सद्दाम हुसैन के इराक़ पर 20 साल पहले अमेरिका और उसके सहयोगियों ने हमला क्यों किया?

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DMT : इराक़  : (20 मार्च 2023) : –

20 मार्च 2003 को अमेरिका और उसकी सहयोगी सेना ने इराक़ पर हमला किया और सद्दाम हुसैन की सरकार को गिरा दिया.

अमेरिका ने कहा कि इराक़ के पास सामूहिक विनाश के हथियार हैं और यह अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए खतरा है, लेकिन ज़्यादातर देशों ने इसके ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई का समर्थन करने से इनकार कर दिया.

अमेरिका इराक़ पर हमला क्यों करना चाहता था?

1990-1991 के खाड़ी युद्ध में अमेरिका ने एक बहुराष्ट्रीय गठबंधन का नेतृत्व किया था. इस गठबंधन ने इराक़ी सेना को कुवैत छोड़ने के लिए मजबूर किया था.

इसके बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव 687 पारित कर इराक़ को सामूहिक विनाश के अपने सभी हथियारों को नष्ट करने का आदेश दिया.

सामूहिक विनाश के हथियार की परिभाषा में परमाणु, जैविक, रासायनिक हथियार के साथ लंबी दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलें आती हैं.

साल 1998 में इराक़ ने संयुक्त राष्ट्र के हथियार निरीक्षकों के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया, जिसके बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने इराक़ पर हवाई हमले किए.

11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और वाशिंगटन में पेंटागन पर अल-कायदा के हमलों के बाद से तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश प्रशासन ने इराक़ पर हमले की योजना बनानी शुरू कर दी थी.

राष्ट्रपति बुश ने दावा किया था कि सद्दाम हुसैन इराक़ में सामूहिक विनाश के हथियारों का भंडारण और निर्माण जारी रखे हुए हैं. बुश ने इराक़, ईरान और उत्तर कोरिया को अंतरराष्ट्रीय “बुराई की धुरी” का हिस्सा बताया था.

अक्टूबर 2002 में अमेरिकी कांग्रेस ने इराक़ के ख़िलाफ़ सैन्य बल के प्रयोग की मंजूरी दे दी.

लंदन में विदेशी मामलों के थिंक टैंक चैथम हाउस में अमेरिका प्रोग्राम के निदेशक डॉ लेस्ली विंजामुरी कहते हैं, “वाशिंगटन में कई लोग मानते हैं कि इराक़ के पास सामूहिक विनाश के हथियार होने के महत्वपूर्ण सबूत थे और इससे वास्तविक ख़तरा था.”

फ़रवरी 2003 में तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कॉलिन पॉवेल ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से इराक़ के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई को हरी झंडी देने के लिए कहा. उन्होंने कहा कि इराक़ सामूहिक विनाश के हथियार प्रोग्राम जारी रख कर पिछले प्रस्तावों का उल्लंघन कर रहा है.

हालांकि वे परिषद को राजी नहीं कर पाए. परिषद के ज़्यादातर सदस्य अमेरिका और अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा प्राधिकरण के हथियार निरीक्षकों को भेजना चाहते थे. ये निरीक्षक 2002 में सामूहिक विनाश के हथियारों की जांच के लिए इराक़ गए थे.

अमेरिका ने कहा कि वह निरीक्षकों की रिपोर्ट की प्रतीक्षा नहीं करेगा और अमेरिका ने इराक़ के ख़िलाफ़ “इच्छुक गठबंधन” के तहत देशों को इकट्ठा किया.

युद्ध का समर्थन किसने किया?

गठबंधन के 30 देशों में से ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और पोलैंड ने हमले में भाग लिया. हमले में ब्रिटेन ने 45 हजार, ऑस्ट्रेलिया ने 2 हजार और पोलैंड ने 194 लोगों का विशेष सैन्य दल भेजा था.

अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य गठबंधन को स्पेन और इटली ने राजनयिक समर्थन दिया. इसके साथ-साथ कई पूर्वी यूरोपीय देशों के “विलनियस ग्रुप” ने भी गठबंधन को समर्थन दिया. समर्थन देने वाले देशों का मानना था कि इराक़ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का उल्लंघन कर रहा था.

अमेरिका और ब्रिटेन ने इराक़ पर क्या आरोप लगाए?

अमेरिकी विदेश मंत्री कॉलिन पॉवेल ने 2003 में संयुक्त राष्ट्र को बताया कि जैविक हथियारों के निर्माण के लिए इराक़ में “मोबाइल लैब” थीं.

हालांकि, साल 2004 में उन्होंने स्वीकार किया कि इसके सबूत से “प्रतीत नहीं होता …कि वह ठोस है.”

ब्रिटेन सरकार ने एक खुफ़िया डोजियर को सार्वजनिक किया जिसमें दावा किया गया था कि इराक़ी मिसाइलों को 45 मिनट के भीतर पूर्वी भूमध्य सागर में ब्रिटेन के लक्ष्यों को हिट करने के लिए तैयार किया जा सकता है.

ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने कहा था कि यह “संदेह से परे” था कि सद्दाम हुसैन सामूहिक विनाश के हथियार का उत्पादन जारी रखे हुए थे.

दोनों देशों ने दो इराक़ी दोषियों के दावों पर काफ़ी ज़्यादा भरोसा किया. इनमें से एक थे रासायनिक इंजीनियर रफ़ीद अहमद अलवान अल-जनाबी और दूसरे थे खुफ़िया अधिकारी मेजर मुहम्मद हरिथ.

दोनों का दावा था कि उन्हें इराक़ में सामूहिक विनाश के हथियारों की प्रत्यक्ष जानकारी थी.

युद्ध का समर्थन करने से किसने किया था इनकार?

अमेरिका के दो पड़ोसी देश कनाडा और मैक्सिको ने इसका समर्थन करने से इनकार कर दिया था. यूरोप में अमेरिका के मुख्य सहयोगी जर्मनी और फ्रांस ने भी समर्थन देने से इनकार कर दिया था.

फ्रांसीसी विदेश मंत्री डोमिनिक द विलेपिन ने कहा कि सैन्य हस्तक्षेप “सबसे खराब संभव समाधान” होगा.

नाटो सदस्य और इराक़ के पड़ोसी तुर्की ने अमेरिका और सहयोगी देशों को अपने एयरबेस का इस्तेमाल करने देने से मना कर दिया था.

लंदन एसओएएस यूनिवर्सिटी में मध्य-पूर्व राजनीति के विशेषज्ञ प्रोफेसर गिल्बर्ट अचकर कहते हैं, “खाड़ी अरब देशों ने योजना को सिरफिरी योजना माना था.”

युद्ध में क्या हुआ ?

20 मार्च 2003 सुबह में ऑपरेशन इराक़ी फ्रीडम, 2 लाख 95 हजार अमेरिकी और सहयोगी देशों के सैनिकों के साथ शुरू किया गया. ऑपरेशन के तहत कुवैत के साथ इराक़ की सीमा पर हमला किया गया.

देश के उत्तर में कुर्दिश पेशमर्गा मिलिशिया के 70 हजार लड़ाके इराक़ी सेना की तरफ़ से लड़े. मई महीने तक इराक़ी सेना हार चुकी थी और सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटा दिया गया और मार दिया गया.

हालांकि सामूहिक विनाश के कोई हथियार इराक़ में नहीं मिले.

साल 2004 में इराक़ एक सांप्रदायिक विद्रोह से घिर चुका था. कुछ सालों के बाद इराक़ के सुन्नी और शिया मुस्लिम गुटों के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया.

2011 में इराक़ से अमेरिकी सेना वापस आई. यह अनुमान लगाया गया है कि 2003 और 2011 के बीच युद्ध संबंधित वजहों से इराक़ में 4 लाख 61 हजार लोग मारे गए थे और युद्ध में 3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का ख़र्चा आया था.

लंदन में रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज इंस्टीट्यूट थिंक टैंक के महानिदेशक डॉ कैरिन वॉन हिप्पल कहते हैं, “अमेरिका ने इस युद्ध से बहुत अधिक विश्वसनीयता खो दी है.”

“आप अभी भी बीस साल बाद लोगों को यह कहते हुए सुनते हैं कि हम अमेरिकी खुफ़िया जानकारी पर विश्वास क्यों करना चाहिए?”

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