समान नागरिक संहिता: हिंदू और मुस्लिम पर्सनल लॉ एकदम अलग, फिर कैसे आएगी एकरूपता?

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DMT : नई दिल्ली : (19 अगस्त 2023) : –

2024 लोकसभा चुनाव का वक्त नज़दीक आते ही समान नागरिक संहिता (यूसीसी यानी यूनिफ़ार्म सिविल कोड) का मुद्दा ज़ोर पकड़ रहा है.

भारत का लॉ कमीशन इस पर आम लोगों की राय ले रहा है कि क्या यूसीसी को लागू किया जा सकता है?

उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने भी यूसीसी को लागू करने के लिए एक पैनल का गठन किया है जिसकी रिपोर्ट जल्द आने वाली है.

जून में अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी यूसीसी का समर्थन किया था. उन्होंने सवाल किया था, “क्या घर में एक व्यक्ति के लिए एक क़ानून और दूसरे व्यक्ति के लिए दूसरा क़ानून हो तो घर चल सकता है?”

पीएम मोदी ने इस दौरान अपनी सरकार के तीन तलाक़ पर प्रतिबंध लगाने का भी ज़िक्र किया.

सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में तीन तलाक़ को गैर-क़ानूनी घोषित कर दिया था, जिसके बाद सरकार ने एक कदम आगे जाकर इसे आपराधिक बना दिया.

साल 2019 में सरकार एक क़ानून लेकर आई जिसमें तीन तलाक़ देने वाले मुसलमान पुरुष के लिए अधिकतम तीन साल की सज़ा और ज़ुर्माने का प्रावधान किया गया था.

यूसीसी का मक़सद

हालांकि तीन तलाक के अपराध घोषित किए जाने की आलोचना हुई क्योंकि इसमें महिलाओं को बिना किसी वित्तीय मदद के छोड़ दिया गया और जिससे मुस्लिम महिलाओं को बिना तलाक़ के छोड़ दिए जाने का ख़तरा बढ़ गया.

जबकि तलाक़ के आधार पर हिंदू पुरुषों के लिए इस तरह के मामलों में अपराधी ठहराए जाने की व्यवस्था मौजूद नहीं है.

यूसीसी का मक़सद एक ऐसा कॉमन क़ानून बनाना है जो पारिवारिक मामलों जैसे विवाह, तलाक़, गोद लेने और विरासत के लिए अलग-अलग समुदायों में बने अलग-अलग पर्सनल क़ानूनों की जगह ले.

चूंकि यूसीसी के स्वरूप को लेकर कोई मसौदा नहीं है इसलिए एक्सपर्ट भी चक्कर में पड़ गए हैं कि कैसे एक क़ानून उन सभी समुदायों पर लागू होगा, जो एकदूसरे से बिल्कुल अलग हैं.

इसलिए सबसे बड़ा सवाल है कि इनके बीच मौजूद अंतर को कैसे समेटा जाएगा.

क्या एक समुदाय के क़ानून दूसरे समुदाय पर लाद दिए जाएंगे? या सरकार समान नागरिक संहिता का दूसरा कोई निष्पक्ष रास्ता तलाशेगी.

भारत में हिंदू और मुस्लिम, दोनों समुदायों के लिए जो विभिन्न क़ानून लागू हैं, आइये उन पर नज़र डालते हैं.

हिंदू लॉ के तहत विवाह को परम्परागत रूप से एक पवित्र संस्कार के रूप में देखा जाता है जबकि मुस्लिम लॉ में शादी को अनुबंध माना जाता है, यहीं से विवाह में तलाक़ का विचार आता है.

हालांकि कई जानकारों का मानना है कि हिंदू विवाह अधिनियम के पारित होने से यह भी एक अनुबंध जैसा ही हो गया है.

परिवार से जुड़े क़ानूनों के एक्सपर्ट और बेंगलुरू में नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया में प्रोफ़ेसर सारासू इस्टर थॉमस का कहना है, “हिंदू विवाह अधिनियम विवाह में कुछ ऐसी शर्तें रखता है जिसे दूल्हे और दुल्हन को विवाह के लिए पूरा करना होता है.”

“इसमें तलाक़ के आधार के बारे में भी बताया गया है. इसलिए, यहां तक कि हिंदू विवाह की प्रकृति भी संस्कार नहीं है.”

विवाह की प्रकृति अलग-अलग होने के अलावा, दोनों धर्मों में अलग-अलग नियम हैं कि कौन किससे विवाह कर सकता है.

संहिताबद्ध होने के बावजूद हिंदू लॉ अलग-अलग समुदायों के रीति-रिवाजों और प्रथाओं को मान्यता देता है.

हालांकि हिंदू विवाह अधिनियम स्पष्ट करता है कि कुछ विवाह नहीं हो सकते जैसे खून के रिश्ते वालों, चाचा-भतीजी के बीच या इसी तरह के अन्य मामलों में. लेकिन कुछ परम्पराओं में भतीजी और चाचा जैसे रिश्तों के बीच विवाह को मान्यता है, ख़ासकर दक्षिण भारत में.

दूसरी तरफ़ मुस्लिम लॉ में चचेरे भाई बहनों के बीच विवाह की इजाज़त है.

चूंकि मुस्लिम शादियों को एक अनुबंध की तरह माना जाता है इसलिए तलाक़ अधिक आसान है. हालांकि ये अधिकार अपनी प्रवृत्ति में पितृसत्तात्मक अधिक है.

तीन तलाक़ पर प्रतिबंध के बावजूद, एकतरफ़ा तलाक़ के अन्य तरीके फिर भी मौजूद हैं, जिनके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में मामला विचाराधीन है.

गोद लेने और अभिभावक होने के आधिकार

हिंदू लॉ के तहत गोद लिए बच्चे को बायोलॉजिकल बच्चे जैसे ही अधिकार दिए हैं. जबकि इस्लामिक लॉ में गोद लेने पर प्रतिबंध है.

हालांकि किशोर न्याय (बच्चों की देख-रेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 आने के बाद मुस्लिम भी अब गोद ले सकते हैं.

संरक्षक होने को लेकर भी दोनों समुदायों में अलग-अलग नियम हैं. हिंदू लॉ में पिता लड़के या एक अविवाहित लड़की का स्वाभाविक अभिभावक होता है. जबकि अवैध बेटे या अविवाहित बेटी के लिए मां स्वाभाविक गार्जियन होती है.

दूसरी तरफ़ मुस्लिम लॉ में अभिभावक होने के अधिकार को लेकर अलग-अलग मतों में अलग-अलग मान्यताएं हैं लेकिन लॉ कमीशन ऑफ़ इंडिया के मुताबिक, अभिभावक तय करते समय बच्चे के ‘बेहतर हित’ को ध्यान में रखा जाता है.

उत्तराधिकार

यूसीसी की सबसे बड़ी चुनौती होगी उत्तराधिकार के लिए एक समान क़ानून बनाना.

मौजूदा व्यवस्था में हिंदू अनडिवाइडेड फ़ेमिली (एचयूएफ़) के तहत उन परिवारों को टैक्स में छूट मिलती है जिनकी पैतृक संपत्ति पर पूरे परिवार का संयुक्त मालिकाना होता है.

ऐसी व्यवस्था किसी और धर्म में नहीं है.

तो क्या एचयूएफ़ का लाभ बाकी समुदायों को भी दिया जाएगा? या हिंदुओं को मिलने वाले इस लाभ को सरकार समाप्त कर देगी?

केरल ने 1975 में ही एचयूएफ़ को ख़त्म कर दिया था. साल 2018 में लॉ कमीशन ने सुझाव दिया था कि एचयूएफ़ को समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि इससे देश को टैक्स का भारी नुक़सान हो रहा है.

लेकिन एचयूएफ़ के अलावा भी अलग-अलग धर्मों में उत्तराधिकार को लेकर काफ़ी अंतर है.

राजकोटिया कहती हैं, “उत्तराधिकार का मामला भी हिंदुओं और मुसलमानों दोनों में पूरी तरह अलग है.”

उनके मुताबिक, “उत्तराधिकारियों को दिया जाने वाला हिस्सा भी हिंदू लॉ से अलग है.”

आम तौर पर मुस्लिम लॉ के तहत महिला को पुरुष के मुकाबले आधा हिस्सा मिलता है. और मत के हिसाब से अलग-अलग रिश्तेदारों के संपत्ति में अलग-अलग हिस्से होते हैं.

उदाहरण के लिए सुन्नी लॉ के तहत प्रथम श्रेणी के 12 उत्तराधिकारी होते हैं, जिनमें भाई और बहन भी शामिल हैं.

जबकि हिंदू लॉ में 2005 से पहले बेटियों को पैतृक संपत्ति में हक़ नहीं था. इसके अलावा पुरुष के वैवाहिक स्टेटस से संपत्ति के उत्तराधिकार पर फर्क नहीं पड़ता लेकिन महिलाओं के मामले में ये बदल जाता है.

एक महिला की संपत्ति पर उसके माता-पिता के मुकाबले पति के उत्तराधिकारियों का प्रथम दावा होता है.

भेदभाव वाला नियम होने के नाते सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दी गई है.

एक समुदाय के अंदर विभिन्नता

एक और चुनौती है जिसे हल करना ज़रूरी है और वो है, हिंदू और मुस्लिम समुदायों के अंदर की विभिन्नता.

डॉ. थॉमस कहते हैं, “हिंदू लॉ का एक बड़ा हिस्सा संहिताबद्ध नहीं है. अलग-अलग पंथ हैं, जैसे द्रविड़, मिताक्षरा और दयाभागा, जो विभाजन और एचयूएफ़ के अन्य पहलुओं को निर्धारित करते हैं. अन्य पहलुओं में भी, जैसे विवाह कैसे हो, अलग-अलग परम्पराएं लागू होती हैं.”

मुस्लिमों में भी अलग-अलग मत हैं, जैसे शिया और सुन्नी. इनमें भी विवाह और पारिवारिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को लेकर अंतर है.

इन दोनों मतों में भी अलग-अलग पंथ हैं. उदाहरण के लिए सुन्नी हनफ़ी या मलिकी जैसी मान्यताओं का पालन कर सकते हैं.

राजकोटिया कहती हैं, “इन क़ानूनों को संशोधित करना और एक समान बनाना एक बड़ा काम है.”

क़ानूनी चुनौतियां

सरकार क्या करती है इस आधार पर मौलिक अधिकार की चुनौतियां भी हो सकती हैं.

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने लॉ कमीशन को यूसीसी के ख़िलाफ़ चिट्ठी लिखी है.

बोर्ड ने कहा कि पारिवारिक मामले धार्मिक नियमों और संविधान की धारा 25 और 26 के तहत संचालित होते हैं, इसलिए कुछ अपवादों को छोड़ कर, नागरिकों को अपने धर्म का पालन करने और धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने का मौलिक अधिकार है.

राजकोटिया कहती हैं, “इसके अलावा इन क़ानूनों में बदलाव लोगों की सांस्कृतिक पहचान के ख़िलाफ़ भी जा सकता है.”

“भारतीय संविधान की धारा 29 के तहत अल्पसंख्यकों को अपनी अलग संस्कृति बनाए रखने का अधिकार है.”

उनका मानना है कि मौजूदा ढांचे में सुधार लाना चाहिए, क्योंकि ‘व्यापक बदलाव विनाशकारी’ हो सकता है.

यूसीसी लागू करना, संविधान के द्वारा दी गई भेदभाव विरोधी गारंटी के भी ख़िलाफ़ जा सकता है.

संविधान विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर तरुनाभ खेतान कहते हैं, “अगर एकरूपता को लाने के लिए एक समुदाय की परम्पराओं को दूसरे समुदायों पर थोपा जाता है तो ये भेदभावपूर्ण सांस्कृतिक वर्चस्व जैसा हो होगा.”

वो कहते हैं, “अगर एकरूपता का आधार वास्तव में धर्मनिरपेक्ष है, जो एक समुदाय की परम्पराओं को दूसरे पर नहीं थोपता तो इसे भेदभावपूर्ण नहीं माना जाना चाहिए.”

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