समलैंगिक विवाह के ख़िलाफ़ एक हुए धार्मिक नेता, सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी

Hindi New Delhi

DMT : नई दिल्ली : (04 अप्रैल 2023) : –

सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को मान्यता देने वाली याचिकाओं के विरोध में धार्मिक संगठन एक हो गए हैं.

समलैंगिक विवाह के ख़िलाफ़ जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी डाल कर कहा है कि शादी का मूलभूत ढाँचा ही एक महिला और एक पुरुष पर आधारित है.

इन धार्मिक संगठनों का कहना है समलैंगिक विवाह अप्राकृतिक हैं. हालाँकि समलैंगिक अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों का कहना है कि उन्हें भी कुदरत ने ही बनाया है और वे अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ते रहेंगे.

जमीयत उलेमा-ए-हिंद के सचिव नियाज़ अहमद फ़ारूक़ी बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, ”शादी का मक़सद एक परिवार के ढाँचे को स्थापित करना है. अगर इसमे दो विपरीत लिंग की अवधारणा को ख़त्म कर दिया जाता है, तो शादी की संकल्पना ही समाप्त हो जाएगी.”इसी बात को आगे बढ़ाते हुए केरल कैथोलिक बिशप्स काउंसिल के प्रवक्ता फ़ादर जैकब पालाकपिली कोच्ची से फ़ोन पर बातचीत में कहते हैं, “पारंपरिक रूप से समझा जाए तो शादी में दो वयस्क महिला और पुरुष एक साथ रहने की सहमति देते हैं. दो महिला या दो पुरुषों के बीच शादी को नहीं माना जा सकता क्योंकि प्रकृति ही स्वीकृति नहीं देती.”

वे कहते हैं, ”प्रकृति को देखिए पक्षी, जानवर या मछलियों के बीच भी विपरीत लिंग के साथ संबंध बनता है वैसे ही महिला और पुरुष मिलते हैं ताकि प्रजनन हो सके, पीढ़ियाँ आगे बढ़ सकें. लेकिन अगर समलैंगिक शादी करते हैं, तो कैसे संभव होगा? इसलिए इसे वैध जीवन के प्रकार के तौर पर कैसे स्वीकार किया जा सकता है.”

उनके अनुसार, ”बाइबल कहता है कि ईश्वर ने महिला और पुरुष को बनाया और वे शादी के बंधन में बंधे.”

फ़ादर जैकब पालाकपिली ने बताया कि अभी उनके समुदाय ने इस मामले के ख़िलाफ़ कोर्ट में याचिका डालने को लेकर कोई सहमति नहीं बनाई है, लेकिन भारतीय समाज इसे स्वीकार नहीं कर सकता और उन्हें भी समलैंगिक विवाह स्वीकार्य नहीं हैं.

संवैधानिक पीठ के समक्ष मामला

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने वाली याचिकाओं को संवैधानिक पीठ को सौंप दिया था.

इन याचिकाओं पर सुनवाई कर रही तीन सदस्यीय पीठ ने इसे एक मौलिक मुद्दा बताया और कहा था, ”हमारा विचार है कि पाँच जजों की पीठ के समक्ष संविधान के अनुच्छेद 145(3) के आलोक में समाधान निकालने के लिए दिया जाना उचित होगा. इसलिए हम इस मुद्दे को संवैधानिक पीठ के सामने रखने का निर्देश देते हैं.”

इस मामले की सुनवाई 18 अप्रैल को होगी.

इस सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की तरफ से वरिष्ठ वकील नीरज किशन कौल ने बहस के दौरान कहा था कि समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के लिए विशेष विवाह अधिनियम को सामंजस्यपूर्ण रूप से समझा जा सकता है या पीठ नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (जिसमें समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया गया था) के फ़ैसले पर भरोसा कर सकती है.

उन्होंने बहस के दौरान कहा कि विशेष विवाह अधिनियम जेंडर न्यूट्रल शब्दों का इस्तेमाल करता है, जिसकी धारा पाँच में कहा गया है, ”इस अधिनियम के तहत किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच विवाह हो सकता है.”

इससे पहले केंद्र सरकार ने एक हलफ़नामे में समलैंगिक विवाह को मान्यता देने वाली याचिका का विरोध किया था.

केंद्र सरकार का कहना था कि विपरीत लिंग के लोगों के बीच संबंध भारत में विवाह की अवधारणा और मान्यता में सामाजिक, सांस्कृतिक और क़ानूनी तौर पर शामिल है और इसे न्यायिक व्याख्या के ज़रिए कमज़ोर या उसके साथ छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता है.

वहीं राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने कहा था कि संघ केंद्र सरकार के विचार से सहमत है.

उन्होंने हरियाणा में हुई तीन दिन की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक के आख़िरी दिन कहा था- मैंने रिकॉर्ड पर ये पहले भी कहा है कि आप किसी के साथ भी रह सकते है लेकिन हिंदू जीवन शास्त्र में शादी एक संस्कार है. ये केवल आनंद का यंत्र नहीं है, न ही ये कॉन्ट्रेक्ट है. शादी के संस्कार का मतलब दो व्यक्ति एक दूसरे से शादी करते हैं और साथ रहते हैं, लेकिन केवल अपने लिए नहीं. वो एक परिवार की भी शुरुआत करते हैं.

साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था.

समलैंगिक विवाह को मंज़ूरी देने की मांग से संबंधित कई याचिकाएँ दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल की गई थीं.

इन याचिकाओं में हिंदू विवाह अधिनियम 1955, विशेष विवाह अधिनियम 1954 और विदेशी विवाह अधिनियम 1969 के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग की गई है.

धार्मिक संगठनों की राय

नियाज़ अहमद फ़ारूक़ी कहते हैं, ”भारत में अलग-अलग मजहब को मानने वाले समाज हैं, उन सभी धर्मों में शादी की यही अवधारणा है. समलैंगिता एक पश्चिमी सोच है और हम क्यों इसे फ़ॉलो करें. इस्लाम में समलैंगिक विवाह की कोई गुंजाइश नहीं है.”

उनके अनुसार, ”दुनिया में शादी या परिवार की धारणा को ही समाप्त करने की कोशिश हो रही है. पहले संयुक्त परिवार थे, फिर एकल परिवार की संकल्पना ज़ोर पकड़ने लगी. अब लिविंग रिलेशन की बात होती है, तो क्या इन विचारों के आगे समर्पण कर देना चाहिए? जैसे संविधान को बदला नहीं जा सकता, वैसे ही शादी के मूलभूत विचार को भी बदला नहीं जा सकता है.”

मुनि धर्म रक्षा समिति के राष्ट्रीय संयोजक रवींद्र जैन भोपाल से बताते हैं कि समाचार पत्रों में जब से समलैंगिक विवाह का मुद्दा ज़ोर पकड़ने लगा है, तब से धर्म सभाओं में मुनि और संत ये प्रवचन कर रहे हैं कि समलैंगिता प्रकृति के विरूद्ध है और उसके ख़िलाफ़ नहीं जाना है.

वे बताते हैं, ”हमारे संत, महात्मा ये जनजगारण कर रहे हैं कि विवाह केवल महिला और पुरुष में होता है. यहाँ प्रचार-प्रसार किया जा रहा है क्योंकि जो ज्वलंत मुद्दे होते हैं वो मुद्दे भी मुनि जन अपनी सभाओं में उठाते हैं.”

अकाल तख़्त के पूर्व जत्थेदार ज्ञानी गुरूबचन सिंह बीबीसी से बातचीत में कहते हैं कि गुरूग्रंथ साहिब में नर और मादा दोनों को एक जोड़ी की तरह देखा गया है.

उनके अनुसार, ”गुरूग्रंथ में लिखा है कि परमेश्वर एक पति है और सब स्त्री रूप माने जाते हैं. वहीं गुरूग्रंथ में जहाँ भी शादी का ज़िक्र आता है, वहाँ स्त्री और पुरूष की शादी की ही बात की गई है. इससे ये पता लगता है कि शादी केवल पुरुष और महिला के बीच हो सकती है और यही कुदरत का विधान है.”

हालाँकि समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले हरीश अय्यर हँसते हुए कहते हैं कि हमारे आंदोलन ने सभी मजहबों को हमारे ख़िलाफ जोड़ दिया है.

हरीश अय्यर कहते हैं, ”आप हमारे संबंध को कुदरत के विरूद्ध बताते हैं. आप ये मानते हैं कि कुदरत की रचना अल्लाह, भगवान, ईसा मसीह ने की है तो हमें भी कुदरत ने ही बनाया है. और अगर आपकी नाराज़गी हमसे से है, तो वो केवल हमसे नहीं बल्कि भगवान, ईसा मसीह और अल्लाह से है.”

वहीं आरएसएस के संबंधित एक मैगज़ीन द ऑर्गनाइजर में छपे एक लेख में संघ की श्रमिक शाखा, भारतीय मज़दूर संघ (बीएमएस) के पूर्व अध्यक्ष सीके साजी नारायण ने दावा किया कि भारत के धर्मशास्त्र इस तरह के यौन व्यवहार को अपराध मानते हैं. साथ ही उन्होंने समलैंगिक संबंधों को राक्षसों से जोड़ते हुए इसे अप्राकृतिक बताया था.

हालाँकि ये मामला अब सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच के समक्ष विचाराधीन है. हालाँकि इसमें एक पक्ष ये भी है कि यहाँ मानवाधिकारों को भी देखा जाना चाहिए और इस मामले पर कोर्ट को नहीं, बल्कि संसद में इस पर फ़ैसला किया जाना चाहिए.

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