अर्दोआन का इस्लामिक दुनिया का नेतृत्व करने का सपना पूरा हो पाएगा?

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DMT : तुर्की  : (01 जून 2023) : –

एक बार फिर चुनाव जीत कर अर्दोआन तुर्की के राष्ट्रपति बन गए हैं.

2003 में पहली बार प्रधानमंत्री और फिर 2014 में राष्ट्रपति बने अर्दोआन बीते 20 सालों से तुर्की की सत्ता पर काबिज़ रहे हैं.

जानकारों की मानें तो इस साल का राष्ट्रपति चुनाव उनके लिए बेहद मुश्किल था.

आलोचकों का कहना है कि उनकी कट्टरपंथी आर्थिक नीतियों के कारण देश में महंगाई आसमान छू रही है.

हाल में आए दो शक्तिशाली भूकंपों में हुए भारी नुक़सान के बाद भी उन पर देर में कार्रवाई करने का आरोप है.

इस भूकंप में 50 हज़ार से अधिक लोगों की जान गई थी.

इन चुनावों में पहली बार उनके ख़िलाफ़ विपक्ष लामबंद हुआ और कमाल कलचदारलू उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में मैदान में उतरे.

लेकिन दूसरे चरण में अर्दोआन को 52.2 फ़ीसदी वोट मिले और कलचदारलू को 47.8 फ़ीसदी मतों के साथ दूसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा.

यूरोप और मध्यपूर्व का ब्रिज

तुर्की के उत्तर में काला सागर है जिसके ज़रिए वो रूस, यूक्रेन, रोमानिया और बुल्गारिया से जुड़ा है.

वहीं दक्षिण में उसकी सीमा भूमध्यसागर पर ख़त्म होती है, जिसके दूसरे पार मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया है.

उसके दक्षिण में सीरिया और इसराइल है और उत्तर में उसकी सीमा उसे यूरोप से जोड़ती है.

तुर्की के उत्तर में काला सागर है जिसके ज़रिए वो रूस, यूक्रेन, रोमानिया और बुल्गारिया से जुड़ा है. वहीं दक्षिण में उसकी सीमा भूमध्यसागर पर ख़त्म होती है, जिसके दूसरे पार मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया है. उसके दक्षिण में सीरिया और इसराइल है.

यूरोप मामलों की बीबीसी संवाददाता कात्या एडलर के अनुसार तुर्की की अहम भोगौलिक स्थिति के कारण पश्चिमी देश उसे यूरोप और मध्यपूर्व के बीच के ब्रिज के तौर पर देखते रहे हैं.

हालांकि हाल के वक्त में, ख़ासकर रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद तुर्की का झुकाव रूस की तरफ बढ़ता दिखा है जिससे पश्चिमी मुल्कों और तुर्की के बीच भी तनाव पैदा हुआ है.

लेकिन मध्य पूर्व के साथ भी उसके रिश्ते हमेशा दोस्ताना रहे ऐसा नहीं है. बीते तीन दशक में उसके रिश्ते कइयों के साथ बिगड़े और कइयों की तरफ उन्होंने दोस्ती का हाथ बढ़ाया.

राजनीति में एंट्री लेने के बाद से अर्दोआन को देखें तो उनका झुकाव कभी सेकुलर, आधुनिक और थोड़ा बहुत गणतंत्रिक राष्ट्र की तरफ दिखता है.

लेकिन धीरे-धीरे उनका झुकाव इस्लामिक कट्टरवाद की तरफ होने लगा.

दो दशक पहले सरकारी सेवा में महिलाओं के हेडस्कार्फ़ पहनने को लेकर पाबंदी हटाने का पक्ष लेने वाले अर्दोआन सख्ती से इस्लामिक मूल्यों को लागू न करने का भी विरोध करते दिखे हैं.

हाल के सालों में उन्होंने कहा है कि “मुसलमान परिवारों को परिवार नियोजन नहीं अपनाना चाहिए.”

उन्होंने फ़ेमिन्सटों की आलोचना करते हुए ये भी कहा कि महिला और पुरुष बराबर नहीं हो सकते.

जुलाई 2020 में ईसाई समुदाय को नाराज़ करते हुए उन्होंने इस्तांबुल की जानेमाने हागिया सोफ़िया म्यूज़ियम को मस्जिद बनाने की घोषणा की. कथैड्रल के रूप में बनाई गई इस इमारत को ऑटोमन साम्राज्य के तुर्कों ने इसे मस्जिद में कंवर्ट कर दिया था. बाद में मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क ने इसे म्यूज़ियम बना दिया.अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो तुर्की नेटो का सदस्य है लेकिन उसे अब तक यूरोप में वो जगह नहीं मिल पाई है जिसकी उसे उम्मीद थी. वो यूरोपीय संघ में शामिल होना चाहता है, लेकिन उसका ये सपना अब तक पूरा नहीं हो सका है.

रूस और यूक्रेन के बीच साल भर से अधिक वक्त से जारी युद्ध के कारण पैदा हुए अनाज संकट को सुलझाने में अर्दोआन ने अहम भूमिका निभाई.

संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में उन्होंने अनाज समझौता कराया और उसके जहाज़ों की सुरक्षा में यूक्रेन के बंदरगाहों से अनाज बाहर लाया गया.

2013 में मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद मोर्सी के तख़्तापलट के बाद दोनों मुल्कों के बीच रिश्ते ख़त्म हो गए थे. बाद में दोनों के बीच भूमध्यसागरीय इलाक़े में कच्चा तेल निकालने में सीमा लांघने को लेकर विवाद तो रहा ही, लीबिया में दोनों ने विरोधी पक्षों का समर्थन किया था.

एक बार फिर से चुनाव जीतने के बाद क्या अर्दोआन तुर्की के अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों को दोबारा परिभाषित करेंगे?

मध्यपूर्व में क्या बदलेगा रुख़?

वो समझाते हैं, “जिस तरह की राजनीति वो करते रहे हैं उसमें वो अपने मुल्क के पुराने इतिहास को हक़ीक़त बनाना चाहते थे जो. ऐसा करने के लिए उन्हें अरब दुनिया में अपने पैर सख्ती से जमाने थे और ख़ुद को मुसलमान मुल्कों का नेता बताना ज़रूरी था. लेकिन इससे वो पश्चिमी मुल्कों के विरोधी खेमे में खड़े दिख रहे थे.”

उन्होंने क़रीब एक दशक तक इस्लाम, गणतंत्र और आर्थिक विकास की दिशा में काफी काम किया, लेकिन फिर अरब क्रांति के बाद उनकी राजनीति बदलने लगी.

डॉक्टर फज़्ज़ुर रहमान कहते हैं, “उस वक्त उन्होंने तुर्की में इस्लामिक गणतंत्र का एक नया मॉडल पेश करने की कोशिश की जिससे देश में बदलाव आया और अर्थव्यवस्था भी तेज़ी से आगे बढ़ी. उन्होंने अरब मुल्कों के सामने भी ये मॉडल पेश करने की कोशिश की. उन्होंने ट्यूनीशिया, लीबिया और मिस्र का दौरा किया. लेकिन इसका असर उल्टा पड़ा और अरब दुनिया के साथ उनके रिश्ते बिगड़ने लगे.”

अरब स्प्रिंग के दौरान तुर्की ने चुप्पी साधे रखी.

डॉक्टर फज़्ज़ुर रहमान कहते हैं, “उन्हें देश के भीतर काफी समर्थन मिला लेकिन 2018 आते-आते मध्यपूर्व में एक के बाद उसके हाथ से उसके दोस्त फिसलते गए और केवल क़तर उसका दोस्त रह गया था. इस वक्त तक देश की अर्थव्यवस्था भी लड़खड़ाने लगी और उनके लिए मुश्किलें बढ़ने लगीं क्योंकि उनके विरोधी अब मुखर होने लगे.”

वो कहती हैं कि बीते कुछ दशकों में मध्यपूर्व के साथ तुर्की के इतिहास का रिश्ता ‘लव-हेट’ का रहा है.

वो कहती हैं, “वो खुद को यूरोपीय हिस्सा के कम और मध्यपूर्व का हिस्सा अधिक मानता है. अर्दोआन और उनकी पार्टी की इच्छा थी कि तुर्की को इस इलाक़े में ऑटोमन साम्राज्य के उत्तराधिकारी के रुप देखा जाए क्योंकि ऐतिहासिक तौर पर तुर्की मुस्लिम दुनिया का नेतृत्व करता रहा है. तुर्की चाहता था कि अहम मुद्दों पर उसे मध्यपूर्व का नेतृत्व लेने वाले मुल्क के तौर पर देखा जाए. लेकिन कई मुद्दों पर उसने जिस तरह का स्टैंड लिया उससे उसके कई विरोधी खड़े हो गए, उसके लिए हालात पहले से अलग हो गए.”

डॉक्टर फज़्ज़ुर रहमान कहते हैं “अर्दोआन ने अब फिर से अरब मुल्कों का रुख़ किया. वो शायद समझने लगे हैं कि उन्हें अर्थव्यवस्था पर ध्यान देना है और दुनिया के इस इलाक़े में उन्हें अपने रिश्ते फिर से बेहतर बनाने हैं.”

वो कहते हैं कि “उन्हें ये भी लग रहा है कि यूरोप में उन्हें जिस जगह की उम्मीद थी वो उन्हें मिल नहीं पाई है. ऐसे वक्त जब पूरे दुनिया की राजनीति बदल रही है और वो अलग-थलग नहीं रह सकते इसलिए उसे अरब मुल्कों और नॉन-अरब (रूस और चीन) के साथ अपने रिश्ते बेहतर करेगा. ये फिलहाल तुर्की की ज़रूरत है.”

वहीं प्रोफ़ेसर सुजाता भी इस बात से इत्तफ़ाक़ रखती हैं.

वो कहती हैं, “2005-07 के बाद तुर्की और इस पूरे इलाक़े में जो जटिल स्थिति पैदा हुई है उसमें आप ये मान सकते हैं कि तुर्की अब आने वाले वक्त में मुद्दों पर व्यापक रणनीति रखने की बजाय पहले स्थिति को देखेगा. वो हालात के अनुसार अपनी रणनीति तय करेगा.”

“मुझे लगता है कि आने वाले वक्त में वो कुर्दों के ख़िलाफ़ आक्रामक नीति तो अपनाएगा, लेकिन मध्यपूर्व में भी रिश्ते पहले बेहतर करेगा, हालांकि यहां उसके रिश्ते पहले की तरह जटिल बने रह सकते हैं. रही चीन और रूस की बात को हाल के वक्त में उसके रिश्ते दोनों के साथ बेहतर हुए हैं (तुर्की चीन के बेल्ट एंड रोड परियोजना में शामिल है, रूस के साथ उसके व्यापारिक रिश्ते मज़बूत हैं).”

वो कहती हैं, “तुर्की आर्थिक मुश्किलों से जूझ ज़रूर रहा है लेकिन वो ख़ुद को दुनिया की एक बड़ी शक्ति के रूप में भी देखता है. इसलिए वो रूस-यूक्रेन जैसे मामलों में भी अपनी आवाज़ उठाता रहा है और ज़रूरत पड़ने पर अपनी जगह बनाई है. आने वाले वक्त में भी अपनी इस पहचान को बनाए रखने के लिए वो ऐसा करता रहेगा.”

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