मुसलमान दंपति निकाह के 29 साल बाद फिर क्यों करने जा रहे हैं शादी

Hindi New Delhi

DMT : नई दिल्ली : (07 मार्च 2023) : –

एक मुस्लिम व्यक्ति शादी के 29 साल बाद अपनी पत्नी से दोबारा विवाह करने जा रहे हैं. ये शादी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (आठ मार्च) के मौके पर होगी. इनके दोबारा शादी करने का मक़सद तीन बेटियों को अपनी पूरी जायदाद का हक़ दिलाना है.

सी शुकूर केरल के रहने वाले हैं और एक वकील हैं. उनकी पत्नी डॉक्टर शीना महात्मा गांधी यूनिवर्सिटी की उपकुलपति रह चुकी हैं. सी शुकूर के मुताबिक भारतीय मुसलमानों में इस समुदाय के लिए तय ‘असमान विरासत क़ानून’ को लेकर नई सोच विकसित हो रही है.

शुकूर ने बीबीसी हिंदी को बताया, “मुस्लिम लॉ के सिद्धांतों में लिंग के आधार पर ढेरों भेदभाव हैं. ये पितृसत्तामक क़ानून है और पुरुषों को प्रधान मानने की मानसिकता के साथ लिखा गया है. ये क़ुरान और सुन्ना की शिक्षाओं के ख़िलाफ़ है.”

उन्होंने कहा, “अल्लाह के आगे सभी पुरुष और महिला सभी बराबर हैं लेकिन 1906 में डीएच मुल्ला ने ‘मुस्लिम लॉ के सिद्धांत’ तय करते हुए इसकी जो व्याख्या की उससे जाहिर होता है कि पुरुष महिलाओं से ज्यादा ताक़तवर हैं और पुरुष महिलाओं का नियंत्रण करेंगे. इसी आधार पर उन्होंने विरासत क़ानून तैयार किया. “

शुकूर और उनकी पत्नी को ये मुद्दा क्यों परेशान कर रहा है, ये समझना आसान है. उनकी तीन बेटियां हैं. उनके कोई बेटा नहीं है. मौजूदा क़ानून के मुताबिक बेटियों को उनकी जायदाद का दो तिहाई हिस्सा मिलेगा. बाकी का एक तिहाई हिस्सा उनके भाई को हासिल होगा. उनके भाई के एक बेटे और बेटियां हैं. उनके भाई के बच्चों को पिता से सारी संपत्ति हासिल होगी.

1994 में हो चुकी है शादी

शुकूर ने बताया, “इससे निजात पाने के लिए हमने स्पेशल मैरिजेज़ एक्ट के सेक्शन 16 के तहत रजिस्टर्ड विवाह करने का फ़ैसला किया. 1994 में शरिया क़ानून के तहत हमारी शादी हो चुकी है. “

शुकूर कहते हैं कि एक बार स्पेशल मैरिजेज़ एक्ट के तहत शादी रिजस्टर होने के बाद ‘इंडियन सक्सेशन (उत्तराधिकार) एक्ट’ अमल में आएगा.

वो कहते हैं, “शरिया क़ानून के तहत हुई हमारी शादी को ख़ारिज करने की कोई वजह नहीं है. हमें स्पेशल मैरिजेज़ एक्ट के सेक्शन 21 के तहत संरक्षण मिला हुआ है.”

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कलीश्वरम राज ने बीबीसी को बताया, “इस दंपति के रिजस्टर शादी करने के फ़ैसले से जाहिर है कि वो विरासत के क़ानून की अवैध स्थिति से बचना चाहते हैं. लेकिन इसके बाद भी उनके सामने क़ानूनी सवाल खड़े हो सकते हैं. क्या नई शादी से पर्सनल लॉ का प्रभाव ख़त्म हो जाएगा, ये आगे देखना होगा. अगर संबंधित लोगों ने मुकदमा किया तो उन्हें न्यायिक समाधान हासिल करना होगा. “

सुप्रीम कोर्ट में मामला

राज सुप्रीम कोर्ट में एक ऐसे ही मामले की पैरवी कर रहे हैं. शुकूर की तरह प्रभावित एक और (चौथे) व्यक्ति की याचिका में इस मुद्दे पर कुछ और कहा गया है.

याचिका में कहा गया है, ” मुसलमानों के उत्तराधिकार को लेकर मौजूदा क़ानून के मुताबिक किसी पुरुष या महिला की मौत के बाद अगर सिर्फ़ बेटियां हों तो उनकी जायदाद का एक हिस्सा उनके भाइयों और बहनों को दिया जाएगा. ये कितना होगा, इसका फ़ैसला उनकी बेटियों की संख्या के मुताबिक तय होगा. अगर उनकी सिर्फ़ एक बेटी हो तो उसे जायदाद का आधा हिस्सा मिलेगा, अगर दो या उससे ज़्यादा बेटियां हों तो उनका हिस्सा दो तिहाई होगा. मौजूदा क़ानून बेटियों को उनके हक़ वंचित करता है. अगर ऐसा न होता तो जायदाद उनकी होती.”

केरल हाई कोर्ट ने याचिका को ये कहते हुए ख़ारिज कर दिया था, “उठाए गए मुद्दे पर विधायिका को गौर करना चाहिए और एक सक्षम क़ानून बनाना चाहिए. ” इसके बाद ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.

लेकिन अब इस मामले को लेकर सार्वजनिक स्तर पर बहस हो रही है. बीते हफ़्ते ‘सेंटर फ़ॉर इनक्लूसिव इस्लाम एंड ह्यूमनिस्म’ (सीआईआईएच) की एक बैठक में प्रभावित महिलाओं ने हिस्सा लिया था.

फ़ोरम फ़ॉर मुस्लिम वूमेन जेंडर जस्टिस की डॉक्टर खदीजा मुमताज ने बीबीसी से कहा, ” सीआईआईएच की मीटिंग और हमारे नए बने फोरम का मुख्य मक़सद मुसलमान समुदाय को ये बताना है कि ये मजहब के ख़िलाफ़ नहीं है. “

उन्होंने कहा, ” इसे 1400 साल पहले की सामाजिक आर्थिक स्थिति के मुताबिक देखा जाना चाहिए. अब मानवीय रिश्ते बदल गए हैं. उस वक़्त स्थिति ये थी कि अगर पिता की मौत हो जाती है तो लड़कियों की देखभाल के लिए चाचा होते थे लेकिन अब चाचा लड़कियों से सबकुछ हासिल कर ले रहे हैं. मजहब एक मुसलमान को अनाथों का पैसा लेने से रोकता है.”

सीआईआईएच के संस्थापक चौधरी मुस्तफ़ा मौलवी ने बीबीसी से कहा, “शरीया के मुताबिक जो मुस्लिम क़ानून लागू लागू किया जाता है वो पवित्र क़ुरान में बताए गए क़ानून के ख़िलाफ़ है. क़ुरान में कहा गया है कि पुरुषों और महिलाओं के बीच न्याय और समानता होनी चाहिए, भेदभाव नहीं होना चाहिए.”

मुस्तफ़ा मौलवी कहते हैं, “मौलानाओं ने क़ानून की व्याख्या की है और इस पर पुरुषों की महत्ता बताने का असर देखा जा सकता है. कबीलाई क़ानून की व्याख्या करते हुए पुरुषों ने करीब एक हज़ार किताबें लिखी हैं. मुसलमान आज क़ानून का पालन करना चाहते हैं, कबीलाई क़ानून का नहीं. “

हालांकि, राज कहते हैं कि इस समस्या का वास्तविक समाधान तभी हासिल हो सकता है जब “भारत के छोटे परिवारों को ध्यान में रखते हुए मुस्लिम लॉ को ढालने की विधिवत कोशिश की जाए. साथ ही, इसे पुरुषों और महिलाओं की समानता से जुड़े संविधान के सिद्धांत के मुताबिक लैंगिंक तौर पर निरपेक्ष बनाया जाना चाहिए.”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *