इस्लामिक दुनिया में एकजुटता के बीच क्या अलग-थलग पड़ रहा है भारत

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DMT : यूरोप  : (12 अप्रैल 2023) : –

जब भारत आज़ाद हुआ तो पश्चिम एशिया पर यूरोप और अमेरिका का ही दबदबा था.

पश्चिम एशिया में खाड़ी के इस्लामिक देशों के अलावा यूरोप और उत्तरी अफ़्रीका से लगे एशियाई देश आते हैं.

पश्चिम एशिया के सभी आज़ाद देश तब कम्युनिस्ट विरोधी और पश्चिम परस्त थे. ये सभी देश शीत युद्ध के दौरान अमेरिकी खेमे में थे. शीत युद्ध में जब जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत ने किसी खेमे में नहीं जाने का फ़ैसला किया तो पश्चिम की नाराज़गी साफ़ दिखी थी.

लेकिन अब इतिहास करवट बदल रहा है. 1979 में ईरान की इस्लामिक क्रांति अमेरिका के ख़िलाफ़ थी और इसी वजह से वह अपने इलाक़े में भी अलग-थलग रहा.

ईरान में इस्लामिक क्रांति के बाद सऊदी अरब से उसकी दूरी दुश्मनी के हद तक बढ़ती गई. ईरान के ख़िलाफ़ पश्चिम एशिया में अमेरिकी गठजोड़ में सऊदी अरब मुखर रूप से शामिल रहा. लेकिन अब पश्चिम एशिया में नई हलचल है.जो पश्चिम एशिया कम्युनिस्ट विरोधी था, उसी पश्चिम एशिया में कम्युनिस्ट देश चीन अपनी मौजूदगी मज़बूत कर रहा है. चीन ने सऊदी अरब और ईरान की दुश्मनी में दोस्ती का रंग भरने की सफल कोशिश की है. ईरान और सऊदी अरब राजनयिक रिश्ते बहाल करने जा रहे हैं. ऐसा लग रहा है कि पूरा पश्चिम एशिया अमेरिकी दबदबे से बाहर निकलता दिख रहा है.

बात केवल सऊदी अरब और ईरान तक सीमित नहीं है. इससे पहले भी बहुत कुछ ऐसा हो रहा था जो सामान्य नहीं था.

पिछले साल अप्रैल में तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन सऊदी अरब के दौरे पर गए थे और फिर जून में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस और प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन-सलमान तुर्की गए थे.

इससे पहले नवंबर 2021 में अबू धाबी के क्राउन प्रिंस और वर्तमान में यूएई के राष्ट्रपति शेख़ मोहम्मद बिन ज़ायद अल नाह्यान तुर्की गए थे और फ़रवरी 2022 में तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन ने यूएई का दौरा किया था.

यूएई और सऊदी अरब क्षेत्रीय संघर्ष में वैचारिक रूप से एक मंच पर थे जबकि तुर्की विरोधी पक्ष में था. 2010 में जब अरब स्प्रिंग शुरू हुआ तो अर्दोआन की मुस्लिम ब्रदरहुड समर्थक एके पार्टी ने पॉलिटिकल इस्लाम का समर्थन किया था.

अर्दोआन के इस रुख़ को खाड़ी में राजशाही व्यवस्था के लिए ख़तरे के रूप में देखा गया था. सऊदी और यूएई अर्दोआन के इस रुख़ से ख़फ़ा थे. ऐसे में क्षेत्रीय टकराव में यूएई और सऊदी अरब तुर्की के ख़िलाफ़ ही रहते थे.

तुर्की ने 2017 से 2021 तक क़तर के ख़िलाफ़ सऊदी और उससे सहयोगी देशों की नाकाबंदी का विरोध किया था. 2016 में तुर्की में नाकाम सैन्य तख़्तापलट के लिए भी अर्दोआन ने यूएई पर उंगली उठाई थी.

पिछले महीने ही सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद अपनी पत्नी अस्मा अल असद के साथ यूएई गए थे. 2011 में सीरिया में जब गृह युद्ध शुरू हुआ था तब सऊदी अरब की तरह यूएई भी विद्रोहियों के साथ था और दोनों देश चाहते थे कि राष्ट्रपति असद कुर्सी छोड़ दें.

राष्ट्रपति बशर अल-असद शिया मुस्लिम हैं और सीरिया की बहुसंख्यक आबादी सुन्नी है. लेकिन पश्चिम एशिया में जो अभी बयार बह रही है, उसमें ऐसा लग रहा है कि शिया और सुन्नी की दीवार भी गिर जाएगी.

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, सऊदी अरब सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद को 19 मई से रियाद में शुरू होने जा रहे अरब लीग समिट में बुलाने जा रहा है.

सऊदी अरब और यूएई के रुख़ से साफ़ है कि सीरिया अपने इलाक़े में 2011 के बाद से जो अलग-थलग पड़ा था, उसका अंत होने जा रहा है.

2011 में सीरिया संकट के कारण ही अरब वर्ल्ड में आपसी मतभेद बढ़ा था. 2011 में ही सीरिया को अरब लीग से बाहर कर दिया गया था.

तब पश्चिम के देशों के साथ अरब के देश भी सीरियाई राष्ट्रपति का बहिष्कार कर रहे थे. रमज़ान के महीने में ही दोनों देश एक-दूसरे के यहाँ अपना दूतावास फिर से खोल सकते हैं.

2015 से यमन में सऊदी अरब और ईरान समर्थित हूती विद्रोहियों की ख़ूनी जंग चल रही है. अब इसका भी अंत होता दिख रहा है. आठ अप्रैल यानी शनिवार को सऊदी और ओमानी वार्ताकार यमन की राजधानी सना पहुँचे थे.

कहा जा रहा है कि ईद के पहले यमन में युद्ध के अंत की घोषणा हो सकती है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ समझौता तैयार है. शुरुआत में युद्धविराम को आगे बढ़ाया जाएगा. क़ैदियों को छोड़ा जाएगा और फिर सना एयरपोर्ट को खोला जाएगा. यमन के ख़िलाफ़ नाकाबंदी भी ख़त्म होगी ताकि उसे पोर्ट तक पहुँच मिले. इसके बाद यमन से विदेशी सैनिकों की वापसी शुरू होगी.

सऊदी अरब की स्वतंत्र विदेश नीति?

सऊदी अरब के हाल के फ़ैसलों को देखकर संकेत मिलता है कि वह अमेरिका के मातहत काम करने के लिए तैयार नहीं है. सऊदी अरब अब बहुध्रुवीय दुनिया की बात कर रहा है और वह अमेरिका की परवाह किए बिना बेधड़क फ़ैसले ले रहा है.

सऊदी अरब पश्चिम एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है और ईरान से शत्रुता ख़त्म करने में लगा है. ऐसा लग रहा है कि सऊदी अरब नाटकीय रूप से अपनी ‘ग़लतियां’ ठीक कर रहा है.

सऊदी पुराने प्रतिद्वंद्वियों से मेल-जोल बढ़ा रहा है, नए दुश्मनों से वार्ता कर रहा है और महशक्तियों के बीच संतुलन बना रहा है. सऊदी ये सारी कोशिशें अपनी अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए कर रहा है.

कहा जा रहा है कि सऊदी अरब अपनी विदेशी नीति स्वतंत्र रूप से चलाता है और डिप्लोमैसी के ज़रिए क्षेत्रीय स्थिरता बहाल करने में कामयाब रहता है तो पश्चिम एशिया पर इसका गहरा असर पड़ेगा.

सालों तक सऊदी अरब की विदेश नीति में ईरान से शत्रुता प्रमुखता से रही. इसका नतीजा यह हुआ कि पूरे इलाक़े में छद्म युद्ध को बढ़ावा मिला. मिसाल के तौर पर पश्चिम एशिया में सीरिया के साथ केवल ईरान रहा जबकि सऊदी अरब अपने खाड़ी के सहयोगियों के साथ बशर अल-असद के ख़िलाफ़ रहा.

तुर्की भी पश्चिम के साथ बशर अल असद के ख़िलाफ़ था. रूस बशर अल-असद के साथ था. रूस और ईरान के समर्थन से असद सीरिया में विद्रोहियों को हराने में कामयाब रहे.

यमन में सऊदी का हस्तक्षेप हूती को राजधानी सना से हटाने में नाकाम रहा. यहाँ तक कि हूती सऊदी के भीतर ड्रोन से हमले करने लगा था.

पश्चिम एशिया में हालिया हलचल को लेकर यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिका की प्राथमिकता अब यहाँ से हट रही है. चीन के लिए यह अच्छा मौक़ा था.

चीन का संबंध ईरान और सऊदी दोनों से बढ़िया है. ऐसे में उसने दोनों की दुश्मनी कम करने की पहल की और यह चीन के हक़ में भी था. रूस, चीन और अमेरिका जैसी महाशक्तियों के बीच सऊदी अरब संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है.

यूक्रेन पर रूसी हमले के ख़िलाफ़ पश्चिमी देशों के प्रतिबंध में सऊदी अरब शामिल नहीं हुआ और दूसरी तरफ़ अमेरिका के नहीं चाहने के बावजूद तेल उत्पादन में कटौती का फ़ैसला ले लिया. तेल उत्पादन में कटौती का फ़ायदा रूस को सीधा मिलेगा क्योंकि रूस दुनिया का सबसे बड़ा ऊर्जा निर्यातक देश है.

इसके बावजूद सऊदी ने अमेरिका से 35 अरब डॉलर की बोइंग डील की है. अमेरिका चाहता था कि सऊदी अरब इसराइल से रिश्ते सामान्य करे लेकिन इसके लिए उसने कई शर्तें रखीं. एक और शक्ति चीन है, जिसने सऊदी और ईरान के बीच राजनयिक रिश्ते बहाल कराने में सफलता हासिल की है. सऊदी और चीन के बीच रक्षा और ट्रेड साझेदारी भी बढ़ रही है.

भारत कहाँ है?

पश्चिम एशिया में इतना कुछ हो रहा है लेकिन पूरे परिप्रेक्ष्य में भारत कहाँ है. भारत के हित पश्चिम एशिया में व्यापक रूप जुड़े हुए हैं. यूएई और सऊदी अरब भारत के तीसरे और चौथे सबसे बड़े कारोबारी साझेदार हैं.

भारत ऊर्जा सुरक्षा के लिए पश्चिम एशिया पर ही निर्भर है. भारत के क़रीब 90 लाख लोग खाड़ी के देशों में काम करते हैं और अरबों डॉलर कमाकर वापस भेजते हैं. चीन यहाँ बड़ा प्लेयर बनकर उभर रहा है, लेकिन भारत क्या कर रहा है?

दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पश्चिम एशिया अध्ययन केंद्र के प्रोफ़ेसर अश्विनी महापात्रा भी मानते हैं कि पश्चिम एशिया में जो कुछ भी चल रहा है, उससे भारत की चुनौतियां बढ़ने वाली हैं.

अश्विनी महापात्रा कहते हैं, ”जब इसराइल, यूएई और भारत के साथ अमेरिका ने I2U2 बनाया तो ऐसा लग रहा था कि सऊदी अरब भी इसमें शामिल होगा. लेकिन चीन ने हैरान करते हुए सऊदी अरब और ईरान के बीच राजनयिक संबंध बहाल करवा दिया. भारत को इसका अंदाज़ा नहीं था. भारत के लिए यह हैरान करने वाला था. अगर ईरान और सऊदी के बीच संबंध टिकाऊ होता है तो भारत को अलग तरह से सोचना होगा. इसका असर हमने हाल ही में देखा कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इसराइल के ख़िलाफ़ वोट किया. भारत शायद अब इसराइल को लेकर गर्मजोशी ना दिखाए.”

महापात्रा कहते हैं, ”मुझे लगता है कि सऊदी और ईरान के बीच भरोसा बहाल होना मुश्किल है. ईरान फ़लस्तीन में हमास का समर्थन करता है, सऊदी बिल्कुल ख़िलाफ़ है. ईरान मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ भी दिखता है और सऊदी को यह पसंद नहीं है. शिया और सुन्नी की दीवार भी इतनी जल्दी टूटने वाली नहीं है.”

अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर गहरी नज़र और समझ रखने वाले अमेरिका के डेलावेयर यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं कि भारत को सोचना चाहिए कि जो काम चीन यहाँ कर रहा है, उसे वह क्यों नहीं कर पा रहा है?

प्रोफ़ेसर ख़ान कहते हैं, ”भारत की घरेलू राजनीति को जिस दिशा में ले जाया जा रहा है, उससे पश्चिम एशिया में कोई फ़ायदा नहीं होने जा रहा है. भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ भेदभाव को लेकर इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी लगातार बयान जारी कर रहा है. भारत एक तरफ़ ग्लोबल साउथ की आवाज़ बनने की बात करता है और दूसरी तरफ़ ओआईसी से टकराता दिख रहा है. भारत को पता होना चाहिए कि पूरा ओआईसी ग्लोबल साउथ में ही आता है. क्या भारत ओआईसी को बाहर कर ग्लोबल साउथ की आवाज़ बनेगा?”

मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, ”चीन जिस तैयारी के साथ पश्चिम एशिया में पाँव जमा रहा है, उससे आने वाले दिनों में भारत के लिए कई तरह की मुश्किलें होंगी. लेकिन भारत बिल्कुल बेख़बर लग रहा है.”

जेएनयू में मध्य एशिया और रूसी अध्ययन केंद्र में असोसिएट प्रोफ़ेसर राजन कुमार मुक़्तदर ख़ान की इस बात से सहमत नहीं हैं कि भारत बेख़बर है.

राजन कुमार कहते हैं, ”भारत अपने स्तर पर कई कोशिशें कर रहा है. हर देश की अपनी सीमा होती है. हम हर मामले में चीन से बराबरी नहीं कर सकते हैं. चीन और भारत के बीच बहुत बड़ा फासला है.”

ईरान और सऊदी के बीच राजनयिक संबंध बहाल कराने का समझौता जब चीन ने कराया था तो भारत की बहुत सधी हुई प्रतिक्रिया आई थी.

भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा था, ”पश्चिम एशिया के कई देशों से भारत के अच्छे संबंध हैं. इस इलाक़े में भारत के गहरे और स्थायी हित हैं. भारत हमेशा से संवाद और डिप्लोमैसी के ज़रिए विवाद सुलझाने की वकालत करता रहा है.”

मुक़्तदर ख़ान कहते हैं कि भारत की घरेलू राजनीति में बढ़ती सांप्रदायिकता का असर खाड़ी के देशों के साथ संबंधों पर भी पड़ा है.

वह कहते हैं, ”सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन-सलमान पिछले साल नवंबर के पहले हफ़्ते में भारत आने वाले थे लेकिन उन्होंने यह दौरा टाल दिया था. 15-16 नवंबर को इंडोनेशिया के बाली में जी-20 समिट था. सऊदी क्राउन प्रिंस भारत होकर ही बाली जाने वाले थे लेकिन वह सीधे बाली पहुँचे थे. क्राउन प्रिंस का भारत नहीं आना यूं ही नहीं था.”

सऊदी क्राउन प्रिंस बाली में जी-20 समिट में शामिल होने के बाद दक्षिण कोरिया के दौरे पर गए थे. दक्षिण कोरिया में उन्होंने कई समझौते भी किए थे. बाली में जी-20 समिट में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गए थे, लेकिन क्राउन प्रिंस के साथ इस समिट से अलग कोई आधिकारिक द्विपक्षीय बैठक नहीं हुई थी. जी-20 समिट के क़रीब एक महीने बाद चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग सऊदी अरब के दौरे पर गए थे.

पश्चिम एशिया में भारत की मुश्किलें

कहा जाता है कि पाकिस्तान पश्चिम एशिया में भारत के ख़िलाफ़ इस्लामिक कार्ड का इस्तेमाल करता है.

भारतीय विदेश सेवा के रिटायर अधिकारी और नेशनल सिक्यॉरिटी एडवाइज़री बोर्ड के सदस्य रहे रंजीत गुप्ता ने मिडल ईस्ट इंस्टिट्यूट की वेबसाइट पर एक लेख में कहा है,

”पश्चिम, सऊदी अरब, तुर्की और ईरान से पाकिस्तान को समर्थन मिलता रहा है. 1969 में भारत को अनावश्यक रूप से अपमान का सामना करना पड़ा था. 1969 में मोरक्को की राजधानी रबात में मुस्लिम देशों के समिट में सऊदी अरब, जॉर्डन और मोरक्को के शासकों ने भारत को भी आमंत्रित किया था.”

“इसी बैठक के बाद मुस्लिम देशों का संगठन ओआईसी बना था. इस समिट में उद्घाटन सत्र के बाद भारत को शामिल होने की अनुमति नहीं मिली थी क्योंकि पाकिस्तान ने बैठक छोड़ देने की धमकी दी थी. इसके बाद से पाकिस्तान ओआईसी में भारत विरोधी एजेंडा आगे बढ़ाने में हमेशा कामयाब रहा है.”

इराक़ की कमान जब सद्दाम हुसैन के पास थी तो पश्चिम एशिया में इराक़ भारत का सबसे क़रीबी सहयोगी माना जाता था.

रंजीत गुप्ता ने लिखा है, ”शीत युद्ध के दौरान भारत का इराक़ सबसे विश्वसनीय सहयोगी था. भारत ने इराक़ में दर्जनों परियोजनाएं लागू की थीं और वहां के सैनिकों को ट्रेनिंग दी थी. इराक़ भारत का सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता देश रहा है और अब भी है.”

“पाकिस्तान के मामले में भी सद्दाम हुसैन भारत का ही साथ देते थे. भारत और इराक़ दोनों ही सोवियत यूनियन के क़रीबी थे. पश्चिम एशिया में इराक़ की भारत और सोवियत यूनियन से क़रीबी नकारात्मक रूप में देखी जाती थी.”

1979 में सोवियत यूनियन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया तो इसके ख़िलाफ़ पाकिस्तान, अमेरिका और सऊदी अरब की जुगलबंदी मज़बूत हुई. इस जुगलबंदी के कारण भी पश्चिम एशिया में भारत के हित प्रभावित हुए.

ईरान इस्लामिक क्रांति से पहले और बाद में भारत की तुलना में पाकिस्तान के साथ ही रहा. ईरान इस्लामिक देश होने के नाते पश्चिम के ख़िलाफ़ होने के बावजूद कश्मीर और अन्य मामलों में पाकिस्तान का साथ देता रहा है.

पश्चिम एशिया में भारत बाहरी चुनौतियों से जूझ रहा है. पॉलिसी पर्सपेक्टिव फ़ाउंडेशन के सीनियर फेलो अनवर आलम का कहना है कि पाकिस्तान के बनने से मध्य एशिया और पश्चिम एशिया में भारत स्थायी रूप जियोपॉलिटल पहुँच के मामले में वंचित रह गया. पाकिस्तान बनने के कारण भारत मध्य एशिया और पश्चिम एशिया से लैंड बॉर्डर से कट गया.

अनवर आलम ने लिखा है, ”इस्लामिक पश्चिम एशिया में पाकिस्तान का मज़बूत राजनीतिक गठजोड़ है. पाकिस्तान इस गठजोड़ में इस्लामिक पहचान, ख़ुद को पीड़ित बताकर और सैन्य साझेदारी के ज़रिए ऊर्जा भरता रहता है. भारत की मीडिया रणनीति भी पश्चिम एशिया में पाकिस्तान के नैरेटिव से मुक़ाबला करने में सक्षम नहीं है. चीन भी पश्चिम एशिया में अपना प्रभाव तेज़ी से बढ़ा रहा है और भारत के लिए यह बड़ी चुनौती है.”

जेएनयू में मध्य एशिया और रूसी अध्ययन केंद्र में असोसिएट प्रोफ़ेसर राजन कुमार कहते हैं कि भारत की राजनीति में बढ़ता सांप्रदायिक ध्रुवीकरण या मुस्लिम विरोधी धारणा पश्चिम एशिया में भारत के हितों को सीधा प्रभावित कर रहा है.

राजन कुमार कहते हैं कि भले खाड़ी के देशों के शासकों पर इसका असर नहीं होता है लेकिन वहाँ की जनता पर इसका असर पड़ता है. अगर वहाँ लोकतंत्र होता तो सड़क पर उतरकर लोग विरोध प्रदर्शन भी करते.

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