क़तर में क़ैद भारत के पूर्व नौसैनिकों को छुड़ाना क्यों है मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती

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DMT : क़तर  : (11 मई 2023) : –

बात 30 अगस्त 2022 की रात की है. क़तर में काम करने वाले भारत के आठ पूर्व नौसैनिकों को ख़ुफ़िया विभाग के अधिकारियों ने उठा लिया.

इस नाटकीय घटनाक्रम के बाद उन्हें दोहा के एक जेल में बाक़ी क़ैदियों से अलग रख दिया गया.

जेल में बंद किए गए ये भारतीय नागरिक क़तर की नौसेना के लिए काम करने वाली एक कंपनी में वरिष्ठ पदों पर थे.

इन भारतीयों में तीन रिटायर्ड कैप्टन, चार कमांडर और एक नाविक शामिल हैं.

जैसा कि एक पूर्व भारतीय राजनयिक कहते हैं इन लोगों को पिछले नौ महीने से ‘खूँखार अपराधियों’ की तरह अलग-थलग रखा गया है.

हैरानी की बात ये है कि क़तर की सरकार ने आधिकारिक तौर पर उन्हें हिरासत में लेने की कोई वजह नहीं बताई है.

लेकिन स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया की रिपोर्टों के मुताबिक़ गिरफ़्तार किए गए भारतीयों पर दोहा में काम कर रहे एक सबमरीन प्रोजेक्ट की संवेदनशील जानकारियाँ इसराइल से साझा करने का आरोप है.

क़तर में ऐसे आरोपों के साबित होने पर मौत की सज़ा का प्रावधान है.

जेल में बंद ये भारतीय दाहरा ग्लोबल टेक्नोलॉजीज एंड कंसल्टिंग सर्विसेज़ में काम करते थे.

ये कंपनी सबमरीन प्रोग्राम में क़तर की नौसेना के लिए काम कर रही थी. इस प्रोग्राम का मक़सद रडार से बचने वाले हाईटेक इतालवी तकनीक पर आधारित सबमरीन हासिल करना था.

पिछले हफ़्ते क़तर ने कंपनी को बंद करने का आदेश दिया और इसके लगभग 70 कर्मचारियों को मई के अंत तक देश छोड़ने का निर्देश दिया गया है. इनमें ज़्यादातर भारतीय नौसेना के पूर्व कर्मचारी थे.

भारतीय नागरिकों की गिरफ़्तारी ने न सिर्फ़ भारत और क़तर के संबंधों में खटास पैदा कर दी है, बल्कि इन्हें सही सलामत देश वापस लाना मोदी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती भी बन गई है.

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के वेस्ट एशियन स्टडीज़ के प्रोफे़सर एके पाशा कहते हैं, “यह मामला भारत सरकार के लिए एक बड़ा सिरदर्द और बड़ी चुनौती बन गई है.”

इटली और रोमानिया में भारत के राजदूत रहे राजीव डोगरा स्वीकार करते हैं कि “भारतीय नागरिकों के ख़िलाफ़ मामलों को वापस लेना और उन्हें भारत वापस लाना एक बड़ा मुद्दा बन गया है.”

राजीव डोगरा 1980 के दशक के अंत में क़तर में भारतीय दूतावास में राजनयिक भी थे.

वे कहते हैं, “गिरफ़्तार किए गए भारतीय नागरिक महत्वपूर्ण लोग हैं. उन्होंने जीवन भर भारतीय नौसेना में काम किया है. उनके परिवारों की आशा बँधी है कि उन्हें घर वापस लाया जाएगा.”

जॉर्जिया और आर्मीनिया के पूर्व भारतीय राजदूत अचल मल्होत्रा का कहना है कि भारतीयों की रिहाई सुनिश्चित करना और उन्हें घर वापस लाना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए.

अचल मल्होत्रा का कहना है कि यह देखना भारत सरकार की नैतिक ज़िम्मेदारी है कि उन्हें दूतावास से पर्याप्त क़ानूनी और दूसरी तरह की मदद मिले.

आसिफ़ शुजा नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर के मिडिल ईस्ट इंस्टीट्यूट के सीनियर रिसर्च फ़ेलो हैं. वो इसे भारत सरकार की चुनौती नहीं मानते.

वो क़ैद किए गए भारतीयों के बारे में चिंतित नहीं हैं, क्योंकि उन्हें पूरा यक़ीन है कि इन भारतीयों को रिहा कर दिया जाएगा.

इस मुद्दे पर अगर क़तर की सरकार ख़ामोश है, तो भारत सरकार ने भी ज़्यादा खुलकर कुछ नहीं कहा है.

पिछले दिनों जब विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची से इस बारे में सवाल किया गया, तो उन्होंने केवल इतना कहा, “मैं इस बात पर ज़ोर देना चाहता हूँ कि हम हिरासत में लिए गए इन भारतीयों को सभी तरह की मदद देने का प्रयास कर रहे हैं और क़ानूनी प्रक्रिया में हम उन्हें दूतावास से मदद के साथ-साथ क़ानूनी सहायता भी दे रहे हैं.”

उन्होंने कहा, “हम क़तर के अधिकारियों के भी संपर्क में हैं और दोहा में हमारा दूतावास परिवारों के संपर्क में बना हुआ है.”

क़तर सरकार की ओर से आरोपों पर जानकारी न देने की वजह से क़ैद में रह रहे भारतीयों की स्थिति और जटिल होती जा रही है.

इससे उनके परिजनों की चिंता और बढ़ी है.

मार्च के अंत में अदालत की पहली सुनवाई के बाद तीन मई को दूसरी सुनवाई में अभियोजन पक्ष को आरोपों को सार्वजनिक करना था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

भारतीय दूतावास की तरफ़ से नियुक्त किए गए वकील ने अभियोजन पक्ष से दस्तावेज़ों और आरोपों की जानकारी साझा करने को कहा, ताकि बचाव तैयार किया जा सके.

कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई के लिए कोई नई तारीख़ नहीं दी है.

ऐसे अंतराष्ट्रीय मामलों में पहले क्या हुआ?

कुलभूषण जाधव केस: कुलभूषण को पाकिस्तान ने आतंकवाद और जासूसी के आरोप में गिरफ़्तार किया था और पाकिस्तान की एक सैन्य अदालत ने 2017 में उन्हें मौत की सज़ा सुनाई थी.

इस आरोप से भारत ने इनकार किया कि कुलभूषण जाधव भारत के लिए जासूसी कर रहे थे.

भारत ने पाकिस्तान पर आरोप लगाया कि कुलभूषण जाधव को ईरान से अगवा दिया गया था, जहाँ वे एक बिज़नेस ट्रिप पर गए हुए थे.

भारत ने इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस का दरवाज़ा खटखटाया और अदालत से पाकिस्तानी कोर्ट के फ़ैसले पर रोक लगाने की मंज़ूरी हासिल कर ली.

अंतरराष्ट्रीय कोर्ट ऑफ़ जस्टिस ने पाकिस्तान से कुलभूषण जाधव को दूतावास संबंधी मदद और मुलाक़ात के अवसर मुहैया करने को कहा.

हालाँकि इस मामले में अब भी गेंद पाकिस्तान के पाले में है.

कराची में भारतीय राजनयिक रहे राजीव डोगरा का कहना है कि पाकिस्तान को अब तक जाधव को रिहा कर देना चाहिए था.

वे कहते हैं, “जहाँ तक कुलभूषण जाधव की देश वापसी का सवाल है, तो पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय अदालत की भी परवाह नहीं है वरना इस फै़सले के तुरंत बाद वो जाधव को रिहा कर देता.”

इराक़ में बंधक बनाए गए दो भारतीयों की रिहाई: राजीव डोगरा एक ऐसे मामले के बारे में जानते हैं, जो 1990 के दशक का है.

उस समय इराक़ में दो भारतीयों का अपहरण कर लिया गया था.

वे कहते हैं, “मुझे याद है जब इराक़ में दो भारतीयों का अपहरण कर लिया गया था, तब क़तर की शरिया अदालत के प्रमुख ने हस्तक्षेप किया था और दोनों भारतीयों की रिहाई कराई थी.”

ब्रितानी नर्सों की देश वापसी: साल 1997 में सऊदी अरब में ऑस्ट्रेलिया की नर्स की कथित हत्या करने के लिए दो ब्रिटिश नर्सों को मौत की सज़ा सुनाई गई थी.

तब सऊदी सरकार ब्रिटिश सरकार के दबाव में आ गई थी और अंत में नर्सों को रिहा कर दिया था. उन्हें वापस ब्रिटेन भेज दिया गया था.

युद्धग्रस्त देशों में फँसे हुए नागरिकों की घर वापसी: मुसीबत के समय भारत का अपने नागरिकों को देश वापस लाने का ट्रैक रिकॉर्ड सराहनीय रहा है.

1990-91 में कुवैत पर इराक़ी हमले के दौरान वहाँ फंसे भारतीय हों या यूक्रेन में फँसे छात्र या हाल ही में सूडान में फँसे भारतीय हों, भारत हमेशा उन्हें वापस घर लाने में कामयाब रहा है.

क़ानूनी सहायता और दूतावास की मदद काफ़ी है?

राजनयिकों का कहना है कि भारत के लिए यह ज़रूरी है कि वो जेल में बंद अपने नागरिकों को अदालत में अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए अच्छे वकीलों की सेवा दे. लेकिन ये काफ़ी नहीं होगा.

27 लाख से भी कम आबादी वाला देश क़तर भारत की तुलना में एक छोटा देश ज़रूर है, लेकिन ये कमज़ोर और ताक़तवर के बीच का मुक़ाबला नहीं है.

क़तर ने सऊदी अरब जैसे बड़े और शक्तिशाली पड़ोसियों को टक्कर दी है. जानकारों का कहना है कि क़तर अमेरिका के बेहद क़रीब है. इसके बावजूद वह अपने ताक़तवर दोस्त से नहीं डरता.

वर्ष 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर हमले के दौरान अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने क़तरी अमीर (क़तर के प्रमुख) से अरबी चैनल ‘अल जज़ीरा’ के बारे में शिकायत की थी, जिसे क़तर सरकार के समर्थन वाला एक कंसोर्टियम चलाता है.

इस पर क़तर के अमीर ने जवाब दिया था कि ‘जिस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति सीएनएन न्यूज़ के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते, उसी तरह से वो भी ‘अल जज़ीरा’ चैनल के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते.

अभी हाल ही में क़तर की छवि तब और मज़बूत हुई, जब उसने पिछले साल फ़ीफ़ा विश्व कप का सफल आयोजन किया.

ऐसा लगता है कि क़तर भारत की बढ़ते वैश्विक क़द से बेफ़िक्र है.

हाल ही में पैगंबर मोहम्मद को लेकर भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के बयान पर भारत की आलोचना वाली क़तर सरकार की आवाज़, खाड़ी देशों की सबसे मुखर आवाजों में से एक थी.

जानकार मानते हैं कि उस घटना के बाद से दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों में उतार-चढ़ाव देखने को मिला.

प्रोफ़ेसर एके पाशा कहते हैं, “रिश्ते में दरार आ गई है. नूपुर शर्मा मामले के बाद दरारें दिखने लगी हैं. नूपुर शर्मा मामले के बाद से दोनों देशों के बीच कोई उच्च स्तरीय यात्रा नहीं हुई है.”

वे आगे कहते हैं, “हाल के सालों में, खाड़ी देशों के साथ भारत के संबंध पहले से बेहतर हुए हैं, विशेष रूप से क़तर के साथ. पहले संबंध उतने गहरे नहीं थे जितने हाल फ़िलहाल स्थापित हुए हैं. लेकिन पिछले कुछ समय से रिश्ते में उतार-चढ़ाव आया है. दोनों देशों के बीच कश्मीर और भारतीय मुसलमानों को लेकर तनाव रहा है.”

साल 2023 भारत और क़तर के लिए द्विपक्षीय संबंधों के 50 साल पूरे होने पर जश्न का साल होने वाला था.

इसके बजाय, दोनों देशों के बीच संबंधों में एक असहज शांति और एक स्पष्ट तनाव है.

भारत और क़तर अब भी क़रीबी मित्र हैं. पिछले साल उनका द्विपक्षीय व्यापार 15 अरब अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा था.

भारत अपनी ज़रूरत का 40 फ़ीसदी गैस क़तर से आयात करता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2016 में क़तर की राजकीय यात्रा पर गए थे और विदेश मंत्री एस जयशंकर कई बार क़तर का दौरा कर चुके हैं.

लेकिन रिश्तों में गर्माहट और गर्मजोशी फ़िलहाल नदारद है.

भारतीय नागरिकों की गिरफ़्तारी के बाद से आख़िरी बार शीर्ष स्तर की बातचीत पिछले साल 29 अक्तूबर को हुई थी.

ये महज़ शुभकामनाओं का आदान-प्रदान था, जब पीएम मोदी ने फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप के बाद क़तर के अमीर शेख तमीम बिन हमद अल थानी को फ़ोन किया था और बात की थी.

इसके बाद क़तर के अमीर ने भारतीय प्रधानमंत्री को दिवाली की बधाई भेजी थी.

उस समय वे 2023 में संयुक्त रूप से द्विपक्षीय संबंधों के 50 साल पूरे होने का जश्न मनाने पर सहमत हुए थे.

भारत के पास और क्या है विकल्प?

पूर्व राजनयिक अचल मल्होत्रा सुझाव देते हैं कि भारत सरकार को दो तरफ़ा रणनीति लागू करनी चाहिए, पहला क़ानूनी और दूसरा राजनीतिक और दोनों पर एक साथ अमल करना चाहिए.

वो कहते हैं, “पहला चरण क़ानूनी प्रक्रिया है. इस चरण में हमारी कोशिश सबसे बेहतर क़ानूनी सहायता मुहैया कराना और उनकी बेगुनाही साबित करने का प्रयास होना चाहिए.”

वो आगे कहते हैं- इसके साथ ही हमें इस बात का पता लगाना चाहिए कि क्या किसी मुद्दे पर हम क़तर की मदद कर सकते हैं, क्या हम उनको किसी बात के लिए फ़ेवर कर सकते हैं? अगर ऐसा है, तो हमें इस विकल्प पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि अगर हमने उनका ये काम कर दिया, तो वो भारतीयों को रिहा कर सकते हैं.”

“दूसरे शब्दों में हमें यह देखना चाहिए कि भारतीयों की रिहाई सुनिश्चित करने के लिए हम उनकी किसी प्रकार की सहायता कर सकते हैं या नहीं.”

पूर्व राजनयिक राजीव डोगरा चाहते हैं कि क़तर अपने यहाँ बड़े पैमाने पर विकास में भारत के योगदान की सराहना करे और क़ैद भारतीयों के मामले में ज़्यादा लचीलापन दिखाए.

वे कहते हैं, “मैं क़तर के नेताओं को सुझाव देना चाहूँगा कि वे बड़ी तस्वीर देखें- भारत-क़तर संबंध, क़तर की सफलता में भारतीयों का योगदान. क्या क़तर इन बातों को दरकिनार कर सकता है, क्या क़तर ज़िद्दी बना रह सकता है?”

राजीव डोगरा को शक है कि यह पूरा प्रकरण भारत और क़तर के बीच मज़बूत द्विपक्षीय संबंधों को बिगाड़ने की एक साज़िश है.

वे कहते है, “देखिए, मैं क़तर में उस समय एक भारतीय राजनयिक रहा हूँ, जब वो देश ग़ुमनामी से उबर रहा था. यह 80 के दशक के अंत में था. शरिया अदालत के प्रमुख से लेकर देश के अमीर तक मेरी पहुँच थी. हमारे मज़बूत संबंध थे. इसलिए मुझे हैरानी है कि रिश्ते इस हद तक कैसे कमज़ोर पड़ गए. क्या भारत के ख़िलाफ़ किसी ने क़तर के अमीर के कान तो नहीं भरे हैं.”

वो आगे कहते हैं, “ऐसे लोग हैं जो यह नहीं चाहेंगे कि भारतीय क़तर में किसी संवेदनशील परियोजना पर काम करें. आप इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि भारतीयों को फँसाया गया है.”

आसिफ़ शुजा भी क़तर को बड़ी तस्वीर देखने की सलाह देते हैं.

वे कहते हैं, “बड़ी तस्वीर भू-राजनीति है. क़तर और ईरान क़रीब हैं. ईरान और इसराइल आपसी दुश्मन हैं. भारत और इसराइल क़रीब हैं, लेकिन भारत के भी ईरान के साथ अच्छे रिश्ते हैं. ईरान मामले पर इसराइल भारत पर पूरी तरह से भरोसा नहीं करेगा. अगर इसराइल कुछ कर रहा है, तो इसमें भारत का कोई हाथ नहीं हो सकता.”

प्रोफ़ेसर पाशा क़तर के इस सख़्त रुख़ का मतलब बताते हैं और कहते हैं, “क़तर को जासूसी में भारत के हाथ होने का संदेह है.”

वे कहते हैं, “इसराइल को इस सबमरीन प्रोजेक्ट में काफ़ी दिलचस्पी है क्योंकि क़तर ईरान का एक अच्छा दोस्त है और इसराइल को संदेह है कि ईरान इस सबमरीन में दिलचस्पी रखता है. इसराइल सीधे जासूसी नहीं कर सकता इसलिए क़तर का मानना है कि उसने इस काम के लिए भारतीय नाविकों का इस्तेमाल किया. ये अधिकारी समय से पहले रिटायरमेंट लेकर प्रोजेक्ट से जुड़े थे, इसलिए क़तर को भारत सरकार पर शक है.”

लेकिन इसके सबूत नहीं हैं. इस कंपनी को चलाने वाले ओमान के एक नागरिक ने आठ साल पूर्व नौसेना अधिकारियों को नौकरी दी थी.

उस ओमानी नागरिक को भी गिरफ़्तार किया गया था. ओमान का ये नागरिक सबमरीन प्रोजेक्ट चला रहा था.

हालाँकि बाद में उसे रिहा कर दिया गया और वापस ओमान भेज दिया गया.

अचल मल्होत्रा कहते हैं कि उन्हें यक़ीन है कि इस मामले में भारत सरकार का कोई हाथ नहीं लगता.

उनके मुताबिक़, गिरफ़्तार किए गए भारतीय नागरिक ना ही भारत सरकार के मुलाज़िम थे और ना ही दोहा में भारतीय दूतावास से जुड़े हुए थे.

उन्होंने कहा, “उनकी ज़िम्मेदारी भारत सरकार की नहीं है. लेकिन वो भारतीय नागरिक हैं, तो हमारी ज़िम्मेदारी है कि वियना कन्वेंशन के तहत उन्हें तमाम सुविधाएँ पहुँचाए और इन्हें भारत वापस लाने की कोशिश करें.”

क्या पीएम मोदी को हस्तक्षेप करना चाहिए?

आसिफ़ शुजा सकारात्मक परिणाम को लेकर आशावान हैं और उनका कहना है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की नौबत ही नहीं आएगी. उनका मानना है कि क़तर का भारत का पक्ष लेने का इतिहास रहा है.

वे कहते हैं, “हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2016 में जब नरेंद्र मोदी ने क़तर का दौरा किया था, तब क़तर ने सद्भावना के तौर पर जेल में बंद 23 भारतीयों को रिहा कर दिया था. पीएम मोदी ने इसके बारे में ट्वीट भी किया था. तो, हमारे पास इसका एक उदाहरण है.”

पूर्व राजनयिक राजीव डोगरा का भी तर्क है कि प्रधानमंत्री मोदी के हस्तक्षेप का यह सही समय नहीं है.

वे कहते हैं, “मुझे नहीं लगता कि पीएम से हस्तक्षेप की उम्मीद की जानी चाहिए, हमें हर चीज़ में पीएम को शामिल नहीं करना चाहिए. राजनयिक माध्यम, मंत्रिस्तरीय माध्यम का इस्तेमाल करना चाहिए. प्रधानमंत्री के पास जाने से पहले हमें सभी रास्ते तलाशने चाहिए. कई बार ऐसा होता है जब आपको किसी देश से मदद मांगने के लिए मजबूर होना पड़ता है, लेकिन यह सही समय नहीं है.”

अचल मल्होत्रा के मुताबिक़, इस मामले में प्रधानमंत्री के दख़ल के लिए जल्दबाज़ी नहीं दिखानी चाहिए. वे कहते हैं, “ऐसा करना जल्दबाज़ी होगी. क़ानूनी प्रक्रिया अभी शुरू हुई है. अभी कोई जल्दबाज़ी नहीं है.”

साथ ही उन्हें लगता है कि प्रधानमंत्री का मदद मांगना एक टेढ़ा मामला हो सकता है.

अचल मल्होत्रा कहते हैं, “यह एक बड़ा सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री क़तर से मदद मांगेंगे? यह जोख़िम भरा है. अगर क़तर जवाब नहीं देता है, तो यह उनकी विश्व गुरू की छवि को नुक़सान पहुँचा सकता है.”

मुक़दमे की धीमी गति का मतलब है जेल में बंद भारतीयों के परिजनों के लिए लंबा इंतज़ार और ये भारत सरकार के सब्र का इम्तिहान भी है.

अगर मोदी सरकार उन्हें देश वापस लाने में कामयाब हो भी गई, तो इसमें काफ़ी वक़्त लग सकता है.

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