कर्नाटक: बीजेपी का दक्षिण का दुर्ग क्यों ध्वस्त हो गया?

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DMT : कर्नाटक  : (14 मई 2023) : –

कर्नाटक का चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों के बदले स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित हो गया था और कांग्रेस ने इसमें बाजी मार ली.

बीजेपी के लिए दक्षिण का द्वार समझा जाने वाला कर्नाटक उसके हाथ से निकल गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तूफानी कैंपेनिंग भी बीजेपी के इस दुर्ग को बचा नहीं पाई.

कांग्रेस ने इस बार मुद्दों को पहचानने में अच्छी समझ दिखाई. कांग्रेस ने बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी का मुद्दा उठाया.

पार्टी ने जीतने पर महिलाओं के लिए जो योजनाएं लागू करने का वादा किया था उसका असर दिखा और कांग्रेस के पांच साल बाद दोबारा कर्नाटक की सत्ता में आने का रास्ता साफ हो गया.

कर्नाटक के चुनाव नतीजों ने कांग्रेस का हौसला बढ़ा दिया है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों और फिर 2024 के लोकसभा चुनावों कांग्रेस इसी बढ़े हुए हौसले के साथ मैदान में उतरेगी और बीजेपी को मज़बूती से टक्कर दे सकेगी.

कर्नाटक के चुनाव नतीजों ने साबित कर दिया है कि यहां की जनता लगातार दूसरी बार किसी पार्टी को मौका नहीं देती. ये सिलसिला 1985 से ही चला आ रहा है.

दस मई को हुए चुनाव में लोगों ने जम कर वोट दिए. राज्य में मतदान प्रतिशत 73.1 था. कर्नाटक में इससे पहले इतना मतदान कभी नहीं हुआ था.

खास बात है कि इस बार मतदाताओं ने स्पष्ट जनादेश दिया है. 2018 की तरह इस बार त्रिशंकु विधानसभा की कोई स्थिति नहीं है.

कर्नाटक चुनाव का अहम पहलू

कर्नाटक में इस बार के चुनाव की खास बात ये रही कि कांग्रेस ने स्थानीय मुद्दों पर फोकस किया. उसने राष्ट्रीय मुद्दों की ओर ध्यान नहीं भटकाया. जबकि पीएम नरेंद्र मोदी लगातार ‘डबल इंजन’ की सरकार और ‘केरला स्टोरी’ का जिक्र कर कांग्रेस को अपने मैदान में खेलने के लिए घसीटना चाहते थे.

राजनीतिक विश्लेषक राधिका रामाशेषण ने बीबीसी हिंदी से कहा, ”विपक्ष गवर्नेंस के मुद्दे पर केंद्रित रहा. इस रणनीति के मुकाबले बीजेपी भटकी हुई नजर आई. विपक्ष के इस दांव की उसके पास कोई काट नहीं थी.”

उनका कहना था कि 2008 में बीएस येदियुरप्पा अकेले बीजेपी को सत्ता में ले आए थे. उस वक्त राज्य में कृषि सुधार के वादे किए गए थे.

राधिका रामाशेषण कहती हैं, ”बासवराज बोम्मई की तरह उन्होंने धार्मिक कार्ड नहीं खेला, वो केंद्रीय नेतृत्व के प्रति ज्यादा वफादार दिखाने के लिए ऐसा कर रहे थे.”

“हिजाब विवाद, मंदिरों के मेले में दुकान खोलने वाले मुस्लिमों के ख़िलाफ़ कार्रवाई और बजरंग दल की बजरंग बली से तुलना जैसे मुद्दे बोम्मई सरकार की पहचान बन गए. बजरंग दल वाले मुद्दे का तो पीएम ने भी जिक्र किया था.”

लोगों का मूड भांपने में कांग्रेस कामयाब

जागरण लेकसाइड यूनिवर्सिटी के प्रो वाइस चांसलर और राजनीतिक विश्लेषक संदीप शास्त्री ने कहा, ”कांग्रेस ने अपनी कैंपेनिंग के आखिरी चरण में जय बजरंग बली का नारा उछाला. ये कहते हुए कि जब संकट आता है तो आप बजरंग बली के पास जाते हैं. कांग्रेस शायद ही ऐसा करती है.”

शास्त्री कहते हैं, ”कांग्रेस ने लोगों का मूड सही पकड़ा. लोग नाखुश थे और पार्टी ने इसे अच्छे तरीके से प्रोजेक्ट किया. अमूमन देखा जाता है कि कांग्रेस बीजेपी के प्रचार अभियान के नैरेटिव में फंस जाती है. लेकिन इस बार उसने जवाबी अभियान चलाया.”

“इस अभियान में ऊर्जा, योजना और रणनीति तीनों दिखाई दे रही थी. कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि बीजेपी ने जो स्ट्रेटजी अपनाई वो नाकाम रही.”

हिमाचल की तरह ही कांग्रेस ने कर्नाटक में भी महिलाओं के मुद्दों पर ध्यान दिया. पांच गारंटी योजनाओं में से दो महिलाओं से जुड़ी हैं. इसने महिलाओं को सीधे प्रभावित किया.

कांग्रेस ने बीपीएल परिवार की महिला मुखिया को हर महीने 2000 रुपये देने और राज्य की बसों में महिलाओं के मुफ्त सफर का वादा किया है.

रामाशेषन ने कहा, ”बीजेपी ने उज्जवला स्कीम के तहत मुफ्त गैस सिलेंडर बांटे थे, लेकिन गैस के दाम कई बार बढ़ने की वजह से इसका असर खत्म हो गया. यह गरीबों के साथ किया गया क्रूर मजाक था.”

बदली हुई रणनीति

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस ने इस बार अपना कार्ड ऐसा खेला जैसा 1992 में अमेरिकी चुनाव में क्लिंटन ने जॉर्ज बुश के ख़िलाफ़ खेला था.

क्लिंटन की टीम ने ये सुनिश्चित किया था कि मुद्दे लोगों की चिंताओं से जुड़े हों. टीम ने राजनीतिक मुद्दों को तवज्जो नहीं दी. क्लिंटन के रणनीतिकारों ने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा- ‘इट्स इकोनॉमी स्टुपिड!’

शास्त्री मानते हैं कि कांग्रेस की पांच गारंटी स्कीमों ने वैसा ही काम किया जैसा क्लिंटन की टीम की रणनीति ने किया था.

कांग्रेस ने बीपीएल परिवारों को हर महीने 200 यूनिट फ्री बिजली देने का वादा किया है. साथ ही ग्रेजुएट्स और डिप्लोमा होल्डर्स को दो साल तक बेरोजगारी भत्ता देने का भी एलान किया गया है. बीपीएल परिवारों के सदस्यों को हर महीने दस किलो चावल देने का वादा भी मेनिफेस्टो में है.

बीजेपी सरकार पहले अन्न भाग्य स्कीम के तहत सात किलो चावल देती थी लेकिन इसे बाद में घटा कर चार किलो कर दिया गया था. इससे गरीब दुखी हो गए.

रामाशेषण मानती हैं कि चालीस फीसदी कमीशन का मामला ऐसा मुद्दा था, जिसने समाज के हर वर्ग को प्रभावित किया. भ्रष्टाचार तो एक सदाबहार मुद्दा रहा है.

रिजर्वेशन का विवाद

बासवराज बोम्मई सरकार ने रिजर्वेशन पॉलिसी में छेड़छाड़ की. इसके साथ ही वो उन आर्थिक मुद्दों में फंस गई, जो लोगों को परेशान कर रहे थे. इससे लोगों के बीच एक ऐसी स्थिति बन गई जिसे ‘इंद्रधनुषी सामाजिक गठबंधन’ कहते हैं. ”

शास्त्री कहते हैं, ”सिद्धारमैया के अहिंद समीकरण (कन्नड़ में अल्पसंख्यक, ओबीसी और दलित) के साथ वोक्कालिगा और लिंगायत वोटों का एक हिस्सा आ मिला और इससे जो ‘इंद्रधनुषी सामाजिक गठबंधन’ बना, उसका बीजेपी काट नहीं निकाल पाई.”

तटीय इलाकों को छोड़ दें तो कांग्रेस की जीत की रेंज को देखें तो पाएंगे कि बीजेपी ने उन दलितों का भी वोट खो दिया, जिन्हें येदियुरप्पा ने 2008 में हासिल किया था.

येदियुरप्पा ने मादिगा समुदाय के लोगों को रिजर्व सीटें देकर दलितों के बीच कांग्रेस की पैठ खत्म कर दी थी. इसके बदले मादिगाओं से ये वादा लिया गया था कि वे नजदीकी सामान्य सीटों पर लिंगायत उम्मीदवारों की मदद करेंगे.

इसके बाद से कांग्रेस मादिगाओं का समर्थन पाने में नाकाम रही थी. उत्तर कर्नाटक के जिलों में बीजेपी को जीत मिली है उससे साबित होता है कि उसके पास ज्यादातर लिंगायतों का जो समर्थन था वो भी इस बार उसके साथ नहीं रहा.

माना जाता है कि 65 फीसदी लिंगायत वोट बीजेपी को मिलते हैं बाकी कांग्रेस के खाते में जाते हैं. नतीजे बताते हैं कि बीजेपी को मिलने वाले लिंगायतों के समर्थन में सेंध लगी है.

पंचमशालियों ने नहीं दिया साथ?

पंचमशालियों की ओर से अलग से रिजर्वेशन की मांग के मुद्दे को लेकर बीजेपी का जो रुख रहा था उससे भी लिंगायतों का एक वर्ग पार्टी से खफ़ा था.

पंचमशाली लिंगायतों का सबसे बड़ा समूह है. वो बाकी लिंगायतों के साथ खुद को नहीं मिलाना चाहते थे, लेकिन बोम्मई सरकार ने मुस्लिमों का चार फीसदी रिजर्वेशन वापस लेकर दो-दो फीसदी लिंगायतों और वोक्कालिगा में बांट दिया.

लिंगायत समुदाय के सबसे बड़े नेता येदियुरप्पा को बीजेपी की ओर से साइडलाइन किए जाने के बाद रिजर्वेशन का मुद्दा आया. प्रोफेसर शास्त्री ने कहा कि येदियुरप्पा को किनारे कर राष्ट्रीय नेताओं ने अभियान की बागडोर संभाली.

येदियुरप्पा को बाद में चुनाव प्रचार में उतारा गया, लेकिन उनके हाव-भाव से ऐसा लग रहा था कि उन्हें पर्याप्त तवज्जो नहीं दी गई. वो सेकेंडरी रोल में थे.

जबकि दूसरी ओर कांग्रेस ने वादा किया था कि वह 50 फीसदी रिजर्वेशन को बढ़ा कर 75 फीसदी तक ले जाएगी.

दूसरे मुद्दे

बीजेपी को हराने वाली वजहों में जनता दल (सेक्युलर) का पुराने मैसुरू इलाके में ध्वस्त हो जाना रहा.

यहां मुख्य चुनौती देने वाली पार्टी कांग्रेस थी. बीजेपी ने यहां पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूरा जोर लगाया. अमित शाह भी आए ताकि वोक्कालिगा समुदाय के लोगों की मजबूत मौजूदगी वाले इलाके में पार्टी को जीत दिला सकेंगे.”

शास्त्री ने बताया, ”एक तरह से मुकाबला दोतरफा हो गया. जहां तीन या चार उम्मीदवारों में टक्कर थी, ऐसे कुछ सीटों पर तो बीजेपी को जीत मिली है, लेकिन जहां-जहां जनता दल (सेक्युलर) कमजोर साबित हुई वहां लोगों के थोक वोट बीजेपी के बजाय कांग्रेस को गए.”

उत्तर कर्नाटक में ज्यादा सीटों का मतलब

अब ये तय हो गया है कि जो पार्टी उत्तर कर्नाटक में जीतती है वही सरकार बनाती है.

कांग्रेस, बॉम्बे-कर्नाटक जिलों की 50 में से 33 सीटों पर जीतने में कामयाब रही. हैदराबाद-कर्नाटक जिलों में भी उसे 40 में से 26 सीटें मिलीं. पुराने मैसुरू जिले में भी इसे अधिकतर सीटों पर कामयाबी मिली.

कर्नाटक के तटीय और बेंगलुरू शहरी क्षेत्र की सीटों पर बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा रहा है.

चुनाव का राष्ट्रीय असर

रामाशेषण कहती हैं, ”कांग्रेस के लिए ये हौसला बढ़ाने वाला चुनाव रहा है. इसने राहुल गांधी में और आत्मविश्वास भरा है.”

“इसके साथ ही इसने बीजेपी को यह संदेश दिया है कि कर्नाटक में येदियुरप्पा और राजस्थान में वसुंधरा राजे जैसे राज्य के बड़े नेताओं के पर नहीं कतरे जाने चाहिए. केंद्र के आदेश राज्यों में कामयाब नहीं होते.”

एआईसीसी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने बीबीसी हिंदी से कहा था कि कर्नाटक में पीएम को आकर डबल इंजन की सरकार जैसी बात करने की कोई जरूरत नहीं थी. जबकि मामला पूरा स्थानीय था.

खड़गे ने बीबीसी से कहा था, ”बेहतर होगा कि प्रधानमंत्री अपने काम पर ध्यान दें. उन्हें जिस चीज के लिए चुना गया है वही करें. वो नगरपालिका के अध्यक्ष, मेयर या मुख्यमंत्री नहीं हो सकते.”

कर्नाटक की सफलता के बाद कांग्रेस ने कहा कि पार्टी उत्तर भारत के उन राज्यों में भी यही नीति अपनाएगी जहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.

बड़ा सवाल

अब सवाल ये है कि कांग्रेस अमित शाह के उस बयान को कैसे देखेगी, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर कांग्रेस जीती तो राज्य में सांप्रदायिक दंगे होंगे.

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