‘ग़दर 2’: सनी देओल, ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ और ‘देशप्रेम’

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DMT : नई दिल्ली : (09 अगस्त 2023) : –

“आपका पाकिस्तान ज़िंदाबाद है इसमें हमें कोई ऐतराज़ नहीं. लेकिन हमारा हिंदुस्तान ज़िंदाबाद था, ज़िंदाबाद है और ज़िदाबाद रहेगा. हिंदुस्तान ज़िंदाबाद. इस मुल्क़ (पाकिस्तान) से ज़्यादा मुसलमान हिंदुस्तान में हैं, उनके दिलों की धड़कन यही कहती है कि हिंदुस्तान ज़िंदाबाद. तो क्या वो पक्के मुसलमान नहीं?”

फ़िल्म ग़दर जब 2001 में रिलीज़ हुई थी तो थिएटर में सनी देओल के इस डायलॉग पर जमकर तालियाँ पड़ी थीं.

फ़िल्म में ये मंज़र 1947 के कुछ सालों बाद का है जब भारत दो टुकड़ों में बंट चुका है.

सरहद के दोनों पार नफ़रत है. इस सीन में एक हिंदुस्तानी सनी देओल (तारा सिंह) अपनी पाकिस्तानी पत्नी अमीषा पटेल (सकीना) को ढूँढ़ते हुए पाकिस्तान आते हैं जहाँ उनके सामने शर्त ये है कि अगर तारा सिंह को अपनी पत्नी चाहिए तो उसे अपना मज़हब और वतन छोड़ना होगा.

एंटी नेशनल या राष्ट्रवादी?

अब जब ‘ग़दर’ का पार्ट 2 रिलीज़ हो रहा है तो ज़हन में सवाल ये आता है कि जब तारा सिंह ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ का नारा लगाते हैं, तो क्या आज के माहौल में वो एंटी नेशनल कहलाते? या फिर जब सनी देओल हिंदुस्तान के ख़िलाफ़ एक भी लफ़्ज़ बर्दाशस्त करने से मना कर देते हैं तो वो राष्ट्रवादी कहलाते?

वरिष्ठ फ़िल्म क्रिटिक रामांचद्रन श्रीनिवासन कहते हैं, “आज कोई अपनी फ़िल्म में ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ कहेगा तो उसे ज़रूर एंटी नेशनल कहा जाएगा, ख़ासकर अगर एक संवाद को संदर्भ से बाहर निकालकर देखा जाएगा.”

इरा भास्कर जेएनयू में सिनेमा स्टडीज़ की प्रोफ़ेसर हैं. वो कहती हैं, “आज की तारीख़ में अगर फ़िल्म में ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ वाला डायलॉग होगा तो उसे एंटी नेशनल बोल दिया जाएगा. लेकिन ये सब इस बात पर भी निर्भर करता है आपने फ़िल्म किस तरह बनाई है.”

“‘पठान’ को ही लीजिए जहाँ हीरोइन को आईएसआई और पाकिस्तान से जोड़कर दिखाया गया है जो हिंसा के ख़िलाफ़ है.”

“ये फ़िल्म हिट हुई. मैसेज देना हो तो उसके कई तरीक़े निकाले जा सकते हैं. ‘ग़दर’ में जो डायॉलग थे, आज ट्रोल करने वाले उसे स्वीकार नहीं करेंगे.”

‘ग़दर 1’ और ‘ग़दर 2’ के बीच में 22 सालों का फ़ासला है. इन 22 सालों में भारत कितना बदला है, सिनेमा कितना बदला है?

सिनेमा और सिनेमा में ली जाने वाली क्रिएटिव छूट की कितनी गुंजाइश है? जब फ़िल्म ‘ग़दर’ 2001 में रिलीज़ हुई थी तो फ़िल्म के कुछ दृश्यों को लेकर भोपाल, अहमदाबाद जैसे शहरों में हिंसा हुई थी.

उस वक़्त बीबीसी से बातचीत में शबाना आज़मी ने कहा था, “ये फ़िल्म राष्ट्रवाद, मज़हब और पहचान के मुद्दों को लेकर भ्रमित करती है और बंटवारे के दर्द की जटलिता को दिखाने में नाकामयाब है. ये फ़िल्म उकसाने वाली है जो मुसलमानों को परायों की तरह पेश करती है.”

इरा भास्कर और रामाचंद्रन श्रीनिवासन दोनों की राय इस पर अलग-अलग है.

रामाचंद्रन श्रीनिवासन कहते हैं, “मैं इससे पूरी तरह सहमत नहीं हूँ. बंटवारे के वक़्त जो राजनीतिक माहौल था, जो भयावह हालात थे, लोगों के जज़्बात थे, उसी को लेखक शक्तिमान ने फ़िल्म ‘ग़दर’ में दिखाया.”

“जिस तरह से पार्टिशन हुआ उसमें पाकिस्तान को इस्लामिक देश और हिंदुस्तान को हिंदू देश मान लिया गया. हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच नफ़रत का दौर सा चल पड़ा था. दोनों तरफ़ लोगों ने घर और अपनों को खोया था जो फ़िल्म में दिखाने की कोशिश की गई है. मैं सहमत नहीं हूँ कि किसी का दर्द कम करके दिखाया गया.”

यश चोपड़ा ने कैसे दिखाया था बंटवारा

इरा भास्कर कहती हैं, “फ़िल्म ‘ग़दर’ में बैलेसिंग एक्ट करने की कोशिश ज़रूर की गई है, पहले हाफ़ में ये ज़्यादा मानवीय है लेकिन दूसरे हाफ़ में कई दिक्कतें हैं. पाकिस्तान को नेटेगिव तरीक़े से दिखाया गया है, ऐसा लगता है सारी हिंसा मुस्लिम समुदाय ने ही शुरू की. अंत में ये जिंगोइस्टिक (कट्टर राष्ट्रवादी) हो जाती है. ‘ग़दर’ ‘वीर ज़ारा’ जैसी नहीं है. ‘वीर ज़ारा’ में कितनी ख़ूबसूरती से भारत और पाकिस्तान से जुड़ी प्रेम कहानी दिखाई गई है.”

“दरअसल यश चोपड़ा ने भारत-पाकिस्तान और धर्म को लेकर कई संवेदनशील फ़िल्में बनाई हैं. ‘धूल का फूल’ और ‘धर्मपुत्र’.”

(धर्मपुत्र में एक ऐसे हिंदू युवक की कहानी दिखाई गई थी जो बंटवारे से पहले उन लोगों के साथ मिलकर काम करता है जो चाहते हैं कि मुसलमान भारत छोड़ चले जाएँ, बाद में पता चलता है कि हिंदू परिवार में पले बढ़े इस बच्चे का असल माँ बाप मुसलमान हैं.)

“सेंसर बोर्ड में धर्मपुत्र फ़िल्म को लेकर संशय था .जब बीआर चोपड़ा और यश चोपड़ा ने पंडित नेहरू को ये फ़िल्म दिखाई तो उन्होंने कहा था कि इसे हर कॉलेज में दिखाया जाना चाहिए. आज की सरकार में तो ऐसा नहीं होता है.”

आमना हैदर पाकिस्तान में समथिंग हॉटे नाम का यूट्यूब चैनल चलाती हैं और सिनेमा पर नज़र रखती हैं.

उनका कहना है, “राजनीतिक ध्रुवीकरण के कारण आज की तारीख़ में दोनों मुल्क़ों में फ़िल्मकारों के लिए भारत-पाक थीम पर फ़िल्म बनाना मुश्किल हो गया है. फ़िल्म तो क्या एक दूसरे के किरदार भी लेना मुश्किल है और लेते भी हैं तो अविश्वास और शक़ का माहौल बन जाता है.”

”हालांकि ये देखकर बहुत अच्छा लगता है कि कैसे भारत में पाकिस्तानी ड्रामों को इतना प्यार मिलता है या फिर कमली और जॉयलैंड जैसी फ़िल्में सराही जा रही हैं. उसी तरह पाकिस्तान में बॉलीवुड का बहुत क्रेज़ है और अभी रणवीर सिंह के फ़ैन्स इस जुगाड़ में लगे हैं कि कैसे रॉकी और रानी की प्रेम कहानी देखी जाए. (पाकिस्तान में हिंदी फ़िल्में अभी नहीं लग रहीं.)”

‘सिख, हिंदू ,मुसलमान चलती फिरती लाशें हैं…’

‘ग़दर’ की बात करें तो जहाँ इसकी आलोचना होती है लेकिन कई जगह ये फ़िल्म हिंसा का दर्द झेल रहे हर उस इंसान की तकलीफ़ बयां करते हुई भी दिखती है जिसकी ज़िंदगी बंटवारे से तार-तार हो गई.

मसलन बंटवारे के समय सकीना (अमीषा) अपने परिवार के साथ लाहौर जाने वाली ट्रेन में नहीं चढ़ पाती है और कुछ लोग उस पर हमला करते हैं. लेकिन डरी सहमी सकीना को देखकर वहाँ दंगाइयों की भीड़ में मौजूद तारा सिंह (सनी) के हाथ थम जाते हैं.

बाद में ख़ुदकुशी करने की कोशिश करती सकीना सनी देओल से सवाल करती है कि तुम भी तो मुसलमानों को मार रहे थे, तो मुझे क्यों छोड़ दिया?

पूरी फ़िल्म में जहाँ सनी (तारा सिंह) गरजते, दहाड़ते, हैंडपंप उखाड़ते पैसा वसूल लाइनें बोलते हुए नज़र आते हैं वहीं सक़ीना का सवाल तारा सिंह को सोचने पर मजबूर कर देता है.

वो कहते हैं, “ये (बटवारे) की कहानी सिर्फ़ आपकी और मेरी नहीं. हज़ारों सिख, हिंदू ,मुसलमानों की हैं जो चलती फिरती लाशें हैं. उनमें न कोई धड़कन है, न जीने की तमन्ना.”

वो भी दंगों में अपने सिख परिवार के क़त्ल के ग़म से जूझ रहा है.

अमीषा और सनी का टकराव

दो तरह के नैरेटिव के बीच झूलती इस फ़िल्म में शायद सकीना (अमीषा पटेल) ही एकमात्र किरदार है जो मज़हब के नाम पर हो रही हिंसा पर सवाल खड़े करने की हिम्मत रखती है.

वो पूछती हैं, “किसी को हिंदुस्तान चाहिए तो किसी को पाकिस्तान, इंसानों को तो इंसान की ज़रूरत ही नहीं. सियासी लोग फासले पैदा करें और अंजाम आवाम को भुगतना पड़े. ये हम कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे.”

मजहबी उन्माद और पागलपन के बीच फ़िल्म ‘ग़दर’ में एक पागल व्यक्ति का किरदार वली भी यहाँ याद आता है. वली बंटवारे के बाद पाकिस्तान का नागरिक बन जाता है लेकिन ज़हनी तौर पर वो गांधी वाले हिंदुस्तान में ही है.

इसलिए तो जब लाहौर एयरपोर्ट के पास गाजे बाजे के साथ एक जलसा निकल रहा होता है तो वो कहता है, “नेहरू जी आ रहे हैं क्या? अंग्रेज़ों वापस जाओ. ये मुल्क़ है, कोई खेत का टुकड़ा नहीं जो कभी भी बट जाएगा ?”

कारगिल युद्ध के बाद आई थी ‘ग़दर’

वली का ये किरादर मंटो की कहानी टोबा टेक सिंह के किरदार बिशन सिंह की याद दिलाता है.

अगर आप वाकिफ़ न हों तो बंटवारे के बाद बिशन सिंह को लाहौर के पागलखाने से हिंदुस्तानी पागलखाने में भेजने की हुक्म आता है लेकिन वो ये मानने से ही इनकार कर देता है कि अब उसका कस्बा टोबा टेक सिंह पाकिस्तान में है और वो किसी नए मुल्क़ भारत भेजा जा रहा है.

ग़दर के वली को भी लोग पागल समझते हैं लेकिन समझदारों की जमात में शायद वही है जो तर्क की बातें करता है.

फ़िल्म को लेकर आज भी राय बंटी हुई है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उस दौर में इसने कमाई के कई रिकॉर्ड तोड़ दिए थे.

फ़िल्म का परिपेक्ष्य देखें तो ‘ग़दर’ कारगिल युद्ध के दो साल बाद रिलीज़ हुई थी जब भारत-पाकिस्तान के बीच जंग हुई थी.

ऐसे माहौल में जब ‘ग़दर’ आई तो एक हिंदुस्तानी को सरहद पार सबसे टक्कर लेते देखने वालों का शायद दर्शक वर्ग पहले से तैयार था.

‘लगान’ और ‘ग़दर’ का देशप्रेम

फ़िल्म ‘ग़दर’ और ‘लगान’ एक ही दिन रिलीज़ हुई थी.

मुझे याद है भोपाल के वो दिन जब लोग ‘ग़दर’ के शो से निकलकर ‘लगान’ देखने जाते थे और ‘लगान’ देखने वाले ‘ग़दर’.

दोनों फ़िल्में देशभक्ति की भावना में पिरोयी हुई थीं लेकिन फिर भी बहुत अलग थीं.

‘लगान’ का देशप्रेम एकजुटता वाले छद्म इमोशन में डूबा हुआ था जहाँ हिंसा नहीं क्रिकेट को हथियार बनाया गया था.

जबकि ‘ग़दर’ का देशप्रेम लाउड और आक्रामक मोड का था जिसके केंद्र में प्रेम कहानी थी.

‘ग़दर’ की सफलता का राज़

ख़ामियों के बावजूद ‘ग़दर-1’ को लोगों ने खुल दिल स्वीकार किया था.

इरा भास्कर कहती हैं, “फ़िल्म को मिली ज़बरदस्त कामयाबी के कई कारण है. ‘ग़दर’ बटवारे की दास्तां है और उसमें बहुत ही प्यारी प्रेम कहानी दिखाई गई थी. हिंसा और नफ़रत के बीच दो अलग-अलग मज़हब के लोगों की नाज़ुक प्रेम कहानी बहुत मज़बूती से उभर कर सामने आई थी. बंटवारे की कई फ़िल्मों की तरह ये ट्रैजिक नहीं हैप्पी एंडिंग वाली फ़िल्म थी. इससे भी फ़िल्म को फ़ायदा हुआ कि ‘ग़दर’ में नेशनलिस्टिक संदेश था जहाँ भारत को पाकिस्तान पर हावी होते दिखाया गया है -इन सब कारणों ने फ़िल्म को हिट बनाने में मदद की.”

ढाई किलो के हाथ वाले सनी देओल का हाथ से हैंडपंप उखाड़ना, अकेले पाकिस्तानी सेना का सामना करते देखना और उसमें प्रेम कहानी और अति राष्ट्रवाद का तड़का, इस सबने ‘ग़दर’ को सफल बनाया. बाक़ी चीज़ों को जोड़ने का काम संगीत ने किया.

आनंद बक्शी के गीत और उत्तम सिंह का म्यूज़िक फिल्म के और हिट होने का कारण बन गए.

जब सांसद सनी ने कहा आख़िर हैं तो सब इसी मिट्टी से

फ़िल्म के संवादों पर थिएटर में सीटियाँ और तालियाँ जमकर बजती थी. मसलन जब तारा सिंह का साथी दरमयान सिंह पाकिस्तान जाकर तंज कसता है (विवेक शौक़) कि बेटा बेटा होता है और बाप बाप होता है.

दरमयान सिंह यूँ तो साइड रोल में हैं लेकिन ये नाम एक तरह से फ़िल्म ‘ग़दर’ की असल रूह को दर्शाता है- दो मुल्क़ों के बीच आए फ़ासलों के दरमयान फँसे लोगों की कहानी.

सवाल वही जो शुरू में था कि आज का तारा सिंह कैसा होता- मुल्क़ की इज़्ज़त के लिए कुछ भी कर सकने वाला, मज़हबी हिंसा में क़त्ल करने वाला, हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों की बात करने वाला, प्यार के लिए अपना मज़हब तक छोड़ने के लिए भी राज़ी होने वाला ? या इन सबके दरमियान कहीं.

‘ग़दर -2’ के रिलीज़ से पहले तारा सिंह यानी एक्टर और भाजपा सांसद सनी देओल के ताज़ा बयान की मानें तो “सारी बात इंसानियत की है. सरहद के दोनों ओर उतना ही प्यार है. ये सियासी खेल होता है जो नफ़रतें पैदा करता है. जनता नहीं चाहती कि लोग एक दूसरे के साथ झगड़ें या लड़ें. आख़िर हैं तो सब इसी मिट्टी से.”

फ़िल्म का तो पता नहीं लेकिन इस बयान के लिए अभी से उनकी ट्रोलिंग ज़रूर शुरू हो गई है.

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