रकाश सिंह बादल ने 1969-70 का मध्यावधि चुनाव अकाली दल के टिकट पर लड़ा और पंजाब की पहली ग़ैर-कांग्रेसी सरकार में मंत्री बने.

जस्टिस गुरनाम सिंह की यह सरकार जनसंघ के सहयोग से बनी थी और दूसरी बार विधायक बने प्रकाश सिंह बादल इस सरकार के विकास विभाग के मंत्री बने. उन्होंने पंचायती राज, पशुपालन, मत्स्य पालन और डेयरी मंत्रालयों की ज़िम्मेदारी भी संभाली.

1970 में राज्यसभा चुनाव के दौरान अकाली उम्मीदवार की हार के कारण, अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष संत फतेह सिंह ने जस्टिस गुरनाम सिंह को बर्खास्त कर दिया और प्रकाश सिंह बादल को मुख्यमंत्री बनाया.

वे 1967 में एक बार चुनाव हारे थे, लेकिन उसके बाद 1969 से लेकर 2017 तक उन्होंने कोई चुनाव नहीं हारा. हालांकि 2022 के विधानसभा चुनाव में वो आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार गुरमीत सिंह खुदिया से चुनाव हार गए. ये उनका अंतिम चुनाव था.

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लगाने के कारण कांग्रेस के ख़िलाफ़ बने माहौल का फ़ायदा गैर-कांग्रेसी पार्टियों को हुआ.

1977 के चुनाव में अकाली दल और जनता पार्टी ने मिलकर सरकार बनाई और प्रकाश सिंह बादल दूसरी बार पंजाब के मुख्यमंत्री बने. उस बार वे 1977 से 1980 तक सत्ता में रहे.

इसके बाद 1997 से 2002 तक वे तीसरी बार पंजाब के मुख्यमंत्री रहे और उस दौरान उन्होंने पहली बार 5 साल का कार्यकाल पूरा किया.

2007 से 2012 और 2012 से 2017 के बीच लगातार दो बार मुख्यमंत्री बनकर बादल ऐसी उपलब्धि हासिल करने वाले पंजाब के पहले मुख्यमंत्री बने.

फरवरी 2017 में अकाली दल की हार के बाद प्रकाश सिंह बादल ने जब इस्तीफ़ा दिया, तब उनकी उम्र 90 साल थी.

बादल की राजनीति और उनका संघर्ष

अकाली दल का शुरू से ही संघर्ष के साथ संबंध रहा है, चाहे भारत का स्वतंत्रता संग्राम हो, गुरुद्वारा सुधार आंदोलन हो या आज़ादी के बाद धर्म और पंजाब के मुद्दों को लेकर संघर्ष हो.

इन सभी संघर्षों में अकाली दल अग्रणी रहा है. मास्टर तारा सिंह और अन्य टकसाली पंथ नेताओं के साथ ने प्रकाश सिंह बादल को पार्टी का अनुशासित और वफादार कैडर बना दिया.

अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष तरलोचन सिंह अपने एक लेख में लिखते हैं कि उन्होंने प्रकाश सिंह बादल में सबसे बड़ी खूबी ये देखी कि वो पार्टी के प्रति वफादार रहे और बिना किसी झिझक के फैसलों का पालन करते रहे.

वो लिखते हैं कि पार्टी के कई फैसले व्यक्तिगत रूप से बादल को पसंद नहीं थे, लेकिन वो पार्टी की ओर से दी गई हर ड्यूटी को पूरी लगन से निभाते रहे.

तरलोचन सिंह आगे लिखते हैं, ”1983 में संत हरचंद सिंह लोंगोवाल ने फैसला किया कि संविधान के अनुच्छेद 25 में संशोधन की मांग को लेकर अकाली दल के नेता संविधान की प्रतियां फाड़ेंगे. ज्ञानी जैल सिंह ने उन्हें रोकने की ज़िम्मेदारी मुझे दी. मैंने फोन पर दोनों की बात करा दी, लेकिन प्रकाश सिंह बादल नहीं माने. उन्होंने कहा कि संत लोंगोवाल की आज्ञा के बिना वो नहीं रुक सकते.”

तरलोचन सिंह का ये भी दावा है कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी अकाली दल से समझौता करने के मूड में थीं.

देश में 25 जून, 1975 को आपातकाल लगा दिया गया और रातों-रात बड़े बड़े नेताओं को जेलों में डाल दिया गया.

अकाली दल के पहले जत्थे ने 9 जुलाई, 1975 को अपनी गिरफ्तारी दी. इससे पहले 15 दिनों तक किसी भी सिख नेता को हिरासत में नहीं लिया गया था.

अकाली दल के अनुसार, प्रकाश सिंह बादल ने पहले जत्थे में ही गिरफ्तारी दी. वो 19 महीने तक जेल में रहे. प्रकाश सिंह बादल ज्ञानी करतार सिंह को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे

प्रकाश सिंह बादल मास्टर तारा सिंह, संत फतेह सिंह जैसे बड़े नेताओं के नेतृत्व में अकाली दल में सक्रिय रहे. उन्होंने पंजाबी सूबा मोर्चा, कपूरी मोर्चा और धर्मयुद्ध मोर्चा में सक्रिय रूप से भाग लिया. उनकी ज़िंदगी के कई साल जेल की सलाखों के पीछे भी गुज़रे.

प्रकाश सिंह बादल ने एक बार खुद मीडिया में दावा किया था कि उन्होंने 17 साल जेल में काटे हैं.

पंजाब सरकार की पत्रिका ‘जागृति’ के दिसंबर 2012 के अंक में एक वरिष्ठ पत्रकार इरविन खन्ना ने तो बादल के 25 साल जेल में बिताने का दावा किया है.

बादल के समर्थक दावा करते हैं कि जेल में बंद रहने वाले नेता के मामले में वो नेल्सन मंडेला के बाद दूसरे नंबर पर आते हैं.

उनकी सरकार में मंत्री रहे बीजेपी के नेता तीक्ष्ण सूद ने तो 2011 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित करने की मांग की थी.

हालांकि पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बादल के दावे को ‘कोरा झूठ’ बताते हुए कहा था कि इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है.

कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा था, ”वास्तव में बादल ने 5 साल से ज़्यादा जेल में नहीं काटे. उन्होंने असल में आपातकाल के दौरान ही 18 महीने जेल में काटे और बाकी समय उन्होंने सरकारी गेस्ट हाउस में आराम से बिताए. और ये सब मिलाकर जेल में उनका बिताया हुआ समय 5 साल से अधिक नहीं है.”

जब मोदी ने उन्हें नेल्सन मंडेला कहा

2015 में, जय प्रकाश नारायण के जन्म की 113वीं सालगिरह पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रकाश सिंह बादल की उपस्थिति में उन्हें ‘भारत का नेल्सन मंडेला’ कहकर संबोधित किया.

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पीएम मोदी ने कहा, ”बादल साहब यहां बैठे हैं. ये भारत के नेल्सन मंडेला हैं. बादल साहब जैसे लोगों का बस इतना ही गुनाह था कि सत्ता में बैठे लोगों से उनके विचार अलग थे.”

हिंदुस्तान टाइम्स में 11 अक्टूबर, 2015 को छपी एक रिपोर्ट में मोदी के बयान के बाद ट्विटर पर शुरू हुए ट्रेंड की एक रिपोर्ट छपी.

इस रिपोर्ट में बताया गया कि मोदी द्वारा बादल को नेल्सन मंडेला कहे जाने पर ट्विटर पर ट्रोलिंग हो रही है.

यही ख़बर द ट्रिब्यून ने ‘मोदी कॉल्ड द नेल्सन मंडेला ऑफ इंडिया’ शीर्षक से प्रकाशित की थी.

कितने दिन जेल में रहे बादल

वरिष्ठ पत्रकार जगतार सिंह ने आरटीआई के ज़रिए प्रकाश सिंह बादल के जेल में रहने के आंकड़े जुटाए हैं. उन्होंने अपने लेख में इसका ज़िक्र किया है.

प्रकाश सिंह बादल को पहली बार 10 मई, 1955 को पंजाबी प्रोविंस फ्रंट के दौरान गिरफ्तार किया गया. उस समय वो 64 दिन जेल में बिताने के बाद 14 जुलाई, 1955 को रिहा हुए थे.

इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को जब देश में आपातकाल लगाया था, तो अकाली दल के नेताओं को गिरफ्तार नहीं किया था.

प्रकाश सिंह बादल के साथ गुरुचरण सिंह तोहरा, जगदेव सिंह तलवंडी, बसंत सिंह खालसा जैसे नेताओं के पहले जत्थे को 9 जुलाई, 1975 को गिरफ्तार किया गया था.

भारत में आपातकाल हालांकि 21 मार्च, 1977 तक चला, लेकिन 18 जनवरी को लोकसभा चुनाव कराने का एलान होने के साथ ही नेताओं की रिहाई का रास्ता साफ हो गया था.

22 जुलाई, 1977 को अकालियों ने अपना विरोध वापस ले लिया और प्रकाश सिंह बादल 19 महीने बाद जेल से घर लौटे. यह जेल में बिताया गया उनका सबसे लंबा समय था.

इसके बाद जेल में बिताई गई उनकी दूसरी सबसे लंबी अवधि 11 महीने की थी. प्रकाश सिंह बादल को 11 जून, 1984 को गिरफ्तार किया गया और 25 अप्रैल, 1985 को रिहा कर दिया गया.

सुरजीत सिंह बरनाला की सरकार के दौरान प्रकाश सिंह बादल को 2 दिसंबर, 1986 को गिरफ्तार किया गया. उस समय उन्हें ठीक एक साल बाद 2 दिसंबर, 1987 को छोड़ा गया.

ऑपरेशन ब्लैक थंडर के दौरान, प्रकाश सिंह बादल को अकाली दल के अन्य नेताओं के साथ 14 मई, 1988 को गिरफ्तार किया गया और 2 दिसंबर, 1989 को रिहा किया गया. यानी उस समय वो 18 महीने जेल में रहे.

1966 के बाद प्रकाश सिंह बादल ने जेल में 5 साल गुज़ारे. बादल ने इसके अलावा 5 अगस्त, 1982 से 16 अक्टूबर, 1982 तक का समय लुधियाना जेल में गुज़ारा.

प्रकाश सिंह बादल के 28 अगस्त, 1992 से 1 अक्टूबर, 1992 तक, 1 नवंबर, 1993 से 6 नवंबर, 1993 तक और फिर 1 दिसंबर, 2003 से 10 दिसंबर, 2003 तक विभिन्न मामलों में जेल में रहने का आधिकारिक रिकॉर्ड है.

जगतार सिंह लिखते हैं कि प्रकाश सिंह बादल के 1955 में पहली बार जेल जाने और 1997 में मुख्यमंत्री बनने के बीच का वक्त 42 साल लंबा है.

इस दौरान अकाली दल के संघर्ष का समय 16 साल से अधिक नहीं है. ऐसे में प्रकाश सिंह बादल 15 से 17 साल जेल में नहीं रह सकते.

परिवारवाद और लिफ़ाफ़ा संस्कृति

प्रकाश सिंह बादल निस्संदेह दशकों तक अकाली दल के अग्रणी नेता रहे. वो 1996 से 2008 तक अकाली दल के अध्यक्ष रहे. उनके बाद सुखबीर सिंह बादल पार्टी के अध्यक्ष बने.

प्रकाश सिंह बादल से जुड़ा सबसे बड़ा विवाद ‘परिवारवाद’ को बढ़ावा देने का आरोप है.

एक समय प्रकाश सिंह बादल मुख्यमंत्री थे. उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल अकाली दल के अध्यक्ष थे. उनके भतीजे मनप्रीत बादल राज्य के वित्त मंत्री थे. उनके दामाद आदेश प्रताप कैरों नागरिक आपूर्ति मंत्री थे और उनके बेटे के साले बिक्रम सिंह मजीठिया पंजाब के सूचना और जनसंपर्क मंत्री थे.

दूसरे कार्यकाल में तो उन्होंने अपने बेटे सुखबीर सिंह बादल को पंजाब का उप-मुख्यमंत्री बना दिया. ये बात अलग है कि मनमुटाव के चलते मनप्रीत बादल अकाली दल छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए. 2017 में जब कांग्रेस की सरकार बनी, तो मनप्रीत बादल को वित्त मंत्री बनाया गया.

अकाली दल को जब केंद्र में शामिल होने का मौका मिला, तो उन्होंने रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा और रतन सिंह अजनाला जैसे वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर अपनी पुत्रवधू हरसिमरत कौर बादल को केंद्रीय मंत्री बनवा दिया.

बादल के बारे में कहा जाता है कि सत्ता में आने के बाद भी उन्होंने पार्टी अध्यक्ष का पद नहीं छोड़ा. इसके साथ ही अपने नेताओं के ज़रिए वे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी यानी एसजीपीसी पर भी काबिज़ हो गए.

शिरोमणि कमेटी के अध्यक्ष के चुनाव को लेकर पंजाब में आरोप लगते रहे कि इसके अध्यक्ष का चुनाव चंडीगढ़ से बादल द्वारा भेजे गए लिफ़ाफ़े से होता है.

गांधी परिवार के जिस परिवारवाद का अकाली दल विरोध करता था, बादल ने उसी को नई बुलंदियों पर पहुंचा दिया.

1980 के दशक में हुई हिंसा में जान-माल के नुक़सान और नेताओं की भूमिका का पता लगाने के लिए उन्होंने एक ‘ट्रूथ कमीशन’ बनाने का एलान किया था. लेकिन सत्ता में आने के बाद वे इसे भूल गए.

चंडीगढ़ प्रेस क्लब में वरिष्ठ पत्रकार जगतार सिंह ने जब उनसे ‘ट्रूथ कमीशन’ के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा, ”छोड़ो जी, पुराने घावों को क्यों कुरेद रहे हो?”

जगतार सिंह इसे प्रकाश सिंह बादल की सबसे बड़ी वादा-ख़िलाफ़ी मानते हैं.

प्रकाश सिंह बादल, अकाली दल के पारंपरिक मुद्दों जैसे चंडीगढ़ पर पंजाब का नियंत्रण, पंजाबी भाषी क्षेत्रों को पंजाब में शामिल करने और नदी जल बंटवारे का भी समाधान कभी न निकाल सके.

भ्रष्टाचार के आरोप

प्रकाश सिंह बादल के 1997 से 2002 के कार्यकाल के दौरान, उनके परिवार और मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे.

2002 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हुए ‘बादलों को जेल भेजा जाएगा’ कहकर चुनाव लड़ा.

सरकार बनते ही मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने आय से 3,000 करोड़ रुपए अधिक कमाने के बादल परिवार पर लगे आरोपों की जांच का जिम्मा विजिलेंस ब्यूरो को सौंपा.

इन मामलों की जांच 2003 में शुरू हुई. इसमें प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर सिंह बादल गिरफ्तार भी हुए, लेकिन कुछ दिन बाद ही वे ज़मानत पर रिहा हो गए.

महीनों की जांच के बाद विजिलेंस ब्यूरो ने केवल 78 करोड़ रुपए होने की चार्जशीट पेश की. कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार अपने पांच साल के दौरान बादल पर लगाए गए आरोपों को अदालत में साबित न कर पाई.

2007 में अकाली दल ने सत्ता में फिर से वापसी कर ली. 2010 तक जांच अधिकारी सहित सभी गवाह अपने बयानों से मुकर गए और फिर सबूतों की कमी के कारण अदालत ने पिता-पुत्र दोनों को बरी कर दिया.

विरोधियों के आरोप बादल के सामने फ्लॉप

सत्ता में रहते हुए बादल परिवार पर पंजाब की सत्ता को माफिया की तरह चलाने के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन बादल परिवार ने इन आरोपों को हमेशा नकारा है.

ये आरोप किसी अदालत में भी साबित नहीं हो सके.

मसलन, सुखबीर बादल के साले और मंत्री बिक्रम मजीठिया पर ड्रग्स माफिया और खनन माफिया को संरक्षण देने का आरोप लगा.

सुखबीर बादल पर लोगों के कारोबार खासकर ट्रांसपोर्ट, केबल और शराब पर कब्ज़ा करने के आरोप लगे.

हालांकि ये सभी आरोप महज़ राजनीतिक बयानबाज़ी तक ही सीमित रह गए. कोर्ट में बादल परिवार पर कोई आरोप कभी साबित नहीं हुआ.

उधर प्रकाश सिंह बादल की आटा दाल योजना, संगत दर्शन, स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों के लिए मुफ्त में साइकिल देने, स्पोर्ट्स क्लबों को किट बांटने और पंजाब में ढांचागत विस्तार के लिए किए गए कामों ने सभी आरोप ख़ारिज कर दिए.

उम्र के नौवें दशक में भी सक्रिय रहने और लोगों से जुड़े रहने के कारण प्रकाश सिंह बादल और लोकप्रिय होते गए.

2012 में, प्रकाश सिंह बादल ने फिर से सत्ता हासिल करके पंजाब के राजनीतिक इतिहास में लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बन कर एक नई परंपरा शुरू कर दी.

बादल और सांप्रदायिक राजनीति

अकाली दल का गठन सिख समुदाय का राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने के लिए किया गया था. लेकिन प्रकाश सिंह बादल ने इसे पंजाब की पार्टी बना दिया.

उन्होंने पंजाब की सत्ता पर काबिज़ होने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ एक राजनीतिक गठबंधन किया. दूसरी ओर, सिखों का धार्मिक नेतृत्व आरएसएस पर सिख समुदाय के हितों के ख़िलाफ़ काम करने का आरोप लगाता रहा.

कई पंथक नेता, प्रकाश सिंह बादल पर सिख परंपराओं को नष्ट करने, अपने निजी हितों के लिए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और अकाल तख़्त का इस्तेमाल करने का आरोप लगाते रहे हैं.

लेकिन पंथक चुनाव की राजनीति में प्रकाश सिंह बादल ने उनसे कभी भी मात नहीं खाई.

मुख्यमंत्री के रूप में 2012-2017 के कार्यकाल के दौरान, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के अपमान की घटनाओं के कारण पंथक समूह में बादल परिवार के ख़िलाफ़ विरोध बहुत बढ़ गया था.

प्रकाश सिंह बादल अपने मंत्रियों और नेताओं के साथ श्री अकाल तख़्त साहिब पहुंचे और अपनी ग़लतियों के लिए माफ़ी भी मांगी, लेकिन लोगों ने उन पर भरोसा नहीं किया.

बेअदबी कांड को विपक्षी पार्टियों ने चुनावी मुद्दा बनाया और प्रकाश सिंह बादल की पार्टी शिरोमणि अकाली दल अपने 100 साल के इतिहास में सबसे निचले स्तर पर चली गई.

कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे संघर्ष के कारण अकाली दल (प्रकाश सिंह बादल) ने अपनी बहू हरसिमरत कौर बादल को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली कैबिनेट से इस्तीफ़ा दिलाकर वापस बुला लिया.

भाजपा के साथ के अपने रिश्ते को नाखून-मांस का रिश्ता बताने वाले बादल ने इसे भी तोड़ दिया.

प्रकाश सिंह बादल रिटायर होने का एलान किए बिना ही अपने घर बैठ गए थे. उन्होंने अपना अंतिम चुनाव 2022 में लड़ा, लेकिन हार गए.

जितने सम्मान उतने ही विवाद

स्वर्ण मंदिर के ठीक सामने बना अकाल तख्त साहिब सिख समुदाय के स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रतीक है.

2011 में, अकाल तख्त साहिब में पंज सिंह साहिबों ने प्रकाश सिंह बादल को पंथ रत्न, फ़ख़र-ए-क़ौम से सम्मानित किया.

प्रकाश सिंह बादल को यह सम्मान सिख इतिहास और विरासत के स्मारकों के निर्माण और सिख धर्म के प्रचार-प्रसार में उनके योगदान के लिए दिया गया.

दिलचस्प बात यह है कि तब पंजाब में प्रकाश सिंह बादल की ही सरकार थी और शिरोमणि कमेटी भी अकाली दल के ही नियंत्रण में थी.

पंथक हलकों में इसे खुद को ही सम्मानित करने के रूप में देखा गया और बादल पर सिख परंपराओं को चोट पहुंचाने का आरोप लगा.

बेअदबी कांड के बाद नवंबर 2015 में गैर-बादली सिख संगठनों ने तरनतारन के चबा में ‘सरबत खालसा’ के नाम पर इकट्ठा होकर पंथ रतन और फ़ख़र-ए-क़ौम का सम्मान वापस लेने का प्रस्ताव पारित किया.

सरबत ख़ालसा, सिख समुदाय की एक ऐसी परंपरा है, जिसमें लोग खुद इकट्ठा होते हैं और किसी भी मुद्दे पर प्रस्ताव पारित करते हैं और राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व को आदेश देते हैं.

प्रकाश सिंह बादल को भाजपा और अकाली दल के शासन के दौरान ही मार्च 2015 में देश के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया गया.

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