सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की अगुआई में क्या अमेरिका से दूरी बना रहा मुल्क

Hindi International

DMT : सऊदी अरब : (10 जून 2023) : –

सऊदी अरब और अमेरिका के लगभग नब्बे साल पुराने रिश्ते आजकल नाज़ुक दौर से गुजर रहे हैं.एक ख़ुिफ़िया दस्तावेज़ के हवाले से ख़बर दी है कि तेल उत्पादन में कटौती के सवाल पर सऊदी अरब अब अमेरिका का ‘दबाव’ सहने को तैयार नहीं है.

‘वॉशिंगटन पोस्ट’ की रिपोर्ट के मुताबिक़ सऊदी अरब के प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने कहा है कि अगर अमेरिका ने तेल उत्पादन में कटौती के उनके देश का फ़ैसले के ख़िलाफ़ कदम उठाया तो वो भी जवाबी कार्रवाई करेगा.

पिछले साल अक्टूबर में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने सऊदी अरब को चेतावनी दी थी कि अगर उसने कच्चे तेल के दाम बढ़ाने के लिए उत्पादन में कटौती की तो उसे इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा.

सऊदी अरब ने तेल उत्पादन में कटौती के अपने फ़ैसले का राजनयिक मंचों पर बड़े ही शालीन अंदाज में बचाव कर जता दिया कि वो अमेरिका के दबाव में आए बग़ैर फ़ैसले लेने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन निजी बातचीत में सऊदी के प्रिंस के तेवर तल्ख थे.

‘वॉशिंगटन पोस्ट’ ने शुक्रवार को जो रिपोर्ट छापी है उसके मुताबिक़ प्रिंस ने कहा है कि अगर ऐसा हुआ तो सऊदी अरब अमेरिका से न सिर्फ अपने संबंध तोड़ लेगा बल्कि वह अमेरिकी इकोनॉमी को चोट पहुंचाने वाले कदम उठाने से पीछे नहीं हटेगा.

सऊदी अरब और अमेरिका के रिश्ते लगभग नब्बे साल पुराने हैं. 1930 के दशक में सऊदी अरब में तेल की खोज के बाद से ही अमेरिका ‘ऑयल फ़ॉर सिक्योरिटी’ की नीति पर चलता रहा है. यानी तेल के बदले अमेरिका सऊदी अरब को इस क्षेत्र की बड़ी ताकतों से सुरक्षा मुहैया कराएगा.

अमेरिका-सऊदी अरब रिश्ते का ऑयल कनेक्शन

सऊदी अरब और फ़ारस की खाड़ी के अन्य तेल उत्पादक देशों को तेल के बदले सुरक्षा देना इस क्षेत्र में उसकी विदेश नीति का बुनियादी हिस्सा रहा है. लिहाज़ा काफी लंबे समय से सऊदी अरब की विदेश नीति पर अमेरिका की परछाईं रही है.

रुढ़िवादी इस्लाम, सऊदी राजशाही के कड़े नियमों और मानवाधिकार के सवाल पर तनाव के बावजूद अमेरिका और सऊदी अरब के रिश्ते अब तक अच्छे बने हुए हैं.

हाल तक यानी अमेरिका में डोनल्ड ट्रंप के शासन तक सऊदी अरब और अमेरिका के संबंध काफी मधुर दिख रहे थे.

2017 में जब मोहम्मद बिन सलमान सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस बने, तब तक सऊदी अरब और अमेरिका, ईरान पर लगाम कसने के मामले में साथ दिख रहे थे.

लेकिन पिछले चार-पांच सालों के दौरान अमेरिका और सऊदी अरब के रिश्तों में तेज़ी से बदलाव के संकेत दिख रहे हैं.

अमेरिका और सऊदी अरब के बीच ताज़ा तनाव तेल उत्पादन में कटौती को लेकर पैदा हुआ है.

भले ही सऊदी अरब तेल निर्यात पर अपनी निर्भरता ख़त्म करना चाह रहा है लेकिन अभी भी उसकी जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 40 फ़ीसदी है.

यूक्रेन युद्ध के बाद जो तेल 120 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गया था वो अब घट कर 75 डॉलर प्रति बैरल पर आ गया है.

लिहाज़ा अपनी घटती कमाई देखकर सऊदी अरब ने जुलाई महीने से हर दिन अपने तेल उत्पादन में दस लाख बैरल की कटौती करने का एलान कर दिया.

सऊदी अरब के इस एलान ने अमेरिका को नाराज़ कर दिया क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में महंगे मिल रहे तेल का असर आगामी अमेरिकी चुनावों पर पड़ना तय है.

अमेरिका फिलहाल महंगाई को काबू करने की कोशिश में लगा है. ऊंची महंगाई दर की वजह से बाइडन की डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए 2024 का राष्ट्रपति चुनाव मुश्किल हो सकता है.

यही वजह है कि वह सऊदी अरब को तेल उत्पादन घटा कर इसके दाम घटाने के लिए दंडित करना चाहता है. लेकिन सऊदी अरब अमेरिकी दबाव में झुकने को तैयार नहीं दिख रहा है.

सऊदी अरब की स्वतंत्र विदेश नीति

सऊदी अरब-अमेरिका संबंधों के जानकारों का कहना है कि तेल का मसला एक बानगी भर है. दरअसल पिछले कुछ साल में सऊदी अरब की विदेश नीति में भारी बदलाव है आया है.

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पश्चिम एशियाई अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफ़ेसर मुद्दसर क़मर कहते हैं, “पिछले कुछ सालों में सऊदी अरब ने एक स्वतंत्र विदेश नीति पर चलने की कोशिश है. पहले सऊदी अरब की विदेश नीति अमेरिकी विदेश नीति से तालमेल बिठा कर चलती थी. लेकिन अब उसने अब ठोस और आज़ाद शक्ल अख़्तियार कर ली है.”

सऊदी अरब जो अब तक अमेरिका के पीछे-पीछे चलता था उसने अपनी दिशा क्यों बदली है?

इस सवाल के जवाब में मुद्दसर कहते हैं, “इसकी अहम वजह है बदलते भू-आर्थिक समीकरण. ग्लोबल अर्थव्यवस्था की धुरी अब अमेरिका और यूरोप से खिसकती जा रही है. अगर आप खाड़ी देशों के कारोबार के ट्रेंड देखें तो पाएंगे कि वो चीन, भारत, कोरिया, जापान और मलेशिया जैसे देशों से ज्यादा व्यापार कर रहे हैं. सऊदी अरब का ज्यादातर तेल अब चीन, भारत, जापान जैसे देशों को बेचा जा रहा है, जहां एनर्जी की खपत बढ़ती जा रही है.”

विशेषज्ञों के मुताबिक़ डोनल्ड ट्रंप के अमेरिका के राष्ट्रपति रहते सऊदी अरब और अमेरिका के रिश्ते काफी अच्छे थे.

सऊदी अरब ने ईरान और इसराइल दोनों को अपने लिए एक ख़तरे के तौर पर देखा. ट्रंप इस मामले में सऊदी अरब के साथ दिखे.

राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद ट्रंप ने अपना पहला विदेश दौरा सऊदी अरब का ही किया था. लेकिन इस रिश्ते में नया मोड़ आया वॉशिंगटन पोस्ट के सऊदी पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या की हत्या के बाद. इंस्तांबुल के सऊदी वाणिज्यिक दूतावास में हुई इस हत्या के लिए सऊदी क्राउन प्रिंस को ज़िम्मेदार ठहराया गया.

जब बाइडन अपना चुनाव अभियान चला रहे थे तो उन्होंने क्राउन प्रिंस सलमान को सज़ा दिलाने तक की बात कही थी.

लेकिन फिर सत्ता में आने के बाद उन्होंने सऊदी अरब से संबंध सुधारने की कोशिश की. क्योंकि मध्यपूर्व के देशों में जो सुरक्षा ढांचा है, उससे फिलहाल अमेरिका का हटना नामुमिकन सा है. सऊदी अरब अभी भी अमेरिकी हथियारों का बहुत बड़ा ख़रीदार है.

अमेरिका से दूरी?

इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफ़ेयर के फ़ेलो और मध्यपूर्व मामलों के जानकार फज़्ज़ुर रहमान सिद्दिक़ी कहते हैं, “राष्ट्रपति बनने के बाद बाइडन ने रिश्तों में तनाव को ख़त्म करने के लिए सऊदी अरब का दौरा किया है. लेकिन प्रिंस सलमान का रुख़ काफी ठंडा था.”

वो कहते हैं, “प्रिंस सलमान के आने से सऊदी अरब की नीति में भारी बदलाव आया है. वो सऊदी अरब को उसकी अतीत की हर चीज़ से दूर ले जाना चाहते हैं, चाहे वो अमेरिका से संबंध हों या फिर रुढ़िवादी इस्लाम या फिर तेल की राजनीति. क्राउन प्रिंस हर उस चीज़ से पीछा छुड़ाना चाहते हैं जो उसके अतीत का हिस्सा रहा है.”

“क्राउन प्रिंस सलमान मध्यपूर्व में मौजूदा क्षेत्रीय गठजोड़ और अमेरिकी ब्लॉक से दूर जाने की कोशिश कर रहे हैं. सऊदी अरब की तेल निर्भरता ख़त्म करना भी उनके एजेंडे में सबसे ऊपर है.”

“क्राउन प्रिंस सलमान सब कुछ नया चाहते हैं. वो बताना चाहते हैं कि उनका करिश्मा अलग है, व्यक्तित्व अलग है और वो अतीत में जो कुछ हुआ हो उसे हट कर नए सिरे से सबकुछ बनाना चाहते हैं.”

फज़्ज़ुर रहमान की नज़र में दुनिया के सामरिक मानचित्र में रूस के मज़बूत उभार ने भी सऊदी अरब की विदेश नीति में अहम भूमिका निभाई है.

वो कहते हैं, “2015-16 के बाद रूस ने जिस तरह से रूस ने सीरिया, लीबिया और ईरान में अपनी भूमिका निभाई, उससे सऊदी क्राउन प्रिंस सलमान को लगा कि भू-राजनीतिक हालात तेज़ी से बदल रहे हैं. सऊदी अरब के लिए पुराने गठजोड़ तोड़ कर नए गठजोड़ बनाने का ये बिल्कुल सही समय है.”

मुद्दसर क़मर भी इसकी तसदीक करते हैं. वो कहते हैं कि एनर्जी जियोपॉलिटिक्स के नज़रिये से देखें तो पाएंगे कि पिछले कुछ समय से अमेरिका और सऊदी अरब के बीच इसे लेकर तालमेल नहीं बैठ पा रहा है.

वो कहते हैं, “2016 से तेल और गैस बेचने वाले दो बड़े देश सऊदी अरब और रूस साथ दिख रहे हैं. अब ये दोनों देश मिलकर एनर्जी जियोपॉलिटिक्स में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं. इसके साथ ही अब अरब दुनिया में सुरक्षा मामलों को लेकर अमेरिका की सऊदी अरब से अब कोई बड़ी अपेक्षा नहीं रह गई है. इसलिए भी अब सऊदी ने अलग और स्वतंत्र विदेश नीति की ओर रुख करना शुरू किया है.”

चीन की एंट्री

विशेषज्ञों के मुताबिक़ इस बीच मध्यपूर्व में एक नई चीज़ हुई. रूस के साथ-साथ यहां चीन की भी गतविधि बढ़ी.

चीन ने आर्थिक और राजयनिक तौर पर यहां बड़ी भूमिका निभानी शुरू की. हाल में सऊदी अरब और ईरान के बीच समझौता करवा कर चीन एक बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि हासिल की है.

फज़्ज़ुर रहमान कहते हैं चीन के बीआरआई (बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव) प्रोजेक्ट और बढ़ती आर्थिक ताकत के साथ रूस की सैन्य मज़बूती ने सऊदी अरब को इस नए ब्लॉक की ओर आकर्षित करना शुरू किया.

चीन सऊदी के तेल का बड़ा खरीदार भी है और वहां बड़े पैमाने पर निवेश भी कर रहा है. चीन के साथ उसका कारोबार बढ़ता ही जा रहा है.

अमेरिका को इस क्षेत्र में दो बड़े झटके लगे हैं. पहला है ईरान और सऊदी अरब का समझौता. लगभग तीस साल से दोनों एक दूसरे के कट्टर प्रतिद्वंद्वी रहे हैं. लेकिन दोनों में समझौता होने से अमेरिका की ईरान को आधार बनाकर इस क्षेत्र में राजनीति करने की संभावना अब लगभग ख़त्म हो गई है.

अमेरिका को दूसरा बड़ा झटका लगा है इस क्षेत्र में चीन की एंट्री से. चीन ने जिस तरह सऊद अरब और ईरान में समझौता किया, उससे यहां अमेरिकी दखल कमज़ोर पड़ता दिख रहा है.

विदेश नीति पर सऊदी क्राउन प्रिंस की छाप

अभी तक अरब दुनिया में ज़्यादातर बड़े समझौते अमेरिका की मध्यस्थता में हुई थी. लेकिन चीन की मध्यस्थता में इतना बड़ा समझौता इस इलाके में वर्चस्व के लिए साफ़ तौर पर ख़तरे की घंटी है.

चीन की मध्यस्थता से हुए समझौते से ये साफ हो गया कि सऊदी अरब यहां अमेरिका के दखल से पीछा छुड़ाना चाहता है.

वो उस अमेरिकी ‘सिक्योरिटी स्ट्रक्चर’ से हटना चाहता है जो अरब वर्ल्ड की सुरक्षा के नाम पर मौजूद है.

यूएई, बहरीन और क़तर जैसे देश में अमेरिकी सैन्य अड्डे मौजूद हैं. ईरान की यही मांग रही है कि उन्हें यहां से हटाया जाए.

फज़्ज़ुर रहमान एक और अहम पहलू की ओर इशारा करते हैं.

वो कहते हैं, “प्रिंस सलमान युवा हैं. इतनी कम उम्र में सऊदी अरब का शासक बनना काफी बड़ी बात है क्योंकि वहां 75-80 साल की उम्र में शासक बनाने की परंपरा है.”

“प्रिंस के पास समय है. उम्र उनके पक्ष में हैं. वो खुद को अरब यूथ के आइकन की तरह पेश भी करना चाहते हैं. वो अरब दुनिया के युवा में काफी लोकप्रिय भी हैं. ऐसे युवाओं में बेहद लोकप्रिय हैं जो खाड़ी देशों में अमेरिकी ‘हस्तक्षेप’ की वजह से नाराज़ हैं.”

फज़्ज़ुर रहमान का कहना है कि अब अमेरिका भी इस इलाक़े से पीछे हटता दिख रहा है. लिहाज़ा सऊदी अरब के लिए यह सही मौक़ा है कि वह रूस-चीन के नेतृत्व वाले गठजोड़ में शामिल हो.

वो कहते हैं कि सऊदी अरब की स्वतंत्र विदेश नीति की झलक रूस-यूक्रेन युद्ध में दिखा. अमेरिका की तमाम कोशिश की बावजूद सऊदी अरब खुल कर रूस के विरोधी कैंप में शामिल नहीं हुआ. हालांकि वो यूक्रेन का समर्थन कर रहा है लेकिन उसने रूस का भी खुल कर विरोध नहीं किया.

एक और मिसाल सऊदी अरब की पहल पर सीरिया को अरब लीग में शामिल करना का है. अमेरिका की धमकियों के बावजूद सऊदी ने अरब लीग की बैठक का आयोजन किया और सीरिया को इसमें शामिल किया. अमेरिका के लिए ये एक बड़ा झटका है.

ईरान से समझौता और इसमें चीन को मध्यस्थ बनाना, रूस का खुल कर विरोध न करना, सीरिया को अरब लीग का सदस्य बनाना, चीन के हथियार खरीदना. इसके साथ ही बीआरआई का हिस्सा बनना, यमन में शांति समझौते की पहल करना और बाइडन को तवज्जो न देना और ओपेक प्लस में बढ़-चढ़ कर नेतृत्वकारी भूमिका निभाना- पिछले कुछ अरसे में सऊदी अरब के तमाम कदम बताते हैं कि प्रिंस सलमान के नेतृत्व में उसकी विदेश नीति अब बेधड़क और बेखौफ़ होती जा रही है.

सऊदी अरब अब अमेरिका की छाया से दूर होता जा रहा है. उसने मौजूदा वैश्विक व्यवस्था के मुताबिक़ अपने समीकरण बिठाने शुरू कर दिए हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *