DMT : गुजरात : (04 अप्रैल 2023) : –
पंचमहाल ज़िले के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की अदालत ने कालोल और पंचमहाल ज़िले के आसपास के गांवों में हुए सांप्रदायिक दंगों के 39 अभियुक्तों को बरी कर दिया है. इन 39 अभियुक्तों में से पांच पर एक महिला से गैंगरेप का गंभीर आरोप भी लगा था.
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अभियोजन पक्ष अपराध साबित करने में नाकाम रहा है.
क़रीब बीस साल से इस मामले में 190 अलग-अलग गवाहों और पुलिस और अन्य विशेषज्ञों द्वारा पेश गवाहियों और सबूतों पर अदालत ने ग़ौर किया.
लेकिन कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि इन 190 गवाहों में से कुछ या तो अपने बयान से मुकर गए हैं या फिर अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए सबूतों से असहमत रहे हैं.
इतनी लंबी चली कार्यवाही के दौरान अदालत के सामने कुल 1592 सबूत पेश किये गए.
कालोल पुलिस स्टेशन में कुल 8 अलग-अलग मामले दर्ज किए गए थे, जिसमें बलात्कार की शिकायत के अलावा आईपीसी की विभिन्न धाराएं 143, 145, 147, 148, 149, 435, 436, 302, 376, 323, 324, 325, 504, 506 ( 2), 427, 341 और बी.पी. अधिनियम की धारा 135 के तहत मामला दर्ज किया गया था.
मामले में बचाव पक्ष के वकील गोपाल सिंह सोलंकी ने बीबीसी गुजराती से बात करते हुए कहा कि जिनके ख़िलाफ़ केस था उनमें से 27 लोग ही जीवित हैं जबकि 12 लोगों की मौत हो चुकी है.
सोलंकी ने आगे कहा, “अलग-अलग घटनाओं में कुल 17 लोगों की मौत हुई है. इस मामले के सभी अभियुक्त हिंदू नहीं थे, मुसलमान भी थे. लेकिन सभी के ख़िलाफ़ अपराध का कोई सबूत नहीं मिला है.”
जिन अभियुक्तों को बरी किया गया है उनमें कालोल थाने के तत्कालीन पुलिस सब इंस्पेक्टर रमनभाई जयरामभाई पाटिल भी शामिल हैं. हालांकि पाटिल की भी मौत हो चुकी है.
गोपाल सिंह सोलंकी कहते हैं कि इन सभी अभियुक्तों को गुजरात हाई कोर्ट ने पहले ही ज़मानत दे दी थी इसलिए वे पहले ही बाहर हो गए थे, लेकिन मुकदमा चलता रहा.
बरी किए गए चार अभियुक्त मुस्लिम समुदाय के और 35 हिंदू समुदाय से थे.
वहीं, इस घटना में जिनके परिजन मारे गए हैं, वे इस फैसले से मायूस हैं और हाई कोर्ट में चुनौती देने पर विचार कर रहे हैं.
नसीमबेन मलिक, जिनके तीन रिश्तेदार इस घटना में मारे गए थे, उन्होंने कहा, “मेरी तबीयत अभी खराब है, लेकिन मैं अपने परिवार के साथ चर्चा करूंगा कि इस फैसले को आगे कैसे चुनौती दी जाए.”
2002 के गुजरात दंगों के दौरान एक अन्य घटना में नसीमबेन के पति की मौत हो गई थी. उस घटना में उन्होंने अपने तीन रिश्तेदारों को खो दिया. एक अन्य घटना में ससुर के रिश्तेदारों को भी खो दिया. उन्होंने अब दोबारा शादी की है.
उनके पति रफ़ीक मलिक ने बीबीसी को बताया, “हमें ऐसा लगता है कि न्याय का गर्भपात हो गया है.”
मलिक कहते हैं, ‘हम बहुत बुरे हालात से गुजरे हैं, आप समझ सकते हैं कि जिनके रिश्तेदार मारे गए उनपर क्या गुजरी होगी. हमें लगता है कि परिस्थितिजन्य सबूतों के बावजूद कहीं न कहीं उसकी अदालत में पेशी में एक कच्चापन दिखाई देता है. क्योंकि घटना हो चुकी है और यह एक सच्चाई है.”
190 गवाहों का परीक्षण किया गया, लेकिन सबूतों के अभाव में अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया, जिससे पीड़ितों के परिजन मायूस हैं. नसीमबेन आगे कहती हैं कि ‘हमारी तरफ से सबूत पेश करने में कोई झिझक नहीं थी.’
हालांकि बचाव पक्ष के एक अन्य वकील विजय पाठक बीबीसी गुजराती से बात करते हुए कहते हैं कि अदालत सबूतों के आधार पर अपना फैसला सुनाती है न कि सनसनी के बिना पर.
विजय पाठक आगे कहते हैं, “सबूत का वैज्ञानिक आधार होना चाहिए और जब मारे गए लोगों के अवशेष फॉरेंसिक लैब भेजे गए तो रिपोर्ट में वह आधार नहीं था”
27 फरवरी, 2002 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस की घटना के बाद एक मार्च को भारत बंद की घोषणा की गई.
कालोल कस्बे और आसपास के गांवों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, जिसके कारण कलोल में हिंदू मुस्लिम समुदायों के बीच झड़पें हुईं.
इस पूरे मामले में सबसे विवादित घटना कालोल स्थित अंबिका सोसाइटी के पास हुई.
थाने में दर्ज शिकायत के मुताबिक, डेलोल गांव से कालोल जा रहे 38 मुसलमानों के एक समूह पर एक हमला किया गया और 11 लोगों को मार कर जला दिया गया. इनमें 17 लोग किसी तरह बच गए.
इनमें एक महिला ने शिकायत की है कि उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया.
महिला गोमा नदी के पास छिपने के लिए भाग रही थी तभी पांचों अभियुक्तों ने सामूहिक बलात्कार किया.
मामला कालोल पुलिस थाने पहुंचा तो यहां ड्यूटी पर तैनात सब इंस्पेक्टर रमनभाई जयराम पाटिल पर 11 अप्रैल, 2002 को शिकायत दर्ज कराने वाली महिला से दो नकारात्मक बयान लेने का आरोप लगाया गया ताकि अभियुक्तों को बचाया जा सके.
असल में महिला को तत्काल मेडिकल परीक्षण के लिए नहीं भेजा गया था.
घटना के समय पीड़िता द्वारा पहने गए कपड़े जब्त कर लिए गए, लेकिन उन्हें फोरेंसिक जांच के लिए एफएसएल नहीं भेजा गया.
पाटिल पर सबूत नष्ट करने और आरोपियों की मदद करने का भी आरोप लगाया गया था. हालांकि, कोर्ट ने फैसले में कहा कि यह साबित नहीं हुआ कि तत्कालीन जांच अधिकारी पाटिल ने सबूतों को नष्ट किया और अभियुक्त की मदद की.
इस मामले में बचाव पक्ष के वकील विजय पाठक का यह भी कहना है कि, “अगर गवाह जिरह के दौरान बयान देता है और फिर कटघरे में अलग बयान देता है तो अदालत किस आधार पर कह सकती है कि बलात्कार किसने किया.”
इस मामले में शिकायतकर्ता पीड़िता ने खुद पहले कहा था कि उसके साथ पांच लोगों ने एक साथ दुष्कर्म किया था लेकिन शपथ पत्र में किसी का नाम नहीं बताया कि किस आरोपी ने उसके साथ दुष्कर्म किया.
एक गवाह ने पहले बयान दिया था कि वह उन लोगों को जानती है जिन्होंने महिला के साथ बलात्कार किया था, लेकिन अदालत में मुकर गयी और कहा कि वह अभियुक्त की पहचान नहीं कर सकी क्योंकि उसने जो विवरण दिया था वह सुनी सुनाई बात थी.
अदालत ने अभियुक्तों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि अभियोजन पक्ष सबूत नहीं दे पाया. एक अन्य गवाह ने यह भी कहा कि उन्हें अदालत में गवाही देने के लिए डराया या फुसलाया नहीं गया था.
विजय पाठक का कहना है कि ‘एक तरफ शिकायतकर्ताओं में से कुछ ने लापता होने का बहाना बनाकर सरकार से लाखों रुपये की धनराशि ली है और दूसरी तरफ शिकायत करते हैं कि उन्हें मार दिया गया है.’