आनंद मोहन के ‘अपराध’ और बिहार की राजनीति में उनके उतार-चढ़ाव की कहानी

Bihar Hindi

DMT : पटना  : (26 अप्रैल 2023) : –

  • पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह की रिहाई को लेकर बिहार की सियासत में उबाल
  • गोपालगंज के तत्कालीन डीएम की हत्या के मामले में हुई थी उम्रक़ैद की सज़ा
  • नीतीश सरकार ने जेल मैनुअल में किया संशोधन, आनंद समेत 27 की रिहाई
  • जेपी आंदोलन से बिहार में बनी पहचान,1990 में विधायक, 1993 में बनाई पार्टी
  • कभी रॉबिनहुड‘ की छवि बनाने की कोशिश, पत्नी भी रही सांसद, बेटा है विधायक
  • पढ़िए बीजेपी से लेकर मायावती तक के लिए आनंद मोहन क्यों बन गए हैं अहम मुद्दा
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बिहार में इस समय पूर्व सांसद और विधायक आनंद मोहन सिंह को लेकर राज्य सरकार का निर्णय सुर्ख़ियों में हैं.

गोपालगंज के डीएम जी कृष्णैया की हत्या के मामले में आनंद मोहन दोषी ठहराए गए थे और उन्हें सुप्रीम कोर्ट से भी राहत नहीं मिली थी.

लेकिन अब बिहार की नीतीश सरकार ने जेल मैनुअल में संशोधन करते हुए आनंद मोहन समेत 27 लोगों की रिहाई के आदेश दिए हैं.

बाहुबली नेता आनंद मोहन को इस मामले में उम्र क़ैद की सज़ा मिली थी.

वह तारीख़ थी 5 दिसंबर 1994. उस दिन बिहार के ही गोपालगंज के ज़िलाधिकारी की हत्या बीच सड़क पर कर दी गई थी.

आनंद मोहन पर उस दिन भीड़ को भड़काने का आरोप लगा था.

इस मामले में आनंद मोहन को निचली अदालत ने फ़ांसी की सज़ा सुनाई थी, जिसे पटना हाईकोर्ट ने उम्र क़ैद में बदल दिया था.

आनंद मोहन राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट तक गए थे, लेकिन उन्हें इस मामले में कोई राहत नहीं मिली.

आनंद मोहन विधायक और सांसद रह चुके भारत के पहले ऐसे नेता थे जिन्हें फ़ांसी की सज़ा सुनाई गई थी.

कौन हैं आनंद मोहन

बिहार के सहरसा ज़िले के पचगछिया गाँव के रहने वाले आनंद मोहन ने छात्र जीवन में ही 1974 के जेपी आंदोलन के दौरान राजपूतों के एक बड़े चेहरे के तौर पर पहचान बना ली थी.

आनंद मोहन ने साल 1990 में जनता दल के टिकट पर महिषी से विधानसभा का चुनाव जीता था.

इस समय तक आनंद मोहन कोसी के इलाक़े में एक बाहुबली राजपूत नेता के तौर पर सुर्ख़ियों में रहने लगे थे.

आनंद मोहन बिहार में अख़बारों और पत्र पत्रिकाओं में छपी तस्वीरों में कभी घोड़े की सवारी करते, तो कभी बंदूक के साथ दिखते थे.

उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का भी क़रीबी माना जाता था जो उनकी ही जाति के थे.

साल 1980 और 1990 के दशक में बिहार के शिवहर और इसके आसपास के बड़े इलाक़े में रधुनाथ झा एक बड़े क़द्दावर नेता माने जाते थे.

रधुनाथ झा बिहार सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं. वो कई बार विधायक और लोकसभा सांसद भी रहे हैं.रघुनाथ झा के पोते नवनीत झा के मुताबिक़, “साल 1990 में रघुनाथ झा जनता दल के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष थे और रघुनाथ झा ने ही आनंद मोहन को 1990 में महिषी सीट से विधानसभा का टिकट दिलवाया था.

1993 में बनाई अलग पार्टी

ये बिहार समेत पूरे उत्तर भारत में राजनीतिक तौर पर उथल-पुथल वाला दौर था.

एक तरफ बीजेपी देशभर में राम मंदिर आंदोलन को लेकर कांग्रेस की राजनीति को चुनौती दे रही थी, वहीं वीपी सिंह के प्रधानमंत्री रहते भारत में मंडल आयोग की सिफ़ारिशों और आरक्षण को लेकर हंगामा हो रहा था.

बिहार में जनता दल ने उस समय मंडल आयोग की सिफ़ारिशों का स्वागत किया था. यहाँ शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान जैसे नेता मंडल के समर्थन में खड़े थे.

लेकिन आनंद मोहन राजपूत बिरादरी से थे और आरक्षण विरोधी माने जाते थे.

इसलिए उन्होंने साल 1993 में जनता दल से अलग होकर ‘बिहार पीपुल्स पार्टी’ बना ली.

उस दौर में लालू प्रसाद यादव ऊँची जाति के विरोधी नेताओं में अपनी ख़ास जगह बना चुके थे और उनके भाषणों की भी ख़ूब चर्चा होती थी.

जबकि कोसी-सीमांचल के ही एक और बाहुबली नेता पप्पू यादव आरक्षण के समर्थन में थे.

इन दोनों नेताओं के बीचे की दुश्मनी की ख़बरें उस वक़्त बिहार में अक्सर सुर्ख़ियाँ बनती थीं.

रॉबिनहुड’ की छवि

इलाक़े में इन दोनों नेताओं ने ख़ुद की रॉबिनहुड वाली छवि बनाई थी.

कहते हैं कि जब दोनों नेता कहीं जाते थे, तो किसका काफ़िला ज़्यादा लंबा होगा, इस पर भी मुक़ाबला होता था.

यह राजनीतिक दुश्मनी साल 1991 में बिहार की मधेपुरा सीट पर उपचुनाव के दौरान खुलकर सामने आई थी.

इस सीट पर उस समय जनता दल के बड़े नेता शरद यादव चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन आनंद मोहन उनके ख़िलाफ़ थे.

आरोपों के मुताबिक़ आनंद मोहन और पप्पू यादव के बीच की दुश्मनी में कई बार गोलीबारी तक हुई थी.

छोटन शुक्ला हत्याकांड

1990 के दशक की शुरुआत में बिहार में आरक्षण को लेकर बड़ी राजनीतिक गोलबंदी हो रही थी.

पुराने राजनीतिक दिग्गजों को चुनौती देने के लिए उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक बाहुबली और रॉबिनहुड वाली छवि के नेता भी राजनीति में आगे बढ़ने लगे थे.

इसी में एक नाम था मुज़फ़्फ़रपुर के छोटन शुक्ला का. छोटन शुक्ला भूमिहार बिरादरी के नेता और आनंद मोहन के क़रीबी थे.

आनंद मोहन की पार्टी से वो केसरिया सीट से चुनाव भी लड़ने वाले थे.

इसी दौरान 4 दिसंबर 1994 को मुज़फ़्फ़रपुर में छोटन शुक्ला की हत्या हो गई.

हालाँकि आज तक यह पता नहीं चल पाया है कि छोटन शुक्ला की हत्या किसने करवाई.

मुज़फ़्फ़रपुर के रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार संदीप कुमार कहते हैं, “माना जाता है कि बाद में बिहार में उत्तर प्रदेश के बाहुबली श्रीप्रकाश शुक्ला की एंट्री के पीछे छोटन शुक्ला की हत्या का बदला लेना भी एक कारण था.”

जी कृष्णैया की हत्या

छोटन शुक्ला की हत्या के दूसरे दिन यानी पाँच दिसंबर को उनके अंतिम संस्कार के दौरान ही आक्रोशित भीड़ ने आईएएस अधिकारी जी कृष्णैया पर हमला कर उनकी हत्या कर दी थी.

हालाँकि जी कृष्णैया गोपालगंज के डीएम थे और मुज़फ़्फ़रपुर से उनका सीधा कोई संबंध नहीं था.

संदीप कुमार बताते हैं, “जी कृष्णैया उस समय पटना से लौट रहे थे और इधर छोटन शुक्ला के शव को लेकर उनके समर्थक पटना-मुज़फ़्फ़रपुर हाइवे पर प्रदर्शन कर रहे थे. लाल बत्ती वाली सरकारी गाड़ी देखकर भीड़ ने उन पर हमला किया था.”

जी कृष्णैया की हत्या के आरोप में आनंद मोहन को 2007 में अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश ने फाँसी की सज़ा सुनाई थी.

हालाँकि बाद में पटना हाई कोर्ट ने दिसंबर 2008 में इस सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया था.

उसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में भी अपील की थी. लेकिन साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने भी पटना हाईकोर्ट की फ़ैसले को बरक़रार रखा.

राजनीतिक ताक़त

आनंद मोहन शिवहर से सांसद भी रहे हैं. उनकी पत्नी लवली आनंद भी वैशाली से सांसद रही हैं, जबकि उनके बेटे चेतन आनंद फ़िलहाल शिवहर से आरजेडी के विधायक हैं.

कुछ ही महीने पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी अपनी एक सभा में यह संकेत दे चुके थे कि उनकी सरकार आनंद मोहन की रिहाई की कोशिश में लगी हुई है और इसके लिए काम कर रही है.

अब आनंद मोहन की रिहाई को लेकर सवाल भी उठ रहे हैं. इस मामले पर आनंद मोहन ने गुजरात में बिलकिस बानो के साथ गैंगरेप के दोषियों की रिहाई का मुद्दा उठाया.

उन्होंने कहा, “गुजरात में भी कुछ फ़ैसला हुआ है जाकर देख लीजिए. माला पहनाकर कुछ लोगों को छोड़ा गया है, क्या वो भी आरजेडी और नीतीश कुमार के दबाव में हुआ है?”

बीजेपी के नेता इस मामले को लेकर कंफ़्यूज लग रहे हैं. कुछ नेता जहाँ नीतीश कुमार सरकार के फै़सले की आलोचना कर रहे हैं, वहीं कुछ नेता आनंद मोहन के मामले को अलग देख रहे हैं.

बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने तो नीतीश कुमार के जेल मैनुअल में बदलाव को लेकर उनकी कड़ी आलोचना की है.

उन्होंने आरोप लगाया है कि बिहार की महागठबंधन सरकार ने आनंद मोहन के बहाने अपने एमवाई समीकरण को साधने की कोशिश की है और कई बड़े अपराधियों को जेल से बाहर करने का रास्ता निकाला है.

कुछ ऐसा ही बयान केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने दिया है और भी आनंद मोहन पर नहीं, बल्कि बाक़ी कई अपराधियों को लेकर सवाल उठा रहे हैं, जिन्हें बदले हुए नियमों का लाभ मिल रहा है.

आनंद मोहन की रिहाई पर बीजेपी की संभल कर आ रही प्रतिक्रिया के पीछे भी एक ख़ास वजह मानी जा रही है.

आनंद मोहन बिहार में राजपूत समुदाय के बड़े नेता माने जाते हैं. उनका असर शिवहर ही नहीं, बल्कि आसपास के इलाक़ों तक हो सकता है.

वरिष्ठ पत्रकार नवीन उपाध्याय बताते हैं, “आनंद मोहन की रिहाई पूरी तरह से एक राजनीतिक फ़ैसला है. साल 2021 में ही जेल में उनके 14 साल पूरे हो गए थे, लेकिन उस समय नीतीश कुमार ने राजपूत लॉबी की तरफ़ से रिहाई की मांग को ख़ारिज़ कर दिया था.”

नवीन उपाध्याय के मुताबिक़ बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव में 28 राजपूत उम्मीदवार विधायक जीतकर आए थे, जिसका बड़ा हिस्सा एनडीए के खाते में गया था.

नवीन उपाध्याय कहते हैं, “बिहार में क़रीब चार फ़ीसदी वोटों के साथ राजपूत 40 विधासभा सीटों और आठ लोकसभा सीटों पर असर रखते हैं. इसलिए एनडीए से अलग होने के बाद नीतीश कुमार इस वोट बैंक में सेंध लगाना चाहते हैं.”

बिहार में शिवहर, सहरसा, वैशाली, औरंगाबाद और इनके आसपास के इलाक़ों में राजपूत वोटरों का बड़ा असर माना जाता है. आनंद मोहन जेल में रहकर चुनाव जीत गए थे, इसे राजपूत बिरादरी में उनका असर माना जाता है.

आनंद मोहन और उनकी पत्नी लवली आनंद का राजनीतिक सफ़र भी काफ़ी दिलचस्प रहा है. ये दोनों समय-समय पर जनता दल, समता पार्टी, बीजेपी, कांग्रेस, आरजेडी और समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ चुके हैं.

राजनीति के शुरुआती दिनों में आनंद मोहन और लवली आनंद भले ही चुनाव जीतने में सफल रहे, लेकिन बाद में वो लगातार चुनाव हारते रहे हैं.

आनंद मोहन पहली बार साल 1990 में सहरसा महिषी से जनता दल के टिकट पर विधायक बने.

साल 1996 में समता पार्टी के टिकट पर, जबकि साल 1998 में राष्ट्रीय जनता दल के टिकट पर शिवहर से सांसद बने.

उसके बाद उन्होंने 1999 में एनडीए की तरफ़ से शिवहर से लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए. जबकि साल 2004 में भी लोकसभा चुनाव में उनकी हार हुई.

जबिक आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद ने साल 1994 में बिहार की वैशाली सीट से लोकसभा चुनाव जीता.

उसके बाद वो कांग्रेस, सपा और हम से भी चुनाव लड़ चुकी हैं, लेकिन हर बार उनकी हार ही हुई है.

पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक और राजनीतिक मामलों के जानकार डीएम दिवाकर कहते हैं कि आज की राजनीति में कोई जाति कहीं एक जगह है, ऐसा नहीं है, अब हर जाति में राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ी है. अब आप ये नहीं कह सकते कि ये फलां जाति का नेता हैं और सब वोटर उन्हीं के साथ हैं.

हालाँकि डीएम दिवाकर मानते हैं, “राजपूतों का कुछ वोट आरजेडी के साथ है ही, लेकिन रघुवंश प्रसाद सिंह अब नहीं रहे. वहीं जगदानंद सिंह के बटे से आरजेडी की ठीक से बनती नहीं है, ऐसे में महागठबंधन को एक राजपूत चेहरा चाहिए था और इसी बहाने राजपूतों पर एक उपकार भी हो जाएगा.”

डीएम दिवाकर कहते हैं, “उदाहरण के लिए यादवों के सबसे बड़े नेता लालू यादव हैं, लेकिर रंजन यादव, रामकृपाल यादव, नंद किशोर यादव, नित्यानंद राय इन सबको जहाँ जगह मिली, वहाँ खप गए हैं. इसी तरह सभी जातियों में अवसरवादिता है, जहाँ जिसको जगह मिल जाए.”

दलित वोटों पर असर

नीतीश सरकार का संदेश है कि राजपूत बिरादरी के लिए उन्होंने क़ानून बदलकर बड़ा काम किया है.

लेकिन क्या इससे उनके दलित वोटों पर असर पड़ सकता है, क्योंकि जी कृष्णैया ख़ुद दलित थे?

बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने भी इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है और नीतीश सरकार के फ़ैसले को दलित विरोधी कहा है.

उन्होंने कहा, “आनंद मोहन बिहार में कई सरकारों की मजबूरी रहे हैं, लेकिन गोपालगंज के तत्कालीन डीएम श्री कृष्णैया की हत्या मामले को लेकर नीतीश सरकार का यह दलित विरोधी व अपराध समर्थक कार्य से देश भर के दलित समाज में काफ़ी रोष है. चाहे कुछ मजबूरी हो किंतु बिहार सरकार इस पर जरूर पुनर्विचार करे.”

डीएम दिवाकर कहते हैं, “आनंद मोहन की रिहाई का दोनों असर है. लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि कौन जनता को कैसे समझा पाता है. एमवाई समीकरण को आज भी मज़बूत माना जाता है, लेकिन ओवैसी आ जाते हैं और अपना असर छोड़ते हैं. आज का चुनावी गणित किसे कहाँ ले जाएगा कह पाना मुश्किल है.”

वहीं नवीन उपाध्याय कहते हैं, “दलित मूल रूप से चिराग पासवान की पार्टी के वोटर हैं. नीतीश के साथ महादलित वोट हैं, क्योंकि यह वोट बैंक उन्होंने ख़ुद तैयार किया है. महागठबंधन को अब ज़रूरत थी राजपूत वोटों की और मेरा मानना है कि बिहार की राजनीति पर इसका असर पड़ेगा.”

महागठबंधन की साझेदार कांग्रेस पार्टी कर्नाटक में विधासभा चुनाव लड़ रही है, ऐसे में यह भी सवाल उठ रहे हैं कि कांग्रेस को इस मुद्दे पर कर्नाटक में नुक़सान हो सकता है.

नवीन उपाध्याय कहते हैं, “बीजेपी इस मुद्दे को बहुत आक्रमक तरीक़े से नहीं उठा पाएगी क्योंकि बिलकिस बानो के केस में गुजरात में इससे बड़ा जघन्य अपराध हुआ था. जबकि मायावती के पास कर्नाटक में कोई राजनीतिक ज़मीन नहीं है और यह मामला भी अब काफ़ी पुराना हो चुका है, इतने पुराने मामले का दूसरे किसी राज्य में कोई असर होगा ऐसा नहीं लगता है.”

डीएम दिवाकर भी इस बात पर सहमत दिखते हैं कि बिहार का यह मुद्दा कर्नाटक तक नहीं पहुँच सकता है. कर्नाटक बिहार से बहुत दूर है और वहाँ की राजनीति खड़गे और देवगौड़ा जैसे नेताओं के हाथ में है.

हालाँकि कांग्रेस के दलित नेता पीएल पुनिया ने इस मामले पर नीतीश सरकार को घेरा है.

उन्होंने कहा है कि नीतीश कुमार सरकार के फ़ैसले से ग़लत संदेश जा रहा है.रघुनाथ झा के पोते नवनीत झा के मुताबिक़, “कोसी और गंगा में पिछले 20 साल में बहुत पानी बहकर निकल चुका है. अब यह कहने की बात है कि आनंद मोहन का कितना असर होगा. सच्चाई इससे काफ़ी अलग भी हो सकती है.”

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