स्वरोज़गार अपनाने को क्यों ‘मजबूर’ हो रही हैं महिलाएं?

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DMT : बेंगलुरु  : (16 अक्टूबर 2023) : –

34 साल की उर्वशी के पहले बच्चे का जन्म उस समय हुआ था जब कोविड महामारी अपने चरम पर थी. उस समय वह मेरठ के एक निजी स्कूल में सोशल स्टडीज़ पढ़ाती थीं.

कुछ समय तक वह घर से ऑनलाइन क्लास लेती रहीं लेकिन बाद में उन्हें स्कूल आने को कहा गया.

उर्वशी बताती हैं, “पति बैंकिंग सेक्टर में हैं तो उन्हें लगातार दफ़्तर जाना पड़ता था. अगर मैं भी स्कूल जाने लगती तो बच्चे की देखभाल कौन करता? काफ़ी सोच-विचार के बाद मैंने नौकरी छोड़ दी और तब से ट्यूशन पढ़ा रही हूं.”

कुछ ऐसा ही अमेरिका के पेंसिलवेनिया के हर्शे में बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. अमाका नामानी के साथ हुआ. 38 साल की नामानी के दो बच्चे हैं, एक आठ साल का और दूसरा छह साल का. जब कोरोना महामारी आई तब तीसरा बच्चा उनके गर्भ में था.

2020 की गर्मियों में एक ओर तो वह बेटे को जन्म देने के बाद उबर रही थीं, दूसरी ओर बड़े बच्चों को घर पर पढ़ाना भी था. फिर अक्टूबर महीने में उन्हें और उनके पति, दोनों को दफ़्तर जाना पड़ा.

डॉक्टर नामानी कहती हैं, “मुझे अस्पताल में मरीज़ देखना और सहकर्मियों के साथ काम करना पसंद था. लेकिन बच्चों की देखभाल की व्यवस्था न होने के कारण नौकरी करते रहना संभव नहीं था.”

आज डॉक्टर नामानी कंसल्टेंट के तौर पर स्तनपान को लेकर शिक्षा देती हैं और लेखिका भी हैं.

नौकरी छोड़कर वह उन लोगों में शामिल हो गईं जिन्होंने कोविड के चलते पारंपरिक नौकरियां छोड़कर स्वरोज़गार का रास्ता अपना लिया है.

स्वरोज़गार और उद्मिता के बेशक कई फ़ायदे हैं लेकिन एक कड़वी हक़ीक़त यह भी है कि उर्वशी और डॉक्टर नामानी जैसी महिलाओं के लिए अपनी नौकरी छोड़ना कोई विकल्प नहीं बल्कि एक मजबूरी भरा फ़ैसला था.

महामारी के दौरान कई महिलाओं पर ऐसा दबाव बना कि उन्हें स्वरोज़गार अपनाना पड़ गया.

‘स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया 2023’ शीर्षक वाली यह रिपोर्ट कहती है कि भारत में स्वरोज़गार अपनाने वाली महिलाओं की संख्या जून 2018 में ख़त्म तिमाही की तुलना में दिसंबर 2022 में 14 प्रतिशत बढ़कर 65 प्रतिशत हो गई.

इस रिपोर्ट के मुताबिक़, ‘संभव है कि ऐसा आर्थिक प्रगति के कारण नहीं बल्कि मजबूरी के कारण हुआ है.’

इसी तरह, अमेरिका के सेंटर ऑफ़ इकोनॉमिक एंड पॉलिसी रीसर्च (सीईपीआर) की रिपोर्ट कहती है कि ख़ुद को स्वरोज़गार से जुड़ा बताने वाले अमेरिकियों की संख्या 2019 से 2022 की पहली छमाही के बीच चार फ़ीसदी बढ़ी है.

महामारी के दौरान पुरुषों के मुक़ाबले क़रीब दोगुनी महिलाओं ने ख़ुद को स्वरोज़गार से जुड़ा बताया.

यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैन्सस के स्कूल ऑफ़ पब्लिक अफ़ेयर एंड एमिनिस्ट्रेशन में एसोसिएट प्रोफ़ेसर मिस्टी ए. हेगिनेस का मानना है कि यह उछाल उन लोगों के कारण भी है जो कुछ नया तलाश रहे हैं.

वह कहती हैं कि नौ बजे से पांच बजे तक काम करना बहुत से लोगों के लिए ठीक नहीं बैठ रहा, ख़ासकर कामकाजी मांओं के लिए.

प्रोफ़ेसर हेगिनेस कहती है, “लोगों को काम करने के समय और तरीके को लेकर और लचीलापन चाहिए. ऐसे में मांओं के लिए स्वरोज़गार ठीक बैठ रहा है. वे इतना कुछ करते-करते थक गई हैं लेकिन फिर भी काम और करियर पर ध्यान देना चाहती हैं. ऐसे में उन्होंने तय किया कि स्वरोज़गार के ज़रिये ख़ुद की बॉस बनकर वे काम और जिंदगी के बीच बेहतर संतुलन बना सकती हैं.”

प्रोफ़ेसर मिस्टी ए. हेगिनेस बताती हैं कि अमेरिका में कामकाजी माता-पिता के लिए बच्चों की देखभाल करना मुश्किल भी है और काफ़ी खर्चीला भी. इसलिए भी महिलाओं पर ही ज़िम्मेदारी आन पड़ती हैं.

वह कहती हैं कि कुछ महिलाओं के पास दूसरे संसाधन या बचत के पैसे थे या फिर उनका जीवनसाथी ज़्यादा कमा रहा था. ऐसे में उन्होंने बच्चों की देखभाल के लिए अपना काम छोड़ दिया.

लेकिन सबके लिए नौकरी छोड़ना आसान नहीं होता. प्रो. हेगिनेस कहती हैं, “कई मांओं के पास काम छोड़ने का विकल्प नहीं था. उनकी आमदनी से ही घर चलता. ऐसे में उन्हें मजबूरी में स्वरोज़गार अपनाना पड़ रहा है ताकि साथ में बच्चों की देखभाल भी कर सकें.”

‘स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया 2023’ रिपोर्ट भी कहती है कि भारत में विभिन्न पेशों से जुड़ी महिलाओं को नौकरी के साथ-साथ बच्चों की देखभाल का जिम्मा भी उठाना पड़ता है.

वहीं, सीईपीआर के शोध में योगदान देने वालीं अर्थशास्त्री जूली काई कहती हैं कि नौकरी छोड़कर स्वरोज़गार अपनाने वाली ज़्यादातर अमेरिकी महिलाओं के बच्चे बहुत छोटे थे.

वह कहती हैं, “आंकड़े दिखाते हैं कि छह साल से कम उम्र के बच्चों के माता-पिता के स्वरोज़गार अपनाने की संभावना ज़्यादा होती है. ऐसा ही कम आमदनी वाली और कम शिक्षित महिलाओं के साथ होता है.”

मजबूरी में नौकरी छोड़कर स्वरोज़गार अपनाने के चलन को रोकने के लिए सुझाव देते हुए अर्थशास्त्री हाई कहती हैं, “ज़रूरी है कि कंपनियां बच्चों की देखभाल को लेकर भी ध्यान दें और महिलाओं के काम करने के समय का भी ध्यान रखें.”

कम शिक्षित और कम आय वाली महिलाओं के लिए यह महत्वपूर्ण होगा क्योंकि सीईपीआर के शोध के मुताबिक़, ज़्यादातर महिलाओं ने इन्हीं दिक्कतों के कारण नौकरियां छोड़ी थीं.

बावजूद इसके, कई महिलाओं को स्वरोज़गार में उम्मीद की किरण नज़र आ रही है.

उर्वशी कहती हैं कि स्वरोज़गार से उन्हें कई फ़ायदे हुए हैं. कुछ माह पहले उन्होंने दूसरे बच्चे को जन्म दिया है. वह बड़े बेटे के साथ-साथ उसकी देखभाल भी कर पा रही हैं और बच्चों को पढ़ाने का अपना पसंदीदा काम भी कर पा रही हैं. ट्यूशन पढ़ाने से होने वाली आमदनी से उनके खर्च भी पूरे हो रहे हैं.

इसी तरह डॉक्टर नामानी भी अपने बच्चों की देखरेख अच्छे से कर पा रही हैं. रोज़गार के लिए उन्होंने स्तनपान पर जानकारी देने वाली एक कंपनी बनाई है. साथ ही, वह अस्पतालों के लिए फ्रीलांस काम कर रही हैं और उन्होंने बच्चों से जुड़े विषयों पर एक किताब भी लिखी है.

यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैन्सस के स्कूल ऑफ़ पब्लिक अफ़ेयर एंड एमिनिस्ट्रेशन में एसोसिएट प्रोफ़ेसर मिस्टी ए. हेगिनेस कहती हैं, “स्वरोज़गार और घर से काम करने की सुविधा बच्चों वाली महिलाओं के लिए काफ़ी नहीं है. जब घर पर बच्चे हों तो वर्क फ्रॉम होम करना आसान नहीं होता.”

प्रोफ़ेसर हेगिनेस का मानना है कि भले ही स्वरोज़गार से कई फ़ायदे होते हैं लेकिन कुछ नुक़सान भी हैं.

वह बताती हैं, “अच्छी कंपनियों में काम करने पर स्वास्थ्य बीमा या रिटायरमेंट के लिए बचत जैसी सुविधाएं मिलती हैं जो स्वरोज़गार में नहीं होतीं.”

इस बात को भारत के लिहाज़ से देखें तो यहां के कामकाजी वर्ग में ज़्यादातर महिलाएं असंगठित क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं जहां ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है.

‘स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया 2023’ रिपोर्ट के अनुसार, कोविड महामारी के दौरान भारत के कामकाजी वर्ग में महिलाओं की भागीदारी 30 प्रतिशत से बढ़कर क़रीब 33 प्रतिशत हो गई जो कि अब भी काफ़ी कम है.

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में समय के साथ भले ही ज़्यादा महिलाओं ने स्वरोज़गार अपनाया लेकिन उनकी आमदनी जून 2019 में ख़त्म तिमाही की तुलना में 15 प्रतिशत कम हो गई है.

शोधकर्ताओं का कहना है कि हो सकता है ऐसा ‘आर्थिक मंदी’ और ‘महामारी के कारण आई दिक्कतों’ के चलते हुआ हो.

उनका मानना है कि भारत के कामकाजी वर्ग में महिलाओं की संख्या बढ़ी तो है मगर ऐसा ‘मजबूरियों के चलते घरेलू ज़िम्मेदारियों से स्वरोज़गार की ओर बढ़ने के कारण’ हुआ है.

रिपोर्ट कहती है कि ‘घर की आमदनी घटने के कारण महिलाओं के स्वरोज़गार अपनाने की तुलना में आर्थिक प्रगति और बढ़ी हुई लेबर डिमांड के चलते महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से अलग तरह के नतीजे देखने को मिलते हैं.’

शोधकर्ता सुझाव देते हैं, “कामकाजी महिलाओं की बढ़ती आपूर्ति के हिसाब से आधुनिक और उत्पादक क्षेत्रों में उनके लिए मांग भी बढ़ानी पड़ेगी. वरना पहले ही भीड़ से भरे पड़े स्वरोज़गार के क्षेत्र और भीड़ बढ़ेगी.”

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