DMT : भोपाल : (13 दिसंबर 2023) : –
भोपाल में भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में मंगलवार को फिर एक बार कार्यकर्ता चौंक गए. 11 दिसंबर को भी वो तब चौंके थे जब मध्य प्रदेश में पार्टी ने अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा की थी.
इससे एक दिन पहले भी छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री के चयन को लेकर पार्टी ने सबको चौंका दिया था. मंगलवार को राजस्थान की बारी थी क्योंकि वहाँ पर मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा होने वाली थी.
कार्यालय के अतिथि कक्ष में लगे टीवी पर राजस्थान की ख़बर आ रही थी. तभी वसुंधरा राजे सिंधिया ने भजनलाल शर्मा के नाम की घोषणा कर दी. भोपाल में मौजूद नेता और कार्यकर्ताओं ने कभी उनका नाम तक नहीं सुना था. एक नेता ने मुझसे ही पूछा, “ये कौन हैं भजनलाल?”
पहले छत्तीसगढ़ में विष्णु देव साय. फिर मध्य प्रदेश में मोहन यादव और अब राजस्थान में भजनलाल शर्मा. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है चौंकाने वाली राजनीति में भारतीय जनता पार्टी ने अब ‘महारत’ हासिल कर ली है.
कम चर्चित चेहरों को शीर्ष पदों पर ज़िम्मेदारी सौंपने का सिलसिला जो भारतीय जनता पार्टी ने शुरू किया है वो विश्लेषकों की समझ से परे है क्योंकि पार्टी के इस क़दम की अलग अलग तरीक़े से व्याख्या की जा रही है. दिग्गजों को दरकिनार कर पार्टी ने उन नेताओं के हाथों में राज्यों की कमान सौंपी है जिनके नाम किसी फ़ेहरिस्त में दूर-दूर तक नहीं रहे. जो मुख्यमंत्री की रेस में भी नहीं रहे.
राजस्थान को लेकर विश्लेषकों का कहना है कि ‘ये तो कमाल ही हो गया’ क्योंकि कोई सोच भी नहीं सकता था कि पहली बार विधायक बनने वाले किसी नेता को मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा.
भजनलाल शर्मा ने राजस्थान की सांगानेर विधनासभा सीट से चुनाव जीता लेकिन रोचक पहलू ये है कि वो भरतपुर सीट से लड़ना चाहते थे. लेकिन पार्टी को लगा कि वो इस सीट पर जीत नहीं पाएंगे इसलिए उन्हें सांगानेर की सीट से उतारा गया.
वो न सिर्फ़ जीते बल्कि उन्होंने कांग्रेस के अपने प्रतिद्वंद्वी पुष्पेन्द्र भारद्वाज को 48 हज़ार 81 वोटों से हरा दिया. लेकिन कहीं से भी ये संकेत नहीं मिल रहे थे कि वो ‘राज योग’ लेकर चुनाव में उतरे हैं.
छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में जिन्हें मुख्यमंत्री घोषित किया गया है उनके पास चुनाव लड़ने का पहले से अनुभव रहा है. मगर भजनलाल के मामले में सारी अटकलें और सारे गणित धरे के धरे रह गए.
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में जिस दिन भारतीय जनता पार्टी के विधायक दल की बैठक बुलाई गई थी उस दिन प्रदेश कार्यालय में नव निर्वाचित विधायकों का ‘फोटो सेशन’ भी हुआ. बड़े नेता सब सामने की पंक्ति में कुर्सियों पर बैठे हुए थे.
इनमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और इस रेस में शामिल सभी बड़े नेता केंद्रीय पर्यवेक्षकों के साथ मुस्कुरा रहे थे.
तीसरी पंक्ति में खड़े मोहन यादव मुश्किल से ही पहचान में आ रहे थे. लेकिन कुछ ही मिनटों के अंतराल के बाद मोहन यादव आगे की पंक्ति से सबसे प्रमुख नेता बन गए.
ये पहली बार ही हुआ होगा कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर, भोपाल और जयपुर में भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालयों पर मौजूद नेता मुख्यमंत्री के नामों की घोषणा के बाद सकते में आ गए हों.
जो पत्रकार रायपुर और जयपुर में मौजूद थे उनका कहना है कि घोषणा के कुछ मिनटों तक तो कार्यकर्ताओं और नेताओं को ‘कुछ समझ में ही नहीं आया कि ये क्या हुआ.’
भोपाल में भी यही नज़ारा था जहां मुख्यमंत्री की कुर्सी की दौड़ में शामिल नेताओं के समर्थकों ने कार्यालय के बाहर डेरा डाला हुआ था. उनके पास अपने अपने नेताओं के पोस्टर भी थे.
लेकिन जब घोषणा हुई तो सब हैरान रह गए. बाद में मोहन यादव के समर्थकों ने नारे लगाने शुरू किए मगर उनके समर्थकों की तादाद कम थी.
जानेमाने लेखक और राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई को लगता है, “जिस तरह से राजनीतिक दल काम करते हैं या जो राजनीतिक दलों की परंपरा रही है उस राजनीति के व्याकरण को अब भारतीय जनता पार्टी और खास तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बदलने की कोशिश कर रहे हैं.”
वो कहते हैं कि पार्टी नए प्रयोग कर रही है और उसके कई फ़ैसले अप्रत्याशित भी हैं. उन्होंने हरियाणा का उदाहरण दिया और कहा कि मनोहर लाल खट्टर को भी इसी तरह से मुख्यमंत्री चुना गया जबकि उनसे वरिष्ठ और सक्रिय नेता संगठन में मौजूद थे.
उसी तरह, वो कहते हैं, “महाराष्ट्र में भी देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी ने क़द्दावर मराठा नेताओं को चौंका दिया था. फिर फडणवीस को उपमुख्यमंत्री भी बना दिया गया. एनसीपी के अजित पवार भी उपमुख्यमंत्री हैं जबकि शिवसेना के एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री हैं.”
किदवई कहते हैं, “सिर्फ़ इतना ही नहीं, उत्तरखंड में तो विधानसभा के चुनाव हारने के बावजूद पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बना दिया गया. ये सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी और सिर्फ़ मोदी ही इस तरह का रिस्क ले सकते हैं.”
भारतीय जनता पार्टी ने सिर्फ़ मुख्यमंत्री के चयन में नहीं बल्कि उपमुख्यमंत्री के चयन में भी अपनी ही पार्टी के नेताओं को चौंका दिया है.
चाहे छत्तीसगढ़ में विजय शर्मा और अरुण साव हों या मध्य प्रदेश में राजेंद्र शुक्ल और जगदीश देवड़ा – पार्टी ने इसके ज़रिये जातिगत समीकरणों में संतुलन बनाने का प्रयास भी किया है.
उसी तरह राजस्थान में भी हुआ जहां जयपुर राजघराने की दीया कुमारी और प्रेम चंद्र बैरवा को उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा की गई है.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इन सभी तीन राज्यों में दो-दो उपमुख्यमंत्री बनाना इस बात के संकेत हैं कि ये आने वाले लोक सभा चुनावों को भी ध्यान में रख कर किया गया है.
वैसे दो उप मुख्यमंत्री फॉर्मूला भारतीय जनता पार्टी महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में भी आज़मा चुकी है.
इससे पहले उत्तर प्रदेश में ये प्रयोग हुआ जब केशव प्रसाद मौर्य और पहले दिनेश शर्मा और बाद में बृजेश पाठक को उप मुख्यमंत्री बना दिया गया और पार्टी का दावा है कि ये फॉर्मूला सफल रूप से चल भी रहा है.
रशीद किदवई कहते हैं, “गुजरात में तो भारतीय जनता पार्टी ने मंत्रिमडल में बिलकुल नए चेहरों को जगह देकर एक तरह से नयी परंपरा की शुरुआत की है. वो कहते हैं कि भूपेन्द्र पटेल के मंत्रिमंडल में ज़्यादातर चेहरे बिलकुल युवा और नए हैं.”
ये प्रयोग नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में भी किया जब उन्होंने राजनीति की पृष्ठभूमि नहीं होने के बावजूद एस जयशंकर, अश्विनी वैष्णव जैसे अधिकारियों को मंत्री बनाया.
वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली कहते हैं कि जिसका ‘जोख़िम’ कांग्रेस ने कभी नहीं उठाया वो जोख़िम भारतीय जनता पार्टी तब से उठाने लगी जब से नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने सत्ता और पार्टी की कमान संभाली.
वो कहते हैं, “कांग्रेस हमेशा से ही पुराने नेताओं पर ही दांव लगाती रही. पार्टी में नए नेताओं को अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहना पड़ता है. मिसाल के तौर पर मध्य प्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के आगे किसी दूसरे चेहरे को कांग्रेस ने प्रमोट नहीं किया.
उसी तरह राजस्थान में वयोवृद्ध अशोक गहलोत के आगे कांग्रेस के किसी नेता की नहीं चली. नए नेतृत्व और नयी पीढ़ी को हमेशा पीछे ही रखा गया. इस लिए भी ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस को अलविदा कहना पड़ा.”
श्रीमाली कहते हैं कि पिछले दस सालों में भाजपा ने ‘पीढ़ी परिवर्तन’ पर काफ़ी ज़ोर दिया है और इसी लिए राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जिस तरह मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के नामों की घोषणा की गई है उसे इसी कड़ी से जोड़कर देखा जाना चाहिए.
लेकिन रशीद किदवई इसे दूसरी तरह से देखते हैं. उनका तर्क है कि ऐसे चेहरे जिनके बारे में कोई चर्चा नहीं होती है या जिनके नाम रेस में नहीं होते हैं और अगर उन्हें महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी जाती है तो वो हमेशा कृतज्ञ रहते हैं और उन्हें ‘रिमोट’ से चलाया जा सकता है. रशीद के मुताबिक ऐसी सूरत में स्थिति हमेशा केंद्रीय नेतृव के नियंत्रण में रहती है.