मणिपुर में हिंसा: बसी-बसाई ज़िंदगी के उजड़ जाने का दर्द झेलते आम लोग

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DMT : मणिपुर  : (11 मई 2023) : –

अपने घर से बेघर होने का दर्द क्या होता है, ये बसंता सिंह की आँखों में साफ़ दिखाई देता है. बसंता अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ मणिपुर के साइकुल इलाक़े में कई सालों से रह रहे थे. वहाँ वो एक किराने की दुकान चलाते थे.

हाल ही में जब राज्य में हिंसा भड़की तो उन्हें अपनी और अपने परिवार की जान बचाने के लिए अपने घर से भागना पड़ा.

पिछले कई दिनों से राजधानी इंफ़ाल के पंगेई इलाक़े में बनाये गए इस राहत शिविर का एक कोना ही अब उनका घर बन कर रह गया है.

घर से भागते वक़्त तन पर जो कपड़े और कुछ गहने थे वही इस परिवार की कुल जमापूँजी के तौर पर बचे हैं.

अपनी बसी-बसाई ज़िंदगी के उजड़ जाने का दर्द इनके चेहरों पर साफ़ दिखता है.

बसंता सिंह कहते हैं, “जब हम साइकुल में रहते थे तो हमारे बच्चों के पास सब कुछ था. उनके पास साइकिल थी, खिलौने थे, किताबें थीं. जब से यहाँ आये हैं तो मेरा बेटा पूछता है कि बाबा मेरे जूते कहाँ हैं, मुझे फ़ुटबॉल खेलने जाना है.”

“वो पूछता है कि मेरी छोटी गाड़ी कहाँ है. बार-बार यही पूछता रहता है. इस बात से मेरा दिल दुखता है.”

जिस हालत में थे, उसी में भागना पड़ा

बसंता मैतेई समुदाय से संबंध रखते हैं और जिस साइकुल इलाक़े में वो रहते थे वहाँ कुकी जनजाति के लोगों की संख्या ज़्यादा है.

वो कहते हैं कि हिंसा के शुरू होते ही उनके कुछ कुकी दोस्तों ने ही उन्हें साइकुल से किसी सुरक्षित जगह पर चले जाने की सलाह दी थी.

वो कहते हैं, “भागना पड़ेगा ना. सिविल वॉर है. हम कुछ भी सामान नहीं ला सके. मैं अपने बेटे की चप्पल तक नहीं ला पाया. जो कपड़े पहने थे उसी में आ गये हम लोग.”

बसंता सिंह दुख और चिंता से घिरे हुए हैं.

वो कहते हैं, “दोनों बच्चों को मैं कैसे पढ़ाऊँगा. कमाने का कोई ज़रिया नहीं है. पैसा भी नहीं है. घर भी नहीं है. कितने दिन तक हम यहाँ रहेंगे. और अगर यहाँ नहीं रहेंगे तो कहाँ जाएँगे. यही सोचता रहता हूँ दिन भर.”

बसंता बताते हैं कि हिंसा शुरू होने पर उन्होंने अपनी दुकान पर ताला लगा दिया था, लेकिन ग़ुस्साई भीड़ ने ताला तोड़ कर उनकी दुकान लूट ली.

जिस राहत शिविर में बसंता सिंह अपने परिवार के साथ रह रहे हैं वहाँ क़रीब 200 लोग मौजूद हैं जिनमें ज़्यादातर महिलायें और बच्चे हैं.

इन लोगों को सरकार की तरफ़ से दरी, चटाई, कंबल और कपड़ों के अलावा खाने-पीने का सामान और दवाइयाँ मुहैया करवाई जा रही हैं.

बसंता सिंह कहते हैं, “बंदूक़ की लड़ाई हमें नहीं चाहिए. बहुत नुक़सान हो रहा है हमारी ज़िंदगी में. बहुत दुख है.”

‘हमारा गाँव जला दिया’

जहां से बसंता जान बचाकर भागे थे उसी साइकुल इलाक़े के एक गिरिजाघर में बनाये गये राहत शिविर में पी गिनलाल ने अपने परिवार के साथ शरण ली है.

गिनलाल भारतीय सेना में बीस साल नौकरी करने के बाद अब रिटायरमेंट की ज़िंदगी जी रहे हैं.

वो कहते हैं कि उनके गाँव को जला दिया गया और इसी वजह से उन्हें राहत शिविर में रहना पड़ रहा है.

पी. गिनलाल कहते हैं, “हमारे गाँव से निकलते ही बीस मिनट में अंदर वो लोग पहुँच गए. उसके बाद गाँव जलाना शुरू कर दिया.”

गाँव से बच निकलने के बाद गिनलाल और उनका परिवार पूरे दिन जंगल में छुपा रहा.

वो कहते हैं, “घर जल जाने के बाद हमारा कोई सहारा नहीं था. फिर फ़ौज हमें लेकर यहाँ आई.”

बसंता सिंह के परिवार की ही तरह पी गिनलाल के परिवार वाले भी जब घर से भागे तो कुछ भी सामान साथ नहीं ले जा सके.

गिनलाल कहते हैं, “जो कपड़े पहने थे बस उन्हीं के साथ जंगल में भाग गए.”

वो कहते हैं, “यहाँ सोने की तकलीफ़ है. खाने की तकलीफ़ है. बच्चे रो रहे हैं. माँ बीमार हैं. दवाई नहीं है देने को. पता नहीं कब माँ की जान चली जाए या किसी बच्चे की जान चली जाए. सरकार क्या देख रही है. हम कोई फ़ॉरेनर (विदेशी) हैं क्या?”

गिनलाल कुकी जनजाति के हैं और उनका कहना है कि मैतेई समुदाय के लोगों ने उनका घर जला डाला.

वो कहते हैं, “सरकार तो हमारी माँ-बाप है. सरकार को यही देखना चाहिए कि किसकी ग़लती है इसमें और ये झगड़ा फ़साद किस वजह से हुआ है. किस लिए घर जलाया है, किस लिए गाँव जलाया गया है. सरकार को एकदम एक्शन लेना चाहिए. आम आदमी को तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए थी.”

गिनलाल कहते हैं कि सरकार अगर अपने लोगों की देखभाल नहीं करेगी और लोगों को मरने के लिए छोड़ देगी तो शांति कैसी होगी.

वो कहते हैं, “लोगों के दिलों में बदला लेने की भावना आयेगी.”

क्यों भड़की हिंसा?

मणिपुर में हुई हिंसा में अब तक साठ से ज़्यादा लोगों की मौत चुकी है और हज़ारों लोग बेघर हो गए हैं.

राज्य के प्रभावशाली मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की माँग को इस हिंसा की मुख्य वजह माना जा रहा है.

मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की बात का विरोध मणिपुर के पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाली जनजातियों के लोग कर रहे हैं. इनमें मुख्यतः कुकी जनजाति के लोग हैं.

जनजातीय लोगों का कहना है कि मैतेई समुदाय पहले से ही साधन-संपन्न और प्रभावशाली है और अगर उन्हें जनजाति का दर्जा दे दिया गया तो न सिर्फ़ जनजातियों को मिल रहे आरक्षण के फ़ायदे कम हो जाएँगे बल्कि जनजातीय लोगों की ज़मीनों पर भी धीरे-धीरे मैतेई समुदाय का क़ब्ज़ा हो जाएगा.

इसी बात को लेकर सुलग रहा विवाद तीन मई को हिंसक झड़पों में तब्दील हो गया जब चुराचाँदपुर में मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने की बात का विरोध करने के लिए एक पदयात्रा निकाली जा रही थी.

मणिपुर के पहाड़ी इलाक़ों में कुकी जनजाति के लोग ज़्यादा हैं और मैतेई समुदाय के लोग कम संख्या में रहते हैं. इसी तरह इंफ़ाल घाटी में मैतेई समुदाय के लोगों की संख्या कुकी समुदाय के लोगों से कई गुना ज़्यादा है.

बहुत से इलाक़े ऐसे भी हैं जहां कुकी और मैतेई समुदायों के लोगों के गाँव एक दूसरे से कुछ ही दूरी पर स्थित हैं.

हिंसा शुरू होते ही राज्य के अलग-अलग इलाक़ों में जो भी समुदाय जिस जगह ज़्यादा संख्या में था उसने कम संख्या वाले समुदाय को निशाना बनाया.

नतीजा ये हुआ कि मैतेई और कुकी दोनों ही समुदायों के सैंकड़ों घर जला कर राख कर दिए गए.

हिंसा के बढ़ने के साथ ही मैतेई बहुल इलाक़ों से कुकी जनजाति के लोगों को और कुकी बहुल इलाक़ों से मैतेई समुदाय के लोगों को अपने घरों से भागना पड़ा.

बिगड़ती स्थिति को देखते हुए जब सेना और अर्ध-सैनिक बलों को राज्य में तैनात किया गया तो उन्होंने दोनों तरफ़ के हज़ारों लोगों को राहत शिविरों तक पहुँचाया.

अब इन हज़ारों लोगों को इनके घरों तक वापस पहुँचाना प्रशासन के सामने एक बड़ी चुनौती है.

हर दिन राज्य के कई इलाक़ों में ऐसे दृश्य आम हो गये हैं जिनमें सैंकड़ों लोगों को गाड़ियों में ठूँस कर उनके घर भेजा जा रहा है.

चुराचाँदपुर के ज़मीनी हालात

जिस चुराचाँदपुर में इस हिंसा की शुरुआत हुई वहाँ अब भी तनाव का माहौल है.

छब्बीस साल की चिन्लियाँमोई चुराचाँदपुर में हुई हिंसा की शिकार उस वक़्त हुईं जब एक गोली उनकी टांग में लग गई.

वो कहती हैं, “मुझे पता नहीं है कि क्या हो रहा है लेकिन मणिपुर में हालात ठीक नहीं हैं. यहाँ हमें प्रवासी कहा जा रहा है जबकि हम प्रवासी नहीं हैं. हमारे पूर्वज यहाँ सालों से रहते आ रहे हैं. जनतियों के साथ हमेशा भेदभाव होता रहा है. अब बस ये बढ़ गया है.”

चुराचाँदपुर के ज़िला अस्पताल में शवों का आना लगातार जारी है.

यहाँ के डॉक्टरों का कहना है कि अस्पताल में भर्ती किए गए लोगों में से क़रीब चालीस लोगों को गोली लगी थी. उनके मुताबिक़ मृतकों में ज़्यादातर लोग गोली लगने की वजह से मरे.

इसी अस्पताल में काम करने वाली नर्स नियांगहोइहचिंग की मौत भी गोली लगने से तब हुई जब वो अस्पताल में अपना काम ख़त्म कर घर पहुँचने की कोशिश कर रही थी.

नर्स नियांगहोइहचिंग के भाई पॉमिंथांग अपनी बहन को खो देने के दुख से जूझ रहे हैं.

वो कहते हैं, “राज्य में भी बीजेपी की सरकार है और केंद्र में भी बीजेपी की सरकार है. ये हिंसा शुरू ही में रोकी जा सकती थी. ये नरसंहार एक दिन में ही रोका जा सकता था.”

चुराचाँदपुर में ज़्यादातर कुकी जनजाति के लोग रहते हैं. उनका आरोप है कि इस हिंसा के लिए मैतेई समुदाय के लोग ज़िम्मेदार हैं.

वहीं दूसरी तरफ़ मैतेई समुदाय के लोग कुकी जनजाति पर यही आरोप लगा रहे हैं. आरोप-प्रत्यारोप के बीच सच कहीं छुप सा गया है. लेकिन एक बात साफ़ है, जनजातीय समुदायों और ग़ैर-जनजातीय समुदायों के बीच दशकों से जो अविश्वास की खाई थी वो इस हिंसा से और भी गहरी हो गई है.

हथियारों के साथ रात भर पहरेदारी

इसी अविश्वास की झलक हमें इंफ़ाल शहर से कुछ दूर पुखाओ इलाक़े में देखने को मिली.

यहाँ रात होते ही मैतेई समुदाय के लोग हथियार लेकर एक साथ इकट्ठा हो जाते हैं. इसी जगह हमें थाउनओजाम रबी मिले.

वो कहते हैं, “हमें डर है कि कुकी समुदाय के लोग हम पर रात में हमला कर देंगे. इसलिए हम यहाँ आये हैं, अपने घरों को जलने से बचाने के लिए. हमारे पास ज़्यादा सुरक्षा नहीं है लेकिन हम अपने घरों को बचाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. अगर जल्द ही इस स्थिति पर क़ाबू नहीं पाया गया तो और भी जानें जायेंगी.”

जिस वक़्त मणिपुर में हिंसा अपने चरम पर थी उस वक़्त कुछ ख़बरें आई कि कई जगहों पर लोगों ने पुलिस थानों से सरकारी हथियार लूट लिए हैं.

पुखाओ में रात भर अपने गाँव की पहरेदारी कर रहे मैतेई लोगों ने ये स्वीकार किया कि उन्होंने पुलिस थानों से हथियार उठाये हैं.

इन लोगों में से एक ने नाम ना छापने की शर्त पर कहा, “जब हमारे गाँवों पर हमले हो रहे थे तो हमने प्रशासन से गुहार लगाई कि हमें सुरक्षा मुहैया कराई जाए. लेकिन जब कोई नहीं आया तो ख़ुद हथियार उठाने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं था. हमने पुलिस से कहा कि या तो आप हमारी रक्षा कीजिए या फिर हमें अपने हथियार दे दीजिए.”

इन लोगों का कहना है कि अपनी जान बचाने के लिए ही उन्होंने हथियार लूटे हैं और अगर सरकार उनकी सुरक्षा सुनिश्चित कर दे तो वो इन हथियारों को लौटाने के लिए तैयार हैं.

पुखाओ में ही रहने वाले डब्ल्यू ओपन सिंह कहते हैं, “हम लोगों के पास ख़ुद को बचाने के लिए कोई उपाय नहीं था. हमारे नज़दीक ही पुलिस स्टेशन है. पुलिस यहाँ तक नहीं आई. पुलिस लड़ाई रोक सकती थी. पुलिस ने वो नहीं किया.”

ख़ौफ़ का माहौल

राज्य के कई इलाक़ों में ख़ौफ़ का माहौल है. लोग एक दूसरे को शक की नज़र से देख रहे हैं और आपसी विश्वास की कमी साफ़ दिख रही है.

इंफ़ाल के लांगोल इलाक़े में कई समुदायों और जनजातियों के लोग सालों से एक साथ रहते आ रहे हैं.

आज वहाँ एक सन्नाटा पसरा हुआ है. इस इलाक़े में एक स्कूल जला दिया गया है और कुछ घरों पर भी हमला हुआ है.

ये लोग नहीं समझ पा रहे हैं कि क्यों उनके इलाक़े में हिंसा हुई. उन्हें डर है कि उनके घरों को कभी भी निशाना बनाया जा सकता है.

लोग अपने घरों से बाहर आने में डर रहे हैं. इस मोहल्ले के लोगों ने अपनी जाति या समुदाय का नाम काग़ज़ पर लिख कर अपने घर के दरवाज़ों पर लगा दिया है.

उनका कहना है कि अपनी जाति को इस तरह घोषित करने से शायद वो अपने घरों को बचा पायेंगे और अगर किसी भीड़ ने हमला किया तो वो शायद उनके घर को उनकी जाति का नाम पढ़कर बख़्श दे.

‘दोषियों को सज़ा मिलनी चाहिए’

मणिपुर सरकार ने राज्य में हुई हिंसा का सच जानने के लिए एक उच्च-स्तरीय जाँच के आदेश दिए हैं. सरकार ने ये भी कहा है कि दोषियों को बख़्शा नहीं जाएगा. हिंसा से प्रभावित लोगों के लिए सरकार ने मुआवज़े का भी एलान किया है.

चुराचाँदपुर में कुकी स्टूडेंट्स ऑर्गनाइज़ेशन के अध्यक्ष ससांग वैफ़ाई कहते हैं, “कोई भी युद्ध या संघर्ष नहीं चाहता. हमने जो झेला है वो ज़रूरत से ज़्यादा है. दोनों तरफ़ के लोग हताहत हुए हैं. दोनों तरफ़ के लोगों की बहुत सारी संपत्ति तबाह हो गई है.”

वहीं हालिया घटनाक्रम से जनजातीय समुदायों में रोष बढ़ता दिख रहा है.

रिसर्च एंड प्रिज़र्वेशन ऑफ़ ज़ो आईडेंटिटीज़ के अध्यक्ष गिंज़ा वुआलज़ोंग कहते हैं, “मुख्य मुद्दा ज़मीन का है. इसके अलावा मणिपुर में जनजातियों के साथ किए जा रहे भेदभाव की बात भी अहम है. हमें लगता है कि हमें प्रभुत्वशाली मैतेई समुदाय से पूरी तरह अलग कर देना चाहिए ताकि हमारा अपना अलग प्रशासन हो.”

इस सबके बीच बसंता सिंह और पी गिनलाल जैसे हज़ारों लोग ये नहीं समझ पा रहे हैं कि उनके साथ ऐसा क्यों हुआ?

बसंता सिंह कहते हैं, “हमारी क्या ग़लती थी. हमने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा था. जल्द से जल्द ख़त्म कीजिए ये लड़ाई. हमारे जैसे लोग उनकी तरफ़ भी होंगे.”

वहीं पी गिनलाल कहते हैं, “दोनों तरफ़ जिसकी भी ग़लती है उन्हें सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए.”

अनिश्चितता से भरा भविष्य और इंसाफ़… शायद यही वो कुछ ख़याल हैं जो इन जैसे हज़ारों लोगों के ज़हन में रह-रह कर उठ रहे हैं.

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