DMT : Mumbai : (18 मार्च 2023) : –
बतौर निर्देशक नंदिता दास की तीसरी फ़िल्म है ‘ज़्विगाटो’. टीवी की दुनिया में कॉमेडी के बादशाह कहे जाने वाले कपिल शर्मा उनकी इस फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ासियत हैं.
फ़िल्म में फैक्ट्री मज़दूर की नौकरी छिन जाने के बाद भुवनेश्वर में फूड डिलीवरी का काम करने वाले मानस महतो की भूमिका कपिल शर्मा ने निभाई है.
नंदिता को इस भूमिका के लिए कपिल शर्मा का ख्याल एक अवार्ड फंक्शन से जुड़े वीडियो क्लिप्स देखकर आया था. इस कार्यक्रम में कपिल मशहूर फ़िल्मकार करण जौहर के साथ होस्ट कर रहे थे.
पिछले साल टोरंटो इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल के समकालीन वैश्विक सिनेमा वर्ग में इस फ़िल्म का प्रीमियर हुआ था.
प्रीमियर के तुरंत बाद फ़ेयरमोंट यार्क होटल में बातचीत करते हुए नंदिता दास ने बताया, “वे बहुत स्वभाविक और सहज भाव से अभिनय करने वाले लगे, जिन पर किसी का कोई असर नहीं था. वे एकदम आम आदमी जैसे लगे थे.”इसके बाद नंदिता दास ने इंस्टाग्राम पर कपिल शर्मा को फॉलो करना शुरू किया और उनके कुछ और वीडियो क्लिप देखे. तब जाकर उन्हें महसूस हो गया कि कपिल शर्मा खुद एक बड़े स्टार हैं और वे आम आदमी तो बिलकुल नहीं हैं. लेकिन इसके बाद भी नंदिता को उनमें आम आदमी का चेहरा नज़र आता रहा.
नंदिता ने जब मानस महतो के किरदार के लिए कपिल शर्मा के बारे में अपने कास्टिंग डायरेक्टर को बताया तो वे घबरा गए थे.
ख़ुद कपिल शर्मा को जब ये इस फ़िल्म की पेशकश की गई तो वे भी घबराए. लेकिन फ़िल्म के प्रदर्शित होने के बाद स्पष्ट है कि नंदिता का भरोसा सही साबित हुआ.
उनके भरोसे पर खरा उतरते हुए कपिल शर्मा ने रिहर्सल में अपनी भाषा और व्यवहार में पर काफी काम किया.
नंदिता दास ने बताया, “उन्होंने अपने अतीत के दिनों को याद किया और भूमिका को पूरी तरह से आत्मसात कर लिया. वे कहा करते थे, ‘मैं भीड़ की खुशबू भूल गया था.’ एक एयर कंडीशन कमरे से दूसरे एयर कंडीशनर कमरे तक भागते हुए वे तपती धूप को भूल चुके थे, लेकिन इस फ़िल्म ने उन्हें उसकी याद वापस दिलाई.”
‘ज़्विगाटो’ फ़िल्म की कल्पना मूल रूप से कोरोना संकट के दौरान की गई थी. मूल रूप से चार निर्देशक मिलकर नए और शहरी भारत की कहानियों पर एक एंथॉलॉजी बना रहे थे. इसमें आसपास तेज़ी से होने वाले बदलावों की कहानियों पर काम करना था.
हालांकि इस आइडिया पर काम नहीं हो पाया लेकिन समय के साथ नंदिता दास ने अपने 20 मिनट की अपनी कहानी को फ़ीचर फ़िल्म के तौर पर विकसित करने का मन बनाया.
20 मिनट की कहानी एक दंपति की कहानी थी. नंदिता ने उसमें बच्चे, परिवार और उनके संघर्षों को मिलाकर फ़िल्म का रूप दे दिया.
मंटो और फ़िराक जैसी ऐतिहासिक शोध आधारित फ़िल्में बना कर थक चुकीं नंदिता इस फ़िल्म को सहज रिलेशनशिप पर आधारित फ़िल्म के तौर पर बनाना चाहती थीं.
इस फ़िल्म की पटकथा के लिए उन्होंने दोस्त और स्क्रॉल वेबसाइट के संस्थापक समीर पाटिल को साथ लिया, शुरुआती बातचीत के बाद फ़िल्म की पटकथा, बेरोज़गारी, उसकी चिंताओं, असंगठित और ठेके पर आधारित कामगारों की अर्थव्यवस्था और नए-नए स्टार्टअप पर आधारित हो गई.
फ़िल्म की पटकथा इन मुद्दे से संबंधित आंकड़ों और शोध पर आधारित है. साथ ही इसमें फूड डिलीवरी का काम करने वाले अलग-अलग युवाओं से बातचीत कर उनके इनपुट भी शामिल किए गए हैं, ताकि फ़िल्म पूरी तरह से प्रासंगिक दिखे.
नंदिता दास ने बताया, “दुनिया भर में गिग इकॉनॉमी यानी अस्थायी मज़दूरी को लेकर बात हो रही है, चाहे वे ऑमेजान के कर्मचारी या ऊबर के कर्मचारी. भारत में भी महिलाएं इन कंपनियों का विरोध कर रही हैं. इस पर चर्चाएं भी बढ़ी हैं.”
नए दिहाड़ी मज़दूर वर्ग की मुश्किलें
नंदिता दास के मुताबिक़ भारत में जेंडर, जाति, वर्ग और धर्म के आधार पर असमानता और भेदभाव की स्थिति है और यह खाई नई अर्थव्यवस्था में बढ़ती जा रही है.
नंदिता कहती हैं कि उनकी फ़िल्म उन लोगों की कहानी है जो नए शहरी दिहाड़ी मज़दूर हैं जिसकी बदौलत कोरोना लॉकडाउन के दौरान भी लोगों का जीवन चलता रहा. वो कहती हैं कि इन लोगों को भेदभाव और उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है.
उन्होंने कहा, “यह उन लोगों की कहानी है, जो हमारे जीवन में हैं, लेकिन अदृश्य है. कोरोना संकट के दौरान इन लोगों ने कांटेक्टलेस डिलीवरी दी, इन लोगों को फाइव स्टार की रेटिंग देने, टिप्स देने और या फिर उनके साथ थोड़ा मानवीय व्यवहार करने में मुश्किल नहीं होनी चाहिए.”
डिलीवरी ब्वॉय की रोज़र्मरा की मामूली ज़िंदगी में कुछ भी बड़ा नहीं होता है. वे बेहतर रेटिंग हासिल कर कुछ इंसेंटिव हासिल करना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए दूसरी तरफ़ उन्हें कई समझौते करने होते हैं, यहां तक कि कई बार अपनी गरिमा तक से समझौते करते हैं.
नंदिता दास के अनुसार इसके बाद भी चाहे जितनी मुश्किलें हों ये अपनी जिंदगी में खुशियों के मौक़े तलाश लेते हैं. वो कहती हैं, “फ़िल्मों के ज़रिए ऐसी सूक्ष्म बातों को दर्शाने में मेरी दिलचस्पी रही है.”
वैसे ज़्विगाटो कोई गुडी-गुडी फील देने वाली फ़िल्म नहीं है. फ़िल्म मानस की मुश्किलों को दिखाती है और उसके बाद कोई हल भी नहीं है.
नंदिता दास कहती हैं, “मुझे नहीं लगता है कि सिनेमा से कुछ बदलाव हो सकता है और न ही यह समस्या का समाधान दे सकती है. आप केवल आईना दिखा सकते हैं. बस ये कह सकते हैं कि इन लोगों की ऐसी ज़िंदगी है. अगर लोगों की सहानुभूति उमड़ती है और वे दबी छिपी चीज़ों को सामने ला पाते हैं, तो अच्छा ही है.”
फ़िल्म का मुख्य चरित्र भले मानस महतो के रूप में कपिल शर्मा हैं लेकिन शाहाना गोस्वामी ने उनकी पत्नी की भूमिका उतने ही शानदार अंदाज़ में निभाई है.
नंदिता के मुताबिक शहाना गोस्वामी में कपिल शर्मा जितनी ही एनर्जी दिखती है. वो कहती हैं, “मुझे लगता है कि महिला किरदारों को लिखने में मुझे हमेशा मज़ा आता है, भले ही नायक एक पुरुष ही क्यों न हो.”
वैसे कपिल शर्मा की तारीफ़ एक और पहलू के लिए होनी चाहिए, फ़िल्म में काम करते वक्त वे स्थानीय कलाकारों से पूरी तरह घुलमिल गए.
फ़िल्म के पांच कलाकार मुंबई के हैं, इनके अलावा बाक़ी सभी भुवनेश्वर के स्थानीय कलाकार हैं.
यह कहानी झारखंड के एक परिवार की है जो भुवनेश्वर में रह रहा है. इस लिहाज़ से देखें तो फ़िल्म ने हिंदी सिनेमा को एक नई जगह, नए लोग और कुछ अलग तरह की वास्तविकताओं से जोड़ा है. फ़िल्म को देखते वक्त ये सब एक ताज़गी जैसा महसूस होता है.
हिंदी सिनेमा में दिखेंगी भुवनेश्वर की गलियां
नंदिता दास बताती हैं, “एक भारत के अंदर कई भारत है. मैं दस भाषाओं में फ़िल्में कर चुकी हूं. देश के कई हिस्सों में जा चुकी हूं. जीवन के शुरुआती दिनों में सोशल वर्क से भी जुड़ी रही थी. मुझे हमेशा लगता है कि फ़िल्मकारों को नई जगह, भाषा और लोगों के बारे में भी बताना चाहिए.”
वैसे नंदिता का भुवनेश्वर से कनेक्शन है, हालांकि इस फ़िल्म की शूटिंग के दौरान ही उन्हें भुवनेश्वर में ठहरने का मौक़ा मिला है.
नंदिता बताती हैं, “अब तक मुझे लोगों का बताना पड़ता है कि मैं ओडिशा से हूं. लोग मुझे बंगाली समझते हैं और मैं उन्हें बताती हूं कि नहीं मैं ओडिशा से हूं. मैं कोई संकीर्ण क्षेत्रवादी नहीं हूं लेकिन ओडिशा से होने के बारे में बताना हमेशा परेशान करने वाला अनुभव है.”
वैसे नंदिता की इच्छा महानगरों से इतर नए उभरते शहर में फ़िल्म की शूटिंग करना चाहती थीं. इसके बारे में बताते हुए उन्होंने कहा, “मेरे ख्याल से नए उभरते शहरों में परंपरागत चलन और तकनीक का मिश्रण कहीं ज़्यादा स्पष्टता से मुखर होता है. मुझे उन शहरों में वास्तविक भारतीयता का एहसास होता है. इसलिए मैंने सोचा क्यों नहीं भुवनेश्वर में शूटिंग की जाए, जिसे अभी तक मुख्यधारा की हिंदी फ़िल्मों में उस तरह से नहीं दिखाया गया है.”
ये फ़िल्म ब्रिटेन में डिलीवरी करने वाले एक शख़्स और उनकी पत्नी की मुश्किलों पर आधारित थी. केन लोच की फ़िल्मों में कामगार हमेशा से दिखते आए हैं, लेकिन कामगारों की मुश्किलें भारतीय फ़िल्मकारों को प्रभावित नहीं करते.
नंदिता दास इस मायने में अपवाद दिखती हैं. दोनों देशों की वास्तविकताओं में अंतर की बात करते हुए नंदिता ने कहा, “ब्रिटेन से एक तरह के अवसाद का बोध होता है. मुझे नहीं मालूम ऐसा क्यों है लेकिन भारत हमेशा उम्मीद जगाता है. यहां लोगों का भरोसा बना रहता है.”
नंदिता के लिए फ़िल्में ही पूरी दुनिया और पूरा जीवन नहीं है. वो सिनेमा खाती हूं, सोती हूं, पीती हूं या सांस लेती हूं, जैसा कोई दावा नहीं करती हैं. वे सिनेमा को एक माध्यम के तौर पर ही देखती हैं और मानती हैं कि सिनेमा को ही संवाद करना चाहिए.
नंदिता कहती हैं, “मैं चाहती हूं कि फ़िल्में लोगों तक पहुंचे और सारे सवालों के जवाब ना भी दे तो उससे एक बहस का सिलसिला शुरू हो.” उम्मीद यही है कि ज़्विगाटो से डिलीवरी ब्वॉय की ज़िंदगी और मुश्किलों पर बातचीत का सिलसिला शुरू होगा.