अटल बिहारी वाजपेयी और इंदिरा गाँधी के बीच 70 के दशक में कैसे रिश्ते थे ?

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DMT : नई दिल्ली : (15 जुलाई 2023) : –

सन 1977 के चुनाव में जब अटल बिहारी वाजपेयी के दोस्त अप्पा घटाटे ने उनसे पूछा, “क्या आप मोरारजी देसाई के नाम पर लोगों से वोट माँगेंगे?”

वाजपेयी ने बिना एक सेकेंड गंवाए जवाब दिया था, क्यों, मैं तो अपने नाम पर वोट लूँगा.

उन्हें इस बात का पूरा अंदाज़ा था कि जनता पार्टी में जेपी के बाद उनको सुनने के लिए सबसे ज़्यादा लोग आते थे.

सात फ़रवरी 1977 को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्ष के नेताओं की सफ़ेद एबेंसडर कारें धीरे-धीरे आकर रुकीं. वो ज़्यादातर बूढ़े लोग थे. वो धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़कर मंच पर पहुँचे.

एक के बाद एक हर नेता ने जेल में उनके साथ हुई ज़्यादतियों के बारे में वहाँ मौजूद लोगों को बताया. सभी नेताओं के एक जैसे भाषणों के बावजूद लोग वहाँ जमे रहे.

क़रीब साढ़े नौ बजे के आसपास अटल बिहारी वाजपेयी की बारी आई.

उनको देखते ही सारी भीड़ खड़े होकर ताली बजाने लगी. वाजपेयी ने धीमी मुस्कान के साथ अपने दोनों हाथ उठाकर चुप हो जाने का इशारा किया.

इसके बाद उन्होंने अपनी आँखें बंद की और बेख़्याली के अंदाज़ में एक मिसरा पढ़ा, बड़ी मुद्दत के बाद मिले हैं दीवाने. इसके बाद उन्होंने अपना चिरपरिचित पॉज़ लिया, भीड़ बेचैन हो गई.

फिर उन्होंने भीड़ को शांत होने का इशारा करते हुए मिसरा पूरा किया, कहने सुनने को बहुत हैं अफ़साने. इस बार तालियाँ और ज़ोर से बजीं.

उन्होंने फिर आँखें बंद कीं और मिसरे की अंतिम लाइन पढ़ी, खुली हवा में ज़रा साँस तो ले लें, कब तक रहेगी आज़ादी कौन जाने.

भीड़ तब तक आपे से बाहर हो चुकी थी. वहाँ से आठ किलोमीटर दूर अपने 1 सफ़दरजंग रोड निवास में बैठी इंदिरा गाँधी को अंदाज़ा नहीं था कि वाजपेयी उनकी हार की बुनियाद रख चुके थे.

बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मुद्दा

सन 1966 में जब इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री का पद संभाला तो राममनोहर लोहिया ने ‘गूंगी गुड़िया’ कहकर उनका मज़ाक उड़ाया.

लेकिन एक साल के अंदर ही इंदिरा गाँधी ने इस छवि से छुटकारा पा लिया और वो विपक्ष के हमलों का जवाब उन्हीं के अंदाज़ में देने लगीं.

इंदिरा गाँधी की आर्थिक नीतियों ने जनसंघ के खेमे में मतभेद पैदा कर दिए.

भारतीय मज़दूर संघ के संस्थापक और जनसंघ के राज्यसभा सांसद दत्तोपंत थेंगड़ी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में प्रस्ताव पेश किया.

पार्टी के वरिष्ठ नेता बलराज मधोक ने उसका यह कहते हुए विरोध किया कि उनकी पार्टी के 1967 के चुनावी घोषणापत्र में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया गया है.

मधोक अपनी आत्मकथा ‘ज़िदगी का सफ़र भाग -3’ में लिखते हैं, लंच के दौरान वाजपेयी मुझे ये बताने आए कि बैंकों के बारे में थेंगड़ी के प्रस्ताव को आरएसएस का आशीर्वाद प्राप्त है.

हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘वाजपेयी द एस्सेंट ऑफ़ द हिंदू राइट 1924-1977’ के लेखक अभिषेक चौधरी लिखते हैं, वाजपेयी ने संसद में पहले बैंक राष्ट्रीयकरण की जन-विरोधी कहकर आलोचना की थी लेकिन जल्द ही उन्हें इस कदम के लोकप्रिय होने का अंदाज़ा हो गया था.

उत्तरी भारत में जनसंघ के समर्थक व्यापारी वर्ग को भी महसूस हुआ कि बैंकों की ऋण नीतियों में बदलाव से उनको भी फ़ायदा होगा.

जनसंघ के अख़बार ऑर्गेनाइज़र ने अपने 23 अगस्त, 1969 के अंक में लिखा, वाजपेयी का मानना था कि इंदिरा गाँधी का बैंक राष्ट्रीयकरण का फैसला कतई आर्थिक न होकर पूरी तरह से राजनीतिक था.

वो एक तरह से सत्ता में बने रहने का उनका हथियार था. वाजपेयी ने हवा के ख़िलाफ़ जाने को बुद्धिमानी नहीं समझा.

प्रिवी पर्स के मुद्दे पर इंदिरा गांधी से टकराव

अटल बिहारी वाजपेयी और इंदिरा गाँधी के बीच पहला खुला टकराव पूर्व राजाओं को दिए जाने वाले प्रिवी पर्स (सरकारी भत्ता) के मुद्दे पर हुआ.

एक सितंबर, 1969 को लोकसभा ने दो-तिहाई बहुमत से राजाओं को प्रिवी पर्स न दिए जाने का बिल पास किया.

लेकिन तीन दिन बाद ये बिल राज्यसभा में मात्र एक वोट से गिर गया. इंदिरा गाँधी इस पर चुप नहीं बैठीं.

उन्होंने 5 सितंबर को एक अध्याधेश जारी करके राजाओं का प्रिवी पर्स समाप्त कर दिया.

अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे संसद और संविधान के अपमान की संज्ञा दी.

मैंने अभिषेक चौधरी से पूछा कि ये जानते हुए भी कि प्रिवी पर्स के मुद्दे पर इंदिरा गाँधी को जनसमर्थन हासिल है, वाजपेयी ने उसका विरोध क्यों किया?

इस पर चौधरी का जवाब था, जनसंघ राजमाता सिंधिया और दूसरे राजाओं की वजह से प्रिवी पर्स हटाए जाने के विरोध में था. फ़रवरी, 1970 में ग्वालियर में हुए एक समारोह में जिसमें वाजपेयी भी उपस्थित थे, विजयराजे सिंधिया के बेटे माधवराव सिंधिया ने जनसंघ की सदस्यता ली थी.

चौधरी बताते हैं कि इस फ़ैसले का मध्य प्रदेश की राजनीति पर असर पड़ना लाज़िमी था जहाँ ग्वालियर दरबार के राजनीतिक असर की अनदेखी नहीं की जा सकती थी.

प्रिवी पर्स पर राष्ट्रपति के अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई.

सुप्रीम कोर्ट ने 15 दिसंबर को सुनाए अपने फ़ैसले में अध्यादेश को असंवैधानिक और अवैध घोषित कर दिया.

अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे सरकार के मुँह पर एक तमाचे की संज्ञा दी.

इंदिरा गाँधी पर शब्दबाण

सन 1971 के चुनाव प्रचार में वाजपेयी ने इंदिरा गाँधी पर ज़ोरदार हमला बोलते हुए कहा, प्रधानमंत्री भारतीय लोकतंत्र में जो कुछ भी पवित्र है, उसकी दुश्मन हैं.

जब उनकी पार्टी ने राष्ट्रपति पद के लिए उनके उम्मीदवार को स्वीकार नहीं किया तो उन्होंने पार्टी ही तोड़ दी. जब संसद ने प्रिवी पर्स समाप्त करने के बिल को पास नहीं किया तो उन्होंने अध्यादेश का सहारा लिया.

जब सुप्रीम कोर्ट ने अध्यादेश को अवैध करार दिया तो उन्होंने लोकसभा भंग कर दी. अगर ‘लेडी डिक्टेटर’ का बस चले तो वो शायद सुप्रीम कोर्ट को भी भंग कर देंगी.

वाजपेयी ने इस बात की भी शिकायत की कि प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार के लिए वायुसेना के विमान का सहारा ले रही हैं, जबकि वाजपेयी को इंडियन एयरलाइंस के मामूली विमान में सीट बुक कराने तक में दिक्कत आ रही है और वो विमान भी रहस्यमय ढंग से घंटों की देरी से उड़ रहे हैं.

चुनाव प्रचार के ही दौरान जब वाजपेयी दिल्ली के बोट क्लब में सरकारी कर्मचारियों को संबोधित कर रहे थे, एक पीले रंग के दो सीटों वाले विमान ने ऊपर से चुनावी पर्चे गिराने शुरू कर दिए.

अभिषेक चौधरी लिखते हैं, ये प्रधानमंत्री के बड़े बेटे राजीव गाँधी की योजना थी. पहले तो वाजपेयी ने इसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा, ‘ये पर्चे हवा में उड़ने दीजिए. मैं तो आपके वोट जमा करने आया हूँ.’

लेकिन जब विमान ने वहाँ से हटने का नाम नहीं लिया और उसने वहाँ के कुल 23 चक्कर लगाए तो वाजपेयी ने इसे प्रजातंत्र की तौहीन बताया.

उन्होंने पर्चे बरसाते जहाज़ की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, क्या ये प्रजातंत्र है ?

1971 की लड़ाई में इंदिरा गाँधी को समर्थन

सन 1971 के चुनाव परिणाम के बारे में वाजपेयी का आकलन बिल्कुल ग़लत निकला.

उन्हें उम्मीद थी कि उनकी सम्मानजनक हार होगी लेकिन उन्हें इस बात से बहुत धक्का लगा कि महागठबंधन को मात्र 49 सीटें मिलीं और जनसंघ की सीटों की संख्या 35 से घटकर सिर्फ़ 22 रह गई और उनमें से भी अधिकतर मध्य प्रदेश और राजस्थान के उन इलाकों से मिली जहाँ पूर्व राजाओं की पूछ अब भी थी.

बाकी के हिंदी भाषी इलाकों में पार्टी को मात्र 7 सीटों से संतोष करना पड़ा.

नवंबर,1971 में इंदिरा गाँधी ने तय किया कि भारत 4 दिसंबर को पाकिस्तान पर हमला करेगा, लेकिन पाकिस्तान ने इससे एक दिन पहले भारतीय हवाई ठिकानों पर हमला शुरू कर दिया.

अगले दो हफ़्तों तक वाजपेयी ने संसद की कार्रवाई में भाग लेने और दिल्ली में जनसभाओं को संबोधित करने में अपना समय बिताया.

इस बीच उनकी तरफ़ से एक दिलचस्प वक्तव्य ये भी आया कि ‘इंदिराजी अब जनसंघ की नीतियों पर चल रही हैं.’

लेकिन साथ ही साथ उन्होंने ये ऐलान भी किया कि युद्ध की मुहिम में उनकी पार्टी का सरकार को पूरा समर्थन हासिल है. जब सोवियत संघ ने सुरक्षा परिषद में युद्ध विराम के अमेरिकी प्रस्ताव को वीटो किया तो वाजपेयी ने यू-टर्न करते हुए सोवियत संघ को धन्यवाद दिया और कहा कि ‘जो भी देश हमारे संकट के दौरान हमारे साथ खड़ा है, हमारा दोस्त है. हम अपनी वैचारिक लड़ाई बाद में लड़ सकते हैं.’

वाजपेयी ने इंदिरा के समर्थन में बोलते हुए कहा, मैं ख़ुश हूँ कि इंदिरा गाँधी याह्या ख़ाँ को सबक सिखा रही हैं. हमारे पास एक ऐतिहासिक मौक़ा है कि हम एक धर्मशासित देश को समाप्त कर दें या उसके जितना संभव हो उतने छोटे टुकड़े कर दें.

इंदिरा को दुर्गा का अवतार कभी नहीं कहा

आम धारणा ये है कि जिस दिन ढाका में पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया वाजपेयी ने इंदिरा गाँधी को दुर्गा के अवतार की संज्ञा दी.

अभिषेक चौधरी इस धारणा को सिरे से नकारते हैं.

वो कहते हैं, वास्तविकता ये है कि 16 दिसंबर के दिन वाजपेयी संसद में मौजूद नहीं थे. वो या तो कहीं की यात्रा कर रहे थे या बीमार थे. जब इंदिरा गाँधी ने युद्धविराम पर चर्चा करने के लिए विपक्ष की बैठक बुलाई थी तो वो उसमें मौजूद नहीं थे.

अगले दिन जब इंदिरा गाँधी ने युद्ध विराम का समर्थन करने के लिए सभी दलों को धन्यवाद दिया तो वाजपेयी ने खड़े होकर कहा, ‘हम युद्धविराम नहीं चाहते हैं. हम हमेशा के लिए अपने प्रति शत्रुता को समाप्त करना चाहते हैं, इसके लिए ज़रूरी है कि पश्चिमी सेक्टर में लड़ाई जारी रखी जाए.’

तब के लोकसभा अध्यक्ष गुरदयाल सिंह ढिल्लों ने इस पर बहस की अनुमति नहीं दी और वाजपेयी को डाँटते हुए कहा, इस शुभ मौके पर उन्हें इस तरह की असंवेदनशील बात नहीं करनी चाहिए.

दो दिन बाद जब संसद के केंद्रीय हॉल में इंदिरा गाँधी को बधाई देने के लिए दोनों सदनों की संयुक्त बैठक हुई तो वाजपेयी उसमें जानबूझ कर शामिल नहीं हुए.

इंदिरा के लिए सौहार्द कड़वाहट में बदला

कुछ दिनों बाद वाजपेयी विजय रैली को संबोधित करने बंबई गए.

वहाँ उन्होंने जनसभा में कहा, देश ने कई शताब्दियों में इस तरह की जीत हासिल नहीं की है. इस जीत के असली ज़िम्मेदार भारतीय सैन्य बल हैं.

उन्होंने इंदिरा गाँधी की भी ये कहकर तारीफ़ की कि उन्होंने दो सप्ताह की लड़ाई में ठंडे दिमाग़ से काम लिया और देश को आत्मविश्वास से भरा नेतृत्व प्रदान किया.

लेकिन तीन महीने बाद राज्यों के विधानसभा चुनाव आते-आते इंदिरा गाँधी के प्रति उनका सौहार्द क़रीब क़रीब समाप्त हो चुका था.

उनकी शिकायत थी कि इंदिरा गाँधी ने 1967 से 1972 के बीच जनसंघ की ओर से दिल्ली में स्वच्छ प्रशासन देने के मामले में कभी जनसंघ के लिए अच्छे शब्द नहीं कहे.

वाजपेयी ने कहा कि वो हर जगह ये ही कहती रहीं कि जनसंघ ने सड़कों और कॉलोनियों के नाम बदलने के अलावा कुछ भी नहीं किया है.

ऑर्गनाइज़र ने 4 मार्च, 1972 के अपने अंक में वाजपेयी को ये कहते बताया, इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान से लड़ाई शुरू करने में देर कर दी और युद्धविराम भी समय से पहले कर दिया.

उन्होंने सोवियत दबाव में युद्धविराम किया वो भी सेनाध्यक्षों से सलाह मशविरा किए बग़ैर. अगर पाकिस्तान के साथ लड़ाई कुछ दिनों तक और चलती तो पाकिस्तानी सेना की कमर टूट जाती.

वाजपेयी को इंदिरा गाँधी का जवाब

जुलाई, 1972 में पाकिस्तान के साथ हुए शिमला समझौते को वाजपेयी ने पसंद नहीं किया.

उनकी शिकायत थी कि भारत ने पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर लिए बग़ैर पंजाब और सिंध में पाकिस्तान से जीती ज़मीन उन्हें वापस कर दी.

इस दौरान उन्होंने राजस्थान सीमा पर पाकिस्तान से जीते हुए शहर गादरा जाने का फ़ैसला किया.

अभिषेक चौधरी लिखते हैं, वो अपने साथ 64 सत्याग्रहियों को लेकर गए. वो सब नारे लगा रहे थे, ‘देश न हारा, फ़ौज न हारी, हारी है सरकार हमारी.’

चिलचिलाती धूप और आँधी का सामना करते हुए चार किलोमीटर का रास्ता तय कर वो गादरा शहर में दाख़िल हुए.

जीते गए इलाके के 180 मीटर अंदर आने पर वाजपेयी को उनके सभी साथियों के साथ गिरफ़्तार कर ट्रकों पर बैठाकर भारतीय क्षेत्र में ले आया गया.

वहाँ से लौटने पर वाजपेयी ने बोट क्लब पर भीड़ को संबोधित करते हुए इंदिरा गाँधी से सवाल पूछा, क्या आख़िरी दिन क्रेमलिन से संदेश आने के बाद शिमला में गतिरोध टूटा था?

अब तक इंदिरा गाँधी वाजपेयी के आरोपों की अनदेखी करती आई थीं.

लेकिन इस बार उन्होंने वाजपेयी के सवाल का जवाब देते हुए कहा, सिर्फ़ हीनभावना से ग्रस्त व्यक्ति इस तरह के आरोप लगा सकता है. क्या हम अपने करोड़ों लोगों की आवाज़ सुनें या हर समय सियापा करने वाले चंद लोगों की? वाजपेयी ने पिछला पूरा साल मेरा मज़ाक उड़ाते हुए बिताया है. क्या वाजपेई इस बात का खंडन करेंगे कि बाँग्लादेश आज वास्तविकता है?

मारुति और मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति का मामला

दो सालों के अंदर ही वाजपेयी को इंदिरा गाँधी पर हमला करने का मौका मिला.

जब उनके बेटे संजय गाँधी ने मारुति कार फ़ैक्ट्री लगाई तो वाजपेयी ने उस पर तंज़ कसते हुए कहा, ये कंपनी मारुति लिमिटेड नहीं, करप्शन अनलिमिटेड है.

जब इंदिरा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठ जजों की अनदेखी करते हुए एएन राय को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाया तो वाजपेयी को इंदिरा पर हमला करने का एक और मौका मिल गया.

वाजपेयी ने कटाक्ष करते हुए कहा, कल ये कहा जा सकता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और संघ लोक सेवा आयोग के प्रमुख का सामाजिक दर्शन भी सरकार के अनुरूप होना चाहिए. क्या ये नियम सशस्त्र सेनाओं पर भी लागू होगा? कानून जी-हज़ूरी करने वाले लोगों की मदद से नहीं बन सकता. इसके लिए आज़ाद न्यायपालिका का होना ज़रूरी है.

सन 1974 में जब भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया तो वाजपेई ने भारतीय परमाणु वैज्ञानिकों की तारीफ़ तो की लेकिन प्रधानमंत्री को इसका श्रेय नहीं दिया.

जगजीवन राम को चाहते थे प्रधानमंत्री बनवाना

सन 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की जीत में भारतीय जनसंघ को सबसे अधिक 90 सीटें मिलीं. भारतीय लोक दल को 55 और सोशलिस्ट पार्टी को 51 सीटें मिलीं.

सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते वाजपेयी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश कर सकते थे.

अभिषेक चौधरी कहते हैं, इसका कारण ये था कि वाजपेयी की उम्र उस समय सिर्फ़ 52 वर्ष थी. मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और चरण सिंह के मुकाबले उन्हें तब तक प्रशासन का कोई अनुभव नहीं था.

अगर नेतृत्व की दौड़ में वाजपेयी भी कूद पड़ते तो नई-नई बनी जनता पार्टी के लिए और मुसीबतें खड़ी हो जातीं. रणनीति का तकाज़ा था कि वाजपेयी इस बार पीछे रहें और अपनी बारी का इंतज़ार करते.

वाजपेयी ने शुरू में प्रधानमंत्री पद के लिए जगजीवन राम को अपना समर्थन दिया था. संसद में विरोधी होते हुए भी जगजीवन राम से उनकी बनती थी.

मोरारजी देसाई ज़िद्दी थे और उनमें लचीलेपन की कमी थी. जगजीवन राम को समर्थन देने से दलितों के बीच संघ परिवार की छवि सुधरने वाली थी. लेकिन चरण सिंह ने सारे किए-कराए पर पानी फेर दिया.

उन्होंने अस्पताल की अपनी पलंग से लिखे पत्र में जगजीवन राम की उम्मीदवारी को इस तर्क के साथ ख़ारिज कर दिया कि उन्होंने संसद में आपातकाल का प्रस्ताव पेश किया था.

वाजपेयी के पास मोरारजी देसाई का समर्थन करने के अलावा कोई चारा नहीं रहा.

जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री बने

चरण सिंह के रहते वाजपेयी को जनता सरकार में गृह मंत्रालय मिलने का सवाल नहीं था.

मोराजी देसाई ने उनके सामने रक्षा या विदेश मंत्रालय में से एक विभाग को चुनने के लिए कहा.

वाजपेयी को विदेश मंत्रालय चुनने में एक सेकेंड का भी समय नहीं लगा.

चुनाव के बाद रामलीला मैदान में एक जनसभा को संबोधित करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गाँधी को निशाना बनाते हुए वो मशहूर वाक्य बोला, ‘जो लोग अपने को भारत का पर्यायवाची कहते थे, उन्हें जनता ने इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया.’

यह अलग बात है कि इंदिरा गाँधी ने वाजपेयी को ग़लत साबित किया और तीन साल बाद एक बार फिर सत्ता में वापसी की.

वाजपेयी की भी बारी आई और उन्होंने 1996 और फिर 1998 और 1999 में भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. उनकी सरकार पहली ग़ैर-कांग्रेसी सरकार थी जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया था.

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