मिनटों में ज़रूरी सामान घर पहुँचाने वाली ब्लिंकिट क्यों है मुसीबत में?

Hindi New Delhi

DMT : New Delhi : (20 अप्रैल 2023) : –

कुछ ही मिनटों में किराने और रोज़मर्रा का ज़रूरी सामान घर पहुँचाने का वादा करने वाली कंपनी ब्लिंकिट पिछले कुछ दिनों से मुश्किलों का सामना कर रही है.

पिछले कुछ दिनों से डिलीवरी कर्मचारियों की हड़ताल ने इसकी मुसीबत और बढ़ा दी है.

इस हड़ताल की वजह कंपनी का वो फ़ैसला बताया जा रहा है, जिसके तहत उसने सामान की डिलीवरी करने वाले कर्मचारियों को प्रति डिलीवरी किए जाने वाला भुगतान 25 रूपए से घटा कर 15 रूपए कर दिया है.

ब्लिंकिट में डिलीवरी का काम करने वाले लोगों का कहना है कि कंपनी पहले ही इस भुगतान को 50 रूपए प्रति डिलीवरी से घटाकर 25 रूपए कर चुकी थी और अब इस भुगतान के 15 रूपए प्रति डिलीवरी कर दिए जाने से उनकी आमदनी और भी घट गई है.हड़ताल की वजह से दिल्ली-एनसीआर के कई इलाक़ों में ग्राहक ब्लिंकिट के ज़रिए अपनी ज़रूरत का सामान नहीं मंगा पा रहे हैं.

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक़ फ़ूड-डिलीवरी फ़र्म ज़ोमैटो ने बुधवार को कहा कि उसकी किराना इकाई ब्लिंकिट के अधिकांश स्टोर मज़दूरी को लेकर चल रहे विरोध के कारण बंद होने के बाद अब फिर खुल गए हैं.

पिछले साल ज़ोमैटो ने ब्लिंकिट को 550 मिलियन डॉलर की क़ीमत पर ख़रीदा था. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक ज़ोमैटो ने जब ब्लिंकिट का अधिग्रहण किया, तो उसके बाद ब्लिंकिट ने अपनी पहली तिमाही रिपोर्ट में 288 करोड़ रूपए का घाटा दिखाया.

रॉयटर्स के मुताबिक़ बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज को भेजी जानकारी में ज़ोमैटो ने कहा है कि ब्लिंकिट डिलीवरी पार्टनर्स के पेआउट स्ट्रक्चर में बदलाव करने के बाद ज़ोमैटो ने स्टोर्स पर अपने कर्मचारियों और डिलीवरी पार्टनर्स की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कुछ स्टोर्स को कुछ दिनों के लिए बंद कर दिया था.

साथ ही ज़ोमैटो ने बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज को बताया है कि भुगतान में बदलाव डिलीवरी पार्टनरों की ज़रूरतों को पूरा करने, ग्राहक अनुभव में सुधार करने और सिस्टम में कुछ डिलीवरी पार्टनरों की ओर से ऑर्डरों को रद्द या अस्वीकार करने से जुड़ी धोखाधड़ी को कम करने के लिए किए गए थे.

नाम न छापने की शर्त पर एक डिलीवरी कर्मचारी ने बताया, “क़रीब एक साल पहले मैंने डिलीवरी का काम शुरू किया. ब्लिंकिट के साथ शुरुआत में काम अच्छा चल रहा था. मैं महीने के क़रीब 16000 रूपए कमा लेता था. प्रति डिलीवरी भुगतान के साथ कंपनी इन्सेंटिव और कभी-कभी पेट्रोल के लिए भी भत्ता देती थी. वो सब धीरे-धीरे बंद हो गया. और अब प्रति डिलीवरी भुगतान सिर्फ़ 15 रूपए कर दिया है. ऐसे में घर चलाना नामुमकिन हो गया है.”

उनका कहना था, “मेरे जैसे बहुत से ग़रीब लोग दूर-दराज़ के इलाक़ों से दिल्ली जैसे बड़े शहरों में रोज़गार पाने की उम्मीद में आते हैं. मैं भी कुछ साल पहले इटावा से दिल्ली आया और एक पेट्रोल पंप में नौकरी की, फिर डिलीविरी का काम शुरू किया.”

एक अन्य डिलीवरी कर्मचारी का कहना था कि काम का दबाव इस बात के चलते बहुत बढ़ गया है कि कंपनी 10 मिनट में सामान घर पहुँचाने का वादा करती है.

उन्होंने कहा, “गर्मी हो या बरसात, हम लोग पूरी कोशिश करते हैं कि इस वादे पर खरे उतरें. लेकिन कई बार कुछ मिनटों की देर होने पर भी ग्राहक ख़राब रिव्यू लिख देते हैं या ख़राब रेटिंग दे देते हैं. इसकी वजह से भी हमारी आमदनी पर असर पड़ता है.”

कई डिलीवरी कर्मचारियों ने आरोप लगाया कि ब्लिंकिट ने बहुत से डिलीवरी करने वाले कर्मचारियों के आईडी इसलिए ब्लॉक कर दिए, क्योंकि उन्होंने हड़ताल में हिस्सा लिया था. उनमें से एक ने कहा, “आईडी ब्लॉक होने का मतलब है कि डिलीवरी ब्वॉय की रोज़ी-रोटी ख़त्म.”

शेख़ सलाउद्दीन इंडियन फ़ेडरेशन ऑफ़ ऐप बेस्ड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स के राष्ट्रीय महासचिव हैं. उनका कहना है कि जो भी हो रहा है, उसमें सरकार का भी दोष है.

वे कहते हैं, “सरकार जब तक एग्रीगेटर कंपनियों के लिए क़ानून नहीं बनाएगी, तब तक ये कंपनियाँ कर्मचारियों शोषण करती रहेंगी. सरकार के अपने आँकड़ों के मुताबिक़ भारत में आज की तारीख़ में 77 लाख गिग वर्कर रजिस्टर्ड हैं. साल 2029-30 तक इन वर्कर्स की संख्या दो करोड़ से ज़्यादा हो जाएगी. इतनी तेज़ रफ़्तार से ई-कॉमर्स का विकास हो रहा है. लेकिन आज भी जो इंसान डिलीवरी कर रहा है, उसे सरकार या कंपनियों से क्या फ़ायदा मिल रहा है?”

शेख़ सलाउद्दीन कहते हैं कि सरकार ने साल 2020 में संसद में सोशल सिक्योरिटी बिल पास किया. “लेकिन तीन साल बीत जाने के बाद भी वो क़ानून लागू नहीं हुआ. तो ऐसे क़ानून का क्या फायदा?”

उनका कहना है कि सरकार को ये सोचना चाहिए कि क्या वो एग्रीगेटर कंपनियों के साथ है या उस ग़रीब तबके के साथ हैं, जो रोज़ी-रोटी की तलाश में इन कंपनियों के लिए काम करता है.

शेख़ सलाउद्दीन के मुताबिक़ सरकार को इस बात की जाँच करवानी चाहिए, जिससे ये पता चले कि ये कंपनियाँ लगातार घाटा दिखाकर सरकार का टैक्स के मामले में कितना नुक़सान कर रही हैं.

वे कहते हैं, “बहुत सी कंपनियाँ लगातार घाटा दिखा रही हैं लेकिन उसके बावजूद निवेश लेती जा रही हैं और अपनी दुकान बढ़ाती जा रही हैं. ऐसा कैसे संभव है कि इतना बड़ा घाटा दिखा कर भी ये कंपनियाँ चल रही हैं. इन कंपनियों के उच्च अधिकारियों और स्टाफ़ की तनख्वाहें बढ़ती जा रही हैं. इसके लिए पैसा कहाँ से आ रहा है? हर दिन करोड़ों रूपए इन कंपनियों में निवेश किए जा रहे हैं. इसका फ़ायदा कंपनियों के मैनेजमेंट और स्टाफ़ को मिल रहा है न कि ग़रीब तबके से आने वाले उस व्यक्ति को, जो राइडर का काम कर रहा है.”

उनका ये भी कहना है कि राइडर के तौर पर काम करने वाले लोगों को पार्टनर कहना ग़लत है. “वो लोग पार्टनर नहीं वर्कर हैं और उन्हें वो सभी अधिकार मिलने चाहिए जो वर्कर्स को दिए जाते हैं. इस मसले से निपटने के लिए क़ानून बनना चाहिए, जिसमें न्यूनतम वेतन निर्धारित होना चाहिए.”

ज़ोमैटो, स्विगी या ब्लिंकिट जैसी कंपनियों के लिए डिलीवरी का काम कर रहे कर्मचारियों को गिग वर्कर्स कहा जाता है.

गिग अर्थव्यवस्था का एक ऐसा श्रम बाज़ार है, जिसमें स्थायी कर्मचारियों के बजाय अस्थायी स्वतंत्र कर्मचारी कंपनियों के लिए काम करते हैं.

गिग कर्मचारी कंपनी के ग्राहकों को सेवाएं पहुँचाने के लिए ऑन-डिमांड कंपनियों के साथ औपचारिक समझौते करते हैं.

गिग कर्मचारियों को काम करने में लचीलापन और आज़ादी तो मिलती है, लेकिन उनकी नौकरी सुरक्षित नहीं होती और स्थायी कर्मचारियों को मिलने वाली कई सुविधाएँ उन्हें नहीं मिल पाती.

पिछले साल नीति आयोग ने सिफ़ारिश की कि देश में गिग वर्कफ़ोर्स को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए पेड लीव, व्यावसायिक बीमारी और कार्य दुर्घटना बीमा, काम की अनियमितता के दौरान सहायता और पेंशन योजना जैसे उपाय किए जाने चाहिए.

नीति आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि साल 2020-21 में भारत में गिग इकोनॉमी में काम कर रहे लोगों की संख्या क़रीब 77 लाख थी और अनुमान है कि ये साल 2029-30 तक बढ़ कर 2.35 करोड़ हो जाएगी.

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