बलजीत कौर: जो 27 घंटे बाद अन्नपूर्णा के ‘डेथ ज़ोन’ से बाहर निकलीं लेकिन कैसे?

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DMT : इस्लामाबाद : (24 अप्रैल 2023) : –

“रेस्ट इन पीस बलजीत… तुम कितने लोगों की प्रेरणा थी.”

सोमवार को नेपाल स्थित दुनिया की सबसे ख़तरनाक चोटियों में से एक अन्नपूर्णा से जब भारतीय पर्वतारोही बलजीत कौर और आयरलैंड निवासी नोएल हना की मौत की ख़बर आई तो पर्वतारोहियों के समूहों और सोशल मीडिया पर उनकी याद में संदेशों का तांता लग गया.

नोएल की लाश तो कैंप फ़ोर से नीचे लाने की व्यवस्था की जा रही थी मगर बलजीत के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं थी कि वह कहां लापता हुई थीं. जिस समय दुनिया उन्हें मरा हुआ समझ चुकी थी उस समय ‘हाई ऑल्टीट्यूड सेरिब्रल एडिमा’ का शिकार बलजीत अन्नपूर्णा के डेथ ज़ोन में 27 घंटे से ज़्यादा गुज़ारने के बाद ख़ुद को नीचे घसीट कर लाने की जद्दोज़हद में लगी हुई थीं.

‘हाई ऑल्टीट्यूड सेरिब्रल एडिमा’ ऐसी हालत है जिसमें ऊंचाई और ऑक्सीजन की कमी के कारण अधिकतर पर्वतारोही का दिमाग़ काम करना बंद कर देता है, उनमें सोचने-समझने की क्षमता ख़त्म हो जाती है, वह होश खो बैठते हैं और कल्पना लोक में पहुंच जाते हैं.

मंगलवार को अचानक ख़बर मिली कि बलजीत ज़िंदा हैं और उनकी तलाश में जाने वाले तीन हेलीकॉप्टरों में से एक ने उन्हें लॉन्ग लाइन (हेलीकॉप्टर से रस्सी फेंक कर रेस्क्यू का तरीक़ा) से अन्नपूर्णा की 7600 मीटर ऊंचाई से बचा लिया है, जहां तक वह ख़ुद को घसीट कर ले जा चुकी थीं.

बलजीत इस समय काठमांडू के एक अस्पताल में इलाज करा रही हैं.

बीबीसी से फ़ोन पर बात करते हुए बलजीत ने पिछले रविवार को 2:00 बजे चोटी पर पहुंचने के लिए निकलने से लेकर 49 घंटे के बाद रेस्क्यू के जाने तक की घटनाएं बताई हैं.

अन्नपूर्णा पर बलजीत के साथ क्या हुआ, उनकी कहानी सुनने से पहले इस बहादुर लड़की को थोड़ा सा जानना ज़रूरी है ताकि हम जान सकें कि वह इतनी हिम्मत कैसे दिखा पाईं.

हिमाचल प्रदेश के ज़मींदार परिवार में पैदा हुईं बलजीत कौर पहाड़ों में ही पली-बढ़ी हैं.

27 साल की पर्वतारोही बलजीत तीन बहन भाइयों में सबसे बड़ी हैं. जब वह पर्वतारोहण नहीं कर रही होतीं हैं, तब विकलांग बच्चों को डांस सिखाने के साथ फ़िटनेस और योग की ट्रेनिंग देती हैं.

बलजीत कहती हैं, “ज़मींदार घराने से हूं तो खेतों से ही जुड़ी हूं, पहाड़ों से जुड़ी हूं.”

हिमाचल में उनका घर ऐसी जगह पर है जहां से पहाड़ शुरू होते हैं और “सर्दियों में उनके दिल में यह इच्छा होती है कि सबसे पीछे जो कश्मीर की सफ़ेद पहाड़ी है उसे देखना है.”

कॉलेज में उन्होंने एनसीसी का चुनाव किया. 18 साल की उम्र में आर्मी विंग में उन्हें माउंटेनियरिंग कोर्स करने का मौक़ा मिला और बस यहीं से ऊंचे पहाड़ों पर झंडे गाड़ने के उनके सफ़र की शुरुआत हुई.

सबसे पहले उन्होंने हिमाचल में माउंट टेबा (6100 मीटर) की चोटी फ़तह की और इसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा.

पिछले साल उन्होंने नेपाल में 8000 मीटर ऊंचाई वाली पांच चोटियां 30 दिनों में फ़तह कर ली थी और उसी समय उन्होंने अन्नपूर्णा की चोटी पर दूसरी बार कृत्रिम ऑक्सीजन के बिना पहुंचने का फ़ैसला किया.

बलजीत कौर ने नेपाल की मनास्लु चोटी बिना ऑक्सीजन के फ़तह की हुई है. इसी से उन्हें अन्नपूर्णा भी बिना ऑक्सीजन के फ़तह करने का हौसला मिला.

अन्नपूर्णा की ऊंचाई बहुत अधिक है, जिसके लिए उन्हें अच्छी टीम चाहिए थी लेकिन उनके अनुसार यहां वो पर्वतारोहण को ‘कमर्शियलाइज़ करने वाली नेपाली कंपनियों की संवेदनहीनता का शिकार हो गईं.’

बलजीत बताती हैं कि वह पिछले रविवार को दिन के दो बजे चोटी तक पहुंचने के लिए निकली थीं.

सोमवार की शाम तक वह चोटी फ़तह कर चुकी थीं मगर तब तक उन्हें पहाड़ पर ऑक्सीजन के बिना 27 घंटे से अधिक समय हो चुका था और उनमें हाई ऑल्टीट्यूड सेरिब्रल एडिमा (HACE) के लक्षण दिखने शुरू हो चुके थे.

बलजीत बताती हैं, “चढ़ाई करते ही मुझे सपने आने लग गए. दिमाग को कंट्रोल करना बहुत मुश्किल हो रहा था और मैं लगातार उनसे जूझ रही थी.”

मानव शरीर समुद्र तल से 2100 मीटर तक की ऊंचाई पर रहने के लिए बना है. इससे अधिक ऊंचाई पर शरीर में ऑक्सीजन तेज़ी से कम होने लगता है और शरीर में नकारात्मक प्रभाव दिखने शुरू हो जाते हैं.

इतनी ऊंचाई पर आमतौर पर पर्वतारोही पोक्सिया (ऑक्सीजन की कमी) का शिकार हो जाते हैं. हाइपोक्सिया के साथ नब्ज़ तेज़ हो जाती है, ख़ून गाढ़ा होकर जमने लगता है और शरीर के लकवाग्रस्त होने का ख़तरा बढ़ जाता है. अधिक ख़राब हालत में पर्वतारोही के फेफड़ों में पानी भर जाता है और वह हाई ऑल्टीट्यूड सेरिब्रल एडिमा का शिकार हो सकते हैं.

यहां इंसानों को सांस लेने के लिए ज़रूरी ऑक्सीजन की कमी से जहां एल्टीट्यूड सिकनेस (ऊंचाई पर होने वाली बीमारी) की आशंका बढ़ जाती है, वहीं इतनी ऊंचाई पर तेज़ हवाएं भी पर्वतारोहियों को के लिए जानलेवा साबित होती हैं.

बेहद कम तापमान भी शरीर के किसी भी हिस्से में फ़्रॉस्ट बाइट (बर्फ़ से कटने-गलने) का कारण बन सकता है.

इतनी ऊंचाई पर मानव शरीर को होने वाली मेडिकल परेशानियों के बारे में किए गए शोध के लेखक प्रोफ़ेसर हरबर्ट एन हिल्टग्रीन के अनुसार यहां तक चलने वाले पर्वतारोही को सेरेब्रल एडिमा, रेटिना हेमरेज, ज़बरदस्त सिरदर्द, बेचैनी, और नज़र के धोखे आदि जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है.

आठ हज़ार मीटर से ऊपर पहाड़ के ‘डेथ ज़ोन’ में ग़लती की कोई गुंजाइश नहीं होती और यहां आप एक समय से अधिक नहीं रह सकते हैं. यहां नींद या अधिक देर रुकने का मतलब मौत है.

इसलिए कैंप 4 में पहुंचने वाले पर्वतारोही सोते नहीं हैं. बस कुछ देर सुस्ता कर चोटी पर पहुंचने की कोशिश करते हैं और जितनी जल्दी हो सके ‘डेथ ज़ोन’ से निकलने की कोशिश करते हैं.

अगर आपने साल 2015 में रिलीज़ हुई ‘एवरेस्ट’ फ़िल्म देखी है तो आप बलजीत की स्थिति को समझ सकते हैं.

‘एवरेस्ट’ फिल्म में चोटी फ़तह करने के बाद नीचे आते हुए न्यूज़ीलैंड के गाइड और पर्वतारोही एंडी हैरिस के दिमाग़ में अजीबोगरीब विचार आने लगते हैं. वह अपने कपड़े और सामान सब फेंकता है और मौत को गले लगा लेता है.

अन्नपूर्णा पहाड़ 8091 मीटर ऊंचा है और इसका ‘डेथ ज़ोन’ 91 मीटर है. डेथ ज़ोन पहाड़ का वह हिस्सा होता है जो 8000 मीटर से ऊंचा हो.

विशेषज्ञों के अनुसार मानव शरीर के बर्दाश्त करने की क्षमता 8000 मीटर है. इससे ऊपर जाने पर शरीर के सारे अंग धीरे-धीरे काम करना बंद कर देते हैं. बलजीत ने इस ख़तरनाक ज़ोन में 27 घंटे गुज़ारे हैं और उनके साथ भी वही हो रहा था जो एंडी हैरिस के साथ हुआ था.

बलजीत के अनुसार अन्नपूर्णा पर कैंप 4 के बाद उनके तीन से चार शेरपा बदले.

वो बताती हैं, “सबसे बड़ी उलझन तो यही थी कि मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि कौन मेरा शेरपा है और कौन नहीं है. कोई ऐसा शेरपा नहीं था जिस पर मैं भरोसा कर सकूं.”

उनके अनुसार जो अनुभवी शेरपा उन्हें दिए गए थे उसने एक्लिमटाइज़ेशन रोटेशन (ऊंचे पहाड़ों की चोटी फ़तह करने से पहले शरीर को माहौल के अनुसार ढालने की प्रक्रिया) के दौरान ही उनका साथ छोड़ दिया. हालांकि वह कह कर गए थे कि वह वापस आएंगे और बलजीत ने सात से आठ दिन उनका इंतज़ार भी किया मगर वह नहीं आए और एक ऐसे शेरपा को भेज दिया जिनकी तबीयत पहले ही ठीक नहीं थी.

नए शेरपा ने बलजीत को बताया कि उनके साथ एक और नए युवा शेरपा जाएंगे जिनकी ट्रेनिंग भी हो जाएगी और इस बार वह समिट भी कर लेंगे. बलजीत ने कहा, ‘आप साथ हैं तो मुझे कोई समस्या नहीं.’

कैंप 4 तक वह उनके साथ रहे. अगले दिन दो बजे उन्होंने बलजीत से कहा, “क्योंकि तुम ऑक्सीजन नहीं इस्तेमाल कर रही और धीमे चलोगी इसलिए तुम्हारे साथ स्पेयर वाला शेरपा जाएगा मगर मैं पीछे रहूंगा.”

बलजीत यह सोचकर पूरी रात अकेली चलती रहीं कि वह अनुभवी हैं और ऑक्सीजन के साथ दौड़ कर ऊपर आ जाएंगे. मगर अगली सुबह उन्होंने अपनी जगह एक नया शेरपा भेज दिया जो किसी और क्लाइंट के साथ था और चोटी फ़तह कर के नीचे आ रहा था.

बलजीत को परेशानी तो होती मगर बहस से बचने के लिए उन्होंने कहा, ‘ठीक है चलो.’

अंत में जिन दो शेरपाओं के साथ उन्होंने समिट (चोटी फ़तह) किया वह बेहद कम उम्र के और अनुभवहीन थे.

सुबह साढ़े सात बजे वह समिट से 100 मीटर की दूरी पर थीं मगर वह 100 मीटर दूरी तय करने में उन्हें 24 घंटे समय लगा और चोटी तक पहुंचने में उन्हें 12 घंटे लगे.

वह बताती हैं कि ऐसा नहीं था कि उन्हें हर हाल में समिट करना ही था, एक समय ऐसा भी आया कि उन्होंने समिट करने की इच्छा छोड़ दी और कहा, “मेरे लिए समिट ज़रूरी नहीं है. छोड़ो, मैं अगले साल आ जाऊंगी नीचे चलते हैं.”

मगर उनकी बात नहीं सुनी गई और उन दो अनुभवहीन युवा शेरपाओं ने ज़िद पकड़ ली कि उन्हें समिट करना ही है.

उन्हें जाता देख और तस्वीरें बनवाते देख बलजीत ने सोचा थोड़ा (100 मीटर) सा ही तो फ़ासला है. “मैं भी जाकर फ़ोटो खिंचवा लेती हूं”, और यही सोच कर अपने क़दम बढ़ा दिए.

समिट करके अपनी वीडियो तो उन्होंने तुरंत बना ली मगर तस्वीर बनवाने के लिए बलजीत को उन दोनों से अनुरोध करना पड़ा.

चोटी फतह करने के बाद शाम को बलजीत यह बात समझ चुकी थी कि इसके बाद आगे क्या होने वाला है और यह “दोनों मुझे नहीं संभाल पाएंगे.”

फिर वही हुआ जिसका बलजीत को डर था.

बलजीत के अनुसार दोनों अनुभवहीन शेरपा बलजीत में हाई ऑल्टीट्यूड सेरेब्रल एडिमा के संकेत समझने नाकाम रहे. उन्हें यह भी नहीं पता था कि किस बात के संकेत हैं.

मगर बलजीत ने सेना से ट्रेनिंग ली हुई है और वह अपनी हालत ख़ुद समझ चुकी थीं और उसी हिसाब से ऐक्शन ले रही थीं. उन्होंने उन दो शेरपाओं को कहा, “जल्दी नीचे चलो. मगर वह दोनों बहुत नए थे और शायद वह ख़ुद भी हाई ऑल्टीट्यूड सेरिब्रल एडिमा का शिकार हो चुके थे. दोनों दुनिया के सबसे ख़तरनाक पहाड़ की चोटी पर खेलने लग गए.”

बलजीत कहती हैं कि उन्हें खेलते देखा तो “मैं यह कहते हुए नीचे की तरफ़ मुड़ गई कि मुझे यहां नहीं रुकना. यह दोनों यहां मरेंगे और मुझे भी मारेंगे.”

उन शेरपाओं के पास बलजीत के ऑक्सीजन टैंक के अलावा अपना-अपना ऑक्सीजन का एक टैंक भी था.

बलजीत इस बार ऑक्सीजन के बिना अन्नपूर्णा का समिट कर रही थीं. वह बताती है कि उन्हें ऑक्सीजन की ज़रूरत नहीं पड़ती मगर कुछ समय के बाद उन्हें बहुत नींद आने लगी.

उस समय बलजीत ने उन दो शेरपाओं से कहा, “मैं चल नहीं पा रही हूं और मुझे लग रहा है कि मुझे हाई ऑल्टीट्यूड सेरेब्रल एडिमा हो चुका है.”

बलजीत के शब्दों में जब वह हाई ऑल्टीट्यूड सेरेब्रल एडिमा का शिकार हो गई तो “जैसी दुनिया मैं चाहती थी वैसे ही मुझे दिखाई देने लगी…टेंट लगा है… मेरे आस-पास बहुत से लोग जमा हैं.”

“मगर थोड़ी देर बाद मुझे ध्यान आया कि नहीं, यहां कुछ नहीं है, सब मेरे दिमाग़ का फ़ितूर है, जल्दी नीचे चलो….”

बलजीत उस समय लगातार अपने दिमाग से लड़ाई लड़ रही थीं, मगर रात के 10 से 11 बजे के बीच लगभग 7800 मीटर की ऊंचाई पर एक समय ऐसा भी आया कि वह दोनों शेरपा भी बलजीत से लड़ने लगे.

“मुझे यहां उन्हें रोककर पूछना पड़ा कि यह लड़ाई उनकी कल्पना में हो रही थी या वास्तव में उनका शेरपाओं से झगड़ा हुआ?”

बलजीत कहती हैं, “यह असल में लड़ाई थी और मैं समझ सकती थी कि वह दोनों शेरपा मुझसे झगड़ा कर रहे हैं.”

“दोनों उल्टी-सीधी बातें करने लगे तो मैंने उन्हें कहा कि तुम दोनों मेरे साथ यहां मरोगे. प्लीज़, तुम चले जाओ, तुम्हारे पास ऑक्सीजन भी बहुत कम है और वह ख़त्म हो गई तो तुम भी ख़त्म हो जाओगे और मेरी वजह से तुम्हारी फ़ैमिली भी ख़त्म हो जाएगी.”

एक शेरपा बलजीत को छोड़ कर चल दिया, फिर दूसरा शेरपा आया और बोला “मैं चला जाऊं?”

बलजीत ने उससे कहा, “मैं तो ऑक्सीजन इस्तेमाल कर नहीं रही, मगर तुम्हारे पास केवल एक टैंक है. जल्दी चले जाओ वरना दोनों यहीं मर जाओगे. मैं ख़ुद आ जाऊंगी और बेस कैंप में आकर मिलती हूं.”

बलजीत कौर

बलजीत बताती हैं कि उन दोनों शेरपाओं के जाने के बाद 7800 मीटर की ऊंचाई पर “शायद मैं दो से तीन घंटे के लिए सो गई थी…”

जब वह रात में उठीं तो उन्हें लगा कि वह टेंट में हैं और “मेरे इर्द-गिर्द लोग हैं. मगर जब मैं आंखें खोलती तो वहां कुछ नहीं होता था.”

वह बताती हैं कि उन्हें दूर कैंप और पर रोशनी नज़र आ रही थी और वह ख़ुद को समझा रही थीं, “मुझे वहां तक पहुंचना है. मुझे नहीं पता कि कैसे, मगर मैं रात भर ख़ुद को घसीटती रही.”

वह इसकी वजह अपनी ट्रेनिंग को बताती हैं. बलजीत बताती हैं कि उन्होंने भारतीय सेना से प्रशिक्षण लिया है.

“मुझे लगता है कि यह मेरी ट्रेनिंग ही थी जिसके कारण मैं ख़ुद को घसीट पाई…अपने इंस्ट्रक्टर की सारी बातें याद आ रही थीं… कि पहाड़ों में जब तुम होशो-हवास खो बैठो तो एक बात नहीं भूलनी है कि बेशक पूरी दुनिया छोड़ दो मगर अपना सेफ़्टी एंकर और रस्सी किसी भी हालत में नहीं छोड़नी है.”

“बलजीत तू एंकर क्यों लगा रही है?

बलजीत बताती है कि यह पहला मौक़ा था कि वह किसी पहाड़ पर ऐसी स्थिति का शिकार हुई थीं. “मैं भूलने लगी कि मैं कौन हूं, कहां आई हूं, क्या कर रही हूं? अपनी हालत नहीं समझ पा रही, थी मगर इतना समझ आ रहा था कि अब मेरी लड़ाई किसी और से नहीं अपने दिमाग़ के साथ है.”

वह कहती हैं कि यह लड़ाई जीतना बहुत मुश्किल है क्योंकि आपका अपना दिमाग़ ही आपको बोल रहा है, “बलजीत तू अपनी एंकर क्यों लगा रही है? छोड़ न एंकर, बिना एंकर के ही उड़ जा.”

अगली सुबह तक बलजीत को अन्नपूर्णा के पहाड़ पर 38 घंटे हो चुके थे और ऑक्सीजन की कमी के कारण “मैं एक बच्चे जैसा बर्ताव कर रही थी. जब धूप निकली तो मैं कह रही थी कि अब मैं धूप को अपने गोरे-गोरे हाथ दिखाऊंगी.”

वह तो भला हो कि उन्हें ध्यान आ गया कि “यह धूप मुझे काला कर देगी. मैंने तो सन स्क्रीन भी नहीं लगाया” और उन्होंने दस्ताने नहीं उतार फेंके और अपने हाथ छिपा लिए.

मैं इतनी कमज़ोर नहीं

इस पड़ाव तक क्या उनका किसी से संपर्क नहीं हुआ था?

बलजीत बताती हैं, “मुझे कैंप 4 तक बहुत लोग खड़े नज़र आ रहे थे और मैंने उस कैंप तक आवाज़ लगाने और लाइट मारने की बहुत कोशिश की. पूरी रात कोशिश करती रही मगर मुझे केवल कैंप 4 दिख रहा था, नीचे कुछ नज़र नहीं आ रहा था.”

किसी से संपर्क न करने की वजह बताते हुए वह कहती हैं, “मैंने ख़ुद से कहा कि यह आख़िरी मौक़ा है, मैं इतनी कमज़ोर नहीं हो सकती कि नीचे न जा सकूं. मैं खड़ी हुई और कैंप 4 की ओर ख़ुद को 100 मीटर और घसीटा.”

इस दौरान वह एक बार 10-20 मीटर तक फिसल कर नीचे भी गिरीं. “पीछे मुड़कर अपने ऐंकर को देखा और ख़ुद पर बड़ा गर्व हुआ कि मेरे एंकर ने मुझे बचा लिया.”

बलजीत बताती हैं, “मैं सिख परिवार से हूं. मैं अक्सर समय गुरबानी और कभी-कभी ग़ज़लें सुनती रहती हूं और यही सोच कर मेरा ध्यान अपने फ़ोन की ओर गया कि कुछ भजन सुन लेती हूं.”

मगर वह फ़ोन नहीं, उनका गर्मिन डिवाइस था. होश खोने के बावजूद उन्हें इतना समझ में आ रहा था कि उसे इस्तेमाल करके किसी को मदद के लिए बुला सकती हैं.

तो अब तक रेस्क्यू के लिए किसी को बुलाया क्यों नहीं?

बलजीत इसके जवाब में कहती हैं, “मुझे लगा यह बहुत शर्म की बात होगी कि आप पहाड़ चढ़ने गए और ख़ुद के लिए रेस्क्यू बुला रहे हैं कि आकर मुझे बचाओ.”

“मगर फिर वह समय आया जब मेरे पास कोई विकल्प नहीं बचा था, मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था.”

मंगलवार की सुबह सात बजे का समय हुआ होगा जब उन्होंने सबसे पहले अपनी टीम को मैसेज किया, “मैं ज़िंदा हूं और ठीक हूं”, मगर बलजीत को कोई जवाब नहीं मिला.

बलजीत ने दावा किया कि इसके बाद उन्होंने उस कंपनी को मैसेज किया जिसकी सेवाएं उन्होंने इस समिट के लिए ली थीं मगर वहां से भी कोई जवाब नहीं आया. कुछ देर बाद बलजीत ने उस कंपनी के दूसरे नंबर और मेल पर भी मैसेज कर दिया, “मैं ठीक हूं और ज़िंदा हूं मगर मुझे मदद चाहिए.”

उस समय तक बलजीत अपने पास का खाने-पीने का सभी सामान इस्तेमाल कर चुकी थीं.

जब उन्हें एक घंटे तक वहां से भी कोई जवाब नहीं मिला तो बलजीत ने ख़ुद को उठाया.

वह कहती हैं, “मैं ऐसे परिवार से हूं जहां हाथ पर रख कर कोई चीज़ नहीं दी गई. हमें सिखाया गया है कि अपने सपनों के लिए ख़ुद कमाओ और यही बात मेरे दिल में थी कि आज से पहले कौन मेरे साथ खड़ा था? कोई नहीं था, चल उठ और निकल यहां से.”

मगर डेढ़ घंटे बाद उन्हें उस नंबर से जवाब मिल गया, “बलजीत तुम ठीक हो?”

बलजीत ने जवाब दिया, “हां, मैं ठीक हूं मगर आपकी मदद चाहिए.”

वह बताती है कि उस समय, “मुझे चक्कर आ रहे थे. मैं ठीक से टाइप भी नहीं कर पा रही थी. सब धुंधला नज़र आ रहा था, मगर वहां बहुत सारे हेली (हेलिकॉप्टर) आ रहे थे. मैं सबको हाथ दे रही थी मगर किसी ने नहीं देखा.”

बलजीत दूसरी बार अन्नपूर्णा फ़तह कर रही थीं.

यही सोचते हुए कि मदद नहीं आने वाली बलजीत ने ख़ुद को और घसीटना शुरू किया और 50 मीटर और नीचे ले आईं. फिर थक कर एक जगह बैठ गईं.

उसी समय उन्हें मैसेज आता है जिसे वह ठीक से पढ़ तो नहीं पाईं मगर कुछ ऐसा लिखा था कि बलजीत यही इंतज़ार करो, कुछ मिनट में हेली तुम्हारे पास होगा. बलजीत ने जवाब दिया कि अच्छा ठीक है.

इसके बाद उन्हें एक और मैसेज मिला और उनसे पूछा गया कि ख़ुद को और ऐंकर को लॉन्ग लाइन से अटैच कर लोगी?

बलजीत ने जवाब दिया, “मुझे नहीं पता, मैं कर पाऊंगी या नहीं मगर मैं कोशिश करूंगी.”

लगभग एक से डेढ़ घंटे बाद एक हेलीकॉप्टर पहुंचा और लॉन्ग लाइन के ज़रिए उन्हें रेस्क्यू किया गया.

बलजीत के अनुसार जब उन्हें रेस्क्यू किया गया तो उस समय वह 7600 मीटर से ऊपर थी. “रात भर मैं ख़ुद को ढाई सौ मीटर ही घसीट पाई थी.”

बलजीत 16 अप्रैल को दिन के बडे बजे कैंप ओर से समिट के लिए निकली थीं और जिस समय उन्हें रेस्क्यू किया गया उस समय तारीख़ 18 अप्रैल थी और दिन के तीन बजे थे. यानी बलजीत ने लगभग 49 घंटे अन्नपूर्णा पर बिताए थे.

48 घंटे से अधिक किसी पर्वतारोही के इतनी ऊंचाई पर जीवित रहने की संभावनाएं कम हो जाती हैं लेकिन डेथ ज़ोन में सबसे अधिक समय गुजारने का रिकॉर्ड नेपाल के पेंबा गुल जैन शेरपा के पास है जो सन 2008 में दो पर्वतारोहियों को बचाने के लिए 90 घंटे तक के 2 डेथ ज़ोन में रहे.

मां ने पूछा, तू ज़िंदा है

बलजीत बताती हैं कि उनका यक़ीन है कि जब तक ‘पहाड़ों के साथ कुछ बुरा नहीं करूंगी, वो मुझे कुछ नहीं होने देंगे.’

उन्होंने अपनी मौत को लेकर चली ख़बरों की परवाह नहीं की. “बस यह सोच रही थी कि किसी तरह एक बार अपनी मां से बात कर लूं.”

वह बताती है कि यह ‘फ़ेक न्यूज़’ उनके घर तक भी पहुंच चुकी थी मगर “मैं हमेशा अपनी मां को बोल कर जाती हूं कि अगर मैं जिंदा नहीं हूं तो आपको ख़ुद पता चल जाएगा. किसी का भरोसा न करना, मैं ख़ुद फ़ोन करूंगी.”

इसीलिए उनकी मां ने किसी से बात नहीं की थी और जैसे ही बलजीत ने नए नंबर से फ़ोन किया तो उन्होंने तुरंत फ़ोन उठाया और कहा, “बलजीत तू ज़िंदा है?”

बलजीत ने जवाब दिया, “हां, मैं ज़िंदा हूं.”

इस पर उनकी मां ने कहा, “ठीक है, तू आराम कर.”

“कुछ तो रिश्ता है जो बार-बार मुझे पहाड़ों की ओर खींचता है”

बलजीत बताती हैं कि उन्हें शुरू से लड़कों की तरह पाला गया, किसी ने लड़की समझा ही नहीं. वह बताती है कि उनके यहां पंजाबी फ़ैमिली में अगर लड़की सबसे बड़ी है तो उसे घर का ‘मुखिया’ समझ लेते हैं और सारी ज़िम्मेदारी उस पर होती है.

बचपन से वह अपने फ़ैसले ख़ुद करती आई हैं मगर घर वालों की सलाह जरूर लेती हैं. जैसे, “अम्मा मुझे यह करना है, आप बताएं ठीक है या नहीं.” बलजीत बताती हैं कि उनकी मां को उन पर बहुत भरोसा है.

वह बताती हैं, “मैंने अम्मा को बोल रखा है कि आप मेरी चिंता न करें. मेरी चिंता करने वाले बहुत हैं और वह सब पहाड़ों में बैठे हैं.”

वह कहती हैं, “मुझे नहीं पता क्यों मगर मेरा भरोसा है कि मेरे पहाड़ मुझे कुछ नहीं होने देंगे.”

वह बताती हैं कि पिछली बार अन्नपूर्णा पर सामने से बर्फ़ीला तूफ़ान आ रहा था और “मैं कह रही थी यह तूफ़ान मेरे लिए नहीं है. यह मुझे कुछ नहीं करेगा. मुझे नहीं पता कि यह क्या है मगर कुछ तो रिश्ता है जो बार-बार मुझे पहाड़ों की ओर खींचता है.”

“डॉक्टर बोले, बहुत लकी हो

मगर इन सारी घटनाओं के बीच किसी समय उन्हें लगा कि वह इस पहाड़ पर ही रह जाएंगी?

बलजीत कहती हैं, “ट्रेनिंग का बहुत महत्व है और मैं बहुत अधिक ट्रेनिंग करती हूं. इसलिए किसी क्षण मुझे ऐसा नहीं लगा. मुझे ख़ुद पर भरोसा था.”

16 अप्रैल को उन्हें अनुराग मलू भी पहाड़ से वापसी के रास्ते पर मिले और वह उस समय तक ठीक थे. कुल चार दिन यानी लगभग 96 घंटे बाद अनुराग को बेहद गंभीर स्थिति में अन्नपूर्णा की खाई में से बचा लिया गया.

बलजीत 7000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर 49 घंटे बिताने के बाद चिल ब्लेन (सर्दी से हाथ पैर का फट जाना) का शिकार हुई हैं जो फ़्रॉस्ट बाइट की शुरुआती स्टेज है. फ़िलहाल उनके डॉक्टरों का विचार है कि उनके फेफड़े ठीक से काम कर रहे हैं.

वह कहती हैं, “डॉक्टर कह रहे हैं तुम बहुत लकी हो. चलो, अगर वह कह रहे हैं तो लकी ही सही.”

‘पाकिस्तान में हैं बाकी चोटी’

आगे क्या इरादा है, इसके जवाब में बलजीत कहती हैं कि पहाड़ों से प्यार इतना गहरा हो गया है कि सोच रही हूं कि चार दिन में यहां से निकलकर पर्वतारोहण दोबारा शुरू कर दूं.

नेपाल में फ़तह की हुई चोटियां दोबारा क्यों फ़तह कर रही हैं? बाक़ी चोटियों पर क्यों नहीं जातीं?

इस सवाल पर वो कहती हैं कि बाकी चोटियां पाकिस्तान में है ना! “मुझे वहां जाने की अनुमति नहीं है, मगर शायद कभी आ सकूं.”

अन्नपूर्णा पर अपने हाल के अनुभव के मद्देनज़र वह पर्वतारोहण के शौक़ीन लोगों से कहना चाहती हैं कि पहाड़ों में ज़्यादा नहीं बनना होता, सब आपकी तरह नहीं होते.

बलजीत कहती हैं, “कई बार हम जिसे अपना दुश्मन मानते हैं, वह हमारा दुश्मन नहीं होता मगर असल दुश्मन हमारा दिमाग़ होता है और वह इतना ख़तरनाक हो जाता है कि उसे हैंडल करना ज़िंदगी की सबसे बड़ी जंग बन जाती है. अगर आपने अपने दिमाग़ को हैंडल करना सीख लिया तो सारी ज़िंदगी चैन से बिता लेंगे.”

“आज पहाड़ों ने मुझे दूसरा जीवन दिया है, वह शायद इसलिए दिया है ताकि मैं लोगों को बता सकूं कि यहां हम सब दोस्त हैं और कोई किसी का दुश्मन नहीं है.”

अन्नपूर्णा चोटी मध्य नेपाल की अन्नपूर्णा पहाड़ी शृंखला में 8091 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और यह दुनिया की 10वीं सबसे ऊंची चोटी है.

इस पहाड़ को पहली बार 3 जून 1950 में 2 फ़्रांसीसी पर्वतारोहियों ने फ़तह किया था. इस चोटी पर नेपाल की वसंत ऋतु में ही पहुंचा जा सकता है.

तो इस चोटी को दुनिया भर में 8000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाली 14 चोटियों में सबसे अधिक ख़तरनाक और जानलेवा पहाड़ क्यों कहा जाता है?

इमरान हैदर पर्वतारोहण के शौक़ीन हैं और पिछले कई वर्षों से पर्वतारोहण के अभियानों पर शोध करते आ रहे हैं.

इमरान कहते हैं कि अन्नपूर्णा के ‘डेडलिएस्ट माउंटेन’ होने की सबसे बड़ी वजह उसका एक्स्पोज़र है जिसे टेक्निकल भाषा में ‘अल्पाइन एक्स्पोज़र’ कहते हैं.

इसके बारे में विस्तार से बताते हुए उनका कहना था कि पहाड़ के ऊपर अलग-अलग तरह की ढलानें होती हैं और आइस व स्नो (बर्फ़) की फिसलनें सबसे ख़तरनाक होती हैं. “दूसरी बात यह है कि उस पहाड़ पर बर्फ़ीले तूफ़ान आने का ख़तरा बहुत रहता है और किसी भी समय कुछ भी हो सकता है.”

अन्नपूर्णा के बेस कैंप से कैंप 3 तक के सारे क्षेत्र में आइस फ़ील्ड बहुत अधिक है जिसका एक्स्पोज़र भी उतना ही अधिक है इसलिए “अगर किसी समय भी कोई एक्टिविटी हो तो आपको छिपने की कोई जगह नहीं मिलेगी.”

“आप समझ लें कि आप बर्फ़ के बहुत बड़े मैदान में हैं लेकिन वह मैदान वैसा नहीं जैसा ज़मीन पर होता है. यह बहुत बड़ी आइस फ़ील्ड है जिसमें बर्फ़ीले तूफ़ान आने पर आप किसी चट्टान के नीचे या आगे-पीछे छिपकर जान नहीं बचा सकते.”

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