एससीओ समिट से पहले जयशंकर की दो टूक, पीएम मोदी की क्या रहेगी लाइन

Hindi New Delhi

DMT : नई दिल्ली : (03 जुलाई 2023) : –

भारत की अध्यक्षता में चार जुलाई को शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन यानी एससीओ समिट होने जा रही है.

भारत ने इसे वर्चुअली कराने का फ़ैसला किया है.

पहले माना जा रहा था कि भारत इस का आयोजन इन-पर्सन यानी आमने-सामने करेगा लेकिन मई महीने के आख़िरी हफ़्ते में इसे वर्चुअल करने की घोषणा की थी.

एससीओ में कुल आठ सदस्य हैं. इनमें चीन, रूस, भारत, पाकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, कज़ाख़्स्तान और उज़्बेकिस्तान हैं.

एससीओ को चीन के दबदबे वाला संगठन माना जाता है. ब्रिक्स को भी चीन के दबदबे वाला संगठन माना जाता है और भारत इसका भी सदस्य है.

कुछ विश्लेषक ब्रिक्स और एससीओ को अमेरिका विरोधी संगठन के रूप में भी देखते हैं.

ब्रिक्स में ब्राज़ील, रूस, इंडिया, चीन और साउथ अफ़्रीका हैं. इसमें सऊदी अरब और ईरान भी शामिल होने वाले हैं.

भारत के पास दुनिया की 20 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले देश जी-20 की भी अध्यक्षता है और भारत इस बैठक की भी सितंबर में मेज़बानी करने वाला है.

भारत ने जब एससीओ समिट का आयोजन वर्चुअल कराने का फ़ैसला किया था तो कई तरह के कयास लगने शुरू हो गए थे.

कइयों का मानना था कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के आने को लेकर अनिश्चितता थी इसलिए भारत ने इसे वर्चुअल रखने की घोषणा की थी.

ब्रिक्स में ‘साहिब चीन, बीबी रूस, ग़ुलाम भारत?

भारत एक तरफ़ चीन के दबदबे वाले ब्रिक्स और एससीओ में है तो दूसरी तरफ़ अमेरिका के अगुवाई वाले क्वॉड में भी है.

क्वॉड में भारत के अलावा जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया है.

क्वॉड को चीन अपने ख़िलाफ़ मानता है और रूस भी कह चुका है कि क्वॉड में भारत को अमेरिका चीन विरोधी मोहरा बना रहा है.

भारत का ब्रिक्स और एससीओ में रहना अमेरिका को पसंद नहीं है और क्वॉड में रहना चीन के साथ रूस को पसंद नहीं है.

दूसरे विश्व युद्ध के बाद शीत युद्ध के दौर में जब दुनिया अमेरिका और सोवियत यूनियन के नेतृत्व में दो खेमों में बँटी थी तब भारत ने गुटनिरपेक्ष रहना चुना था.

भारत ने ख़ुद को दोनों खेमों से तटस्थ रखा था. हालांकि, ऐसा माना जाता है कि भारत वैचारिक रूप से सोवियत यूनियन के क़रीब था और यह क़रीबी 1991 में रूस बनने के बाद भी रही.

भारत के क्वॉड और एससीओ में होने को कई लोग उसकी विदेश नीति में विरोधाभास के तौर पर भी देखते हैं.

बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी चीन, रूस और भारत को साहेब, बीवी और ग़ुलाम कहते हैं.

स्वामी चीन को साहेब, रूस को बीवी और भारत को ग़ुलाम बताते हैं.

स्वामी कहते हैं कि चीन अपने हितों के लिए ‘बीवी’ का इस्तेमाल करता ही है और ‘ग़ुलाम’ के पास हाथ मलने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है.

अब कई विशेषज्ञ इस बात को मान रहे हैं कि यूक्रेन युद्ध ने रूस को चीन पर ज़्यादा निर्भर बना दिया है और भारत के लिए स्थिति ज़्यादा जटिल हो गई है.

ऐसे में भारत भी विकल्प तलाश रहा है कि वह रक्षा मामलों में रूस पर निर्भर ना रहे.

कोलकाता में श्यामा प्रसाद लेक्चर में उन्होंने कहा था कि भारत एक टाइम में कई देशों के साथ रहना पसंद करता है.

जयशंकर ने कहा था कि भारत का रूस से बहुत ही मज़बूत संबंध है और किसी भी देश को अमेरिका के साथ मज़बूत संबंध में आड़े नहीं आना चाहिए.

भारतीय विदेश मंत्री ने कहा था, ”किसी एक देश के साथ बंधे रहना भारत के हित में नहीं है. हम पारंपरिक रूप से रूस के साथ रहे हैं लेकिन यह संबंध अमेरिका के साथ मज़बूत संबंध में बोझ नहीं बनना चाहिए.”

हालांकि, अमेरिका कोशिश कर रहा है कि भारत की रूस पर रक्षा मामलों में निर्भरता कम हो.

रूस की चीन से गहरी दोस्ती है और भारत से भी है.

लेकिन भारत की चीन से तनातनी ऐतिहासिक रूप से रही है लेकिन भारत ने कभी इस बात को लेकर उलाहना नहीं दी कि रूस का चीन से गहरा संबंध क्यों है.

ऐसे में भारत भी चाहता है कि अमेरिका से भारत की गहराती दोस्ती के मामले में रूस को असहज नहीं होना चाहिए.

चीन अपनी विदेश नीति को ‘तीन ना’ से पारिभाषित करता है. ये तीन ना हैं- (नो अलायंस) कोई गुट नहीं, (नो कॉन्फ्रंटेशन) कोई टकराव नहीं और (नो टार्गेटिंग थर्ड पार्टीज़) किसी तीसरे पक्ष पर निशाना नहीं.

ये तीन ना डेंग श्याओपिंग के ज़माने से ही हैं.

यूक्रेन संकट के दौरान भारत ने ख़ुद को गुटनिरपेक्ष नीति के तहत किसी खेमे में नहीं जाने दिया.

कई जानकार कहते हैं कि भारत नॉन अलाइनमेंट (गुट निरपेक्ष) के बदले अब मल्टी-अलाइनमेंट (बहुपक्ष) की नीति पर चल रहा है.

लेकिन ये बात भी कही जा रही है कि जो हर गुट में होता है, वह किसी भी गुट में नहीं होता है.

मल्टीअलाइनमेंट टर्म का सबसे पहले इस्तेमाल 2012 में शशि थरूर ने किया था. तब शशि थरूर मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री थे.

शशि थरूर ने कहा था, ”नॉन अलाइनमेंट यानी गुटनिरपेक्ष नीति अपना प्रभाव खो चुकी है. 21वीं सदी मल्टी-अलाइनमेंट की सदी है.

भारत समेत कोई भी देश दूसरे देशों से सहयोग के बिना आगे नहीं बढ़ सकता है. हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जहाँ अलग नहीं रहा जा सकता. भारत भी ज़्यादा वैश्विक हुआ है.”

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस टर्म के लिए शशि थरूर को श्रेय भी दिया था. जयशंकर के श्रेय देने के बाद शशि थरूर ने उन्हें शुक्रिया कहा था.

रूस के आधिकारिक दस्तावेज़ भी अलायंस के ख़िलाफ़ दलील देते रहे हैं.

चीन के साथ भी अलायंस को लेकर स्पष्ट कहा गया है कि एक उदार व्यवस्था ज़्यादा ठीक है, किसी अलायंस के बरक्स.

यूक्रेन पर हमले में चीन ने रूस को अपने हितों के हिसाब से ही समर्थन किया है.

चीनी अधिकारी और वहाँ के मीडिया का कहना है कि अमेरिका और नेटो यूक्रेन को हथियार देकर आग से खेल रहे हैं.

द अटलांटिक ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि यूक्रेन संकट में चीन रूस का इस्तेमाल कर रहा है.

रूस और चीन की दोस्ती पर द अटलांटिक ने रिपोर्ट में लिखा है, ”1960 के दशक में चीन और रूस ने पश्चिम को मात देने का मौक़ा हाथ से निकल जाने दिया था क्योंकि शीत युद्ध के दौरान दोनों कट्टर प्रतिद्वंद्वी बन गए थे.

दुनिया के दो शक्तिशाली स्वेच्छाचारी शासन वाले देश अमेरिका के नेतृत्व वाली उदार व्यवस्था के ख़िलाफ़ साथ आ गए हैं.

लोकतांत्रिक देश यूक्रेन पर रूस का चीन के समर्थन से हमला उदार अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के लिए गंभीर ख़तरा है.

ऐतिहासिक रूप से चीन और रूस का संबंध टकराव भरा रहा है. 1960 के दशक के आख़िर में शीत युद्ध के दौरान दोनों देशों में तनाव इतना बढ़ गया था कि परमाणु युद्ध के क़रीब पहुँच गए थे.”

द अटलांटिक ने लिखा है, ”हालांकि, दोनों देश पारस्परिक हितों को लेकर अब साथ आ गए हैं. आर्थिक रूप से दोनों के बीच बढ़ता व्यापार पारस्परिक फ़ायदे वाला है. चीनी को अपनी इंडस्ट्री की भूख मिटाने के लिए तेल, गैस, कोयला और अन्य कच्चे माल की ज़रूरत है, जिसकी पूर्ति रूस कर रहा है.

पुतिन और शी जिनपिंग को क़रीबी दोस्त के रूप में देखा जाता है. 2019 में शी जिनपिंग ने पुतिन को सबसे अच्छा दोस्त कहा था.

दोनों अमेरिका की वैश्विक हैसियत से चिढ़े रहते हैं. दोनों अपने वैश्विक मक़सद में अमेरिका को सबसे बड़ा अवरोध मानते हैं. यह डर बढ़ता जा रहा है कि पश्चिम का वर्चस्व एशिया और यूरोप में रहेगा या नहीं.”

इस बदलती विश्व व्यवस्था में भारत को लगता है कि क्वॉड के साथ एससीओ और ब्रिक्स में रहना उसके हित में है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *