विश्व थैलेसीमिया दिवस: इस बीमारी में कब होती है ब्लड ट्रांसफ़्यूजन की ज़रूरत?

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DMT : नई दिल्ली : (07 मई 2023) : –

ऐसी बीमारी जिसमें जीते रहने के लिए ब्लड ट्रांसफ़्यूजन ज़रूरी होता है और बीमार को हर 25-30 दिन पर अस्पताल जाकर इस प्रक्रिया से गुजरना होता है.

ब्लड ट्रांसफ़्यूजन यानी शरीर की एक नस के माध्यम से रक्त चढ़ाना जो अक्सर ख़ून की कमी के दौरान चढ़ाया जाता है.

हम बात कर रहे हैं थैलेसीमिया बीमारी की. दुर्लभ मानी जाने वाली इस बीमारी से जूझ रही है दिल्ली की साढ़े चार साल की एक बच्ची की जिसे हर महीने ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराना पड़ता है.

बच्ची की मां डॉ. रिंकी सिंह फार्मा क्षेत्र में काम करती हैं और बताती हैं कि जब परिवार को ये पता चला कि तो सभी बहुत मायूस हो गए थे. रिंकी सिंह और उनके पति देवेंद्र दोनों ही ‘थैलेसीमिया माइनर’ हैं.

देवेंद्र सिंह कहते हैं, “हमें कभी ऐसा नहीं लगा कि बच्ची में कोई कमी है लेकिन जब हम उसे वैक्सीन दिलवाने गए तो डॉक्टर ने जांच की और पाया कि उसकी स्प्लीन या तिल्ली बढ़ी हुई है.”

दोनों ने बताया, “डॉक्टर ने हमें जांच कराने को कहा और उसमें पता चला कि हमारी बड़ी बेटी थैलेसीमिया मेजर है.”

डॉ रिंकी सिंह बताती हैं, “हमें बिल्कुल नहीं लगा कि उसमें ख़ून की कमी है. मेरी बेटी बहुत एक्टिव है. हालांकि कभी-कभी पैरों में दर्द बताती है और कहती है कि थकान हो रही है, वरना वो बिल्कुल सामान्य और इंटेलिजेंट है.”

वो कहती हैं, “हमें हर महीने उसके हीमोग्लोबिन की जांच करानी पड़ती है और फिर ब्लड ट्रांसफ़्यूजन होता है. वो हर बार दर्द से गुजरती है, दुख होता है.”

रिंकी सिंह बताती हैं कि जब वो दूसरी बार गर्भवती हुईं तो बहुत डरी हुई थीं, “मेरा डर था कि दूसरा बच्चा भी थैलेसीमिया मेजर न हो तो हमें तीसरे महीने में जांच की सलाह दी गई. हालांकि अभी हमने अपनी दूसरी बेटी की जांच नहीं कराई है.”

हीमोग्लोबिन की कमी

थैलेसीमिया बीमारी के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए हर साल आठ मई को थैलेसीमिया दिवस मनाया जाता है.

थैलेसीमिया इंडिया के मुताबिक़ हर साल में 10,000 बच्चे बीटा थैलेसीमिया बीमारी के साथ पैदा होते हैं और उन्हें ब्लड ट्रांसफ्यूजन की ज़रूरत पड़ती है.

डॉ राहुल भार्गव बताते हैं कि बीटा थैलेसीमिया एक प्रकार से एनीमिया की तरह है जिसमें महिलाओं या पुरुषो में हीमोग्लोबिन की कमी हो जाती है.

अगर एनीमिया की बात करें तो नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 (एनएफएचएस-5) के मुताबिक़ 15-49 उम्र की 57 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं. वहीं 6-59 महीने के 67.1 प्रतिशत बच्चे एनीमिया का शिकार हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, पांच साल के बच्चों का हीमोग्लोबिन 11 ग्राम प्रति डेसीलीटर (gm/dl) से ज़्यादा होना चाहिए.

अगर वो सात(gm/dl) या उससे कम है तो वो सीवियर (गंभीर) एनीमिया माना जाता है.

डॉ राहुल भार्गव, दिल्ली से सटे गुरुग्राम में फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट में हेमोटोलॉजी और बोन मैरो विभाग के निदेशक हैं.

कब पता चलता है बीमारी का?

डॉ प्राची जैन बताती हैं, “सामान्य तौर पर शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं (आरबीसी) का जीवनकाल 120 दिन का होता है लेकिन मरीज़ अगर थैलेसीमिया मेजर से पीड़ित होता है तो उनमें आरबीसी ये साइकिल पूरी नहीं कर पाते और उसकी वजह से ख़ून की कमी हो जाती है.”

डॉ राहुल भार्गव बताते हैं कि थैलेसीमिया एक जेनेटिक बीमारी है और बच्चे के जन्म के छह महीने बाद ही पता चलता है.

वो बताते हैं कि थैलेसीमिया तीन प्रकार के होते हैं जिसमें थैल -माइनर, थैल-इंटरमीडिया और थैल- मेजर है. ये एक जेनेटिक बीमारी है यानी एक बच्चे को थैलेसीमिया अपने माता-पिता से मिलता है.

डॉ प्राची जैन कहती हैं, “हमारे शरीर में 46 क्रोमोसोम है यानी 23 का जोड़ा होता है. इसका मतलब है उसमें दो-दो क्रोमोसोम होंगे. वहीं बच्चे में क्रोमोसोम माता-पिता से जाते हैं.”

“अब इन क्रोमोसोम में अगर जीन सामान्य है तो कोई दिक्क़त नहीं होगी लेकिन इसमें माता या पिता में से किसी एक के भी क्रोमोसोम में दिक्क़त होगी तो वो थैलेसीमिया के कैरियर बन जाएंगे.”

थैलेसीमिया की पहचान

डॉ प्राची जैन कहती हैं कि अगर पति और पत्नी दोनों थैलेसीमिया के कैरियर हैं तो बच्चों के थैलेसीमिया मेजर होने की 25 फ़ीसद जबकि उनमें कैरियर बनने की 50 फीसद आशंका होती है. वहीं बच्चे सामान्य होंगे, इसकी संभावना 25 फीसद होती है.

डॉ प्राची जैन मैक्स अस्पताल में पीडिएट्रिक्स ओनकॉलोजी एंड हेमाटोलॉजी विभाग की इंचार्ज हैं.

डॉक्टरों के अनुसार, “आप थैलेसीमिया माइनर से प्रभावित लोगों को देखकर नहीं पहचान सकते लेकिन थैलेसीमिया इंटरमीडिया और मेजर को देखकर पहचाना जा सकता है.”

अगर कोई थैलेसीमिया इंटरमीडिया है तो उन्हें ब्लड ट्रांसफ़्यूजन की कभी-कभी ज़रूरत पड़ती है लेकिन उनके शारीरिक विकास पर असर पड़ता है.

वहीं जो थैलेसीमिया मेजर से पीड़ित होते हैं उन्हें एक महीने या उससे कम दिनों यानी मरीज़ की स्थिति के अनुसार ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराना पड़ता है.

थैलेसीमिया का शरीर पर असर

डॉ राहुल भार्गव बताते हैं कि हीमोग्लोबिन हमारे शरीर में ऑक्सीजन के संचार का माध्यम होता है. जब हीमोग्लोबिन कम होता है तो ऑक्सीजन भी शरीर तक नहीं पहुंच पाता है.

ऐसे में इसकी कमी से मरीज़ की हड्डियों में विकार आ जाता है, चेहरे के जबड़े या स्कल (खोपड़ी) के आकार पर असर पड़ता है.

शरीर का पूरा विकास नहीं होता और वहीं मंदबुद्धि की समस्या भी हो सकती है.

साथ ही इसमें शरीर पीला पड़ना, थकान होना, कमज़ोरी महसूस करना आदि भी इसके लक्षण हैं, लेकिन छोटे बच्चों में जब तक जांच न हो उसका पता लगाना कई बार अभिभावकों के लिए मुश्किल हो जाता है.

राज्यों में थैलेसीमिया

यूनिर्सिटी कॉलेज ऑफ़ मेडिकल साइंसेस (यूसीएमएस) में बाल रोग विशेषज्ञ और प्रोफ़ेसर पूजा दीवान बताती हैं कि भारत के कुछ राज्यों राजस्थान, पंजाब और जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाकों से थैलेसीमिया के मामले सामने आते हैं.

वे बताती हैं, “दिल्ली एक ऐसा शहर है जहां कई राज्यों से लोग नौकरी की तलाश में आते हैं तो यहां भी थैलेसीमिया के कई मामले आते हैं. सिंधी समाज के लोगों में भी अधिक मामले सामने आते हैं. वहीं पश्चिम बंगाल के कुछ इलाकों में ईबीटा थैलेसीमिया के मामले आते हैं.”

डॉ दीवान कहती हैं कि पिछले बीस सालों से गुरू तेग बहादुर अस्पताल में थैलेसीमिया सेंटर है जहां कई राज्यों से रेफ़र होकर मरीज़ आते हैं. यूसीएमएस, गुरू तेग बहादुर अस्पताल से भी जुड़ा हुआ है.

डॉक्टर ये सलाह देते हैं कि अभिभावकों या युवाओं को शादी से पहले थैलेसीमिया का टेस्ट ज़रूर कराना चाहिए.

डॉ राहुल भार्गव कहते हैं कि भारत में थैलेसीमिया की जांच को लेकर डॉक्टर भी जागरूक नहीं है. हालांकि एड्स जैसी बीमारी की जांच होती है लेकिन आप ये सोचिए कि ग्रीस, ईरान, सीरिया जैसे युद्ध प्रभावित देश तक में थैलेसीमिया कंट्रोल प्रोग्राम लागू हैं और वहां भी शादी से पहले इसकी जांच होती है.

हालांकि वो कहते हैं कि सरकार की तरफ से कई पहल की गई जैसे सरकारी अस्पताल में ब्लड ट्रांसफ्यूजन मुफ़्त करा सकते हैं, वहीं निजी अस्पतालों में उन्हें इलाज के लिए सब्सिडी मिलती है.

ट्रांसफ़्यूजन के एवज में ऐसे मरीज के परिजनों को साल में केवल एक दो बार रक्त दान देने के लिए कहा जाता है ताकि उन्हें परेशानी से बचाया जा सके.

डॉ प्राची जैन के अनुसार, “ट्रांसफ्यूजन के बाद ये देखा जाता है कि आयरन डिपोसिट होने लगता है जिससे कुछ सालों में भी परेशानियां आने लगती हैं जैसे त्वचा काली पड़ने लगती है, हड्डियां कमज़ोर पड़ने लगती है. बच्चों में किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक विकास पर असर पड़ता है. ये थाइरॉयड पर प्रभाव डालता. वहीं लीवर और हर्ट में भी आयरन डीपोसिट होने लगता है.”

वे बताती हैं, “इस पर काबू पाने के लिए दवाइयां दी जाती हैं ताकि आयरन डीपोज़िट के होने वाले कुप्रभावों को कम किया जा सके.”

वहीं गर्भवती महिला में भी जांच करके पता लगाया जा सकता है कि बच्चा इससे पीड़ित है कि नहीं लेकिन इसे लगभग 20 हफ़्ते के भीतर जांच करा लेनी चाहिए.

बीबीसी से बातचीत में डॉक्टर बताते हैं, “हम अभिभावकों को बता देते हैं अगर बच्चा मेजर है तो उसे उम्र भर ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराना होगा. ये एक तरह का विकार ही होता लेकिन उसका इलाज चलता रहेगा. ऐसे में कई बार अभिभावक गर्भपात कराने का फ़ैसला भी ले लेते हैं.”

डॉक्टर बताते हैं कि अगर इलाज सही चलता रहे तो ये लोग लंबी जिंदगी जीते हैं. वहीं बोन मैरो ट्रांसप्लांट के ज़रिए इनका स्थायी इलाज कराया जा सकता है.

ये बोन मैरो, मरीज के भाई बहन से लेकर, पीड़ित बच्चे में ट्रांसप्लांट किया जा सकता है.

डॉ रिंकी सिंह कहती हैं, “मैं बहुत सकारात्मक हूं और अपनी बेटी के लिए जो बन पड़ेगा वो करूंगी. मैंने दूसरा बच्चा इसलिए प्लान किया है ताकि बोन मैरो से इलाज हो जाए. मेरी दूसरी बेटी बिल्कुल ठीक है और मेरी बड़ी बेटी को स्वस्थ रखना मेरा लक्ष्य है.”

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