भारत जिस गुट में, उसमें शामिल होने के लिए सऊदी समेत कई देशों की लगी लाइन

Hindi New Delhi

DMT : नई दिल्ली : (28 अप्रैल 2023) : –

2006 के एक सर्द महीने में संयुक्त राष्ट्र महासभा का सत्र चल रहा था.

संयुक्त राष्ट्र के न्यूयॉर्क हेडक्वॉर्टर के प्राइवेट मीटिंग हॉल में रूस, भारत, चीन और ब्राज़ील के विदेश मंत्री मिले और चर्चा हुई अर्थशास्त्री जिम ओ नील के एक प्रकाशन ‘बिल्डिंग बेटर ग्लोबल एकनॉमिक ब्रिक (BRIC) पर.

2001 में छपी इस रिपोर्ट में जिम की रिसर्च असिस्टेंट रूपा पुरषोत्तमन ने ब्रिक शब्द का इस्तेमाल पहली बार किया था.

इस रिपोर्ट में कहा गया था कि साल 2050 आते आते ब्रिक देशों (ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन) की संयुक्त अर्थव्यवस्थाएँ तत्कालीन अमीर देशों की अर्थव्यवस्थाओं को पछाड़ देंगी.

चारों विदेश मंत्रियों की उस बैठक के तीन साल के भीतर, 2009 आते-आते, इन देशों के प्रधानमंत्री रूस में मिले और ब्रिक का गठन हो गया. दक्षिण अफ़्रीका ने भी इसमें शामिल होने की मंशा तेज़ स्वर में ज़ाहिर की और 2010 में उसे भी एंट्री दे दी गई और यह ब्रिक्स बन गया.

इस बात को पूरे 13 साल बीत चुके हैं. इस बीच ग्लोबल ऑर्डर अगर पूरी तरह नहीं तब भी काफ़ी बदल चुका है.

ब्रिक्स में नए देशों को शामिल करने पर होगी चर्चा

अमेरिका और नेटो की सेनाएं इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान से पलायन कर चुकी हैं. दुनिया के मोस्ट वॉन्टेड ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी स्पेशल फ़ोर्स पाकिस्तान के ऐबटाबाद में मार चुकी हैं.

ब्रिटेन यूरोपीय संघ को अलविदा कह चुका है. रूस और यूक्रेन में पिछले एक साल से भीषण जंग जारी है. संयुक्त राष्ट्र की साख कमज़ोर पड़ने के कई उदाहरण जगज़ाहिर हैं और कोविड-19 जैसी महामारी ने दुनिया की सभी अर्थ्व्यवस्थाओं को झकझोर कर रख दिया है.

इस बीच 2023 में ब्रिक्स देश दक्षिण अफ़्रीका में होने वाली अपनी बैठक की तैयारी कर रहे हैं. एजेंडा विशाल है.

सऊदी अरब और ईरान जैसे देशों ने औपचारिक तरीक़े से शामिल होने की चाहत दिखाई है जबकि अर्जेंटीना, संयुक्त अरब अमिरात, मिस्र, अल्जीरिया और इंडोनेशिया जैस देश ने कई दफ़ा ब्रिक्स का हिस्सा बनने की इच्छा जताई है.

‘द ब्रिक्स एंड कलेक्टिव फाइनेंशियल स्टेटक्राप्ट’ नाम की किताब के एक चैप्टर ‘ग्लोबल पॉवर शिफ़्ट: द ब्रिक्स, बिल्डिंग केपेबिल्टीज़ फ़ॉर इनफ्लुएंस’ में राबर्ट्स सिंथिया, लेज़्ली आर्मिजो और साओरी कताडा इस बात पर ज़ोर देते है कि, “चीन की तरक़्क़ी, यूरोप और जापान के आर्थिक शक्ति के रूप में थोड़ा कमज़ोर होने से ब्रिक्स को बल मिला है”.

इस किताब के मुताबिक़, “भले ही ब्रिक्स देशों की आर्थिक और वित्तीय स्थितियां एक दूसरे से बेहद अलग हैं और उतार-चढ़ाव वाली हैं, लेकिन फिर भी इन सभी देशों ने अपनी अंतरराष्ट्रीय साख मज़बूत की है. इस प्रक्रिया में उन्होंने वो ज़रूरी गुणवत्ताएं भी विकसित की हैं, जिनको लेकर अमेरिका या दूसरी पश्चिमी शक्तियों को चुनौती दी जा सके.”

ब्रिक की पहली समिट जो 2009 में हुई थी. चारों देशों ने अपने संयुक्त बयान में “अमेरिकी डॉलर के वैश्विक प्रभुत्व के ख़िलाफ़ एक बेहद विविध अंतरराष्ट्रीय मुद्रा प्रणाली को लागू करने” पर ज़ोर दिया था.

अब कुछ ज़रूरी आँकड़ों पर भी नज़र डालिए.

वर्तमान समय में चीन और भारत का कुल जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद दुनिया भर के जीडीपी का 27% है.

ब्रिक्स के पांच देशों में दुनिया की 42% आबादी रहती है और विश्व व्यापार में इन देशों की भागीदारी 17% है, जिसकी चंद वर्षों में बढ़ कर 29% हो जाने के प्रबल अनुमान हैं.

वर्तमान समय में अर्जेंटीना जैसे क़रीब 24 और देशों ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए अमेरिकी डॉलर के बजाय चीन के युआन में ट्रेड करना शुरू कर दिया है. रूस भारत समेत कई देशों के साथ कच्चे तेल का सौदा अपनी मुद्रा में कर रहा है.

अर्थशास्त्री अजित रनाडे को लगता है कि, “G7 समूह का चीन-भारत के नेतृत्व वाले ब्रिक्स समूह से पिछड़ जाना तय सा लगता था.”

उनके मुताबिक़, “आज अगर भारत और चीन का कुल जीडीपी दुनिया भर क़रीब एक-तिहाई है तो इसे गंभीरता से तो लेना ही पड़ेगा. ज़ाहिर है, आगे ये प्रतिशत बढ़ेगा भी.”

ब्रिक्स देश जी-7 देशों पर हावी?

सैन्य शक्ति की बात की जाए तो भी आँकड़ों का पलड़ा ब्रिक्स की तरफ़ झुकेगा.

फ़ौज, हथियारों पर खर्च करने वाले दुनिया के टॉप चार देशों में चीन, रूस और भारत के शुमार हैं और सिर्फ़ अमेरिका ही ब्रिक्स के बाहर का मुल्क है.

ज़ाहिर है, जब ब्रिक या ब्रिक्स समूह ने तेज़ी पकड़नी शुरू की थी तब ये सभी विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ थीं. लेकिन आज के दौर में ये पाँचों देश मौजूदा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय और राजनीतिक पटल पर एक नए प्लैटफ़ॉर्म का विकल्प देने में जुटे हुए हैं.

जर्मन इंस्टिट्यूट फोर इंटरनेशनल एंड सिक्यॉरिटी अफ़ेयर के गंदर मेहोल्ड के अनुसार, “विकासशील देशों वाली बात अब पुरानी और बेमानी हो चुकी है. भू-राजनैतिक क्षेत्र में ये ब्रिक्स देशों का समय है और ये G-7 देशों (कनाडा, फ़्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन और अमेरिका) के विकल्प के तौर पर अपने को स्थापित करने ही वाले हैं.”

चुनौतियाँ भी अनेक

इस नतीजे पर पहुँचना अभी जल्दबाज़ी होगी कि ब्रिक्स अब दुनिया का सबसे शक्तिशाली गुट हो चुका है.

विशेषज्ञों के मुताबिक़ रूस और चीन चाहते हैं कि ब्रिक्स के आर्थिक संगठनों को मज़बूत किया जाए जिससे दूसरे विकासशील देशों को मदद दी जा सके और तेज़ी से बदलते अंतरराष्ट्रीय संबंधों में ख़ुद को मज़बूत किया जा सके.

कुछ इसे चीन की दुनिया के सबसे बड़ी महाशक्ति बनने की ख़्वाहिश से भी जोड़ कर देखते हैं.

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में कूटनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे पुष्पेश पंत कई दफ़ा इस बात को दोहरा चुके हैं कि, “अगली सदी चीन की होने वाली है”.

उनके अनुसार, “अमेरिका का वर्चस्व न सिर्फ़ फ़ौजी ताक़त के तौर पर थोड़ा फीका पड़ा है बल्कि उसे अपनी अर्थव्यवस्था और भीतरी राजनीतिक माहौल से भी जूझना सा पड़ा है. यूरोप के देशों की रफ़्तार पहले कोविड ने और बाद में यूक्रेन युद्ध ने धीमी कर दी है”.

इधर भारत ने चीन की कई ऐसी कोशिशों पर ‘पानी फेरा’ है, जिसमें नए-नए सदस्य ब्रिक्स में शामिल कर लिए जाने का प्रस्ताव था क्योंकि, “भारत ब्रिक्स को महज़ एक एंटी-वेस्ट ब्लॉक बन कर रह जाने से बचना चाहता है.”

साथ ही, यूक्रेन युद्ध के बाद पश्चिमी देशों ने जहां रूस पर कड़े प्रतिबंध लगाए हैं, ब्रिक्स देशों ने ऐसे किसी भी क़दम से अपने को अलग रखा है.

ऐसे समय में ये भी ब्रिक्स देशों की विश्व संबंधों पर पकड़ का एक बड़ा इम्तेहान है क्योंकि रूस के अलावा ब्रिक्स के सभी देश पश्चिमी देशों से वैसे ही व्यापार-आवाजाही कर रहे हैं जैसे पहले करते रहे हैं.

ज़ाहिर है, G7 देशों का भी पूरा ध्यान जून में होने वाली ब्रिक्स समिट पर ही रहेगा क्योंकि उनमें भी कौतूहल है कि अगर ब्रिक्स में नए सदस्य आते हैं तो वे कौन होंगे.

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