‘मैं घटिया लोगों के सामने पूरी ज़िंदगी नाचती रही, लेकिन मेरी बेटी ऐसा नहीं करेगी’

Hindi New Delhi

DMT : नई दिल्ली : (13 मार्च 2023) : –

आम समाज से उलट, यहां बच्ची के जन्म पर लोग ख़ूब जश्न मनाते हैं. लेकिन बेटियों की माएं इस जश्न में शामिल नहीं होतीं, वे दुख मनाती हैं.

ये संगीत बाड़ी है. यहां कोल्हाटी और दलित समुदाय की महिलाएं परंपरागत तौर पर लावणी नृत्य करती आयी हैं.

ये महिलाएं, यहीं रहती हैं. खाना-पीना-सोना और लावणी, सारी ज़िंदगी यही है. और इसी माहौल से वो अपनी बेटियों को निकालना चाहती हैं.

ये अपने परिवार में रोज़ी रोटी कमाने वाली अकेली महिलाएं हैं. उनके परिवार का कोई सदस्य काम-धंधा नहीं करता.

से गुज़रता है.

धूल से भरा यह कस्बा दिन में अलसाया-सा दिखता है, लेकिन यहां की रातें बिलकुल अलग होती हैं. आस-पड़ोस के कस्बे और शहरों से पुरुष रात में यहां महिलाओं की लावणी देखने के लिए जुटते हैं.

अकेले जामखेड़ में 10 मनोरंजन थिएटर हैं जिनमें रंगारंग प्रदर्शन, पैसे की बरसात और प्राइवेट शो से जुड़ी कहानियां मौजूद हैं.

पीढ़ियों से ये महिलाएं पुरुषों को ख़ुश करने के लिए इन थिएटरों में लावणी करती आयी हैं.

इसकी आड़ में अक्सर उनका यौन शोषण किया जाता है. उनसे छेड़छाड़ की घटनाएं भी आम है और कई बार ग़रीबी उन्हें सेक्स वर्क में धकेल देती है.

इनकी बेटियां भी सेक्स वर्क में ना फंस जाएं, इन्हें यही डर सताता रहता है,

इनकी शादी नहीं होती, ये एकल मांए हैं. अब तक इनकी बेटियां इसी पेशे को अपनाती रही हैं. लेकिन अब ये अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने के लिए ज़मीन आसमान एक करने को तैयार हैं.

हमारी मुलाक़ात यहां गीता बर्डे से हुई. 18 साल की गीता नर्स बनना चाहती हैं. वह अपनी नर्तकी मां को इस पेशे की बेड़ियों से आज़ाद कराना चाहती हैं और दोनों के लिए इज़्ज़त की ज़िंदगी बनाना चाहती हैं.

लेकिन यह आसान नहीं है.

लावणी डांसर की बेटियों का दर्द

बेटियों का मां के साथ रहना ही परेशानी का सबब है. काम की जगह ही रहने की जगह है यानी ग्राहक की आंख के सामने आ जाने भर से लावणी के लिए या सेक्स वर्क के लिए बुलाए जाने की नौबत आ सकती है.

गीता एक शाम को याद करती हैं. जब प्राइवेट डांस का आयोजन था और उनकी मां को उसमें नाचना था लेकिन बारिश हो रही थी इसलिए वह कमरे में बारिश थमने का इंतज़ार कर रही थीं.

संगीत बाड़ी ऐसा थिएटर है जहां हमेशा लावणी का आयोजन होता रहता है. यहां नृत्य करने वाली महिलाएं लंबे समय तक रहती हैं. यह एक तरह से हॉस्टल है, जहां आप खा और सो सकते हैं, साथ ही लावणी का प्रदर्शन भी करते हैं.

प्रत्येक थिएटर में आठ-दस डांस करने वाले समूह हैं और हर समूह में एक गायक, एक संगीत बजाने वाला और चार-पांच नृत्य करने वाली महिलाएं होती है. यानी एक संगीत बाड़ी में कम से 70-80 लोगों का ठिकाना होता है.

हर रात महिलाएं सजती-संवरती हैं. संगीत बाड़ी का विशाल लोहे का दरवाज़ा खोल दिया जाता है और वे अपने ग्राहकों का इंतज़ार करती हैं.

यही वजह है कि बेटियों के सुरक्षित रहने की कीमत है मां से दूर रहना.

गीता की मां उमा पति की मौत के बाद लावणी करने लगी थीं. उन पर अपने दो बच्चों के लालन-पालन की ज़िम्मेदारी थी. बढ़ती उम्र के चलते उमा को आए दिन ताने और अपशब्द सुनने पड़ते हैं कि उसे अब गीता को नचाना चाहिए.

उमा कहती हैं, “जो हम पर हंसते हैं, मैं तो उनके दांत तोड़ देना चाहती हूं. लोग कहते हैं कि ‘यह एक कमज़ोर महिला है, दो बच्चों की परवरिश करने वाली एकल मां. यह अपने बच्चों के भविष्य के लिए क्या कर सकती है?”

संगीत बाड़ी की दुनिया

संगीत बाड़ी की अपनी जटिल दुनिया है.

नृत्य से जुड़ा मुख्य समुदाय कोल्हाटी जनजाति से है जो मातृसत्तात्मक परंपरा को मानती है. समुदाय के मुताबिक महिलाएं ही परिवार के सारे फ़ैसले लेती हैं और संपत्ति को संभालती हैं.

लेकिन हक़ीक़त में महिलाएं लावणी कर पैसे तो कमाती हैं और अपने परिवार की देखभाल भी करती हैं पर उनकी गरिमा, सम्मान और अधिकार सब कुछ छीन लिया जाता है.

वे घर चलाने की भूमिका निभा रही हैं, लेकिन सशक्त नहीं हैं. उनके श्रम को गंभीरता से नहीं लिया जाता, परिवार का कोई दूसरा सदस्य आजीविका के लिए कोई काम नहीं करता.

लावणी करने वाली ये महिलाएं दशकों से नाचती रही हैं.

अधेड़ उम्र की नर्तकी और नृत्य मंडली की मालिक बबीता अक्कलकोटकर कहती हैं, “मुझे लगता है कि किसी को काम करना चाहिए, कुछ पैसे कमाने चाहिए. मेरे भाइयों को कम से कम अपने पैसे से नमक का एक पैकेट तो ख़रीदना चाहिए.”

संगीत बाड़ी या लावणी का प्रदर्शन वाले थिएटर, तमाशा पार्टियों से अलग होते हैं. हालांकि दोनों जगहों पर लावणी का प्रदर्शन किया जाता है.

तमाशा पार्टियां अपने सभी कलाकारों और वाद्य यंत्रों के साथ एक गांव से दूसरे गांव घूमती हैं और हर शाम प्रस्तुति देती हैं.

पहले लावणी को मनोरंजन का जन माध्यम माना जाता था. दर्शक आते और मामूली क़ीमत पर टिकट ख़रीदते, लावणी करने वाली महिलाओं का नृत्य देखते और चले जाते.

लेकिन अब ऐसे थिएटरों में पैसे का बड़ा योगदान हो गया है.

पैसे ‘प्राइवेट शो’ से आते हैं जहां ये महिलाएं छोटे-से कमरे में बंद दरवाज़ों के पीछे लावणी करती हैं. इस तरह के शो का रेट कमरे की भव्यता, शो की अवधि और सबसे अहम, नर्तकियों की उम्र के मुताबिक़ अलग-अलग होता है.

कम उम्र की नृतकी की कमाई ज़्यादा होती है. इस वजह से भी यहां की महिलाओं को अपनी बेटियों के लिए डर लगा रहता है.

लता कहती हैं, “अगर मैं अपनी बेटी को अपने साथ रखती तो वो यहां की संस्कृति से प्रभावित हो जाती. कम उम्र मे लड़कियों पर असर जल्दी होता है. वो हमें ग्राहकों के साथ देखती हैं, मेकअप करते हुए देखती हैं. हम में से कई महिलाओं ने अपनी बेटियों को अपना जीवन बर्बाद करते हुए देखा है.”

बाहर निकलने का रास्ता

अब इनमें से कुछ महिलाओं ने एकजुट होकर और अपनी कमाई से बचत कर एक छात्रावास के लिए योगदान दिया है, जहां उनके बच्चे, विशेषकर बेटियां सुरक्षित माहौल में रह रही हैं और स्कूल जाकर अपनी पढ़ाई कर पा रही हैं.

ये महिलाएं अपने बच्चों को छोटे-छोटे तोहफे, झैसे नए कपड़े, स्कील का सामान वगैरह के लिए भी पैसे जमा करती हैं.

हम इस छात्रावास के निदेशक अरुण जाधव से मिले.

उन्होंने बताया, “सिंधु गुलाब जाधव, कांता जाधव, अलका जाधव जैसी नृतकियों ने मिलकर यह छात्रावास बनवाया है. उन्होंने अपने ग्राहकों से छात्रावास के लिए वित्तीय मदद मांगी है. पुणे में एक कला केंद्र हैं- आर्यभूषण. वहां की एक नृतकी सविता अपने प्राइवेट डांस सेशन में इसके लिए चंदा लेती थीं. वह हर ग्राहक से 500 रुपये लेती थीं. उन्होंने अकेले 50 से 60 हज़ार रुपये जुटाए थे.”

यह छात्रावास लावणी करने वाली नर्तकियों के रहने की जगह से काफ़ी दूर है.

संगीत बाड़ी के अंदर इन महिलाओं के रहने की जगह तंग है. नर्तकियों के हर समूह के पास एक या दो कमरे होते हैं. महिलाएं इन्हीं कमरों में सोती हैं. पुरुष संगीतकारों के लिए अलग कमरे हैं.

यहां जो सुदर बड़े कमरे हैं वो प्राइवेट शो के लिए लजाए गए हैं. इनमें से कुछ में एयर कंडीशनर लगा है तो कुछ में एयर कूलर. इनमें आरामदायक गद्दे हैं और साथ ही चमकते टाइल्स भी.

महिलाएं अपने दिन की शुरुआत सुबह देर से करती हैं. कभी-कभी तो उनका दिन दोपहर में शुरू होता है.

प्रत्येक मंडली में एक रसोइया और एक साफ़ सफ़ाई करने वाली महिला होती है. लावणी करने वाली महिलाएं भी कामकाजी महिलाएं हैं और उन्हें भी घरेलू कामों में मदद की ज़रूरत होती है.

शाम 4 बजे के बाद ये महिलाएं तैयार होने लगती हैं. फिर वे सामने के बरामदे में बैठकर ग्राहकों का इंतज़ार करती हैं. कई ग्राहक अपना चेहरा छिपा कर आते हैं. वे अपनी पसंद की डांसर चुनते हैं और प्राइवेट शो बुक करते हैं.

ये लोग अक्सर डांसरों पर पैसों की बौछार करते हैं. शो सुबह 4 बजे तक चलते हैं.

कभी-कभी कोई डांसर अपने ग्राहक के साथ ‘बाहर’ भी जाती हैं. ये सेक्स के लिए होता है. इसके बदले उन्हें ज़्यादा पैसे मिलते हैं.

सेक्स वर्क से मिले पैसों को थिएटर मालिक या संगीतकारों के साथ बांटना नहीं होता है.

एक लुप्त होती कला

लावणी को महाराष्ट्र का लोकनृत्य माना जाता है. कथक से इसकी कई समानताएं हैं. महारत हासिल करने के लिहाज़ से यह कठिन नृत्य शैली है क्योंकि इसमें चेहरे के हाव-भाव, अभिनय और हाथों का सुंदर तालमेल बनाना होता है.

लावणी नृत्य को कामुक कह कर वर्षों तक हेय दृष्टि से देखा जाता रहा. फिर भी इसमें महारत हासिल करनेवाली नर्तकियां को आज भी याद किया जाता है.

लेकिन अब यह कला लुप्त होती जा रही है. संगीतकार ताल खो रहे हैं; नर्तकियां लय खो रही हैं और उनमें कुशलता भी नहीं दिखती.

वरिष्ठ नृत्यांगना और गायिका लता परभणीकर कहती हैं, “एक समय था जब दर्शक हमारी कला का सम्मान करते थे. अब वे केवल देह प्रदर्शन देखना चाहते हैं, इसलिए कोई भी कला सीखने की ज़हमत नहीं उठाता.”

हालांकि लावणी करने वाली महिलाएं यहां से निकलना चाहती हैं, लेकिन हर कोई बाहर नहीं निकल सकता, हर किसी के पास मदद करने के लिए मांएं नहीं हैं.

यहां कई लड़कियों को ग़रीबी, दुर्व्यवहार और घर में भेदभाव के दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए पैसे कमाने की ज़रूरत है. ऐसी लड़कियों के लिए संगीत बाड़ी ही एक मात्र ज़रिया है.

जय अंबिका कला केंद्र में यह एक और शाम है. काफ़ी शोर शराबा और हलचल है. सजी संवरी महिलाएं अपने ग्राहकों के इंतज़ार में हैं. लोहे का दरवाज़ा खोल दिया गया है.

यहां से दूर, छात्रावास में बच्चे शाम की प्रार्थना कर रहे हैं.

और ये महिलाएं खु़द से वादा कर रही हैं कि अपनी बेटियों को कभी इस दहलीज़ पर क़दम नहीं रखने देंगी.

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