पीएम मोदी, बीजेपी और एनडीए के ख़िलाफ़ ‘विपक्षी एकता’ की चर्चा अचानक ग़ायब क्यों हो गई है

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DMT : पटना : (14 जुलाई 2023) : –

बिहार की राजधानी पटना में विपक्षी एकता को लेकर जो उत्साह देखा गया था, वह अचानक ग़ायब क्यों है?

क्या आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल की शर्त ने इस एकता को बनने से पहले ही बिगाड़ दिया है? या विपक्षी दलों की अपनी समस्याओं ने इस एकता की संभावना को झटका दिया है?

साल 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी और नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कई महीनों से कोशिश में लगे हुए हैं.

पिछले महीने 23 जून को पटना में 15 विपक्षी दलों की मीटिंग इस लिहाज से एक बड़ी सफलता मानी जा रही थी.

पटना की मीटिंग के बाद यह तय हुआ था कि 10 से 12 जुलाई के बीच शिमला में विपक्षी दलों की दूसरी मीटिंग होगी जिसमें राज्यों में लोकसभा सीटों के बंटवारे पर चर्चा की जाएगी.

इस मीटिंग की ज़िम्मेवारी कांग्रेस पार्टी पर सौंपी गई थी. पहले से तय शिमला की यह मीटिंग रद्द हो चुकी है और अब यह मीटिंग 17 और 18 जुलाई को बेंगलुरु में होगी.

इस बीच आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव ने भी दावा किया है कि बेंगलुरु में 17 दल एक साथ आ रहे हैं.

लालू यादव ने कहा, “वो (बीजेपी को) जो कहना है, कहते रहें, वो नहीं चाहते हैं कि इस पर चर्चा हो क्योंकि वो जा रहे हैं.”

दरअसल विपक्षी एकता को लेकर चर्चा के बंद होने से ही विपक्षी एकता पर सवाल खड़े हुए हैं.

हालांकि, इस सवाल की शुरुआत पटना की मीटिंग के बाद ही हो गई थी.

उस वक़्त आम आदमी पार्टी ने बयान जारी कर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की थी.

पहली दरार

पिछले महीने की 23 तारीख को पटना में हुई मीटिंग के बाद अरविंद केजरीवाल ने यह शर्त रख दी थी कि जब तक कांग्रेस दिल्ली के अध्यादेश के मुद्दे पर अपना रुख़ सार्वजनिक नहीं करेगी तब तक आप ऐसी किसी भी मीटिंग का हिस्सा नहीं बनेगी जिसमें कांग्रेस भी मौजूद होगी.

हालांकि, कांग्रेस ने पटना की मीटिंग में दिल्ली के अध्यादेश के मुद्दे पर आम आदमी पार्टी को समर्थन देने की बात कही थी.

लेकिन आप का कहना है कि कांग्रेस सार्वजनिक तौर पर इसकी घोषणा करे.

अब बेंगलुरु की मीटिंग के पहले भी आम आदमी पार्टी ने इसी शर्त को दोहराया है.

आप की शर्त

आप के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने बीबीसी से कहा है, “हमारा रुख़ इस मामले में स्पष्ट है. कांग्रेस पहले दिल्ली के अध्यादेश के मुद्दे पर हमें समर्थन देने की बात सार्वजनिक तौर पर कहे. हम इंतज़ार कर रहे हैं कि कांग्रेस अपने समर्थन का घोषणा करे.”

संजय सिंह ने दावा किया है कि कांग्रेस ने पटना में सभी विपक्षी दलों के सामने कहा था कि वह संसद के मॉनसून सत्र के 15 दिन पहले ही दिल्ली सरकार को अपने समर्थन का एलान करेगी, लेकिन उसने अब तक ऐसा नहीं किया है.

यह एक ऐसा मुद्दा है जिसमें कांग्रेस खुद असमंजस में नज़र आती है.

इसकी सबसे बड़ी वजह है यह है कि राज्य स्तर पर कांग्रेस के कई नेता आम आदमी पार्टी को लेकर सतर्क हैं.

कांग्रेस की दुविधा

आम आदमी पार्टी से दिल्ली, पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों में कांग्रेस को बड़ा नुकसान हुआ है इसलिए कांग्रेस इस मामले में फूंक-फूंक कर क़दम रख रही है.

अगर केजरीवाल विपक्षी एकता के गुट से अलग होते हैं तो इसका नुक़सान कांग्रेस को दिल्ली, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गोवा में हो सकता है, जहां आप कांग्रेस के वोट बैंक को झटका दे सकती है.

कांग्रेस अगर अरविंद केजरीवाल के साथ खड़ी होती है तो भी उसे कम से कम दिल्ली और पंजाब में कई सीटों पर आप से समझौता करना पड़ सकता है.

जबकि साल 2019 लोकसभा चुनावों के लिहाज़ से इन दोनों राज्यों में कांग्रेस आप से बेहतर स्थिति में नजर आ रही है.

आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के अलावा भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिसने विपक्षी एकता की चर्चा अचानक गायब हो गई है.

इसमें सबसे बड़ी वजह महाराष्ट्र में एनसीपी में हुई टूट है.

एनसीपी के विभाजन के बाद इसका विपक्षी दलों के एक बड़े नेता शरद पवार की ताक़त पर असर पड़ा है.

वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, “अजित पवार ने एनसीपी से जो बग़ावत की है उससे असर पड़ा है और एक तरह का संशय पैदा हुआ है. एनसीपी में टूट से शरद पवार को बड़ा धक्का लगा है, इससे शरद पवार की आवाज़ भी कमज़ोर हुई है.”

हालांकि, विपक्षी गुट में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और जम्मू और कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि एनसीपी में जैसी टूट हुई है वह पहली बार नहीं हुआ है.

इससे पहले मध्य प्रदेश में कांग्रेस को तोड़ा गया, यह सिलसिला पहले से चल रहा है.

उमर अब्दुल्ला ने दावा किया है, “मैं नहीं मानता इससे शरद पवार कमज़ोर हुए हैं. वो इससे और मज़बूत हुए हैं. इसका नतीज़ा तब सामने आएगा जब लोगों को वोट देने का मौक़ा मिलेगा.”

वहीं ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी के सांसद सौगत राय ने तो स्पष्ट तौर पर बयान दिया है कि टीएमसी अकेले दम पर राज्य में लोकसभा चुनाव लड़ सकती है, और हमें किसी विपक्षी एकता की ज़रूरत नहीं है.

इस तरह के बयानों से भी विपक्षी एकता को झटका लगा है.

बिहार में भी विपक्षी एकता को लेकर आशंका के बादल मंडरा चुके हैं.

इसकी बड़ी वजह लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्री रहते हुए कथित ‘लैंड फॉर जॉब’ घोटाले में सीबीआई की ओर से अपनी चार्जशीट में तेजस्वी यादव का नाम शामिल किया जाना है.

अब बीजेपी इस मुद्दे पर तेजस्वी यादव का इस्तीफ़ा मांग रही है जो फ़िलहाल बिहार में उप मुख्यमंत्री के पद पर बैठे हैं.

बिहार में ऐसी भी अफ़वाहों का बाज़ार गर्म रहा कि इस मुद्दे पर नीतीश कुमार और आरजेडी के बीच दूरियां बढ़ सकती हैं और इस मुद्दे पर जेडीयू टूट सकती है.

हालांकि, सोमवार को नीतीश और तेजस्वी दोनों एक साथ बिहार विधानसभा के मॉनसून सत्र में भाग लेने पहुंचे.

जेडीयू नेताओं ने इस बात का खंडन किया है कि महागठबंधन में किसी तरह का मतभेद है.

वहीं आरजेडी सांसद मनोज झा ने भी बयान जारी कर कहा है कि बिहार में कभी भी रिसॉर्ट पॉलिटिक्स नहीं हो सकती है, इसलिए लोग इसकी चिंता न करें. बिहार पूरी तरह सुरक्षित है.

वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं कि इस तरह की अटकलें या खबरें बीजेपी को भी रास आती हैं, लेकिन नीतीश कुमार अगर आरजेडी से रिश्ता तोड़ते हैं तो उनके पास एकमात्र विकल्प बीजेपी के साथ जाने का रह जाता है जिसकी संभावना अब नहीं के बराबर नज़र आती है.

वहीं समाजवादी पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने विपक्षी नेताओं के समर्थन में कहा है, “क्या बीजेपी में सब एकमत हैं, वहां इंजन एक-दूसरे को टक्कर मार रहे हैं. राजनीति में कई लोगों के सुझाव और विचार आते हैं. हमारी कोशिश होगी कि ज़्यादा से ज़्यादा दल एक साथ आएं.”

एक तरफ जहां विपक्षी दल बेंगलुरु में मीटिंग की तैयारी कर रहे हैं, वही बीजेपी भी अपनी ताक़त और सहयोगी बढ़ाने के मुहिम में लगी हुई है.

बीजेपी बिहार में भी जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तान आवाम मोर्चा को अपने साथ जोड़ने में कामयाब रही है.

वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी के मुताबिक़ संभावना यह भी है कि एलजेपी के चिराग पासवान भी जल्द ही एनडीए में शामिल हो सकते हैं और उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाए जाने की ख़बरें भी सामने आ रही हैं.

प्रमोद जोशी कहते हैं, “इस तरह से बीजेपी का भी उत्साह बढ़ा हुआ है और इससे महागठबंधन के मुक़ाबले वह भी तैयार हो रही है. दोनों पक्ष अपनी तैयारियों में लगे हुए हैं, इसलिए भी विपक्षी एकता की चर्चा थोड़ी कमजोर हुई है.”

प्रमोद जोशी के मुताबिक, “कोई भी बात अचानक ख़त्म नहीं होती है. अगर हमारे पास खबरें नहीं आ रही है तो इसका मतलब यह नहीं है कि विपक्षी एकता को लेकर कुछ नहीं हो रहा है.”

“मैं नहीं मानता कि नेताओं के स्तर पर कुछ नहीं हो रहा है. जहां तक ख़बरों की बात है तो मीडिया के सामने कभी प्रधानमंत्री का विदेश दौरा तो कभी बाढ़ जैसी ख़बरें होती हैं इसलिए विपक्षी एकता की ख़बर कम दिखाई दे रही है.”

संसद का मॉनसून सत्र 20 जुलाई से शुरू होने जा रहा है, जो 11 अगस्त तक चलेगा.

यह सत्र तय कर सकता है कि आम आदमी पार्टी विपक्षी एकता के साथ जुड़ेगी या नहीं.

वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, “कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच एक बेरुख़ी पैदा हो गई है. हालांकि अभी इसकी कोई औपचारिक घोषणा नहीं की गई है, हमें देखना होगा कि आप बेंगलुरु की मीटिंग में शामिल होती है या नहीं.”

आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के सामने जिस तरह की शर्त रख रही है उसमें कांग्रेस को दिल्ली से जुड़े अध्यादेश के मुद्दे पर दिल्ली सरकार को अपना समर्थन मॉनसून सत्र के पहले ही ज़ाहिर करना होगा.

भले ही कांग्रेस ने बंगलुरु बैठक के लिए आम आदमी पार्टी को भी न्योता भेजा है.

लेकिन कांग्रेस की तरफ से दिल्ली के अध्यादेश के मुद्दे पर अब किसी फ़ैसले की सार्वजनिक घोषणा नही की गई है.

ऐसे में थोड़े इंतज़ार के बाद ही कांग्रेस और फिर आम आदमी पार्टी का रुख़ साफ हो पाएगा.

उसके बाद ही यह भी स्पष्ट होगा कि पटना में 15 विपक्षी दल मीटिंग में शामिल हुए थे, तो बेंगलुरु में यह संख्या 14 होगी या 17.

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