विपक्षी एकजुटता में सेंध से 2024 में बीजेपी को कितना फ़ायदा?

Hindi New Delhi

DMT : नई दिल्ली : (06 जुलाई 2023) : –

तारीख़ 27 मई 1996, संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर दिए गए अटल बिहारी वाजपेयी के ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने कहा था –

“हम सत्ता के लोभ में ग़लत काम करने को तैयार नहीं हैं, यहां शरद पवार बैठे हैं, यशवंत जी कह रहे थे कि किस तरह शरद पवार ने अपनी पार्टी तोड़कर हमारे साथ सरकार बनाई थी. सत्ता के लिए बनाई थी या महाराष्ट्र के भले के लिए बनाई थी. ये एक अलग बात है लेकिन उन्होंने पार्टी तोड़ी. मैंने तो ऐसा कुछ नहीं किया. अगर पार्टी तोड़ कर, सत्ता के लिए नया गठबंधन करने से सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना नहीं चाहता.”

संसद में एनडीए के पास बहुमत ना होने के कारण अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार गिर गई थी.

अब 27 साल बाद शरद पवार की पार्टी टूटती दिख रही है.

प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे शरद पवार के वफ़ादार माने जाने वाले नेताओं के साथ उनके भतीजे अजित पवार एनडीए में शामिल हो चुके हैं.

अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने भाषण में कहा था कि बीजेपी सत्ता के लिए पार्टियों को तोड़ने की राजनीति नहीं करती.

लेकिन साल 2014 के बाद वाली बीजेपी का रुख अटल बिहारी वाजपेयी वाली बीजेपी से बिलकुल अलग दिखता है.

बीते लगभग एक दशक में ‘हॉर्स ट्रेडिंग’ (विधायकों की कथित ख़रीद फरोख़्त) और ‘ऑपरेशन कमल’ जैसे शब्द देश के अलग-अलग राज्यों में सुनाई दिए हैं.

ताज़ा उदाहरण महाराष्ट्र का है, जहां बीते एक साल से राजनीतिक उथल-पुथल थमने का नाम नहीं ले रही.

बीते साल जून में शिवसेना से अलग होकर एकनाथ शिंदे 40 विधायकों के साथ बीजेपी में शामिल हो गए और राज्य में महाविकास अघाड़ी गठबंधन की सरकार गिर गई.

शिवसेना के हाथ से सरकार तो गई ही और बाद में पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न भी गया.

अब महाराष्ट्र में एक नया सियासी ड्रामा चल रहा है जहां शरद पवार की पार्टी एनसीपी दो गुट में टूटती दिख रही है. अजित पवार एनडीए सरकार में एक बार फिर उप मुख्यमंत्री बन गए हैं.

बुधवार को अजित पवार ने खुद को एनसीपी का अध्यक्ष घोषित कर दिया और चुनाव आयोग को लिखे एक पत्र में पार्टी के चुनाव चिह्न घड़ी पर भी दावा किया है.

बताया जा रहा है कि इस पत्र के साथ अजित पवार ने आयोग को एक याचिका भेजी है जिसमें उनके समर्थन में 40 विधायकों के हस्ताक्षर हैं.

ये सब कुछ ऐसे समय हो रहा है जब शरद पवार लोकसभा चुनाव 2024 से पहले विपक्षी पार्टियों को एक साथ लाने में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं.

महाराष्ट्र में जो कुछ भी हो रहा है क्या उसका फ़ायदा बीजेपी को 2024 के चुनाव में होने वाला है?

इस सवाल का जवाब वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामासेशन देती हैं.

वह कहती हैं, “बीजेपी जहां भी थोड़ी बहुत मज़बूत है, वहां वो क्षेत्रीय पार्टियों को तोड़ती है, अपने खेमे को मज़बूत करना चाहती है. जो कुछ एनसीपी में हो रहा है उससे विपक्षी दलों के मोर्चा बनाने की कोशिश को बड़ा धक्का लगा है.”

“शरद पवार एक सधे हुए पुराने नेता हैं, सभी पार्टियों के साथ उनके अच्छे संबंध हैं ऐसे में उन्हें विपक्ष के गठबंधन का सूत्रधार के रूप में देखा जा रहा था. अजित पवार ने जो किया है उससे शरद पवार खुद की पार्टी में कितने मज़बूत हैं उस पर सवाल उठ रहा है.

देखना होगा कि बेंगलुरु में होने जा रही विपक्ष दलों की अगली बैठक में विपक्ष के नेता कितनी गर्मजोशी दिखाएंगे. शरद पवार के लिए इस समय विपक्षी दलों को एकजुट करने से अधिक ज़रूरी अपनी पार्टी को बचाना है.”

साल 2014 में केंद्र की सत्ता हासिल करने के बाद से बीजेपी ने कई जगहों पर दल बदल करवाकर अपनी सरकार बनाई है या पार्टी को मज़बूत किया है.

साल 2014 में उत्तराखंड में कांग्रेस के 9 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए और यहीं से प्रदेश में बीजेपी के सत्ता में आने का रास्ता खुल गया.

साल 2016 में अरुणाचल प्रदेश के सीएम प्रेमा खांडू 33 विधायकों के साथ बीजेपी में शामिल हो गए.

साल 2015 में हिमंत बिस्वा सरमा कांग्रेस से बीजेपी में शामिल हुए.

हालांकि, ये कई नेताओं का पलायन तो नहीं था लेकिन बिस्वा सरमा के बीजेपी में आने से पूर्वोत्तर में बीजेपी ने कई राज्यों में पहली बार अपने दम पर सरकार बनाई.

आज पूर्वोत्तर में बीजेपी के कई छोटे क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन हैं और इन गठबंधन का श्रेय बिस्वा सरमा को जाता है.

साल 2017 में कांग्रेस के विधायकों के समर्थन के साथ मणिपुर में बीजेपी की सरकार बनी.

2018 में बेंगलुरु में ‘ऑपरेशन कमल’ चला.

कांग्रेस- जेडीएस सरकार के 17 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए और कर्नाटक में बीजेपी ने सरकार बना ली.

साल 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे बड़े नेता ने कांग्रेस छोड़ दी और 22 विधायकों के साथ बीजेपी में शामिल हो गए. और मध्य प्रदेश में भी कमलनाथ की सरकार गिराकर एक बार फिर बीजेपी ने अपनी सरकार बना ली.

साल 2022 में शिवसेना से शिंदे गुट ने दल बदल किया और राज्य में एनडीए की सरकार बन गई.

महाराष्ट्र में बीजेपी, शिंदे गुट की शिवसेना के साथ पहले ही सत्ता में हैं. उनके पास बहुमत भी है लेकिन फिर भी अजित पवार को बीजेपी एनडीए में क्यों लेकर आई.

ये एक ऐसा सवाल है जो कई लोग पूछ रहे हैं.

मराठी अख़बार लोकसत्ता के संपादक गिरिश कुबेर मानते हैं कि बीजेपी आने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र ये कर रही है.

उनका कहना है, “शिवसेना को तोड़ कर बीजेपी को सरकार बनाने के लिए ज़रूरी नंबर तो मिल गए हैं लेकिन एकनाथ शिंदे के अलावा एक भी वोटरों के बीच मज़बूत पकड़ वाला नेता बीजेपी के खेमे में नहीं आ सका.

लोकसभा चुनाव में बीजेपी को अगर सीटें ज़्यादा जीतनी हैं तो उन्हें जनाधार वाला नेता चाहिए और इस लिहाज से एनसीपी के दम पर बीजेपी मराठा वोटबैंक को अपनी ओर करना चाहती है.

पश्चिमी महाराष्ट्र में एनसीपी बहुत मज़बूत है, इसमें कोई दो राय नहीं है ये ऐसा इलाका है जहां सेंध नहीं लगाई जा सकती, लेकिन अगर एनसीपी बीजेपी के साथ आ जाए तो उसकी राह आसान हो जाएगी.”

यहां ये जानना भी ज़रूर है कि 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र सीटों के लिहाज़ से दूसरा सबसे बड़ा राज्य है जहां 48 लोकसभा सीटें हैं.

एक्शन भले ही इस वक़्त महाराष्ट्र में चल रहा हो लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में भी राजनीतिक सुगबुगाहट तेज़ हो गई है.

जीतन राम मांझी ने कहा है कि “जो महाराष्ट्र में हो रहा है, उसी तर्ज पर जेडीयू में भगदड़ मचने वाली है.” जीतन राम मांझी की पार्टी हम एनडीए गठबंधन का हिस्सा है.

मंगलवार को कर्नाटक बीजेपी के कद्दावर नेता और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा ने कहा है कि ‘भविष्य में बीजेपी जेडीएस के साथ चुनाव लड़ेगी.’

इस बयान के साथ ये अटकलें तेज़ हो गई हैं कि क्या जेडीएस आने वाला लोकसभा चुनाव एनडीए में शामिल होकर लड़ने वाली है.

उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर के बीजेपी के क़रीब आने की ख़बरें हैं.

यूपी में पिछड़ा वर्ग सबसे बड़ा वोट बैंक है. पूर्वांचल की सियासत में ओम प्रकाश राजभर पिछड़ों के बड़े नेता हैं. 2022 का विधानसभा चुनाव उन्होंने सपा के साथ लड़ा था लेकिन अब वो सपा से अलग हो चुके हैं.

वहीं बीजेपी से स्वामी प्रसाद मौर्या जैसे बड़े क़द वाले पिछड़े दल के नेता के जाने के बाद पार्टी के पास ऐसा कोई प्रमुख चेहरा नहीं है जो ओबीसी मतदाताओं में अच्छी अपील रखता हो.

ऐसे में राजभर की सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी एनडीए के साथ आकर बीजेपी के लिए ये कमी पूरी कर सकती है.

साल 2024 में राजभर किसके साथ चुनाव लड़ेंगे इसे लेकर राजभर ने अभी पत्ते नहीं खोले हैं. लेकिन कई मीडिया रिपोर्ट्स में ये दावा किया जा रहा है कि राजभर बीजेपी के साथ एक बार फिर जा सकते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार सुनीता एरॉन कहती हैं, “बीजेपी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था. बीते साल से पहले तक ऐसा लग रहा था कि वो काफ़ी हद तक अपने टारगेट को पूरा कर चुकी है.

बीजेपी को ये पता है कि अगर उसे अपना विस्तार करना है तो अब क्षेत्रीय पार्टियों को तोड़कर अपनी जगह बनानी होगी.”

“बीजेपी ये समझ चुकी है कि हिंदू मुसलमान की राजनीति से उन्हें जहां और जितना फ़ायदा होना था वो हो चुका है. अब उन्हें पहचान की राजनीति में अपनी जगह बनानी है.

ज़्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां लगभग 1989 के बाद ही बनी. उस वक्त तक बीजेपी देश में इतनी मज़बूत नहीं थी और जाति-पहचान की राजनीति में क्षेत्रीय पार्टियों ने अपना जनाधार बनाया.

अब बीजेपी जब काफ़ी मज़बूत है तो राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों को तोड़कर ही वो नया वोटर बेस पा सकेगी. यही वो कर रही है.”

“इसका एक नुकसान ये है कि जब क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी के साथ आती है तो उनकी पहचान की राजनीति कमज़ोर पड़ जाती है और बीजेपी राज्य में क्षेत्रीय पार्टियों के सहारे एंट्री तो लेती है लेकिन धीरे-धीरे गठबंधन में खुद बिग ब्रदर की भूमिका में आ जाती है.”

बीजेपी पर विपक्ष के कई नेता आरोप लगाते हैं कि जिन राज्यों में उसकी सरकार नहीं है वह वहां केंद्रीय जांच एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी और सीबीआई के दम पर दलबदल कराती है.

लेकिन वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार इस तरह के दावों से इत्तेफ़ाक नहीं रखते.

प्रदीप सिंह कहते हैं, “इस तरह विधायकों और नेताओं का एक पार्टी से दूसरे पार्टी में जाना पहले भी होता रहा है. साल 1980 में हरियाणा में भजनलाल अपने 38 विधायकों को लेकर कांग्रेस में शामिल हो गए थे. चूंकि केंद्र में बीजेपी पहली बार इतने लंबे वक़्त से है तो तमाम पार्टियों के नेता बीजेपी में जा रहे हैं.”

“ये कहना कि बीजेपी ईडी और सीबीआई का इस्तेमाल करके नेताओं को पार्टी में शामिल करा रही है या सरकार पलट दे रही है, मैं ये नहीं मानता.

अगर ईडी और सीबीआई के इस्तेमाल से ये सब कुछ हो रहा होता तो आम आदमी पार्टी के लोग बीजेपी में क्यों नहीं आ रहे, आरजेडी के नेता क्यों नहीं बीजेपी में जा रहे या डीएमके के नेता क्यों नहीं डर जा रहे. नेताओं की अपनी महत्वकांक्षा हैं और वो उसके लिए बीजेपी में जा रहे हैं.”

“इस तरह विधायकों को तोड़ लेने में या बीजेपी में शामिल करने से बीजेपी और नेताओं दोनों का फ़ायदा होता है. ये टू-वे डील है. ”

हालांकि, सुनीता एरॉन ये नहीं मानती.

वो कहती हैं कि ईडी की कार्रवाई और राजनीतिक उठापटक का समय अक़्सर एक ही होता है, ऐसे में ये कह देना कि ईडी-सीबीआई के एक्शन से राजनीतिक बदलाव बीजेपी नहीं कर रही ग़लत होगा.

वो कहती हैं, “हां, ये ज़रूर है कि जो नेता भ्रष्टाचार में संलिप्त होते हैं, वो बीजेपी के साथ गठजोड़ करके अपनी ज़िंदगी आसान बनाने का विकल्प चुनते हैं. लेकिन इन एजेंसियों का इस्तेमाल राजनीतिक फ़ायदे के लिए नहीं किया जा रहा ये कहना अपरिपक्व होगा.”

राधिका रामासेशन कहती हैं, “हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक को छोड़ दे तो ज़्यादातर राज्यों में कांग्रेस बहुत कमज़ोर स्थिति में हैं. ज़ाहिर सी बात है कि बीजेपी केंद्र में मज़बूत है, उसके पास पैसा है तो उसके लिए क्षेत्रीय पार्टियों को तोड़ना ज़्यादा आसान है.”

“पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, पंजाब और हिमाचल प्रदेश में जो कुछ भी हुआ है उसके बाद बीजेपी 2024 को लेकर थोड़ी व्याकुल है और वो हर संभव कोशिश कर रही है जिससे कि विपक्ष को कमज़ोर और बिखरा हुआ बनाए रखा जा सके. महाराष्ट्र में होने वाली गतिविधि बीजेपी की इसी कोशिश का हिस्सा है. और फ़िलहाल वो सफल होते दिख रहे हैं.”

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