DMT : बांग्लादेश : (15 जुलाई 2023) : –
बांग्लादेश सरकार अपने यहां रहने वाले लाखों रोहिंग्या शरणार्थियों को उनके मुल्क म्यांमार वापस भेजने के लिए तीसरी बार कोशिश कर रही है.
बांग्लादेश सरकार की ये योजना विवादों में है. इसके तहत बांग्लादेश में शरण लिए हुए रोहिंग्या परिवारों को म्यांमार वापस जाने के लिए दो हज़ार डॉलर की आर्थिक मदद दी जा रही है.
साल 2017 में म्यांमार सेना की कार्रवाई के चलते लगभग आठ लाख रोहिंग्या शरणार्थियों ने भागकर बांग्लादेश में शरण ली थी जिनमें से ज़्यादातर मुसलमान हैं.
म्यांमार एक बौद्ध बहुसंख्यक देश है जिसके ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय यूएन कोर्ट में नरसंहार के मामले में जांच की जा रही है.
अनीस के साथ बीस अन्य लोग भी इस आवासीय परिसर के दौरे पर गए थे.
अनीस बताते हैं, “इन शिविरों को लोहे की बाड़ से घेरा गया है. और इनकी सुरक्षा में सैनिक तैनात रहते हैं. घरों के कमरे काफ़ी छोटे हैं जिनका क्षेत्रफल लगभग 8 फीट गुणा 12 फीट है. कमरों में सिर्फ़ एक दरवाज़ा और एक या दो खिड़कियां हैं, दरवाज़े इतने छोटे हैं कि आपको झुककर कमरे में घुसना पड़ता है.”
लेकिन अनीस सिर्फ़ इस आवासीय परिसर और इसकी सुरक्षा के इंतज़ाम से आतंकित नहीं हैं.
वह कहते हैं, “इस योजना के तहत हम कभी भी कोई संपत्ति या व्यापारिक प्रतिष्ठान के मालिक नहीं बन सकते. हम दूसरे अन्य लोगों जैसे अधिकार ही चाहते हैं ताकि हम अपने बच्चों को स्कूल भेज सकें. ताकि हम किसी भी कस्बे या शहर में किसी की इजाज़त लिए बग़ैर जा सकें.”
बांग्लादेश और म्यांमार के बीच साल 2017 में ही शरणार्थियों को वापस लेने का समझौता किया गया था. इसके तहत बांग्लादेश में रहने वाले शरणार्थियों को म्यांमार वापस ले जाया जाना था.
इस दिशा में दो बार प्रयास किए जा चुके हैं लेकिन बांग्लादेश शरणार्थियों को वापस भेजने में सफल नहीं हुआ है. वहीं शरणार्थी दूसरे नागरिकों जैसे अधिकार चाहते हैं.
सामान्य स्थितियों में संयुक्त राष्ट्र इस तरह की योजनाओं के अमल पर नज़र रखता है.
लेकिन इस समझौते को बांग्लादेश और म्यांमार अपने स्तर पर अमल में ला रहे हैं.
‘वापस जाने को तैयार नहीं’
बांग्लादेश रिफ़्यूज़ी कमिश्नर मिज़ानुर रहमान बीबीसी से कहते हैं, “ये एक स्वैच्छिक प्रक्रिया है. हमारा मकसद लोगों को सम्मान के साथ उनके देश वापस भेजना है. किसी को जबरन भेजने का मकसद नहीं है. इसमें कुछ भी गुप्त बात नहीं है. हम इस मामले पर सब कुछ स्पष्ट रूप से बता रहे हैं.”
लेकिन अनीस कहते हैं कि बांग्लादेशी प्रशासक उनके ग्रुप पर इस समझौते को स्वीकार करने का दबाव बना रहे हैं.
वह कहते हैं, “मेरा फोन स्विच ऑफ़ है. मैं अपने भाई के फोन से बात कर रहा हूं. हममें से कोई वापस नहीं जाना चाहता है. हमने कहा है कि इससे बेहतर तो ये होगा कि आप हमें मारकर हमारी लाशें वापस भेज दें.”
रोहिंग्या शरणार्थी सुल्तान (बदला हुआ नाम) लगभग दो महीने पहले बांग्लादेश के कॉक्स बाज़ार में म्यांमार से आए एक डेलिगेशन से मिले थे.
उन्होंने कहा, “मुझे बताया गया कि मेरा नाम लिस्ट में दर्ज किया गया है. लेकिन इतने सारे लोगों में से मेरा नाम ही लिस्ट में कैसे आ गया?”
“मुझे कहा गया कि वे पहले हमें माउंग्दू (आधिकारिक रूप से माऊंग्दा) ले जाएंगे. उन्होंने वहां 15 कैंप बनाए हैं जहां हमें तीन महीने तक रहना होगा.”
सुल्तान का परिवार रखाइन प्रांत के माउंग्दू के पास स्थित एक गांव का निवासी है. उनके परिवार के पास वहां ज़मीन और संपत्ति थी लेकिन उनके वहां से भागने के बाद उसका क्या हुआ, कोई नहीं जानता.
उनके पास ऐसे दस्तावेज़ भी नहीं है जिनके दम पर वो ये साबित कर सकें कि वे म्यांमार के ही रहने वाले हैं.
सुल्तान कहते हैं, “इस डेलिगेशन ने हमसे कई सवाल पूछे. उन्होंने मेरी और मेरी पत्नी की तस्वीरें लीं. और हमारे फिंगरप्रिंट भी लिए. हम इस स्थिति में हैं कि अगर हम ना कह दें तो वे हमें स्वीकार नहीं करेंगे. ऐसे में हम क्या कर सकते हैं? हम म्यांमार में सुरक्षित नहीं हैं.”
सुल्तान कहते हैं कि उनकी तरह जिन लोगों के नाम लिस्ट में हैं, उन पर बांग्लादेश में नज़र रखी जा रही है.
कॉक्स बाज़ार में इस वक़्त डर का माहौल है लेकिन लोग इस बारे में जानना भी चाहते हैं क्योंकि कॉक्स बाज़ार में भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं.
संयुक्त राष्ट्र ने शरणार्थियों के लिए खाद्यान्न मदद देना बंद कर दिया है क्योंकि इसके लिए चलाए गए फंडिंग कैंपेन को अब तक सिर्फ़ एक चौथाई पैसा मिला है.
इस साल जून महीने की शुरुआत में रोहिंग्या समुदाय के कुछ लोगों ने यहां विरोध प्रदर्शन किया था.
इन लोगों की मांग थी कि उन्हें म्यांमार भेजा जाए लेकिन उन्हें नागरिक अधिकार दिए जाएं.
अनुरा बेगम के छह बच्चे हैं जिनका पेट भरना उनके लिए एक चुनौती बन गया है.
वह साल 2017 के अगस्त महीने में भागकर यहां पहुंची थीं. और यहां उनके पति के पास कोई नियमित रोजगार नहीं है.
वह कहती हैं, “कभी-कभी मैं अपने बच्चों के कपड़े ख़रीदने के लिए पैसे उधार लेती हूं. मैं दान पर निर्भर हूं.”
अनुरा म्यांमार वापस जाने के बारे में सोच रही हैं क्योंकि उन्हें बांग्लादेश में अपने लिए कोई भविष्य दिखाई नहीं पड़ता है.
वह कहती हैं, “मैं अपने गाँव वापस जाना चाहती हूं. अगर म्यांमार सरकार हमें सुरक्षा और नागरिकता दे तो मैं वापस जाऊंगी.”
लेकिन म्यांमार की सैन्य सरकार ने रोहिंग्या कार्यक्रम पर ज़्यादा जानकारी सार्वजनिक नहीं की है.
एक रिपोर्टर ने रोहिंग्या समुदाय के लोगों को वापस लाने के कार्यक्रम को शुरू नहीं करने पर म्यांमार सरकार से सवाल किया है.
इसके जवाब में अधिकारी ने कहा, “वे (रोहिंग्या शरणार्थी) इस समझौते को आगे नहीं बढ़ने दे रहे हैं.”
बीबीसी बर्मा सेवा के संपादक सो विन थान कहते हैं कि सैन्य सरकार ‘रोहिंग्या’ शब्द इस्तेमाल नहीं करती है.
कुछ समय पहले आए चक्रवाती तूफ़ान मोख़ा ने रखाइन प्रांत को काफ़ी नुकसान पहुंचाया था.
सैन्य सरकार इस तूफ़ान के पीड़ितों को बंगाली कहकर पुकारती है.
ये एक नस्लवादी गाली जैसा है जिसका मतलब ये हैं कि रोहिंग्या म्यांमार के नहीं बल्कि बांग्लादेश के हैं.
इस समय लगभग पांच लाख रोहिंग्या रखाइन प्रांत में बनाए गए शिविरों में रहते हैं.
जर्मनी में रहने वाले रोहिंग्या एक्टिविस्ट ने सान ल्विन इस समझौते को लेकर सशंकित हैं.
वह कहते हैं, “इस स्कीम के तहत चुने गए रोहिंग्या शरणार्थी एक तरह से बांग्लादेश के कैंपों से म्यांमार के कैंपों में जा रहे हैं. ये पुनर्वास जैसा नहीं है.”
प्रशासन की ओर से ट्रांज़िट कैंप में लाए गए 23 लोगों को म्यांमार जाने के लिए हर परिवार के स्तर पर दो हज़ार डॉलर की रकम दी जा रही है.”
“आर्थिक मदद दिए जाने की इस घोषणा होने के बाद तीन सौ परिवारों ने पंजीकरण करवाया किया है. अब तक मुझे जो कुछ पता है, उसके मुताबिक़ म्यांमार सरकार ने सिर्फ़ दो सौ परिवारों को स्वीकार करने की पुष्टि की है.”
अब तक ये स्पष्ट नहीं है कि पैसे कौन दे रहा है. ल्विन कहते हैं कि ये सिर्फ़ कुछ लोगों को ही लुभाएगा.
वह कहते हैं, “मुझे नहीं लगता कि ज़्यादातर शरणार्थी वापस जाएंगे क्योंकि म्यांमार सरकार नागरिकता, बेरोकटोक आवागमन और मूल मानवाधिकार नहीं दे रही है.”