देश छोड़कर विदेश जाने की फ़िराक़ में क्यों हैं म्यांमार के युवा?

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DMT : म्यांमार  : (28 फ़रवरी 2024) : –

म्यांमार में पासपोर्ट कार्यालय के बाहर हुई भगदड़ में दो लोगों की मौत हुई. वहीं दूतावासों के बाहर लोगों की लाइनें लग रही हैं.

ये केवल कुछ उदाहरण हैं जो बताते हैं कि सेना में अनिवार्य भर्ती क़ानून की घोषणा के बाद से म्यांमार में ये सब हो रहा है.

म्यांमार की सैनिक सरकार के ख़िलाफ़ विरोध तेज़ होता जा रहा है. देश के बड़े हिस्से पर हथियारबंद विद्रोही गुटों ने क़ब्ज़ा कर लिया है.

सेना ने 1 फ़रवरी 2021 को सरकार का तख्तापलट कर सत्ता पर क़ब्ज़ा जमा लिया था. सैन्य सरकार ने चुने हुए नेताओं को जेल में डाल दिया. देश के बड़े हिस्से को खूनी गृहयुद्ध में झोंक दिया, यह आज भी जारी है.

24 साल के रॉबर्ट ने बीबीसी से कहा, “इस समय सेना में काम करना बकवास है, क्योंकि हम विदेशी आक्रमणकारियों से नहीं लड़ रहे हैं. हम एक-दूसरे से लड़ रहे हैं. अगर हम सेना के लिए काम करते हैं, तो यह उनके अत्याचारों में योगदान देना होगा.”

कई युवा सेना में काम करने की जगह देश छोड़ना चाह रहे हैं.

यंगून में थाईलैंड के दूतावास के बाहर फ़रवरी के शुरू में खड़ी भीड़ का हिस्सा रही एक किशोरी ने कहा, “मैं यहां साढ़े तीन बजे पहुंची थी. वहां पहले से ही क़रीब 40 लोग वीज़ा का आवेदन जमा करने का टोकन लेने के लिए लाइन में खड़े थे.” लड़की ने दावा किया कि एक घंटे में ही दूतावास के सामने 300 से अधिक लोगों की भीड़ जमा हो गई.

उन्होंने बीबीसी से कहा, “मुझे इस बात का डर सता रहा था कि अगर मैंने और इंतज़ार किया, तो दूतावास अराजकता को देखते हुए वीज़ा की प्रक्रिया को निलंबित कर सकता है.” उन्होंने बताया कि कुछ लोगों को टोकन पाने के लिए भी तीन दिनों तक का इंतज़ार करना पड़ा.

मांडले में पासपोर्ट कार्यालय के बाहर मची भगदड़ में दो लोगों की मौत हो गई. वहां बीबीसी को बताया गया कि भगदड़ में लोगों को गंभीर चोटें भी आई हैं, नाले में गिरने से एक व्यक्ति का पैर टूट गया, जबकि दूसरे के दांत टूट गए. वहीं छह अन्य लोगों ने सांस लेने में कठिनाई की जानकारी दी है.

डेनिश इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में म्यांमार के शोधकर्ता जस्टिन चैंबर्स का कहना है कि सेना में अनिवार्य भर्ती युवाओं को विरोध के रास्ते से हटाने का एक तरीक़ा है.

वो कहते हैं, “हम विश्लेषण कर सकते हैं कि सेना में अनिवार्य भर्ती का क़ानून कैसे म्यांमार की सेना की कमज़ोरी का संकेत है, इसका उद्देश्य जीवन को नष्ट करना है… कुछ लोग भागने में सफल हो जाएंगे, लेकिन कई लोग अपने ही देशवासियों के ख़िलाफ़ मानव ढाल बन जाएंगे.”

म्यांमार में सेना में अनिवार्य भर्ती का क़ानून पहली बार 2010 में पेश किया गया था. लेकिन 10 फ़रवरी तक इसे लागू नहीं किया गया था. सैन्य शासन जुंटा का कहना है कि यह क़ानून 18 से 35 साल के सभी पुरुषों और 18 से 27 साल तक की सभी महिलाओं के लिए सेना में कम से कम दो साल काम करने को अनिवार्य बनाएगा.

म्यांमार की सैनिक सरकार के प्रवक्ता मेजर जनरल जॉ मिन तुन ने एक बयान में कहा कि देश की पांच करोड़ 60 लाख की आबादी में से क़रीब एक चौथाई लोग इस क़ानून के तहत अनिवार्य रूप से सेना में सेवाएं देने के पात्र हैं.

हालांकि सैन्य सरकार ने बाद में कहा कि उसने अभी महिलाओं के लिए सेना में अनिवार्य भर्ती की योजना नहीं बनाई है, लेकिन यह नहीं बताया गया है कि इसका आशय क्या है.

वहीं एक सरकारी प्रवक्ता ने बीबीसी बर्मीज़ को बताया कि अप्रैल के मध्य में बर्मीज़ नव वर्ष के अवसर पर होने वाले थिंगयान उत्सव के बाद इस क़ानून पर अमल शुरू किया जाएगा. पहले पांच हज़ार रंगरूटों की भर्ती की जाएगी.

युवाओं की पढ़ाई-लिखाई का नुक़सान

तख़्तापलट के कारण कई युवाओं की पढ़ाई-लिखाई बाधित हुई, यह कोविड-19 महामारी की वजह से स्कूलों के बंद होने से चरम पर पहुंच गई.

म्यांमार टीचर्स फ़ेडरेशन के मुताबिक़ 2021 में, जुंटा ने विपक्ष का समर्थन करने के आरोप में 145,000 शिक्षकों और विश्वविद्यालय कर्मचारियों को निलंबित कर दिया था. वहीं विपक्ष के कब्ज़े वाले इलाकों में कुछ स्कूल लड़ाई या हवाई हमलों में नष्ट हो गए.

ऐसे लोग भी हैं जो शरण लेने की तलाश में भागकर सीमा पार पहुंच गए. इनमें वो युवा भी शामिल हैं, जो अपना परिवार पालने के लिए नौकरी की तलाश कर रहे हैं.

सेना में अनिवार्य भर्ती क़ानून के जवाब में कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर कहा कि वे सेना में नौकरी करने से बचने के लिए बौद्ध भिक्षु संघ में शामिल हो जाएंगे या जल्दी शादी कर लेंगे.

जुंटा का कहना है कि सेना में अनिवार्य भर्ती के नियम से धार्मिक समुदाय के सदस्यों, विवाहित महिलाओं, विकलांगों, सैन्य सेवा के लिए अयोग्य समझे गए लोगों और जिन्हें भर्ती बोर्ड ने छूट दी है, उन्हें स्थायी छूट दी जाएगी. इसके बाद बचे लोगों के भर्ती से बचने पर तीन से पांच साल तक की जेल की सज़ा और जुर्माना हो सकती है.

लेकिन रॉबर्ट को इस बात का संदेह है कि सैन्य शासन इन रियायतों का सम्मान करेगा. उन्होंने कहा, “जुंटा जिसे चाहे उसे गिरफ्तार और अगवा कर सकता है. कानून का कोई राज नहीं है, उन्हें किसी के प्रति जवाबदेह होने की ज़रूरत नहीं है.”

किन देशों में जाना चाह रहे हैं लोग

म्यांमार के धनी परिवार अपने परिवार के सदस्यों को विदेश ले जाने पर विचार कर रहे हैं. थाईलैंड और सिंगापुर उनके लोकप्रिय विकल्प हैं, लेकिन कुछ लोग आइसलैंड तक जाने के बारे में भी सोच रहे हैं. उन्हें उम्मीद है कि जब तक उनके बच्चे अनिवार्य भर्ती की उम्र तक पहुंचेंगे, वहां उन्हें स्थायी निवास का अधिकार या नागरिकता मिल जाएगी.

ऑल बर्मा फेडरेशन ऑफ स्टूडेंट यूनियंस के आंग सेट ने बताया कि अन्य लोग प्रतिरोध बलों में शामिल हो गए हैं, जिसका सैन्य शासन से लड़ने का एक लंबा इतिहास है.

निर्वासन में रह रहे 23 साल के इस युवा ने कहा, “जब मैंने यह ख़बर सुनी कि मुझे सेना में सेवा करनी होगी, तो मैं सच में निराश हो गया. मुझे अन्य लोगों के लिए भी बहुत निराशा हुई, खासकर उन लोगों के लिए जो मेरे जैसे युवा हैं. कई युवाओं ने अब जुंटा के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए अपना पंजीकरण कराया है.”

वहीं कुछ पर्यवेक्षकों का कहना है कि सेना में अनिवार्य भर्ती के क़ानून के लागू होने से अब देश पर जुंटा की कम होती पकड़ का पता चलता है.

तख़्तापलट के बाद सैन्य शासन को सबसे गंभीर झटका पिछले साल अक्टूबर में लगा था. उस समय जातीय विद्रोहियों के गठबंधन ने भारत और चीन की सीमा पर दर्जनों सैन्य चौकियों पर कब्ज़ा कर लिया था. सैन्य शासन ने बांग्लादेश और भारतीय सीमा पर एक बड़ा इलाका इन विद्रोहियों की वजह से खो दिया है.

सैन्य सरकार के ख़िलाफ़ हथियारबंद विद्रोह

म्यांमार की निर्वासित सरकार होने का दावा करने वाली राष्ट्रीय एकता सरकार के मुताबिक़ देश के 60 फीसदी से अधिक इलाके पर अब प्रतिरोध बलों का नियंत्रण है.

जेसन टॉवर अमेरिका के पीस इंस्टीट्यूट में बर्मा कार्यक्रम के देश निदेशक हैं. उन्होंने कहा, “जातीय सशस्त्र संगठनों से मिली अपमानजनक हारों के बाद जबरन भर्ती शुरू कर सेना सार्वजनिक तौर पर यह दिखा रही है कि वह कितनी हताश है.”

टॉवर को उम्मीद है कि जुंटा के ख़िलाफ़ बढ़ती लोगों की नाराज़गी की वजह से सैन्य शासन का यह कदम विफल हो जाएगा.

वो कहते हैं, “अनिवार्य भर्ती से बचने वाले कई युवाओं के पास पड़ोसी देशों में भागने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होगा. इससे क्षेत्रीय मानवीय और शरणार्थी संकट बढ़ जाएगा.”

सेना भले ही बलपूर्वक सैनिकों की संख्या बढ़ाने में कामयाब हो जाए, लेकिन इससे सेना के गिरते मनोबल का समाधान करने में कोई मदद नहीं मिलेगी. उन्होंने कहा कि नए सैनिकों को प्रशिक्षित करने में भी कई महीने लग जाएंगे.

ये मायो हेन वुडरो विल्सन इंटरनेशनल सेंटर फॉर स्कॉलर्स में फेलो हैं. वो कहते हैं कि अनिवार्य भर्ती का क़ानून लागू होने से पहले भी जुंटा का जबरन भर्ती का एक लंबा इतिहास रहा है.

यहां तक ​​कि जो लोग भागने में सफल भी हो जाते हैं, उनमें से भी कई लोग जीवनभर चोटों और भावनात्मक दर्द को झेलते रहेंगे.

ऑल बर्मा फेडरेशन ऑफ स्टूडेंट यूनियंस के आंग सेट कहते हैं, “म्यांमार के युवाओं के लिए यह शारीरिक और मानसिक रूप से कठिन रहा है. हमने अपने सपने, अपनी उम्मीदें और अपनी जवानी खो दी है. यह पहले जैसा नहीं हो सकता है.”

वो कहते हैं, “ये तीन साल ऐसे ही बीत गए. जुंटा के ख़िलाफ़ लड़ाई के दौरान हमने अपने दोस्तों और सहकर्मियों को खो दिया. कई परिवारों ने अपने प्रियजनों को खो दिया है. यह इस देश के लिए एक बुरा सपना रहा है. हम रोज़ाना जुंटा के अत्याचारों को देख रहे हैं. मैं इसे शब्दों में बयान नहीं कर सकता हूं.”

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