यूक्रेन हमले के साल भर बाद क्या है पुतिन की नई योजना?

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DMT : यूक्रेन  : (12 मार्च 2023) : –

एक साल पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन पर हमला कर दिया था. इस लड़ाई में बीते बारह महीनों में रूस के लगभग दो लाख सैनिक मारे जा चुके हैं.

पिछली सर्दियों की शुरुआत में जिन शहरों पर रूसी सेना ने कब्ज़ा किया था उसमें से कई जगहों पर जवाबी हमला करते हुए यूक्रेन की सेना ने उन पर दोबारा कब्ज़ा कर लिया है.

एक तरफ पिछली फ़रवरी में राजधानी कीएव पर कब्ज़ा करने के लिए रूसी हमला असफल हो गया था, तो दूसरी तरफ यूक्रेन को अपने नियंत्रण में लेने में रूस को अभी तक कोई ख़ास सफलता नहीं मिली है.

लेकिन ख़ुफ़िया जानकारियों के अनुसार रूस गर्मियों से पहले यूक्रेन पर बड़ा ज़मीनी हमला करने की तैयारी कर रहा है.

ख़बरें हैं कि रूसी सेना में हज़ारों नए सैनिकों की भर्ती के बाद रूस की सेना को नया बल मिला है और उसने लड़ाकू विमानों और तोपों को बड़ी संख्या में यूक्रेन की सीमा के नज़दीक तैनात करना शुरु कर दिया है.

इस हफ़्ते दुनिया जहान में हम यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि यूक्रेन को लेकर पुतिन की नई योजना क्या है?

रूस का हमला

बीते साल सर्दियों में लड़ाई ज़्यादातर डोनबास क्षेत्र में चलती रही. साल 2014 में क्राइमिया पर हमले के दौरान रूस ने यूक्रेन के डोनबास इलाक़े में भी हमला किया था.

पिछली फ़रवरी में पुतिन ने डोनबास और उससे सटे हुए झपरीचा और लुहांस्क प्रांत पर कब्ज़ा करके उस क्षेत्र को रूस में मिला लिया था लेकिन अभी तक रूस पूरी तरह से इन इलाक़ों पर नियंत्रण नहीं कर पाया है.

पिछले कुछ महीनों में रूस ने यूक्रेन की राजधानी कीएव सहित कई ठिकानों पर भारी बमबारी की है. अब रूसी सेनाओं ने बड़े पैमाने पर यूक्रेन के दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में मोर्चाबंदी कर ली है. पश्चिमी ख़ुफ़िया एंजेसियों से मिली जानकारी के मुताबिक़ रूस ने नए हमले की तैयारी में तोपों और लड़ाकू जेट तैनात किए हैं.

लेकिन सवाल उठाए जा रहे हैं कि इस हमले का स्वरूप क्या हो सकता है?

यह अटकलें भी लगाई जा रही हैं कि यह हमला कीएव पर कब्ज़ा करने के लिए रूस के सहयोगी देश बेलारूस से भी किया जा सकता है.

यूरोपीय परिषद में विदेशी सबंध मामलों के विशेषज्ञ क्रिस्टोफ़ क्लावेन बेलारूस की ज़मीन से हमले की शुरुआत की संभावना कम ही बताते हैं.

वो कहते हैं, “अगर बेलारूस से हमले की योजना होती तो हमें वहां बड़े पैमाने पर फ़ौज की तैनाती दिखाई देती. बसंत की शुरूआत में हमले की योजना होगी तो रूस डोनबास क्षेत्र और यूक्रेन के पूर्वी हिस्सों को निशाना बनाएगा और संभवत: बसंत के ख़त्म होते-होते हमला धीमा पड़ जाएगा.”

इसका मतलब यह है कि रूस यूक्रेनी सेना के पूर्वी और दक्षिणी क्षेत्रों के मोर्चे को तोड़ कर भीतर घुसने की कोशिश करेगा.

मगर रूस के सामने समस्या यह है कि उसने हाल में जिन नए सैनिकों की भर्ती की है उनके पास अनुभव और प्रशिक्षण की कमी है.

क्रिस्टोफ़ क्लावेन कहते हैं, “अगर यूक्रेनी सेना से ग़लतियां होती है तो रूसी कमांडर उसका कुछ फ़ायदा उठा सकते हैं लेकिन नए रूसी सैनिकों के पास अनुभव की कमी है. अगर वो कामयाब होते हैं तो यूक्रेनी सेना को बीस से तीस किलोमीटर पीछे हटना पड़ सकता है.”

पिछले एक साल में रूसी सेना के लगभग बीस सैनिक जनरलों को उनकी विफलता की वजह से पद से हटाया जा चुका है और सेना का मनोबल कमज़ोर हुआ है. लेकिन उसने डोनबास क्षेत्र पर अपनी पकड़ मज़बूत कर ली है.

वहीं रूस ने इस दौरान अपने सहयोगी देश बेलारूस, ईरान और उत्तरी कोरिया से नए हथियार प्राप्त कर लिए हैं. जिसका अर्थ है कि रूसी कारवाई भले ही ज़्यादा कारगर ना रही हो मगर उसे जारी रखना संभव है.

रूस की नई रणनीति के बारे में क्रिस्टोफ़ क्लावेन कहते हैं, “यूक्रेनी सेना को रूस ज़्यादा से ज़्यादा नुक़सान पहुंचाने की कोशिश कर रहा है. उसके अधिक से अधिक सैनिकों का हताहत करने की कोशिश कर रहा है ताकि यूक्रेनी सेना को कमज़ोर कर के थकाया जा सके.”

“लड़ाई में अगर रूस को अपेक्षित सफलता ना भी मिले तब भी इतना काफ़ी हो सकता है. और यूक्रेन को जितने हथियार पश्चिमी देशों से मिल रहे हैं उससे ज़्यादा हथियार रूस अपनी सेना को सप्लाई कर सकता है.”

“लड़ाई जितना लंबा ख़िचेगी यूक्रेनी सेना उतना कमज़ोर होती जाएगी. इसलिए रूस की रणनीति यूक्रेनी सेना के ठिकानों पर बमबारी कर के छोटे हमलों के ज़रिए उसे नुक़सान पहुंचाने की है.”

पुतिन चाहते हैं कि अगर यूक्रेनी सेना को हराया ना भी जा सके तो कम से कम उसके मनोबल को तोड़ दिया जाए.

क्रिस्टोफ़ क्लावेन कहते हैं, “पुतिन के लिए यह इच्छाशक्ति की लड़ाई है. लगातार यूक्रेनी सेना पर हमले कर के वो पश्चिमी देशों को यह दिखाना चाहते हैं कि रूस एक बड़ी ताकत हैं और अपनी सेना को बेहिसाब हथियार दे सकता है. हालांकि यह पूरी तरह सच नहीं है. मगर पुतिन पश्चिमी देशों के सामने यह छवि ज़रूर पेश करना चाहते हैं ताकि वो यूक्रेन को मिल रही सहायता को बंद कर दें.”

मगर रूस की सैनिक महत्वकांक्षा वैग्नर ग्रुप पर निर्भर है जो रूस की एक निजी कंपनी के लड़ाके है.

वैग्नर ग्रुप

वैग्नर ग्रुप पहली बार 2014 में चर्चा में आया था जब उसने रूस समर्थक अलगाववादियों के साथ मिलकर डोनबास में यूक्रेनी सेना के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी.

आज के युद्ध में वैग्नर ग्रुप रूस के लिए कितना महत्वपूर्ण है इसे समझने के लिए बीबीसी ने लंदन के किंग्स कॉलेज में रक्षा मामलों की प्रोफ़ेसर ट्रेसी जर्मन से बात की.

वो कहतीं हैं, “यह ग्रुप खुद को एक निजी कंपनी बताता है लेकिन रूसी सरकार के साथ इसके क़रीबी संबंध हैं. यह ग्रुप अफ़्रीकी देशों में भी सक्रीय है जहां पूर्व साम्राज्यवादी ताकतें सीधे कार्रवाई नहीं करना चाहतीं. वहां वैग्नर ग्रूप काम करता है.”

“हालांकि रूस सीधे तौर पर इसे अपने सुरक्षाबल का हिस्सा नहीं मानता मगर यह ग्रुप उन जगहों पर रूस के प्रभाव को बढाता है. अभी तक यूक्रेन की लड़ाई में उसने रूस को उसके सैनिक लक्ष्य प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. पिछली गर्मियों के बाद से वो खुलकर लड़ाई में हिस्सा ले रहा है.”

येवगेनी प्रिगोज़िन वैग्नर ग्रुप के प्रमुख हैं. उन्हें कुछ लोग ‘पुतिन का बावर्ची’ भी कहते हैं क्योंकि पहले वो रूसी सरकार के लिए केटरिंग का काम करते थे. उसी दौरान उनके राष्ट्रपति पुतिन के साथ उनके क़रीबी संबंध बने थे.

पिछले कुछ महीनों में वैग्नर के लड़ाकों की संख्या दस गुना बढ़कर पचास हज़ार तक पहुंच गई है. इसमें भर्ती हुए ज़्यादातर लड़ाके रूसी जेलों से रिहा किए गए अपराधी हैं.

रूस द्वारा वैग्नर ग्रुप के इस्तेमाल के बारे में ट्रेसी जर्मन कहती हैं, “रूस को सैनिकों की जो कमी महसूस हो रही थी वो वैगनर ग्रूप ने पूरी की है. पुतिन को इसका दूसरा फ़ायदा यह है कि यह अधिकारिक रूसी सेना का हिस्सा नहीं है इसलिए इसके लड़ाकों के हताहत होने से रूसी सरकार पर वो सामाजिक दबाव नहीं आता जो रूसी सैनिकों के यूक्रेन में मारे जाने से पड़ता है.”

“दूसरा फ़ायदा यह है कि यह पश्चिमी देशों द्वारा यूक्रेन की सहायता का एक जवाब भी है. मगर यह लड़ाके सज़ाआफ़्ता अपराधी हैं जिन्हें युद्ध का अनुभव या महारत नहीं है.”

वो कहती हैं, “मेरी रिपोर्टों के अनुसार इसमें से अस्सी प्रतिशत लड़ाके युद्ध में मारे गए हैं. इन अपराधियों के पास लड़ने के अलावा कोई चारा नहीं होता. अगर वो आगे बढ़ने के आदेश को नहीं मानते तो उन्हें गोली मार दी जाती है.”

वैग्नर ग्रुप के लड़ाके बड़ी संख्या में मारे तो गए हैं लेकिन उन पर आम यूक्रेनी लोगों को यातनाएं देने के आरोप भी लगे हैं. इसके साथ ही यह ग्रुप कुछ सफलताओं के श्रेय के लिए कई बार रूसी सेना के अधिकारियों से टकराता भी नज़र आया है.

ट्रेसी जर्मन यह भी कहती हैं, “हालांकि यह ग्रुप सामान्य रूसी सैनिकों के साथ मिलकर लड़ता है और यूक्रेन में रूसी सेना की तादाद बढ़ जाती है. लेकिन इसके लड़ाकों के मारे जाने की संख्या रूसी हताहतों की आधिकारिक संख्या में जोड़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती.”

इस वजह से युद्धभूमि पर असफलताओं का दोष सीधे पुतिन पर नहीं आता और वो अपनी अव्यहवारिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने में लगे रह सकते हैं.

पुतिन और रूसी मातृभूमि

यूक्रेन युद्ध को लेकर पुतिन के लक्ष्य क्या हाल के दिनों में बदले हैं?

वो कहती हैं, “पुतिन और क्रेमलिन में राजनीतिक नेतृत्व जानबूझकर इस विषय पर अस्पष्ट बना हुआ है. अगर आप मुझसे पूछें कि युद्ध में उनका क्या लक्ष्य है तो जवाब देना मुश्किल होगा क्योंकि वो इसे बदलते रहते हैं. उनका निजी लक्ष्य तो यूक्रेन पर कब्ज़ा करना होगा लेकिन क्या इसके लिए उनके पास कोई टाइमटेबल है?”

एंजेला का मानना है कि लड़ाई में कई नाकामयाबियों के बावजूद रूस में शायद ही कोई ऐसा हो जो पुतिन को इस युद्ध से पीछे हटने की सलाह देता हो.

वो कहती हैं, “उन्होंने वहां ऐसी व्यवस्था बना दी है कि ज़्यादातर लोग वहां इस मीडिया प्रचार पर यकीन करते हैं कि पश्चिमी देश रूस का दुश्मन है. लगभग दो लाख रूसी सैनिक मारे गए हैं या गंभीर रूप से घायल हुए हैं. जगह-जगह लोगों के अंतिम संस्कार होते दिख रहे हैं. फिर भी इतने साल से सरकारी प्रचार सुनते-सुनते लोग अब थक गए हैं.”

“रूस के बाहर से ख़बरें उन तक पहुंचती ही नहीं हैं. कुछ लोग तो यहां तक मानते हैं कि यूक्रेन ने ही रूस पर हमला किया है. और जो लोग रूसी सरकार के यूक्रेन पर हमले का विरोध करते हैं या तो वो रूस से भाग चुके हैं या जेल में बंद कर दिए गए हैं. जो रूस में हैं भी वो चुप बैठे हैं.”

रूस में कई लोग जो सरकार की आलोचना कर रहे हैं वो केवल यह आलोचना कर रहे हैं कि सरकार को यूक्रेन पर नियंत्रण करने के लिए और सख़्ती से काम लेना चाहिए था.

इस बारे में एंजेला स्टेंट कहती हैं, “जो लोग सरकार की युद्ध नीति का विरोध कर रहे हैं वो येवगेनी प्रिगोज़िन जैसे लोग हैं. उन्होंने सीधे पुतिन की आलोचना नहीं की लेकिन रक्षा मंत्रालय की आलोचना ज़रूर की है. इसके अलावा कई ब्लॉगर हैं और शाम को टीवी शो पर आने वाले लोग हैं जो कहते हैं कि रूसी सेना को और बेहतर तरीके से लड़ना चाहिए था और कड़ाई से पेश आना चाहिए था.”

जहां तक रूसी प्रशासन में पुतिन की नज़दीकी सलाहकारों से चर्चा की बात है, एंजेला स्टेंट कहती हैं कि वहां प्रशासन में पारदर्शिता की इतनी कमी है कि कहना मुश्किल हैं भीतर क्या हो रहा है. केंद्रीय बैंक के गवर्नर या उद्योगपति जैसे कुछ व्यावहारिक सोच रखने वाले लोग भी इसमें शामिल हैं जो युद्ध से पहले पश्चिमी देशों के साथ बेहतर संबंध चाहते थे.

वो भी अब दबाव में आकर सरकारी राग आलाप रहे हैं या फिर शांत हैं. शायद यही वजह है कि पुतिन यूक्रेन पर कब्ज़े की अपनी महत्वाकांक्षा को लगाम लगाने के बजाए बाल्टिक क्षेत्र के दूसरे देशों पर भी नज़र गड़ा सकते हैं.

एंजेला स्टेंट कहती हैं, “कम से कम अभी पुतिन यही कह रहे हैं की यूक्रेन और दूसरे बाल्टिक देश परंपरागत रूप से रूसी मुख्यभूमि का हिस्सा रहे हैं जिन्हें रूस में वापस मिलाना है. उनकी घरेलू राजनीति के लिए यह महत्वपूर्ण है. अगर वो इसमें कामयाब होते हैं तो एक तानाशाह के नाते वो लंबे समय तक रूस की सत्ता में बने रह सकते हैं. ऐसे में बातचीत या समझौते के ज़रिए यह संघर्ष नज़दीकी भविष्य में ख़त्म होता नज़र नहीं आता.”

एक फंसा हुआ संघर्ष

तो अगर बसंत की शुरुआत में पुतिन यूक्रेन पर नया हमला करते हैं तो उसका क्या परिणाम हो सकता है?

पुतिन रूसी सेना को यूक्रेन में और भीतर भेजने की कोशिश करते हैं तो रूसी सेना को मैदानी इलाक़ों में यूक्रेनी सेना के टैंक और तोपों को सामना करना पड़ेगा और लड़ाई फिर शहरों के भीतर लड़ी जाएगी.

वो कहते हैं कि ये शहर सामरिक दृष्टि से रूस के लिए महत्वपूर्ण है और यहां से यूक्रेनी सेना को पीछे हटना पड़ सकता है.

वो हो सकता है कि वो पीछे हट कर फिर बाख़मूत पर कब्ज़े के लिए हमला करेंगे. वो कहते हैं, “नए भर्ती किए गए रूसी सैनिकों के मुकाबले यूक्रेनी सैनिक अधिक अनुभवी हैं और शहरी लड़ाई में माहिर हैं. इसलिए रूसी सैनिक अधिक संख्या के बावजूद प्रभावी नहीं होंगे, उन्हें तेज़ी से तैनात करने में दिक्कत आएगी.”

यूक्रेनी सेना को पश्चिमी देशों से प्रशिक्षण और आधुनिक हथियार मिल रहे है. उसके मुक़ाबले रूस के हथियार पुराने हैं और कम प्रभावी हैं.

सैमुएल रमानी कहते हैं, “रूस के पास सटीक मार करने वाले हथियारों और मिसाइलों की कमी है. इन हथियारों के बनाने के लिए ज़रूरी माइक्रोचिप या सेमीकंडक्टर की सप्लाई पश्चिमी देशों ने रोक दी है. वहीं चीन भी इसमें रूस की मदद करने के लिए आगे नहीं आ रहा है. दूसरे, रूस की सेना के पास गोलाबारूद भी तेज़ी से ख़त्म हो रहा है और इसका उत्पादन भी रूस पर्याप्त मात्रा में नहीं कर पा रहा है.”

इन समस्याओं के अलावा रूसी सेना के सामने जीते हुए इलाक़े पर कब्ज़ा बनाए रखने की चुनौती भी है.

इस विषय में सैमुएल रमानी कहते हैं, “अभी यह पता नहीं है कि रूस की मोर्चाबंदी कितनी मज़बूत है और वो यूक्रेन के अत्याधुनिक टैंक और मिसाइलों के सामने टिक पाएगी या नहीं. अगर वो कमज़ोर रही तो यूक्रेनी सेना जवाबी हमला करके उन ठिकानों पर वापस कब्ज़ा कर लेगी.”

इन बातों को देखते हुए तो लगता है कि जिस जीत का वादा पुतिन ने रूसी जनता से किया है उसे पूरा करने से वो अभी काफ़ी दूर हैं.

सैमुएल रमानी का कहना है, “जानोमाल का नुक़सान और हथियारों की कमी की वजह से हो सकता है कि रूस युद्ध विराम के बारे में सोचे. यह अप्रत्याशित ढंग से हो सकता है, लेकिन ज़रूरी नहीं कि यह ज़्यादा देर चले. पुतिन की कोशिश रहेगी कि जितना संभव हो उतनी ज़्यादा ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया जाए. इससे उनका लक्ष्य आंशिक तौर पर पूरा हो सकता है और हार-जीत के बिना युद्ध थम सकता है.”

अब यूक्रेन को लेकर पुतिन की क्या योजना होगी?

साल भर चले युद्ध में भारी नुक़सान के बावजूद पुतिन यूक्रेन पर नियंत्रण करने के मक़सद में ख़ास कामयाब नहीं हो पाए हैं. इसके बावजूद रूस में उनका समर्थन ख़ास कम नहीं हुआ है.

अब उनकी कोशिश होगी की यूक्रेन के पूर्व और दक्षिण में बड़े इलाक़े पर कब्ज़ा कर उसे क्राइमिया से जोड़ दें जिस पर उन्होंने कुछ साल पहले कब्ज़ा कर लिया था. इसके बाद वो यूक्रेन सरकार पर समर्पण के लिए दबाव डाल सकते हैं.

लेकिन आने वाले कुछ महीनों में युद्ध ख़त्म होगा या नहीं और युद्ध में कोन जीते इस पर स्पष्ट रूप से अभी कुछ नहीं कहा जा सकता.

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