DMT : लातेहार : (03 मई 2023) : –
झारखंड के लातेहार ज़िले के मनिका प्रखंड के लंका गांव में परहिया आदिम जनजाति के लोग रहते हैं.
झारखंड में सबर, कोरवा, असुर, बिरहोर, परहिया, पहाड़िया, माल पहाड़िया और बिरजिया को आदिम जनजाति यानी जो विलुप्त होने के कगार पर हैं, की श्रेणी में रखा गया है.
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक परहिया आदिम जनजाति की संख्या मात्र 25,585 है. यह मुख्य रूप से लातेहार और पलामू ज़िले में रहते हैं. वहीं पूरे राज्य में आदिम जनजातियों की संख्या 2,92,359 है.
लंका गांव का ऊंचवाबाल टोला परहिया आदिम जनजातियों का मोहल्ला है. जहां कुल 60 परिवार यानी लगभग 300 लोग रह रहे हैं. मनरेगा योजना किस तरह से समाज के ग़रीब तबके के जीवन को प्रभावित करती है, इसकी एक नायाब मिसाल झारखंड के लातेहर ज़िला में दिखती है.
मनरेगा के तहत आम की बागवानी
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने साल 2016 में यहां मनरेगा के तहत आम की बागवानी शुरु करवाई. कुल 300 पौधे लगाए गए. अब क़रीब सात साल बाद इसमें अधिकतर फल देने की स्थिति में आ गए हैं.
टोले के प्रधान महावीर परहिया बीबीसी हिन्दी से कहते हैं, ‘बीते दो सालों से हमलोग इस बगीचा से लगभग 40 हजार रुपए का आम बेच लेते हैं. यह पैसा पांच परिवारों में बंटता है, क्योंकि इस जमीन में उनकी भी हिस्सेदारी है.’
इस बागीचे की लाभार्थियों में से एक मनमतिया परहिया कहती हैं, “आम के साथ-साथ हम इसमें भिंडी, खीरा, प्याज, लहसन, चना सहित साग और सब्जी भी उगा रहे हैं. अब बाजार के केवल तेल-मसाला ही खरीदना पड़ता है. जब साग-सब्जी खेत से नहीं निकल रहा होते है तब जंगल से कंद-मूल लाकर बनाते हैं.”
बागीचे में काम कर रही तारा देवी बताती हैं, ‘आम के पैसों से साग-सब्जी का बीज-पौधा खरीद कर लाते हैं. मेरा एक तीन साल का बच्चा है, जो पैसा बच जाता है उसके पढ़ाई और कपड़ों के लिए जमा कर रही हूं.’
बंधुआ मज़दूर से मनरेगा मज़दूरी तक
इस गांव और परहिया आदिम जनजाति समुदाय के लिए मनरेगा किसी वरदान की तरह ही है. ग्राम प्रधान महावीर परहिया के मुताबिक उनका टोला बंधुआ मजदूरों का टोला था.
वो कहते हैं, ‘लंका गांव में शेड्यूल कास्ट और अपर कास्ट के लोग अधिक रहते हैं. नब्बे के दशक तक हमलोग एक रुपया महीना पर मज़दूरी करते थे.’
वो बताते हैं, ‘मनरेगा आने के बाद भी अपर कास्ट के लोग ही ठेका लेते थे, और हमारे टोले के किसी को काम नहीं देते थे. साल 2016 में पहली बार हमें काम मिला.’
बता दें कि मनरेगा को धरातल पर साल 2006 में लागू किया गया. बीना देवी भी मनरेगा मजदूर हैं. वह भी साल 2016 से ही मनरेगा के तहत मजदूरी कर रही हैं. लेकिन उस साल का लगभग 2000 रुपया उनका बक़ाया है, जो अभी तक नहीं मिला. हालांकि बाद के दिनों में जब भी काम किया, उसके पैसे उन्हें ज़रूर मिले हैं.
परहिया जनजाति के साथ मनरेगा के तहत आम की बागवानी अपने आप में मुश्किल भरा काम था क्योंकि यह आदिम जनजाति मूल रूप से जंगलों से निकले कंद मूल और शिकार पर निर्भर रहनेवाली जनजाति मानी जाती है.
झारखंड मनरेगा संघर्ष समिति के संयोजक जेम्स हेरेंज बीबीसी से कहते हैं, ‘परहिया जनजाति अभी प्री एग्रीकल्चर के स्टेज पर हैं. ये खेती में अभी प्रवेश ही कर रहे हैं. किसी को यकीन नहीं था कि ये लोग ऐसा कर पाएंगे.’
‘लेकिन ज्यां द्रेज सहित पूरी टीम और गांववालों ने इसे एक चैलेंज के रूप में लिया. ज्यां के लिए मनरेगा को स्ट्रक्चर देना एक बात थी. लेकिन उसे ज़मीन पर उतारना अलग. वो ये लगातार खुद भी सीख रहे थे कि लागू करने और उसके प्रभाव का आकलन के बाद कितनी स्थिति बदली है.’
‘साल 2010-11 के आसपास मनरेगा के तहत कुआँ निर्माण शुरू किया गया. जिन लोगों को कुआँ मिला वो सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि ऐसा मुमकिन हो पाएगा.. इसके प्रभाव का आकलन भी किया गया. साफ़ देखा गया कि उसके बाद खेती बढ़ी और परिवारों की आय बढ़ा.’
उंचवाबाल में भी मनरेगा के तहत छह कुएं खोदे गए. ग्रामीण इसका इस्तेमाल खेती में कर रहे हैं.
उंचवाबाल टोला मनरेगा के तहत आम की बागवानी और वहीं खेती का एक सफल मॉडल पेश कर रहा है. लेकिन सवाल ये है कि अगर यह एक सफल मॉडल है, तो इसे पूरे राज्य या भारत के अन्य राज्यों में क्यों नहीं लागू किया जा सका है?
ज्यां द्रेज कहते हैं, “झारखंड में ज्यादातर छोटे किसान हैं, जो अपने दम पर ऐसा जोखिम भरा निवेश नहीं कर सकते हैं. उनकी पहली प्राथमिकता पेट पालने भर फसल उगाने की होती है. फसली ज़मीन को आम की बागवानी की जमीन में बदलना एक जोख़िम भरा सौदा है.”
वो आगे कहते हैं, “मुनाफ़ा ज़्यादा मिलेगा, लेकिन पांच साल के बाद. और, जब किसान के पास जानकारी कम हो तो जोखिम और बढ़ जाता है.”
ज्यां द्रेज ये भी कहते हैं, “चूंकि अब परिणाम सामने है. आम के बागान में खेती साथ में चल रही है. ऐसे में रिस्क अब कम है. अब बाक़ी जगहों पर ऐसा करने पर परिणाम भी बेहतर आएंगे और लोग आसानी से इससे जुड़ेंगे भी.”
इसी सवाल के जवाब में जेम्स हेरेंज कहते हैं, ‘झारखंड सरकार ने ‘बिरसा हरित ग्राम योजना’ के तहत पूरे झारखंड में 28,000 पेड़ लगवाए हैं.’
जेम्स इस पूरी प्रक्रिया के दूसरे प्रभाव पर भी बात करते हैं, वो कहते हैं, “जागरुकता आने से ये लोग डाकिया योजना, आदिम जनजाति पेंशन योजना का भी लाभ ले रहे हैं. आज के दिन में ये कम-से-कम शोषण से पूरी तरह मुक्त हैं.”
टोले में बड़ी संख्या में महुआ के पेड़ हैं. इस वक्त महुआ चुना जा रहा है. यहां की महिलाएं महुआ चुन रही हैं. उसे बाजार में 30 से 40 रुपए किलो बेच रही हैं. महुआ चुनने में छोटे बच्चे- बच्चियां भी लगी हुई है.
क्या ये बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं?
गांव के बनवारी परहिया बताते हैं, “टोले में एक स्कूल है, लेकिन वहां मात्र दो शिक्षक हैं. वो केवल हाजिरी लगाकर चले जाते हैं. बच्चों को हर दिन मिड डे मील भी नहीं मिलता है.”
इस आदिम जनजाति के लोगों तक स्कूल के पहुंचने की भी कहानी है.
महावीर परहिया कहते हैं, “साल 2002 में टोले के लोगों ने मिलकर फूस (लकड़ी और पुआल की मदद से) का एक स्कूल बनाया. जहां लंका गांव में रह रहे कुछ उरांव जनजाति के शिक्षित लड़के यहां के बच्चों को पढ़ाने आते थे.”
“उस वक्त प्रति बच्चा हम उन्हें 5 रुपया देते थे. कुल 35 बच्चों के साथ स्कूल शुरू हुआ. आज वह स्कूल सरकारी हो गया. गांव के कई बच्चे लातेहार, गुमला, रांची के आदिवासी आवासीय विद्यालयों में पढ़ रहे हैं.”
टोले के सुनील परहिया 10वीं पास हैं. वो 11वीं की पढ़ाई के साथ-साथ गांव में हो रहे मनरेगा और अन्य कामों का हिसाब रखते हैं कि किसे कितना पैसा मिला, किसका कितना बक़ाया है, आदि.
यह टोला ओरंगा नदी के ठीक किनारे है. यहां भारी मात्रा में बालू है. टोले के लोगों ने नियम बनाया कि बालू ले जाने वालों को प्रति ट्रैक्टर टोले की समिति को 200 रुपये देने होंगे. इन पैसों से फिलहाल ये लोग एक सामुदायिक भवन का निर्माण कर रहे हैं.
ज़रूरी सुविधाओं का अब भी अभाव
मनरेगा ने उंचवाबाल के आदिवासियों को बंधुआ मजदूरी से मुक्ति तो दिलाई. उनके आर्थिक स्थिति में भी सुधार लाया. लेकिन बेसिक सुविधाओं का यहां अब भी अभाव दिखता है.
टोले की बिगो उराइन बताती हैं, “दो साल पहले तक टोले तक आने के लिए कोई सड़क नहीं थी. सरकार और पंचायत की मुखिया से मांग-मांग कर थक गए, लेकिन नहीं मिला. फिर हम लोगों ने 20 दिन श्रमदान कर लगभग 3.50 किलोमीटर कच्ची सड़क का निर्माण किया.”
वहीं टोले के 60 परिवारों में किसी से पास शौचालय नहीं है. बिजली भी नहीं है. लेकिन आम के साथ साग सब्ज़ी की खेती से इन लोगों के जीवन में थोड़ी ही सही लेकिन उम्मीद की रोशनी दाख़िल हुई है.
मनरेगा के तहत कितनी मिलती है मज़दूरी
इस साल केंद्र सरकार के बजट के बाद से मनरेगा को लेकर चर्चाओं का दौर थम नहीं रहा है.
एक तरफ़ माना जा रहा है कि बजट में कटौती का असर समाज के सबसे निचले तबके पर होगा, वहीं दूसरी ओर मार्च महीने के अंत में मनरेगा के मज़दूरों की मज़दूरी में बढ़ोत्तरी भी हुई है.
झारखंड में मज़दूरी 210 रुपये से बढ़कर 228 रुपए हो गई है. इसके अलावा 27 रुपए राज्य सरकार देती है, अब यहां मजदूरों को प्रतिदिन 255 रुपए मज़दूरी मिलेगी.
राजधानी रांची से 133 किलोमीटर दूर लातेहार जिले के मनिका प्रखंड के लंका गांव की बीना देवी परहिया आदिम जनजाति की हैं.
बीना देवी कहती हैं, ‘हमिन सब दिन दिक़्क़ते में रहबीं का. इ त ठीक बात हइ ने कि मजदूरी बढ़ गया. बाल बच्चा के अच्छा से पोसब.’ (हमलोग हमेशा दिक्कत में ही रहेंगे क्या. ये तो अच्छी बात है कि मजदूरी बढ़ गई है. अब बाल बच्चों को अच्छे से पालूंगी).
ज़ाहिर है कि बढ़ोत्तरी को लेकर मनरेगा मज़दूरों में खुशी भी है. यह बढ़ोत्तरी अलग- अलग राज्यों में अलग अलग हुई है, लेकिन इस बारे में बिहार के जन जागरण शक्ति संगठन के आशीष रंजन बताते हैं, “बढ़ोत्तरी तो होनी ही है लेकिन यह न्यूनतम मज़दूरी दर के आस पास भी नहीं पहुंची है. यह अपर्याप्त है और यह सरकार के अपने बनाए न्यूनतम मजदूरी दर के क़ानून का उल्लंघन भी है.”