DMT : नई दिल्ली : (17 जून 2023) : –
भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) का वो हालिया क़दम विवादों में घिरता दिख रहा है जिसमें विलफुल डिफॉल्टर्स (इरादतन चूक करने वाले) और धोखाधड़ी में शामिल कर्ज़ खातों को बैंकों के साथ अपनी बकाया राशि का निपटान करने के लिए समझौता करने की अनुमति देने की बात की गई है.
8 जून को “फ्रेमवर्क फॉर कोम्प्रोमाईज़ सेट्लमेंट्स एंड टेक्निकल राइट-ऑफस” शीर्षक वाले एक नोटिफिकेशन में आरबीआई ने कहा कि विलफुल डिफॉल्टर्स या धोखाधड़ी से जुड़े खातों के बारे में बैंक देनदारों के ख़िलाफ़ चल रही आपराधिक कार्रवाई पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बग़ैर समझौता या तकनीकी राइट-ऑफ (बट्टे खाते में डालना) कर सकते हैं.
आरबीआई के नए दिशा-निर्देशों के मुताबिक़ विलफुल डिफॉल्टर या धोखाधड़ी में शामिल कंपनी बैंक से समझौता करने के 12 महीने बाद नया कर्ज़ा हासिल कर सकती है.
सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि 8 जून के सर्कुलर में आरबीआई ने विलफुल डिफॉल्टर्स को समझौता निपटान से बाहर रखने की अपनी पहले की नीति को उलट दिया है.
7 जून 2019 को आरबीआई ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि धोखाधड़ी, अपराध या जानबूझकर चूक करने वाले उधारकर्ताओं से समझौता नहीं किया जायेगा.
संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक़ मार्च 2022 के अंत तक 50 सबसे बड़े विलफुल डिफॉल्टर्स पर बैंकों का 92,570 करोड़ रुपये बकाया था. इसमें 7,848 करोड़ रुपये की सबसे बड़ी बकाया राशि मेहुल चोकसी की कंपनी की थी.
उपलब्ध जानकारी के मुताबिक़ भारत में दिसंबर 2022 तक 3,40,570 करोड़ रुपये की राशि वाले 15,778 विलफुल डिफॉल्ट खाते थे. इसमें से क़रीब 85 फ़ीसदी डिफ़ॉल्ट स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया, पंजाब नेशनल बैंक, यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया और बैंक ऑफ़ बड़ौदा जैसे सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों के थे.
कांग्रेस का सरकार पर हमला
विपक्षी कांग्रेस पार्टी ने आरबीआई के इस कदम को लेकर सरकार पर निशाना साधा है.
वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पार्टी के संचार महासचिव जयराम रमेश ने ट्वीट कर कहा कि आरबीआई को ये स्पष्ट करना चाहिए कि क्यों उसने ‘जानबूझकर क़र्ज़ न चुकाने वालों’ और ‘धोखाधड़ी’ से संबंधित अपने ही नियमों में बदलाव किया.
उन्होंने कहा, “वह भी इसके बावजूद जब अखिल भारतीय बैंक अधिकारी परिसंघ और अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ ने स्पष्ट रूप से कहा कि इस कदम से “बैंकिंग क्षेत्र में जनता का विश्वास कम होगा, जमाकर्ताओं का भरोसा कम होगा, नियमों की अवहेलना करने की संस्कृति को बल मिलेगा और बैंकों एवं उनके कर्मचारियों को इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा.”
जयराम रमेश ने एक बयान जारी कर ये भी कहा कि “ईमानदार कर्ज़दार- किसान, छोटे, और माध्यम उद्यम, मिडिल क्लास ईएमआई के बोझ तले दबे हैं. उन्हें कभी भी क़र्ज़ पर बातचीत करने या इसके बोझ को कम करने का अवसर नहीं दिया जाता है.”
“लेकिन सरकार ने अब नीरव मोदी, मेहुल चोकसी और विजय माल्या जैसे फ्रॉड्स एवं जान बूझकर क़र्ज़ न चुकाने वालों को फिर से उनकी पहले की स्थिति में वापस आने के लिए रास्ता दे दिया है. भाजपा के धनी पूंजीपतियों को हर तरह की सुविधा दी जा रही है. वहीं ईमानदार भारतीयों को अपना क़र्ज़ चुकाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.”
कांग्रेस का कहना है कि “आरबीआई को ये स्पष्ट करना चाहिए कि उसने क्यों सोचा कि ये निर्देश मौजूदा समय में आवश्यक हैं, जबकि बार-बार उसने इसके विपरीत निर्देश दिए थे और चेतावनी भी.”
पार्टी ने ये भी कहा है कि आरबीआई को ये बताना चाहिए कि क्या इन निर्देशों को जारी करने के लिए मोदी सरकार का कोई दबाव था.
बैंक संघों ने जताई नाराज़गी
अखिल भारतीय बैंक अधिकारी परिसंघ और अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ छह लाख से अधिक बैंक कर्मचारियों की सामूहिक आवाज़ का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं.
इन दोनों ने आरबीआई के इस कदम की तीखी आलोचना की है जिसके तहत बैंकों को समझौता समाधान के तहत विलफुल डिफॉल्टर्स के कर्ज़ों का निपटान करने की अनुमति दी गई है.
इन संघों ने कहा है कि आरबीआई का कदम बैंकिंग प्रणाली की अखंडता पर असर डाल सकता है और विलफुल डिफॉल्टर्स से प्रभावी ढंग से निपटने के प्रयासों को कमजोर कर सकता है.
उन्होंने यह भी कहा है कि धोखाधड़ी या विलफुल डिफॉल्टर्स के रूप में वर्गीकृत खातों के लिए समझौता निपटान की अनुमति देना न्याय और जवाबदेही के सिद्धांतों का अपमान है. इन संघों के मुताबिक़ ये न केवल बेईमान कर्ज़दारों को पुरस्कृत करता है बल्कि ईमानदार कर्ज़दारों को एक दुखद संदेश भी देता है जो अपने वित्तीय दायित्वों को पूरा करने का प्रयास करते हैं.
साथ ही इन संघों ने ये भी कहा है कि यह ध्यान देने योग्य है कि विलफुल डिफॉल्टर्स का बैंकों की वित्तीय स्थिरता और समग्र अर्थव्यवस्था पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. “उन्हें समझौते के तहत अपने ऋणों को निपटाने की अनुमति देकर आरबीआई अनिवार्य रूप से उनके ग़लत कार्यों को माफ कर रहा है और आम नागरिकों और मेहनती बैंक कर्मचारियों के कंधों पर उनके कुकर्मों का बोझ डाल रहा है.”
‘कुछ चुनिंदा लोगों को फायदा पहुँचाने की कोशिश’
आर्थिक मामलों के जानकार और जेएनयू के पूर्व प्राध्यापक प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है कि आरबीआई का नवीनतम कदम एक अच्छी मिसाल पेश नहीं करता है.
वे कहते हैं, “हमारे देश में बहुत सारा डिफ़ॉल्ट होता है. किसानों का भी डिफ़ॉल्ट होता है. वहां पर तो कोई ऐसा प्रावधान नहीं किया गया. तो ये जो बड़े-बड़े डिफॉल्टर हैं जो ख़ासकर विलफुल (इरादतन) डिफ़ॉल्टर हैं उनके लिए ऐसा प्रावधान लाना सहीं नहीं लगता.”
प्रोफेसर अरुण कुमार के मुताबिक़ अगर अर्थव्यवस्था में मंदी की वजह से किसी ऐसी कंपनी के साथ कोई परेशानी आती है जो पहले ठीक-ठाक अपना कर्ज़ा चुका रही थी लेकिन मंदी की वजह से परेशानी में आ गई है तो उनके साथ ऐसा समझौता करना समझ में आता है. “लेकिन विलफुल डिफ़ॉल्टर के साथ समझौता नहीं करना चाहिए. उन मामलों में तो मुक़द्दमा चलाया जाना चाहिए ताकि भविष्य में लोग ऐसा न करें. नहीं तो होगा क्या कि लोग विलफुल डिफ़ॉल्ट करके बाद में समझौता कर लेंगे.”
प्रोफेसर कुमार कहते हैं कि भारत में क्रोनी कैपिटलिज़्म (एक ऐसी अवस्था जिसमें व्यापार की कामयाबी व्यापारी और सरकारी अधिकारियों के आपसी संबंधों से तय होती है) बहुत है तो उसके चलते लोग पॉलिटिकल प्रेशर लगाएंगे और चीज़ें ठीक करा लेंगे.
वे कहते हैं, “अक्सर विलफुल डिफॉल्टर वही लोग होते हैं जिनका पॉलिटिकल कनेक्शन होता है. तभी वो सोचते हैं कि वो आगे चल कर इसे मैनेज कर लेंगे. मुझे नहीं लगता कि सही मिसाल पेश की जा रही है.”
प्रोफेसर अरुण कुमार का मानना है कि आरबीआई को इस बात का वर्गीकरण करना चाहिए कि डिफॉल्ट आर्थिक मंदी जैसी वजहों से हुआ या जान-बूझकर किया गया.
वे कहते हैं, “हमारे यहाँ बैंकिंग सिस्टम में जो नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स हुए थे वो क्रोनिज़्म की वजह से हुए थे जहाँ लोन देने से पहले जो जाँच-पड़ताल करनी चाहिए थी वो राजनीतिक दबाव की वजह से नहीं की गई. इस वजह से बहुत ज़्यादा नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स हो गए थे. क्यूंकि जो क्रोनी कैपिटलिस्ट थे उन्हें लगा कि अब हमें लोन मिल गया है तो हमें इसे चुकाने की ज़रुरत नहीं है, हम तो उसे राजनीतिक तौर पर मैनेज कर लेंगे. इसका असर ये हुआ कि हमारे बैंकों में एनपीए बहुत बढ़ गए थे. एनपीए बढ़ने से लोन मिलना कम हो गया था. कई बैंक आरबीआई की नज़र में आ गए थे और लोन नहीं दे पा रहे थे. उससे फिर कारोबारी माहौल तबाह हो गया.”
प्रोफेसर कुमार कहते हैं कि उन्हें डर है कि क्रोनिज़्म की वजह से बैंकों के एनपीए फिर बढ़ सकते हैं जिससे अर्थव्यवस्था में परेशानियां बढ़ सकती हैं.
साथ ही वे मानते हैं कि ये फैसला कुछ चुनिंदा लोगों को फायदा पहुँचाने के लिए किया गया लगता है. “कुछ ख़ास लोग जो परेशानी में होंगे उन्हें मदद पहुँचाने के लिए शायद ये किया जा रहा है क्यूंकि वही लोग बाद में धन उपलब्ध करवाएंगे. एक सोच ये हो सकती है ये फ़ायदा अभी पहुंचा दिया जाए, अगले आम चुनावों के नज़दीक नहीं. अभी जिसको बचा सकते हैं उसे बचा लें.”
‘नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे डिफॉल्टरों को कोई फायदा नहीं होगा’
डॉ सुव्रोकमल दत्ता एक जाने-माने दक्षिणपंथी राजनीतिक और आर्थिक विशेषज्ञ हैं.
वे कहते हैं कि सीमांकन रेखा बहुत स्पष्ट है. “जिन लोगों ने नीरव मोदी और विजय माल्या की तरह सिर्फ पैसे की हेराफेरी के लिए डिफॉल्ट किया है, उनके लिए बचने का कोई रास्ता नहीं है.”
डॉ दत्ता के मुताबिक़ कई छोटी कंपनियों और स्टार्टअप कंपनियों ने कोविड के दौरान वास्तविक समस्याएँ झेलीं और उनकी कार्यप्रणाली महामारी के कारण बुरी तरह प्रभावित हुई थीं. वे कहते हैं कि महामारी जैसी अप्राकृतिक घटना के कारण उन्हें नुकसान हुआ है और संकट से उबरना उनके हाथ में नहीं था.
वे कहते हैं, “सभी छोटे डिफॉल्टर जो कानून का पालन करते हैं और जिन्होंने अतीत में चूक नहीं की है उन्हें किसी ऐसी चीज़ के लिए दंडित नहीं किया जाना चाहिए जो उनके हाथ में नहीं थी. क्यों उन्हें निर्दयता से सज़ा दी जाए और उनके साथ नीरव मोदी, विजय माल्या और अन्य बड़े वित्तीय अपराधियों जैसा व्यवहार किया जाए. मध्यम और लघु उद्योग और स्टार्टअप चला रहे उन लोगों को आरबीआई से छूट की ज़रूरत है जिनके उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं. अगर उन्हें ऐसी छूट न दी जाए तो वे चरमरा जाएंगे.”
डॉ दत्ता कहते हैं कि यही वजह है कि आरबीआई इस नीति को लाया है जिसमें उन लोगों को फ़ायदा मिलेगा जो कानूनी रूप से साबित कर सकते हैं कि अगर हालात उनके हाथ में होते तो वो अपना कर्ज़ा चुकाने में नहीं चूकते.
“जो लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं वो सिर्फ आलोचना करने के मक़सद से आलोचना कर रहे हैं. और ज़्यादातर आलोचना राजनीतिक है. जब किसान संकट में थे तब यूपीए सरकार ने क़रीब 70000 करोड़ रुपये की क़र्ज़माफ़ी की थी.”
लेकिन सवाल इस बात पर खड़ा हुआ है कि क्या उन लोगों से बैंकों को समझौता करना चाहिए जिन्होंने जान-बूझकर अपना कर्ज़ नहीं चुकाया?
डॉ दत्ता कहते हैं, “ये देखना चाहिए कि किसी व्यक्ति या कंपनी ने कितनी बार डिफॉल्ट किया है. क्या डिफ़ॉल्ट पहली बार हुआ है या कई बार हो चुका है. इसलिए अगर किसी कंपनी ने पहली बार ऐसे कारणों से डिफॉल्ट किया है जो वास्तविक हैं और जिसे कंपनी द्वारा क़ानूनी तौर पर साबित किया जा सकता है, तो ऐसे डिफॉल्टरों को एक चेतावनी के साथ छूट दी जा सकती है कि वे इसे दोबारा न करें.”
“नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे क्रिमिनल डिफॉल्टर्स ने जान-बूझकर पैसा निकालने के इरादे से डिफॉल्ट किया है तो वह श्रेणी अलग है. उन्हें कोई फ़ायदा नहीं होने वाला है. उनके खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस है. भारत सरकार इनके प्रत्यपर्ण के लिए ज़ोर-शोर से प्रयास कर रही है. उनकी सम्पति ज़ब्त की गई है.”
डॉ दत्ता के मुताबिक़ आरबीआई यह नहीं कह रहा है कि वो नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे डिफॉल्टर्स को कोई छूट देने जा रहा है.
“लेकिन जिनका पिछला वित्तीय रिकॉर्ड अच्छा रहा है और अपने नियंत्रण से बाहर की वजहों से अगर वो पहली बार चूक गए हैं तो उन्हें माफ़ करने की ज़रूरत है.”