मदर्स डे: मां के काम में साझेदारी और भागीदारी ही तोहफ़ा है

Hindi New Delhi

DMT : नई दिल्ली : (14 मई 2023) : –

‘यहाँ बैठे आप लोगों में किनकी-किनकी मां काम करती हैं?’

कुछ 20-25 नौजवानों में तीन लोगों के हाथ उठते हैं. ‘अच्छा, तो आपकी मां क्या करती हैं?’

‘मेरी मां टीचर हैं’, ‘मेरी मां की दुकान है.’

‘मेरी मां सरकारी नौकरी करती हैं.’ ‘तो बाकियों की मां …?’

‘मेरी मां बाहर काम नहीं करतीं.’ ‘मेरी मां होम मेकर हैं.’

कुछ इसी तरह के जवाब दूसरे लोग भी देती/ देते हैं.

यह बातचीत जेंडर के मुद्दे पर हो रही एक कार्यशाला का हिस्सा है. काम के जेंडर आधारित बंटवारे पर बात हो रही है. जवाब कुछ ऐसे ही मिल रहे हैं.

…तो क्या मां काम करती हैं?

क्या मां काम करती हैं… इस सवाल के ऐसे जवाब किसी एक कार्यशाला में ही मिले हों, ऐसी बात नहीं है. दसियों कार्यशालाओं में ऐसे ही जवाब मिलते रहे हैं. काम करने वाली मां कौन हैं? इनके मुताबिक, वही न जो घर से बाहर अपना श्रम लगा रही थीं. उसके बदले में उन्हें पैसे मिल रहे थे.

बातचीत आगे बढ़ती है. अगला सवाल होता है-

‘तो क्या मां कोई काम नहीं करती हैं?’

‘अच्छा तो बताएं सबसे पहले सोकर कौन उठता है?’

‘मां.’

‘सबसे देर में कौन सोता है?’

‘मां’

अब कार्यशाला में भाग लेने वालों को एक काम दिया जाता है. सुबह जागने से शुरू करें और रात सोने के वक़्त तक मां और पिता जी या घर के पुरुष क्या-क्या करते हैं, इसकी एक सूची बनाएं. सूची में हर वह चीज़ रहेगी, जो मां और पिता जी करते हैं.

सूची बननी शुरू होती है. कागज़ में एक तरफ़ माँ की सूची बनती है. दूसरी ओर पिता की.

सूची कुछ इस तरह की होती है- मां सबसे पहले जागती हैं. घर साफ़ करती हैं. नहा-धोकर पूजा करती हैं. चाय बनाती हैं. सबको चाय देती हैं. पानी भरती हैं.

नाश्ते की तैयारी करती हैं. सब्जी काटती हैं. आटा गूंथती हैं. मसाले तैयार करती हैं. रोटी, पूरी या पराठा बनाती हैं. सबको नाश्ता कराती हैं.

जो काम पर या स्कूल-कॉलेज जा रहे हैं, उनका टिफ़िन बनाती हैं. टिफ़िन तैयार कर सबको थमाती हैं. पिता जी के कपड़े निकाल कर देती हैं. जब तक वे जाते नहीं हैं, उनके आसपास ही रहती हैं.

अगर घर में गाय-भैंस है तो चारा देती हैं. छोटे बच्चे-बच्ची या दादा-दादी हैं तो उनका ख़्याल करती हैं. बीमार की देखभाल करती हैं. दवाई देती हैं.

फ़िर ख़ुद नाश्ता करती हैं. बर्तन धोती हैं. सबका बिस्तर ठीक करती हैं. चादर या रज़ाई तह करके रखती हैं. दोपहर का खाना बनाती हैं. सब्ज़ी काटती हैं. दाल-चावल धोकर पकाती हैं. कपड़े साफ़ करती हैं. कपड़े प्रेस भी करती हैं.

कुछ देर आराम करती हैं. इसी दौरान टीवी देख लेती हैं. मोबाइल चला लेती हैं. आस-पड़ोस की महिलाओं के साथ गप कर लेती हैं.

गाय- भैंसों को भी नहलाती हैं. गोबर उठाती हैं. स्कूल-कॉलेज जाने वाले जब लौटते हैं तो उन्हें खाना देती हैं. दादा-दादी या छोटे बच्चे-बच्चियों को खाना खिलाती हैं. फ़िर वह ख़ुद खाती हैं. दादी के पाँव दबाती हैं.

तब तक शाम हो जाती है. चाय बनाती हैं. बर्तन धोती हैं. शाम के खाने की तैयारी करती हैं. पानी भरती हैं. सब्ज़ी काटती हैं. आंटा गूंथती हैं. रोटी पकाती हैं.

पिता जी आते हैं तो उन्हें चाय-नाश्ता देती हैं. पापा के दोस्त आ गये तो उनके लिए चाय-नाश्ता बनाती हैं. सबको खाना खिलाती हैं, फ़िर ख़ुद खाती हैं.

सारे बर्तन धोती हैं. सबके लिए दूध गर्म कर बिस्तर पर पहुंचाती हैं. सबसे बाद में सोने जाती हैं.

नौकरी करने के साथ वह घर में क्या करती है?

अगर मां बाहर नौकरी करने जाती हैं तो वह जाने से पहले और आने के बाद घर के सारे काम निपटाती हैं. दिन में घर पर रहने वालों का इंतज़ाम करके जाती हैं. अगर कोई उनकी मदद के लिए आता भी है तो कुछ काम ही निपटाता है. बाक़ी उसे ही पूरा करना पड़ता है.

मांओं के भी कई प्रकार हैं. गांव में रहने वाली मां हैं तो वह खेती-किसानी में भी शामिल हैं. औसत मध्यवर्गीय परिवार की मां हैं तो उस पर कई और तरह के काम अलग से करने पड़ते हैं.

सबसे बुरा हाल तो उन मांओं का है जिन्हें घर-बाहर दोनों जगहों पर काम करना पड़ता है. यही नहीं मां को थोड़े-मोड़े बदलाव को छोड़ साल के 365 दिन एक जैसा ही काम करना होता है.

जाड़ा हो या गर्मी या फ़िर बरसात- मां के काम बदस्तूर एक ढर्रे पर चलते रहते हैं. यही नहीं, उसे घर की देखभाल और सास-ससुर की सेवा की वजह से अपने नैहर जाने का भी सालों मौक़ा नहीं मिलता है. इसकी तारीफ़ होती है. वह भी इसी सेवा में अपने को धन्य मानती रहती हैं.

वैसे, पिता जी या घर के पुरुष क्या-क्या करते हैं?

इसके बरअक्स पिता जी के घर-बाहर के कामों की सूची निहायत छोटी होती है. इनमें से अधिकांश काम नहीं होते हैं. उनका मुख्य काम बाहर नौकरी या कोई और काम के लिए जाना होता है.

उनके काम के घंटे तय हैं. मां के तय नहीं हैं. उनकी साप्ताहिक बंदी के दिन तय हैं. मां की कोई साप्ताहिक बंदी नहीं है.

उनके पास रोज़ाना बाहर जाने और अपने दोस्तों से मिलने का मौक़ा भी होता है. घर के काम और घर में देखभाल के काम में आमतौर पर पिता या अन्य पुरुषों की भूमिका नहीं होती है.

मगर सवाल तो जस का तस है. क्या ऊपर मां की सूची में दर्ज चीज़ें काम मानी जाएंगी या नहीं?

तो माँ का काम, काम है या नहीं?

क्या घर के दायरे में काम करने में मां के शरीर की ताक़त, ऊर्जा, दिमाग़, श्रम नहीं लगता?

क्या इनके करने से तन-मन नहीं थकता? कुल मिलाकर देखें तो उसके घर के काम के घंटे सोलह से अठारह घंटे के होते हैं.

उसे रविवार क्या किसी दिन की छुट्टी नहीं मिलती. इसके उलट जब बाकियों की छुट्टियां होती हैं तो उसके काम ही बढ़ जाते हैं. … और मां है कि थकती नहीं हैं.

मां शिकायत नहीं करती हैं. मां छुट्टी तो नहीं ही मांगती या लेती हैं.

इसके बाद भी तो ज़्यादातर मांओं को यह सुनना पड़ता है कि वह तो दिन भर घर में ही रहती हैं. बैठी रहती हैं. काम क्या करती हैं? घर में होता ही क्या है?

अगर मां काम न करे तो…

अब कल्पना करें, अगर मां बीमार पड़ जाये और हफ़्ते भर बिस्तर पर पड़ी रहे तो घर का क्या होगा? या वह एक महीने के लिए कहीं किसी रिश्तेदारी में चली जाए तो घर के पुरुषों का क्या हाल होगा?

यह कल्पना करने में कोई हर्ज़ नहीं है. क्या ज़िंदगी पहले की ही तरह बदस्तूर चलती रहेगी? क्या पुरुष आसानी से घर के वे सब काम कर लेंगें जिन्हें वे अब तक काम ही नहीं मानते हैं?

मां जो करती हैं, उनकी कोई क़ीमत है? मां घर में जो करती हैं, वह काम है या नहीं… उसकी क़ीमत है या नहीं…

उसे समझने और महसूस करने का एक और तरीक़ा भी हो सकता है. शहरों में रहने वाले लोग इस तरीक़े को आसानी समझ सकते हैं.

कई घरों में काम में मदद के लिए महिलाएं आती हैं. वे सब काम का अलग-अलग पैसा लेती हैं. यानी झाड़ू-पोछा का अलग. बर्तन धोने का अलग. सब्ज़ी काटने का अलग.

खाना बनाने का अलग. कपड़ा धोने का अलग. बच्चे-बच्चियों और बुजुर्गों की देखभाल करने के लिए अलग.

यानी जितने तरह के काम उतने अलग-अलग पैसे वे लेती हैं या लेते हैं. इससे अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मां, हर महीने कितने पैसे का काम करती हैं? वैसे, मां को तो इन कामों के लिए कुछ नहीं मिलता. न ही वह कभी मांगती ही हैं. अगर मां को काम के बदले पैसे मिलने लगें तो सोचिए हर महीने वह कितना पैसा कमाएगी?

लेकिन उसके काम में लगाव और अपनापन भी होता है. प्यार और ममता का स्पर्श होता है. इनकी क़ीमत हम क्या लगा पाएंगे? वह भी भला इनकी क़ीमत कैसे लेगी!

‘मदर्स डे’ या बोझ बढ़ाने का नुस्ख़ा

सवाल है क्या माँ के ऐसी ही लगे रहने और हर रोज़ के बलिदान को हम ‘मदर्स डे’ के नाम से मनाना चाहते हैं?

माँ का गुणगान करते हुए कविता पोस्ट करने के लिए या मां की महिमा और श्रद्धा का गान करने के लिए?

महज़ मां की महिमा गाने से महिला सशक्तीकरण होने से रहा. दूसरी ओर, इसके साथ ही महिमा गाकर महिलाओं को ज़िम्मेदारियों और कर्तव्य के बोझ से दबा दिया जाएगा.

मां की पूजा कर, उसे ममता की मूर्ति, करुणामयी या महान बनाकर हम उस पर दायित्वों और काम का बोझ बढ़ाते हैं या कम करते हैं?

हम उनके मान सम्मान की बात तो बहुत करते हैं. उनके जीवन का बोझ कम हो उसका कोई उपाय भी करते हैं?

तब मदर्स डे किस बात का?

मदर्स डे के मौके पर क्या ‘फादर और बेटे, उनकी कुछ ज़िम्मेदारियों और बोझ को साझा करेंगे? अगर नहीं साझा करेंगे तो ‘मदर्स डे’ मनाने का कोई अर्थ नहीं है.

वैसे, बेटों या घर वालों को माँ की ज़िम्मेदारी साझा करने का एक ही तरीक़ा अब तक पता है- बहू ले आओ.

यानी भविष्य की एक और मां को जोतने की तैयारी शुरू कर दो.

चाहे जिस रूप में हो, घर की स्त्री यानी काम करने वाली मशीन मान ली जाती है.

यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में मां के बनने का सफ़र है. इससे तो बात नहीं बनने वाली.

तो क्या कर सकते हैं?

सबसे पहले घर के मर्दों को माँ के साथ घर के काम में साझेदारी और भागीदारी की ज़िम्मेदारी लेनी होगी.

इसके लिए घर के पुरुषों को मांओं से काम सीखने होंगे. मर्द बनने और बनाने के चक्कर में उन्होंने घर के काम सीखे-जाने ही नहीं.

वे तो असली मर्द बनने लगे. मगर घर का काम करना भी अच्छे असली मर्द के गुण हैं, यह स्वीकार करना होगा.

तो आइये शुरू करते हैं ना!

देखने में और मानने में छोटे लेकिन कई महत्वपूर्ण काम हैं, जो आराम से हर रोज़ किए जा सकते हैं.

मांओं को उनसे मुक्ति दी जा सकती है. जैसे- सोकर उठें तो अपनी चादर या रज़ाई तह कर लें और बिस्तर ठीक कर लें.

मां को चाय बनाकर पिलाएं. खाना खाने के बाद कम से कम अपना बर्तन तो ज़रूर धोएं. सब्ज़ी काटी जा सकती है.

प्याज़ काटे जा सकते हैं. दाल-चावल धोए जा सकते हैं.

मां ने खाना बनाया है तो पुरुष खाना खाने के लिए लगा सकता है. पानी एक ज़रूरी चीज़ है.

पानी सभी पीते हैं तो इसे भरने की ज़िम्मेदारी सिर्फ मां ही क्यों निभाये. घर के पुरुष नियमित पानी भर सकते हैं.

घर की साफ़-सफ़ाई, झाड़ू-बहारू में हाथ बंटाया जा सकता है. नहाने के बाद अपने कपड़े धोकर सुखाने के लिए अलगनी पर डाले जा सकते हैं.

छोटे भाई-बहनों की देखभाल की जा सकती है. बुज़ुर्गों की सेवा में हाथ बंटाया जा सकता है और सबसे बढ़कर माँ को हफ़्ते में एक दिन घर के काम से आराम दिया जा सकता है. उस दिन घर के सभी कामों की ज़िम्मेदारी ली जा सकती है.

करने को तो और भी बहुत कुछ किया जा सकता है. बशर्ते हम करना चाहें.

ज़ाहिर है कई मां यह सब शुरू में नहीं करने देंगी. सवाल है, हम इसे करना चाहते हैं या नहीं?

अगर हम उनको वाक़ई प्यार करते हैं तो यह काम अपने हाथ में लेंगे. उसके बोझ को कम करने की पूरी कोशिश करेंगे.

घर के कामकाज में पुरुषों की भागीदारी ज़रूरी

घर के काम काज और देखभाल के काम में पुरुषों की भागीदारी-जिम्मेदारी का वादा ‘मदर्स डे’ पर किसी भी मां के लिए सबसे बड़ा तोहफ़ा होगा.

सवाल है, हम यह तोहफ़ा देने का दिल रखते हैं या नहीं? हम वाकई मां की मोहब्बत में बेचैन लोग हैं या महज़ रील और पोस्ट तक सीमित भावना है.

इससे भी बड़ा सवाल है, क्या ‘मदर्स डे’ मनाने के नाम पर एक दिन मां की भरपूर तारीफ़ की जाए और बाकी 364 दिन मां को कोल्हू के बैल की तरह जोत दिया जाए?

‘हैप्पी मदर्स डे’ या मातृ दिवस पर गुणगान कर मांओं का भावनात्मक शोषण करने से पहले हम अपने गिरेबान में ज़रूर झांकें. यही नहीं, बात केवल ममता, प्यार या पूजा की नहीं है.

बात नाइंसाफ़ी की भी है. किस तरह हम प्यार की आड़ में मां के साथ नाइंसाफ़ी करते हैं और उसे बढ़ावा देते हैं और हम सोचते हैं कि एक दिन ‘मदर्स डे’ मना कर अपनी नाइंसाफ़ियों का हिसाब दे देंगे!

एक और बात स्त्री सिर्फ़ मां नहीं है. वह बहन, भाभी, दोस्त, पत्नी, साथी के रूप में भी है. घर के काम इन सबके माथे पर पड़ते हैं. हम इनके भी साझीदार बनेंगे या नहीं?

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